मनोरंजन अपनी कमी या ज्यादाती को रोटी की तरह पेट या शरीर पर नहीं दिखाता। यह मनुष्य के मानस, आचरण, व्यवहार से नजर आता है। इसका मीटर डाउन हुआ तो खराब ऊपर हुआ तो खराब। संतुलित होना जरूरी है। और इंसान की पहचान रोटी तो है नहीं, उसकी सोचने समझने की शक्ति ही असली पहचान है। तब मनोरंजन एक तरह से रोटी से भी ज्यादा जरूरी हुआ। हास्य का बोध, रुदन का एहसास यह सभी मनोरंजन से ही तो आएगा न?
गांव छोटा था। सबलोग एक दूसरे को जानते थे। कोई अपना या पराया नहीं था। सबके दुख से सब दुखी और सबके सुख से दुखी। यकीनन यह गांव किसी सतयुग का काल्पनिक गांव कतई नहीं था। मनोरंजन के साधन सीमित। इतने सीमित कि तार बिजली तक से मनोरंजन करना पड़ता। जले हुए ट्रांसफार्मर से एल्युमिनियम के तार निकालना और उनसे कुछ बनाना। सबकुछ आनंद के लिए। टीवी के नाम पर महज एक पटवारी की टीवी। दोस्ती करो तो टी
वी वरना महरूम। देखें तो कहां देखें मृगनयनी, मुंगेरीलाल के हसीन सपने, हम लोग, भीमभवानी और सबसे ज्यादा जरूरी महाभारत। संडे को तो खेतों में चरने वाले जानवर, खरपतवार, कीड़े मकोड़े, हिरण, हिन्ना सब जान गए थे कि आज संडे है। दूर तलक न खेतिहर मजदूर न मालिक। सब सुन्न सपाटा। वजह सुबह महाभारत शाम को हिंदी फीचर फिल्म। बीच में कुछ खाना पीना और जरूरी काम। फिल्म कौन सी या तो मारधाड़ वाली या फिर रोमांटिक। यह फर्क तो नहीं पता था, पर हां कुछ जादुई सी दुनिया का जरूर एहसास होता। कहीं कोई सितारों के बीच परि है, तो कहीं कोई बहन का बदला लेने मिथुन लाल सलाखें नंगे हाथों से पकड़ रहा है, तो कहीं प्रेम चौपड़ा मृदुभाषिता से अच्छे खासे सेठों की दौलत कब्जा रहा है।
मनोरंजन के सीमित साधनों पर ही निर्भर रहना था। और तिसपर तरह-तरह के बंधन अलहदा से थे। टीवी नहीं देखना चाहिए, आंखे तो खराब होती ही हैं, साथ में पढ़ाई भी। यह तो ऐसी समस्या थी कि बुजुर्गों को बच्चों को टीवी देखने से हर हाल में रोकना था और बच्चों, महिलाओं और नौजवानों की जिद थी कि टीवी हर हाल में देखना है। तो मामला विरोध, सहमति, असहमति, वार्ता, संवाद और चोरी, मनमानी के जरिए सुलझ भी जाता। मगर समस्या तब विकराल हो जाती जब गांव या देश में कोई मर जाए। यह चूंकि संवेदनशील मामला होता था। इसपर नौजवानों ने अगर तर्क दिए तो यूपीए-2 जैसा मामला होगा, कि लोकपाल लाओ नहीं तो भ्रष्टाचार के पोषक कहलाओ। विरोध करें टीवी बंद का तो मरें, चुपचाप देखें तो मन की नैतिकता खा जाए। मगर मनोरंजन तो मनोरंजन है। क्या करें, यह भी खाने, पीने, या अन्य दैनिक कार्यों की तरह ही जरूरी है। लेकिन ऐसा जरूरी जिसपर लोकचर्चा नहीं होती। मनोरंजन अपनी कमी या ज्यादाती को रोटी की तरह पेट या शरीर पर नहीं दिखाता। यह मनुष्य के मानस, आचरण, व्यवहार से नजर आता है। इसका मीटर डाउन हुआ तो खराब ऊपर हुआ तो खराब। संतुलित होना जरूरी है। और इंसान की पहचान रोटी तो है नहीं, उसकी सोचने समझने की शक्ति ही असली पहचान है। तब मनोरंजन एक तरह से रोटी से भी ज्यादा जरूरी हुआ। हास्य का बोध, रुदन का एहसास यह सभी मनोरंजन से ही तो आएगा न? मगर क्या करें। टीवी बंद करने के आदेश और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने बिना वक्त गंवाए टीव के निचले हिस्से में लगीं 3 बटनों में कोने वाली चट से बंद कर दी। यह काम करने में अक्सर वे बजरंगी टाइप के कार्यकर्ता आगे रहते थे, जो खुद भी टीवी देखना चाहते थे, किंतु बड़ों की नजर में सकारात्मक छवि के लिए ऐसा करते। एक पल के लिए तो ऐहसास होता आज के दौर के वेलेंटाइंस के अनुयायियों पर लगने वाली पाबंदी सा। मगर मसला ऐसा कि विरोध, प्रतिरोध और मनमानी किसी की गुंजाइश नहीं।
लोग भी जैसे मरने के लिए तब तक बैठे रहते थे, जब तक कि कोई अच्छा सा कार्यक्रम न आने वाला हो।
कस्तवारिन 90 साल की थी। घर के एक कोने में रह रही थी, बीसों साल से तो वह बूढ़ी होना तक बंद हो चुकी थी। जैसी की तैसी थी। न जाने क्या हुआ। मरने का क्या मुहूर्त सा खोज रही थी। बेटा धनसिंह खुद चाहता था मरे ये तो अब। पढ़ा लिखा नहीं था न? जो बुद्धि रखते थे, वे कहते अब तो माताराम को भगवान उठा ले, वे बड़े कष्ट में हैं। जैसे यह बड़े दयालु हैं। मगर चूंकि इंसानी बिरादरी की पहचान हैं संवेदनाएं, तो कस्तवारिन मरे, या नौजवान बेटा। अपने आप कोई मरे या दुर्घटना में। असर सीधा टीवी पर ही पड़ता। फिल्म चल रही थी राजकुमार, दृश्य था हाथी पर बैठा एक आदमी। बचपन था। पता नहीं क्या संवाद थे, क्या एक्टिंग थी। क्या प्लॉट था, होने वाला क्या था, फिल्म में। मगर एक बात थी गहरे से, हाथी को देखकर मन इतना खुश हो रहा था, कि अभी इसपर लद जाऊं। फिल्म पूरे शबाव पर थी। बाकी दर्शकों का तो नहीं पता पर मैं जरूर हाथी की मदमस्त चाल और वहां के परिवेश में फिल्माया गया उत्साह देखकर मुदित था। मनोरंजन अपार हो रहा था। इतना कि जैसे में किसी प्रभू की याद में रोकर भी प्राप्त न कर सकता। विशुद्ध आध्यात्मिक आनंद सा।
मगर सुख कहां लंबे टिकते हैं। डर था बिजली न चली जाए, देश में कोई झंडा झुकाऊ आदमी न मर जाए। और सबसे बड़ा डर तो था कि कस्तवारिन का। चूंकि ऐसा पहले भी कई बार हुआ जब कस्वारिन मरते-मरते बच गई। चूंकि कोई कार्यक्रम नहीं आ रहा था न? और तभी टीवी वाले कमरे में दाखिल हुए दो कार्यकर्ता और टीवी को कोने वाले बटन को पकडक़र मरोड़ दिया। इससे पहले कि कोई कुछ कह पाता फरमान सुनाया गया। कस्तवारिन चल बसीं। लोगों का अंदेशा सच में तब्दील हो गया। पता नहीं क्यों कस्वारिन राजकुमार फिल्म का ही इंतजार कर रही थी। लेकिन उस बेचारी का क्या दोष, वो न मरती तो देश में कोई और मरता। चंद्रकांता के दौरान तो मरे भी थे न वो जो झंडा झुकाऊ।
- वरुण के सखाजी