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Monday, March 9, 2009

फागुन के तराने

फागुन, प्रकृति का यौवन, हिन्दू कैलेंडर का आखिरी महिना है. जो अपने आप में भावो और बड़े ढेर सारे रंगों को समेटे हुए है. जिसका अहसास भर ही लोगो को झुमने पर मजबूर कर देता है. दिलो से दिलो का मिलन, वो नज़र-ए-इनायत, अठखेलियाँ, आँखों में ख़ुशी का नूर, लबो का गुनगुनाना, पैरो की थिरकन, अपनेपन का अहसास, यही है फागुन, जो गुणों से साराबोर है. फागुन-एक दिचास्प पौराणिक कथा की याद दिलाता है. सत्य की असत्य पर विजय. जब युग हिरन्यकश्यप के तांडव से बेचैन हो उठा, उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को, अपनी बहन होलिका की गोद में जलने के लिए डाल दिया, तब प्रह्लाद तो आत्मबल के कारन बच गया, लेकिन्होलिका अपने अहम् के कारन जल मरी. तभी भगवान नरसिंह प्रगट होते है अरे अपने नख से हिरन्यकश्यप का वध कर देते है. तभी से होली मनाने लगे. इसको मानने के पीछे तार्किक कारन बड़ा मजेदार है- ठण्ड अपने संध्या की ओर होती है और गर्मी अपने उदय की ओर. ऐसे बदलाव के मौसम में बड़े लोग बीमार पड़ जाते है. किसी को वायरल तो किसी को जुकाम. इसलिए तो धुप में खड़े हो, सफेद कपडे पहन गुलाल से धमाल मचाते है. क्यूकी गुलाल- नीम, कुमकुम, हल्दी और बिल्व को मिलकर बने जाती है. इनके छुवन से रोग तो भागते ही है साथ में ख़ुशी भी मिलाती है. पुरे भारत में बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है. मथुरा के बरसाने की होली सबको लुभाती है. अब पंजाब के आनंदपुर साहिब और बंगाल के शान्तिनिकेतन की डोलजात्रा का भी जवाब नहीं है. भोजपुरी ने इसे फगवा नाम दिया तो आँध्रप्रदेश में इसे कामदहन भी कहा जाता है. ये त्यौहार उंच-नीच का भेद मिटने और भाईचारा का सन्देश सुनाता है. इसमे सफेद कपडे पहनने का अपना ही महत्व है, जब गुलाल छिटककर लोगो के कपडो पर आ सजती है, तो रंगों की रौनक देखते बनती है. मन मदमस्त हो उठता है. सारे गिले-शिकवे भूलकर जी खुश हो उठने को कहता है. इस दिन जीभ और पेट भी गाने गाते है, क्यूंकि भांग, गुजिया, गुलाबजामुन, दहीबडे तमाम पकवान बनाये जाते है. लोग खुन्नस को भूलकर दिल खोलकर मिलते है. तभी तो कहते है बुरा न मानो होली है. होली के ठीक पॉँच दिन बाद जब चाँद पूरे शबाब पर होता है तब रंगपंचमी मनाकर इसको विदाई देते है. हमेशा की तरह अगले फागुन का बेसब्री से इंतज़ार करते है.

नेहा गुप्ता

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