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Thursday, February 25, 2010

सचिन तुस्सी ग्रेट हो......


"जब सचिन बेटिंग कर रहे हों, तब आप अपने सारे गुनाह कबूलकर लीजिये, क्योंकि तब भगवान भी उनकी बेटिंग देखने में मस्त रहते हैं " ये स्लोगन आस्ट्रेलिया से आया है। सचिन के अभिनन्दन में इस तरह की अतिश्योक्ति परक बातें आज से नहीं कही जा रही। इनका सिलसिला बहुत पुराना है, ये बातें दरअसल अपनी भावनाओं के सैलाब कों व्यक्त करने का एक जरिया है। लेकिन फिर भी हम हमारी भावनाएं उस ढंग से ज़ाहिर नहीं कर पाते जिस ढंग से उन्हें महसूस करते हैं। कई बार खुद पे गुमान होता है की हम उस काल में पैदा हुए जब सचिन खेल रहे हैं, आने वाली पीढ़ियों कों हम बड़े चटकारे लेकर सचिन की दास्ताँ सुनायेंगे।


रिकार्डों के बादशाह सचिन ने जब अफ्रीकन टीम के खिलाफ वनडे क्रिकेट का पहला दोहरा शतक लगाया तो उनके चाहने वालों ने एक बार फिर क्रिकेट के इस भगवान को सर झुका के प्रणाम किया। आस्ट्रेलिया के खिलाफ जो कसररह गयी थी उसे ३ महीने के अन्दर ही सचिन ने पूरा किया। इस मेच का नज़ारा कुछ ऐसा था कि सड़के वीरान हो गयी थी, बाज़ार सुनसान हो गए थे, सारी निगाहे दुनिया के सारे नज़ारे छोड़कर सिर्फ इस क्रिकेट के बादशाह को इतिहास रचते देख रही थी।


ऐसा नहीं कि इस रिकोर्ड को कोई छू नहीं पायेगा, ऐसा नहीं क्रिकेट की कोई पारी इससे बेहतर नहीं, सचिन की महानता को महज़ इस पारी से नहीं तौला जायेगा। ये पारी तो उनके ताज का महज़ एक नगीना है, उनके ताज का निर्माण तो उनके २० साल लम्बे करियर, क्रिकेट के प्रति समर्पण, प्रदर्शन में निरंतरता से हुआ है। ४४२ एकदिवसीय और लगभग १५० टेस्ट खेलने वाले इस खिलाड़ी के करियर में इतनी महान परियां हैं कि उनमें से सर्व्श्रेस्थ पारी को छाटना बहुत मुश्किल है। लेकिन उनका दोहरा शतक इस मायने में सबसे खास है क्योंकि इसके आने में वनडे क्रिकेट को लगभग ३९ साल और ३००० मैचों का इंतजार करना पड़ा।


सचिन देश के उन सम्मानीय लोगों में से हैं जिनका देश कि हर छोटी-बढ़ी शक्सियत सम्मान करती है। इसका कारण ये नहीं कि वे एक अच्छे खिलाड़ी हैं इसका कारण है कि वे एक अच्छे इन्सान है। इन्सान को महान उसकी प्रतिभा बनाती है मगर उसका चरित्र उसे महान बनाये रखता है। सचिन के पास चरित्र कि पूंजी भी है। वे संयमित हैं, मर्यादित हैं और विनम्र है। यही कारण है कि अमिताभ बच्चन, लता मंगेशकर, आमिर खान से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी, अब्दुल कलाम तक उनका सम्मान करते हैं। युवराज सिंह अपने मोबाइल में सचिन का मोबाइल नम्बर god के नाम से सेव करते हैं।


सचिन आपकी बल्लेबाज़ी देश के हर इन्सान को एक कर देती है,वो अपना हर दर्द भूलकर बस आपके खेल के जश्न में मस्त हो जाता हैं। सचिन कि इस महानता के बावजूद उन पर कई बार ऊँगली उठी है और हर बार उन्होंने इसका जवाब अपने मुंह से देने के बजाय अपने खेल से दिया है।


अंत में शारजाह में हुए एक मेच में पोस्टर पे लिखा स्लोगन याद करना चाहूँगा "जब मैं मरूँगा तब भगवान को देखूंगा तब तक मैं सचिन को खेलते देखूंगा"। सचिन तुस्सी ग्रेट हो।

Tuesday, February 23, 2010

कोरे कागज़ की अभिव्यक्ति....

कोरे कागज़
पर कुछ लिख देना....
कह देना भावों को
क्या सम्भव है हमेशा
पूरा कर पाना
शब्दों के अभावों को

कुछ कहा जाए
तो भी
हमेशा
कुछ अनकहा रह ही जाएगा
पर कई बार
जो लिखा नहीं गया
वो भी कुछ कह जाएगा

शब्दों के अर्थ
हमेशा शब्दों में नहीं
उनके मध्य भी होते हैं
कई बार चेहरे मुस्कुराते
पर ह्रदय रोते हैं
कई बार सुख दिखता नहीं
दुख
केवल महसूस किया जाता है
दरअसल भीतर के शोर का
बाहर के सन्नाटे से
गहरा नाता है....

कभी कभी सुख
अधिकता में बयान नहीं हो पाता
और दुख जब ज़्यादा हो
तो कहा नहीं जाता

प्रेम की पहली अनुभूति
शब्दों से परे है
और दुनिया के नरसंहारों से
शब्द भी डरे हैं
सुबह ताज़ा खिले
फूल की खुशबू
स्कूल जाते मासूमों की
मुस्कुराहट का जादू

चायवाले छोटू की चंद तस्वीरें
घर की दीवारों पर खिंची
आड़ी तिरछी लकीरें
मां के हाथ से
खाना दाल-भात
भाषा-प्रांत के लिए
सड़कों पर उत्पात

सड़कों पर बहते खून को
पोंछ पाने में नाकाम रहना
सब कुछ देख कर भी
चुपचाप....
कुछ न कहना
और भी तमाम बातें
असंख्य भाव
कई चीज़ें
हादसे...घटनाएं...
हर्ष....विषाद...
जब हों भाषाओं से अलहदा
अभिव्यक्ति से परे
शब्दातीत....

तब कुछ न कहना
सर्वश्रेष्ठ उक्ति है
अक्सर कागज़ कोरे छोड़ देना ही
असल अभिव्यक्ति है.....

मयंक सक्सेना
mailmayanksaxena@gmail.com

Wednesday, February 17, 2010

आस्था , आइ ए एस और अरुण








अभिषेक पाण्डेय

ये तस्वीर मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के सबसे पॉश इलाके चार इमली में स्थित एक मंदिर से ली गयी हैं . इस इलाके में अरविन्द जोशी और टीनू जोशी जैसे आई.ए.एस. रहते हैं जिनके बेड से इतने रूपये मिलते हैं कि उसे जब २० लोग नहीं गिन पाते हैं तब नोट गिनने की मशीन बुलाई जाती है . इस मंदिर के महंत जी को पहले से अनुमान था कि आई.ए.एस. लोग अच्छा खासा पैसा कई स्रोतों से इकठ्ठा करते हैं और उन्हें उम्मीद थी कि शायद प्राचीन पंडितों के प्रवचन का असर इन लोगो पर पड़े और वे कुछ पैसे दान करे. कमाते ज्यादा हैं तो दान भी ज्यादा करेंगे इसी तर्क को ध्यान में रखते हुए महंत जी ने सोचा कि यदि कोई ज्यादा रूपये दान करने कि स्थिति में होता है और दान पात्र छोटा पड़ता है तो वो सीधे महंत जी से दूरभाष पर संपर्क कर दान कर सकता है।
धर्म , आस्था, कांड, मान्यता और परम्परा में तर्क की सुई के नोक कितनी भी गूंजाइस नहीं होती है. भारतीयों को सबसे ज्यादा इन्ही के नाम पर नुक्सान पहुचाया गया . खैर इस मदिर में विश्व की सबसे बड़ी हस्तलिखित राम चरित मानस है ऐसा लेखक का दावा है । इसे लिखा है एक पत्रकार ने जिनका नाम है अरुण खोबरे . अरुण माखनलाल वि . वि . के छात्र रह चुके हैं । उन्होंने हनुमान जी से स्वप्न में प्रेरित होकर इतना बड़ा राम चरित मानस मात्र ५ महीनो में लिखा है । इसे कुल 6333 पेज में लिखा गया है ।

Tuesday, February 16, 2010

दुई घाटन के बीच....

तीन दिनों के लिए संस्थान की ओर से महाकुम्भ की कवरेज के लिए हरिद्वार में था....दिन भर खबरें तलाशने के बाद जब सब सो रहे होते थे....मैं कुम्भ के तिलिस्म....देश की संस्कृति और जनजीवन के रहस्य टटोलने....या शायद खुद का भी वजूद तलाशने हरिद्वार की गलियों...घाटों....और नागाओं के साथ साथ आम आदमी के शिविरों को घूमा करता था.....ऐसे में ही एक दिन दो घाटों के बीच दोनो ओर देखते हुए कुछ सवाल उठे जो कविता बन गए......


देवापगा की

इस सतत प्रवाहमयी

प्रबल धारा के साथ

बह रहे हैं

पुष्प

बह रहे हैं

चमक बिखेरते दीप

स्नान कर

पापों से निवृत्त होने का

भ्रम पालते लोग

अगले घाट पर

उसी धारा में

बह रहे हैं

शव

प्रवाहित हैं अस्थियां

तट पर उठ रही हैं

चिताओं से ज्वाला

दोनों घाटों के बीच

रात के तीसरे पहर

मैं

बैठा हूं

सोचता हूं

क्या है आखिर

मार्ग निर्वाण का?

पहले घाट पर

जीवन के उत्सव में...

दूसरे घाट पर

मृत्यु के नीरव में....?

या फिर

इन दोनों के बीच

कहीं

जहां मैं बैठा हूं.....

मयंक सक्सेना -12-02-2010, हरिद्वार

Friday, February 12, 2010

ज्यादा उत्साहित ना हों बाबा जी

बाबा रामदेव की पहल क्रांतिकारी है। वे निजाम बदलने की बात कहते हैं। एक व्यवस्था को फर्क नहीं पड़ता कि कोई बाबा आस पास कहीं कुछ शोर मचा रहा है। बल्कि वो आंख मूंद कर सोये रहना चाहते हैं। क्योंकि वो जानते हैं देश में धामिर्क संगठनों के किसी आंदोलन को महज सांप्रदायकता करार देकर कभी भी कुचला जा सकता है। भारत बड़े संकट के दौर से गुजर रहा है। अभी सबको हरा हरा नजर आ रही है। लेकिन कुछ ही समय बाद इनको सब समझ आ जाएगी आखिर संकट है कितना बड़ा। बाबा ने रायपुर में जितना खुल कर बोला शायद किसी बड़े शहर में बोला होता तो कोई ना कोई अब तक भुन गया होता। रामदेव बाबा कहते हैं, संसद में सब चोर बैठे हैं। ये सीधे तौर से गाली है। ये ना केवल गाली है बल्कि सीधी सी धमकी है कि बाबा अपनी सेना तैयार करने में लगा है जल्दी करो अपना बोरिया बिस्तर बांध लो संसद अब उन्ही की कर्मस्थली रहेगी जो ईमानदार और देश के बारे में सोचने वाले होंगे। यह महापुरुषों के नाम पर पहचानी जानी वाली भारतभूमि ही केवल नहीं बल्कि दुनिया के सबसे समृद्ध देश के रूप में पहचान बनाने की ओर अग्रसर है। चाहे जो भी हो बाबा का इरादा नेक है। जो खराब आचरण करे मां बेटी को छेड़े उसे शूली चढ़ा दो बाबा के भीतर मैंने एक ज्वाला महसूस की उनके अंदर पनप रहे उस ब्रम्हाण्ड को भी देखा। बाबा कल के चमकते सितारे हैं। लेकिन इन्ही सबके साथ ये भी उतना ही सत्य है कि हालात बाबा के खिलाफ किसी भी वक्त जा सकते हैं। जरा सा उत्साह और पैनापन कभी भी बाबा को व्यवस्था के ऊंटपटांग नियमों में फांस सकता है। हालाकि बाबा के पीछे जनबल और योग शक्ति है ये वही ताकत है जो शंकर के पास है। सदियों में एक ब्रम्हचारी और योगी पैदा होता है। यूं तो भारत भूमि में हजारों योगी और ब्रम्हचारी पड़े हैं। लेकिन जनता के बीच जाकर काम करने वाले हनुमान के बाद विवेकानंद ही पैदा हुए और अब पतंजली के बाद बाबा रामदेव। आजका ज़माना नहीं है किसी पर जल्दी विश्वास कर लेने का ,अब जो भी ज्यादा एक्टिविज्म दिखाता है वो उतने जल्दी जनता की नजरों में खद्दड़ बनता है। तो बाबा का काम और लक्ष्य दोनों ही पैने और धारदार हैं। लेकिन अभी लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि करना क्या है। सबसे कठिन काम सदस्य बनाना अप्रेल से बाबा का स्वाभिमान मंच सदस्यता अभियान में तेजी लाएगा हर ओर बाबा के भक्त दौड़ेंगे। लेकिन इस दौड़धूप में बाबा को ख्याल रखना होगा कहीं कोई एक भी भक्त यहां गलत गतिविधियों में पाया गया तो मीडिया का टारगेट बन सकते हैं। बाबा में मैने जो गुण पाये वो हैं, नेतृत्व क्षमता,अहिंसक सोच,सबको लेकर चलने की आदत, और भयानक वाणी, बाबा को समझना होगा ज्यादा उत्साह ठीक नहीं है,सच तो बहुत कुछ है लेकिन कहने के लिए थोड़ा ध्यान रखना होगा। जय हो ऐसे अच्छे लक्ष्य को लकेर चलने वाले बाबा और उनके सहयोगियों की।।।।।।।।।।।।

Thursday, February 11, 2010

अभिव्यक्ति पर पड़ी हथकड़ी


(बाए इनसेट में सीमा आज़ाद )
1948 में u n o ने मानवाधिकारों की सार्वभोमिक घोषणा की थी -
"जिसके अंतर्गत हर व्यक्ति को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है । बिना केसी बाधा के विचार निर्मित करना और उसे व्यक्त करना इस अधिकार में सम्मिलित है देश की सीमाओं की चिंता किये बगैर किसी भी माध्यम से सूचनाये एवं विचार व्यक्त करने प्राप्त करने और उन्हें लोगो तक पहुचाने का अधिकार भी इसमें शामिल है "भारतीय सविधान के दृष्टिकोण से १९ अ में सूचना देने और प्राप्त करने का अधिकार है ,
और इन बातो के लिखने का यंहा यह मतलब है क्योंकि लगातार उत्तर प्रदेश में मायावती के फासिस्ट राज ने लोकतंत्र और अभिव्यक्ति का गला घोटा है जिससे अभिव्यक्ति पर एक बड़े प्रहार के रूप में देखा जाना चाहिए यदि हम सभी पत्रकार या समाज में एक सामजिक प्राणी की हैसियत रखने वाले इसे नज़र अंदाज करते है या चुप रहते है तो तय है संविधान का गला घोटने में हम भी मायावती सरीखे एक फासिस्ट राज के समर्थक के आलावा कुछ नहीं ......
हाल ही में दस्तक पत्रिका की सम्पादक सीमा आजाद जो इलाहाबाद में काफी समय से अपने विचारों को संप्रेषित करती रही है तथा एक सामजिक कार्यकर्ता के रूप में भी उनकी पहचान होती रही है को नक्सली बताकर पुलिस द्वारा हथकड़ी पहनाकर पकड़ा गया जिनमे उनके पति को भी माओवादी बताया गया लेकिन क्या पुलिस के यह कहने से की अमुक व्यक्ति नक्सली है या माओवादी है हमे मान लेना चाहिए आखिर पुलिस खुद से न्याय करके मुठभेड़ जैसे घटनाओं में न जाने कितनो निर्दोष को मार कर नक्सल साबित कर देती है और हम ज़रा भे नहीं सोचते वह था क्या ? जो विचार प्रकाशित हो रहे हो जिनमे लोगो की प्रतिक्रियाए मिल रही हो व् देश की उन कमियों को जिनसे देश भर में विद्रोह का स्वर मुखरित हो रहा हो क्या उन्हें लोगो तक पहुचाना देश द्रोह है और व्ही विचार हमारे वोटो से कुर्सी हासिल करने वालो को सचेत कर रहे हो तो क्या वह देश विरोधी है ?और क्या यही देश द्रोह साबित करने का एक वाजिब पैमाना है की अमुक व्यक्ति ने इसे आम व्यक्तियों तक पंहुचा दिया , हमारे साथी विजय ने कल एक महतवपूर्ण चीज बतायी जो वास्तव में आज पत्रकारिता से गायब हो रही है हम मात्र पुलिस के कहने से किसी भी व्यक्ति को नक्सल माओवादी आतंकवादी कह देते है और अनजाने में ही हम सरकारी प्रवक्ता बन जाते हैं हम ज़रा भी ये जहमत नहीं उठाते की उसमे कथित या पुलिस के अनुसार लिखने या कहने का जहमत उठाये, फिलहाल हमे एक होना पड़ेगा और सक्रिय भी ताकि देश भर में घट रही पुलिस तानाशाही को रोका जा सके सीमा आजाद को हथकड़ी पहनाना वास्तव में अभियक्ति पर हथकड़ी है और आप सभी साथियो से अपील है की अपना विरोध दर्ज करे .......... JOURNALIST UNION FOR CIVIL SOCIETY

Sunday, February 7, 2010

राजपक्षे का राज...................


श्री लंका में एक बार फिर राजपक्षे की जीत का डंका बज गया ..... दूसरी बार उन्होंने लंका की कमान संभाल ली है ..... लेकिन विपक्षी पार्टी के प्रत्याशी फोंसेका उनकी जीत को नही पचा पा रहे है... जीत के बाद भी वह इस बात को उठा रहे है यह जीत नही, धांधली हुई है... श्री लंका के इस आम चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधलियो के चलते राजपक्षे की जीत की राह आसान हुई है.....ऐसा कहना है फोंसेका का॥मतों के लिहाज से बात करे तो यह राजपक्षे ५८ और फोंसेका को ४० परसेंट मत प्राप्त हुए ..... जो यह बता रहे है , आज भी राजपक्षे की लोकप्रियता का ग्राफ कम नही हुआ है.... राजपक्षे २००५ में लंका के रास्ट्रपति निर्वाचित हुए थे....राष्ट्रपति के रूप में उनका कार्यकाल अभी २ साल से ज्यादा का बचा हुआ था.....पर उन्होंने समय से पहले चुनाव करवा लिए....... संभवतया इसका एक कारन अभी वहां पर लिट्टे के पतन की पट कथा रही ..... इसके नायक बन्ने की होड़ राजपक्षे और फोंसेका में लगी रही..... दरअसल वहां पर राजपक्षे और फोंसेका के बीच सम्बन्ध पिछले कुछ समय से अच्छे नही चल रहे थे ..... प्रभाकरन की मौत के बाद से संबंधो में तल्खी कुछ ज्यादा ही हो गयी... सेना ने जैसे ही लिट्टे के छापामार अभियान में सफलता प्राप्त कर ली वैसे ही राष्ट्रपति राजपक्षे ने फोंसेका की सेना अध्यक्ष पद से विदाई कर दी ....... उनके लिए चीफ ऑफ़ डिफेन्स स्टाफ नामक नया पद सृजित कर दिया गया... यह मसला फोंसेका के लिए प्रतिष्टा का मसला बन गया... क्युकि उन्ही के सेनापति रहते सेना ने तमिल चीतों के विरुद्ध संघर्ष तेज किया जिसके चलते श्री लंका से तमिल चीतों को मुह की खानी पड़ी ...पर वहां के रास्ट्रपति राजपक्षे इस जीत के बाद खुद को नायक मानने पर तुले थे ....शायद इसी कारन उन्होंने अपने कार्यकाल के पूरा होने से पहले ही चुनाव मैदान में आने का मन बना लिया............. अपने को वाजिब सम्मान न मिले पाने के चलते फोंसेका ने भी रास्ट्रपति पद के प्रत्याशी के रूप में अपने को उतार लिया...... राज्य की तमिल नेशनल अलायिंस समेत कई पार्टियों ने भी फोंसेका को चुनावो के दौरान अपना समर्थन दे दिया......परन्तु फोंसेका जीत का स्वाद नही चख पाए......अब अपनी हार के बाद धांधली पर जोर दे रहे है.....
श्री लंका लम्बे समय से गृह युद्ध की आग में जल रहा था..... १९४८ में श्री लंका की आज़ादी के बाद से ही वहां पर सिहली और तमिलो के बीच रिश्तो में तनातनी रही है.... वहां की २ करोड़ की आबादी में १२ प्रतिशत से अधिक तमिल है ... तमिलो को उतने अधिकार नही दिए गए जिसके चलते उनमे मायूसी साफ़ देखी जा सकती है ..... इसको महसूस करने की कोशिश फोंसेका के साथ राजपक्षे ने भी इस चुनाव बखूबी की ..... सिहली के साथ दोनों के द्वारा तमिलो का ट्रम्प कार्ड भी फैका गया.....परन्तु सफलता राजपक्षे के हाथ लगी....... इस जीत के बाद सभी को इस बात की आशा है श्री लंका में सब कुछ ठीक हो जायेगा.....लेकिन कई लोगो का मानना है राजपक्षे की असली परीक्षा अब शुरू होगी ... देखना होगा ऐसे हालातो में वह लंका के विकास के लिए किस ढंग से अपना खाका बुनते है?
वर्तमान में श्री लंका की अर्थव्यवस्था उतर चुकी है... रोजगार के नए अवसर नही मिले पा रहे है.... महंगाई सातवे आसमान पर है.....आम आदमी का कोई पुरसा हाल नही है....मानवाधिकारों का हनन होता रहा है... इन सबके चलते वहां पर रास्ट्रपति के सामने चुनोतियो का बड़ा पहाड़ खड़ा है..... सबसे मुख्य बात तमिलो को लेकर है... उनको देश की मुख्य धारा में लाने के लिए उनको काफी मशक्कत करनी होगी..... २६ साल के इस संघर्ष में सबसे ज्यादा उनके अधिकारों का हनन हुआ.... अब कोशिश होनी चाहिए सभी समुदायों के बीच कोई बैर नही रहे..... वैसे भारत की बात करे तो तमिलो का मुद्दा सीधे हमें भी प्रभावित करता है.......... श्री लंका में होने वाली कोई भी घटना से तमिलनाडू की राजनीती प्रभावित होती है...... इन सबको ध्यान रखते हुए कोशिश होनी चाहिए की तमिलो के अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए..... सिहली बिरादरी से आने वाले राजपक्षे भी अब शायद इस बात को बखूबी महसूस करेंगे की अब समय आ गया है जब तमिल हितों को वह प्राथमिकता के साथ मिल बैठकर सुलझाएंगे....... राजपक्षे विश्थापित तमिलो के पुनर्वास की बात तो अंतराष्ट्रीय मंचो पर दोहराते रहे है लेकिन यह इस बात को भी भूल जाते है कि आज भी तमिल श्री लंका की सेना और सिहली बिरादरी के निशाने पर है ...यह घटना भारत के लिए भी चिंताजनक है ... अगर तमिलो का मुद्दा अभी भी नही सुलझता है तो इससे भारत की परेशानिया तेज हो सकती है....
भारत की जहाँ तक बात है तो श्री लंका में चीन की बदती उपस्थिति निश्चित ही चिंताजनक है... ड्रेगन ने लंका को लिट्टे के विरुद्ध संघर्ष में हथियार और सहायता प्रदान की .... यही नही भारत के धुर विरोधी पाकिस्तान ने भी वहां कि सेना को सटीक बमबारी के प्रशिक्षण के लिए साजो सामान मुहैया करवाया.... यह सब देखते हुए भारत की मजबूरी भी लंका को मदद करने की बन गयी.... लेकिन अब राजपक्षे के आने से भारत को इस बात का ध्यान रखना होगा कैसे पाकिस्तान और चीन का दखल लंका में कम किया जाए॥? वैसे भारत और श्री लंका के बीच शुरू से मधुर सम्बन्ध रहे है ... ड्रेगन और पाकिस्तान के बड़ते दखल को हमारे नीति नियंता नही पचा पा रहे है ....पड़ोस में इनकी उपस्थिति से भारत की चिंताए कम होने का नाम नही ले रही है......शायद तभी राजपक्षे को हमारी प्रतिभा ताई के द्वारा सबसे पहले बधाई भिजवाई गयी ....
राजपक्षे के मुख्य विपक्षी उम्मीदवार फोंसेका हार के बाद विचलित है .... हार के बाद इस बात की सम्भावना बन गयी है नयी सरकार फोंसेका की देश से विदाई करने के मूड में है...उनके समर्थको ने इस बात के आरोप लगाने चुनाव परिणामो के बाद ही लगाने शुरू कर दिए थे कि फोंसेका की जान को आने वाले दिनों में बड़ा खतरा है...एक होटल के बाहर उनको कुछ सेनिको के द्वारा चुनाव परिणामो के बाद घेरा जा चूका है जो इस सम्भावना को पुख्ता साबित कर देती है....खुद सेना के प्रवक्ता नानायक्करा ने इस बात को स्वीकार किया है.. ऐसे में देखने वाली बात होगी अब फोंसेका का क्या होता है ?
खैर जो भी हो , इन परिणामो ने एक बार फिर राजपक्षे की लोकप्रयता का ग्राफ ऊँचा किया है॥ १८ लाख से अधिक वोटो के साथ वह जीत की लहर में सवार हुए है .... श्री लंका की गाडी को वह वापस ट्रेक पर लायेंगे ऐसे उम्मीद की जा सकती है ..... लंका में सुख शांति लाने की दिशा में भी वह मजबूती से आगे बढेंगे ऐसी उम्मीद लोग कर रहे है॥ अधिकाधिक रोजगार के अवसरों को बडाने की भी बड़ी चुनोती उनके सामने इस समय है... लम्बे समय से लंका में चली अशांति के चलते वहां पर निवेशको ने भी कोई रूचि नही दिखायी है ॥ इसको ध्यान में रखते हुए राजपक्षे को यह बात भी महसूस करने की जरूरत है कैसे निवेशको को लंका में आकर्षित किया जा सके..... यह सब श्री लंका की ख़राब अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए टोनिक का काम कर सकता है..... अब देखना होगा राजपक्षे अपने इस दुसरे कार्यकाल में अपने कदम कैसे बदाते है?


........... हर्षवर्धन पाण्डे......

अखबार हैं या मस्तराम की किताबें

महोदय, बड़े ही खेद के साथ ये निवेदन करना चाहता हूँ। मुझे नहीं पता की व्यस्क होने के बावजूद अपने बड़ों के सामने ऐसी बातें मुझे लिखनी भी चाहिए या नहीं। जिस पत्रकारिता को मिशन का नाम देते लोगों और बड़ों को सुना करता था। उसी को कुछ दिनों से जब समझने की कोशिश करता हूँ तो देखता हूँ की शायद प्रिंट की नैतिकता जो अब तक हिम्मत की पत्रकारिता करने का दंभ भरते थी। मीडिया वालों को मुंबई कांड की लाइव रिपोर्टिंग पर गरियाती थी। उनको कहती थी की आप भूत प्रेत चुड़ैल और नाग नागिन बेचते हो। आप रावण की मम्मी दिखाते हो अब शायद अपना अस्तित्व बचने की दौड़ में है। अब अखबार का मकसद खबर नहीं पोर्न सामग्री बेचना है। मैं तो कम से कम रोज़ लोगिन करता हूँ और देखता हूँ की आज फलने अखबार की साईट में कौन सी पोर्न सामग्री है। और तो और अब संपादक जी भी अपनी पसंद की सामग्री देते हैं की हमारी पसंद ये है। देखो तो देखो ऑफिस में न देख पाओ तो अपनी मेल पता बताओ पैक करवा कर के ले जाओ। आज नव भारत टेम्स के वेब साईट पर लोग इन करके गए तो देखा की संपादक जी भी अपनी पसंद के अश्लील चित्र डाल रहे हैं ऊपर लिखा है बकायदे संपादक की पसंद। भई हम तो कर्मचारी बनेंगे हम संपादक जी की पसंद पर ऊँगली कर दें तो अन्याय है। हमने तुरंत पैक करवा लिया है। नेट कैफे में जाकर पढेंगे। घर में तो शायद माताओं और बहनों के बीच में अखबार नहीं पढ़ सकते हैं ना। मामला संपादक जी की पसंद का है। हाँ अभी तक सुनता था क्योंकि प्रिंट कहता था की तुम टी आर पी पर भागते हो हम सुनते थे अब नहीं सुनूंगा क्योंकि तुमभी तो क्लिक पर मरते हो। link:http://www.photogallery.navbharattimes.indiatimes.com photo name : dare bare

आशु प्रज्ञा मिश्र
माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल

Friday, February 5, 2010

डर है अपने आप से....और शायद घृणा भी.....

पत्रकार छातियां पीट कर विधवा विलाप कर रहे हैं....नेता सोच रहे हैं कि चलो इसी बहाने अपनी अपनी सियासत सध जाएगी....पब्लिक कहते हैं कि सब जानती है....फिर खामोश क्यों है...या शायद इसी लिए खामोश है....??? और ज़ाहिर है इस सब के बीच सबसे ज़्यादा अगर कोई खुश है तो बाल ठाकरे...उनके लल्ला...और उनके भतीजे राज ठाकरे....अचानक से पैदा हुए इस अति मूर्खतापूर्ण विवाद ने ठोकरें खा रहे बाल और उद्धव ठाकरे को फिर से चर्चा में ला दिया है....बाल ठाकरे जिनके सारे बाल अब सफेद से भी ज़्यादा सफेद रंग के हो गए हैं....कब्र में पैर लटकाए अपने उद्दंड या उनकी खुद की ही भाषा में कहें तो लफंगे कार्यकर्ताओं को कोने में ले जाकर समझा रहे होंगे....कि "ये मौका चूक गए तो फिर दूसरा नहीं मिलेगा...." भतीजे को भी लगने लगा कि मौका अच्छा है बीच में घुसो और बहती गंगा में हाथ धो लो....
अब असल मसला क्या है इस बारे में कोई भी दावा नहीं कर सकता है....पर कुल मिलाकर आम आदमी के अलावा सबके लिए सहालग का वक्त है....(सहालग-शादी के मुहूर्तों का वक्त) और ज़ाहिर है इस सहालग में आम आदमी की हालत लड़की के मां बाप वाली है....समधी खुश है...दुल्हन खुश है....हलवाई और टेंट वाला खुश है....सबके अपने अपने मतलब सध रहे हैं....बाकी कोई चिंता में है तो वो लड़की के मां बाप.....सहालग कैसे कह सकते हैं इस सवाल का जवाब भी समझिए....बाल और उनके लाल खुश हैं कि चलो एक आखिरी मौका मिला....राज इसलिए खुश हैं कि मुद्दा कोई उठाए श्रेय वो ले जाएंगे....बाकी दल इसलिए खुश हैं कि उत्तर भारतीय इंसान हों न हों....वोट बैंक तो हैं ही....सो बयान भर ही तो देना है....पत्रकार खुश हैं कि लम्बे वक्त बाद एक लम्बा चलने वाला मुद्दा हाथ लगा है....टीआरपी भी देगा....सर्कुलेशन भी बढ़ाएगा....और इसी बहाने फिल्मी गॉसिप और सेक्स स्कैंडलों के नॉन न्यूज़ आइटम से कुछ दिन के लिए मुक्ति मिलेगी.....मतलब कि अर्थ भी और धर्म भी....विश्लेषक और बुद्धिजीवी भी बन ठन कर....चेहरे पर चिंता और गंभीरता ओढ़ कर टीवी चैनलों पर काजू टूंगते हुए इस बेहद गंभीर मुद्दे को स्टूडियों में बैठे बैठे ही हल करने की कोशिश कर रहे हैं.....
महाराष्ट्र के बाहर रह रहे उत्तर भारतीय टीवी देख कर दोनो सेनाओं....(शिव और महाराष्ट्र नवनिर्माण) को गरिया रहे हैं..... महाराष्ट्र के बाहर उत्तर भारत में रह रहे मराठी एक अनजाने भय से ग्रस्त हो रहे हैं....और महाराष्ट्र में रह रहे उत्तर भारतीय या तो पिट रहे हैं या पिटाई का इंतज़ार कर रहे हैं.....किंग शाहरुख फिल्म के रिलीज़ के पहले चिल्ला रहे हैं माई नेम इज़ खान....(भले ही बाद में ठाकरे के घर डिनर कर आएंगे....) बिग बी ठाकरे के फैन हो चले हैं....और युवराज राहुल मुंबई जा रहे हैं....किंग खान को सरकार ने सुरक्षा देने की घोषणा कर दी है....लल्ला राहुल को सुरक्षा सरकार को झक मारकर देनी पड़ेगी....बिग बी सेना की शरण में है सो उनकी सुरक्षा ठाकरे के गुंडे कर लेंगे....लेकिन आम आदमी.....उसकी सुरक्षा कौन करेगा....अब यार सबको तो खुश नहीं रखा जा सकता है न....कोई बात नहीं अगली बार आम आदमी की सुरक्षा के लिए सोच लेंगे.....
बाल ठाकरे तुम्हारी हैसियत तुम्हारी भाषा से दिखती है....उद्धव तुम पढ़े लिखे गंवार हो...राज ठाकरे राजनीति के लिए तुम कुछ भी करोगे....लेकिन तुम तीनों से डर नहीं है....डर है अपने आप से....अपने जैसे उन तमाम आम लोगों से सबकुछ देख कर भी कुछ नहीं करना चाहते हैं.....मैंने ब्लॉग लिख कर अपनी भड़ास निकाल ली....और आप टीवी देख कर इन कुत्सित....नीच....मूर्ख कट्टरपंथियों को गरिया कर.....हम अपने वोट से सरकार बदल कर भी माहौल नहीं बदल पाते हैं....हम पड़ लिख कर भी अपने आप को नहीं बदल पाते हैं....हम कुछ नहीं करना चाहते हैं....हम..... डर है अपने आप से....और शायद घृणा भी.....
क्या आपको नहीं है.....जवाब दें.....

Monday, February 1, 2010

कभी देखा है?

क्या कभी आपने टीवी पर आने वाला एक विज्ञापन देखा, शायद किसी रिफाइण्ड तेल का विज्ञापन था। हमारे आपके परिवार की तरह ही लोग घर पर बैठकर खाना खा रहे थे। सारे लोग शांत थे की अचानक पति ने कहा की तुम्हारे हाथ का खाना माँ के हाथ से बने खाने से बेहतर है ? पति इतना कहकर चुप हो जाता है। माँ भी उसी टेबल पर मौजूद थी और चुप थी लेकिन पत्नी को होठों पर एक न छुप सकने वाली मुस्कान तैर गयी। अंत में पंच लाइन आती है कभी कभी सच बोलना भी अच्छा होता है। अब सवाल ये है के हम लोग सच क्यों नहीं बोलते? की हाँ भई आज तो कमाल का खाना बना है हम माँ के हाथों के खाने को जिस तरह से लेते हैं और तारीफ़ भी करते हैं की माँ के हाथ के बने मूली के पराठों का तो जवाब नहीं है भई। लेकिन उसकी जगह कोई और जगह नहीं ले सकता चाहें वो कितना भी बेहतर हो। एक विज्ञापन आता है छोले मसाले का बच्चे के बापू पूंछते हैं किसने बनाया मिसेज शर्मा ने? बच्चे करीब करीब खुशीसे कूदते हुए कहते हैं मम्मी ने बनाया है। लेकिन बापू कुछ भी नहीं बोलते,मुद्रा जरूर बना लेते हैं की हाँ जो भी है ठीक है, भारतीय परिवारों में ये बात अक्सर देखने में आती है की हम तारीफें कभी नहीं करते खास तौर पर अपने घरों की, घर की दाल खाओ बाहर की बिरयानी नहीं, इसी विषय पर फिल्म मस्ती भी बन चुकी है और कबीर दास जी भी कह चुके हैं देख परायी चुपड़ी मत ललचावे जीव। लेकिन घर में खाकर तारीफ़ क्यों नहीं होती ये एक बड़ा मुद्दा है? मुझे जवाब की तलाश है क्या आपने तारीफ करते कभी देखा है ?

आशु प्रज्ञा मिश्र

माखन लाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल

गूगल बाबा का वरदान - हिन्दी टंकण औजार

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