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Wednesday, August 15, 2012

आजादी के 66 साल और हम...



देश को स्वतंत्रता मिले आज हमें 66 साल हो चुके हैं। पर इस स्वतंत्रता की सही कीमत तो वहीं लोग जानते हैं। जिन्होंने परतंत्र भारत में रहकर स्वतंत्रता की सुनहरी किरण महसूस की थी। और इसे पाने के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों को देश हित के लिए न्यौछावर कर दिया।

आज देश के सामने कई चुनौतियां है पर इन चुनौतियों के बीच ही हमने आजदी के साढ़े छह दशक बीत जाने के बाद भी अपने लोकतंत्रीय देश को बनाए रखा है। और आज हम इसी कारण एक युवा राष्ट्र के रूप में दुनिया भर में पहचाने जाते हैं, पर हमारी सभ्यता ने इस बीच कई दौर देखे, जिनमें हमें पहले भी कई लोगों ने गुलाम बनाया पर वो अपने इन मंसूबों में कभी कामयाब नहीं हो पाए और हमेशा से ही देश के वीर जवानों और साहसी महापुरषों के सामने अपने घुटने झुकाने पढ़े। इतिहास गवाह है कि हमने यह आजादी यूं ही नहीं मिली बल्कि इसके लिए हमारे देशभक्तों ने देश पर खुद को समर्पित कर इसे हमारे लिए मुक्त किया है और हमारा दायित्व है कि हम इसे हर क्षेत्र में और भी बेहतर बनाएं।

और इस तरह 15 अगस्त 1947 को हम स्वतंत्र हुए और जल्द ही एशिया की महाशक्ति बनकर उभरे, वहीं देश ने एक तरफ तो लोकतंत्र का पहला पड़ाव 1952 में तब पूरा किया जब हमारे देश में पहली बार आम चुनाव हुए। इस दौर में भारत अर्थव्यवस्था की और तेजी से बढ़ा, नवउदारवाद के रास्ते निजी क्षेत्र में चहुंओर गति देने की नीति अपनाई गई, देश के पहले प्रधानमंत्री स्व. पं.जवाहरलाल नेहरू और स्व.राम मनोहर लोहिया ने उद्योग जगत की चकाचौंध में खो जाना ही ठीक समझा। इसके बाद तो भारत उभरती अर्थवयवस्था में तब्दील होता चला गया। और आज भी इसी गति से निरंतर अपनी साख विदेशी बाजारों में बनाए रखने में सक्षम हुआ है।

Tuesday, August 14, 2012

टीम अन्ना के बाद, बाबा का भी अनशन खत्म....!


एक राजनीतिक पार्टी को हराने की घोषणा करते हुए आखिर बाबा रामदेव ने अनशन तो खत्म कर दिया। पर, क्या वे वाकई में राजनीति के जरिए ही सही, देश का धन जो स्विस बैंक में जाकर काला हो गया है, उसे फिर से भारत लाकर देशवासियों को दें पाएंगे। यह एक ऐसा प्रश्न है जो हर देशवासीयों के मन में जरूर कौंधता होगा।

ऐसे में क्या बाबा रामदेव की मुहिम 'ब्लैक मनी' को भारत ला पाएगी... ये एक गंभीर प्रश्न है जो कि सरकार और उसके नुमाइंदे भी न दे पाएं। इस बार बाबा रामदेव ने कई दावे किए जिनमें से उन्होने एक दावा यह भी किया है कि उनके अगले ऐलान से सरकार हिल जायेगी। वहीं बाबा रामदेव की मानें तो इस आंदोलन में 400 सांसदों का साथ भी मिलेगा। खैर यह बात अलग है कि अभी दो दिन पूर्व ही बाबा ने खुद ही मंच से यह हुंकार की थी, कि उनके साथ 225 सांसद हैं।

इसके साथ ही योग गुरू ने कहा है कि 2014 तक तक कोई बड़ा आंदोलन नहीं करना चाहते। अब सीधी कार्रवाई होगी। बाबा ने अगली रणनीति का खुलासा करते जो कुछ भी कहा उसमें यहीं कॉमन है जो भी पार्टी काला धन वापस लाने में रोड़ा अटकाएगी उसको चुनाव में हराना है, और इस बार भी उनका यही रुख रहा। देश में मौजूदा सरकार पर निशाना साधते हुए योग गुरू का कहना है कि आज देश में जो गरीबी, अभाव और भूख बढ़ रही है वो सब इन्हीं की देन है।

बाबा का हर बार, इस बार मौजूदा केन्द्र सरकार पर है। बाबा ने संप्रग के खिलाफ विपक्षी पार्टियों का मोर्चा बनाने के संकेत देते हुए कहा है कि भ्रष्ट पार्टियों में सबसे ऊपर कांग्रेस है। बढ़ती महंगाई, भूख, अभाव और गरीबी के लिए यही कांग्रेस जिम्मेदार है। वहीं योग गुरू ने कहते हैं कि उनको 400 सांसदों का समर्थन हासिल है। पर इस बात की क्या पुष्ठि है कि ये सांसद दूध के धुले हुए ही हों, क्या इनके पास मौजूद धन ईमानदारी से कमाया हुआ ही हो और इनका धन स्विस बैंको में न हो क्या ये पुष्ठि बाबा अपने सांसदों के रवैये और व्यवहार  को रुप में लिखित दे सकते हैं।

हाल ही में टीम अन्ना का आंदोलन लोकपाल के मुद्दे पर चर्चा में रहा और आगे भी इनकी मुहिम जारी रहेगी पर बाबा की टीम अन्ना से दूरियां क्यों हुए जब देश एक है, मुद्दे एक हैं, हम सभी भारतवासी एक हैं तो बाबा का टीम अन्ना से मुंह मोढ़ना कहां तक जाय़ज है ?और केवल काले धन को लेकर ही आंदोलन करना, कहां तक जाय़ज है ? देश के और भी कई मुद्दे हैं। जिनके कारण आज हर वर्ग का तबका परेशान है। अगर मान लें कि देश में काला धन आ जाता है तो क्या ये धन वाकई में जरुरत मंदों को मिलेगा या फिर वहीं हश्र होगा। जिसका जिक्र कई साल पहले हमारे स्व.पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि कि- 'देश के जरुरत मंदो को सरकारी सुबिधा का महज एक प्रतिशत लाभ ही मिल पाता है। और 99 प्रतिशत हिस्सा सिस्टम की भेंट चढ़ जाता है'।

लोकपाल की जरुरत भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने की मुहिम है और काला धन लाना देश हित में जरूरी, पर बाबा का टीम अन्ना से इस तरह दूरियां बनाना क्या नज़रिया पेश करता है ? क्या बाबा लोकपाल को लेकर गंभीर नहीं...

ये एक गंभीर प्रश्न है जिसका उत्तर वक्त ही आगे बताएगा...!

Friday, August 10, 2012

मनोरंजन पर भारी शोक समाचार

मनोरंजन अपनी कमी या ज्यादाती को रोटी की तरह पेट या शरीर पर नहीं दिखाता। यह मनुष्य के मानस, आचरण, व्यवहार से नजर आता है। इसका मीटर डाउन हुआ तो खराब ऊपर हुआ तो खराब। संतुलित होना जरूरी है। और इंसान की पहचान रोटी तो है नहीं, उसकी सोचने समझने की शक्ति ही असली पहचान है। तब मनोरंजन एक तरह से रोटी से भी ज्यादा जरूरी हुआ। हास्य का बोध, रुदन का एहसास यह सभी मनोरंजन से ही तो आएगा न?
गांव छोटा था। सबलोग एक दूसरे को जानते थे। कोई अपना या पराया नहीं था। सबके दुख से सब दुखी और सबके सुख से दुखी। यकीनन यह गांव किसी सतयुग का काल्पनिक गांव कतई नहीं था। मनोरंजन के साधन सीमित। इतने सीमित कि तार बिजली तक से मनोरंजन करना पड़ता। जले हुए ट्रांसफार्मर से एल्युमिनियम के तार निकालना और उनसे कुछ बनाना। सबकुछ आनंद के लिए। टीवी के नाम पर महज एक पटवारी की टीवी। दोस्ती करो तो टी
वी वरना महरूम। देखें तो कहां देखें मृगनयनी, मुंगेरीलाल के हसीन सपने, हम लोग, भीमभवानी और सबसे ज्यादा जरूरी महाभारत। संडे को तो खेतों में चरने वाले जानवर, खरपतवार, कीड़े मकोड़े, हिरण, हिन्ना सब जान गए थे कि आज संडे है। दूर तलक न खेतिहर मजदूर न मालिक। सब सुन्न सपाटा। वजह सुबह महाभारत शाम को हिंदी फीचर फिल्म। बीच में कुछ खाना पीना और जरूरी काम। फिल्म कौन सी या तो मारधाड़ वाली या फिर रोमांटिक। यह फर्क तो नहीं पता था, पर हां कुछ जादुई सी दुनिया का जरूर एहसास होता। कहीं कोई सितारों के बीच परि है, तो कहीं कोई बहन का बदला लेने मिथुन लाल सलाखें नंगे हाथों से पकड़ रहा है, तो कहीं प्रेम चौपड़ा मृदुभाषिता से अच्छे खासे सेठों की दौलत कब्जा रहा है। मनोरंजन के सीमित साधनों पर ही निर्भर रहना था। और तिसपर तरह-तरह के बंधन अलहदा से थे। टीवी नहीं देखना चाहिए, आंखे तो खराब होती ही हैं, साथ में पढ़ाई भी। यह तो ऐसी समस्या थी कि बुजुर्गों को बच्चों को टीवी देखने से हर हाल में रोकना था और बच्चों, महिलाओं और नौजवानों की जिद थी कि टीवी हर हाल में देखना है। तो मामला विरोध, सहमति, असहमति, वार्ता, संवाद और चोरी, मनमानी के जरिए सुलझ भी जाता। मगर समस्या तब विकराल हो जाती जब गांव या देश में कोई मर जाए। यह चूंकि संवेदनशील मामला होता था। इसपर नौजवानों ने अगर तर्क दिए तो यूपीए-2 जैसा मामला होगा, कि लोकपाल लाओ नहीं तो भ्रष्टाचार के पोषक कहलाओ। विरोध करें टीवी बंद का तो मरें, चुपचाप देखें तो मन की नैतिकता खा जाए। मगर मनोरंजन तो मनोरंजन है। क्या करें, यह भी खाने, पीने, या अन्य दैनिक कार्यों की तरह ही जरूरी है। लेकिन ऐसा जरूरी जिसपर लोकचर्चा नहीं होती। मनोरंजन अपनी कमी या ज्यादाती को रोटी की तरह पेट या शरीर पर नहीं दिखाता। यह मनुष्य के मानस, आचरण, व्यवहार से नजर आता है। इसका मीटर डाउन हुआ तो खराब ऊपर हुआ तो खराब। संतुलित होना जरूरी है। और इंसान की पहचान रोटी तो है नहीं, उसकी सोचने समझने की शक्ति ही असली पहचान है। तब मनोरंजन एक तरह से रोटी से भी ज्यादा जरूरी हुआ। हास्य का बोध, रुदन का एहसास यह सभी मनोरंजन से ही तो आएगा न? मगर क्या करें। टीवी बंद करने के आदेश और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने बिना वक्त गंवाए टीव के निचले हिस्से में लगीं 3 बटनों में कोने वाली चट से बंद कर दी। यह काम करने में अक्सर वे बजरंगी टाइप के कार्यकर्ता आगे रहते थे, जो खुद भी टीवी देखना चाहते थे, किंतु बड़ों की नजर में सकारात्मक छवि के लिए ऐसा करते। एक पल के लिए तो ऐहसास होता आज के दौर के वेलेंटाइंस के अनुयायियों पर लगने वाली पाबंदी सा। मगर मसला ऐसा कि विरोध, प्रतिरोध और मनमानी किसी की गुंजाइश नहीं। लोग भी जैसे मरने के लिए तब तक बैठे रहते थे, जब तक कि कोई अच्छा सा कार्यक्रम न आने वाला हो। कस्तवारिन 90 साल की थी। घर के एक कोने में रह रही थी, बीसों साल से तो वह बूढ़ी होना तक बंद हो चुकी थी। जैसी की तैसी थी। न जाने क्या हुआ। मरने का क्या मुहूर्त सा खोज रही थी। बेटा धनसिंह खुद चाहता था मरे ये तो अब। पढ़ा लिखा नहीं था न? जो बुद्धि रखते थे, वे कहते अब तो माताराम को भगवान उठा ले, वे बड़े कष्ट में हैं। जैसे यह बड़े दयालु हैं। मगर चूंकि इंसानी बिरादरी की पहचान हैं संवेदनाएं, तो कस्तवारिन मरे, या नौजवान बेटा। अपने आप कोई मरे या दुर्घटना में। असर सीधा टीवी पर ही पड़ता। फिल्म चल रही थी राजकुमार, दृश्य था हाथी पर बैठा एक आदमी। बचपन था। पता नहीं क्या संवाद थे, क्या एक्टिंग थी। क्या प्लॉट था, होने वाला क्या था, फिल्म में। मगर एक बात थी गहरे से, हाथी को देखकर मन इतना खुश हो रहा था, कि अभी इसपर लद जाऊं। फिल्म पूरे शबाव पर थी। बाकी दर्शकों का तो नहीं पता पर मैं जरूर हाथी की मदमस्त चाल और वहां के परिवेश में फिल्माया गया उत्साह देखकर मुदित था। मनोरंजन अपार हो रहा था। इतना कि जैसे में किसी प्रभू की याद में रोकर भी प्राप्त न कर सकता। विशुद्ध आध्यात्मिक आनंद सा। मगर सुख कहां लंबे टिकते हैं। डर था बिजली न चली जाए, देश में कोई झंडा झुकाऊ आदमी न मर जाए। और सबसे बड़ा डर तो था कि कस्तवारिन का। चूंकि ऐसा पहले भी कई बार हुआ जब कस्वारिन मरते-मरते बच गई। चूंकि कोई कार्यक्रम नहीं आ रहा था न? और तभी टीवी वाले कमरे में दाखिल हुए दो कार्यकर्ता और टीवी को कोने वाले बटन को पकडक़र मरोड़ दिया। इससे पहले कि कोई कुछ कह पाता फरमान सुनाया गया। कस्तवारिन चल बसीं। लोगों का अंदेशा सच में तब्दील हो गया। पता नहीं क्यों कस्वारिन राजकुमार फिल्म का ही इंतजार कर रही थी। लेकिन उस बेचारी का क्या दोष, वो न मरती तो देश में कोई और मरता। चंद्रकांता के दौरान तो मरे भी थे न वो जो झंडा झुकाऊ। - वरुण के सखाजी

Saturday, August 4, 2012

करिए करिए शाहा ब्यारी..एक आध्यात्मिक आनंद

नर्मदा का रेतीला मैदान, तो कई बार ऊंची घाटी को छूते पल्लड़। यानी कभी गर्मी में तो कभी भारी बारिश तो कभी ठंड की सिहरन में भी मल मास पड़ा। पर महिलाओं में इतना जोश को सुबह 4 बजे से नर्मदा के एक महीने तक लगातार स्नान करतीं। फिर पूजन और एक बहुत ही खूबसूरत भजन गीत: करिए करिए शाहा ब्यारी, जी महाराजा अवध विहारी, इतनी सुन मैया जानकी जी बोली कहा बनी तरकारी। कहने को यह भजन था, लेकिन अध्यात्म के गहरे मंथन सा आनंद इसमें आता। नर्मदा में ठिठुरते हुए स्नान फिर बीच में भगवान की मूर्ति और फिर यह गीत। हम लोग ज्यादा नहीं समझते थे। गांवों में मनोरंजन के साधन भी कम होते हैं,
इसलिए ही सही। मगर सब दोस्त टोली बनाकर इस आनंद में शरीख होते जरूर थे। कालांतर प्रकारांतर में पता चला कि यह एक धार्मिक विधि है। सभी महिलाएं मल मास (विक्रम संवत में हर तीन साल में एक महीना अतिरिक्त होता है। इसे ही मल मास या पुरुषोत्तम मास कहा जाता है) या कार्तिक मास में ब्रह्म मुहूर्त की गोधुली बेला में स्नान कर शायद पाप धोना चाहती होंगी, मगर मेरे लिए तो सिर्फ इस गीत का सुमधुर गीतात्मक आनंद जरुरी था। बचपन बीता कुछ चीजों की समझ बढ़ी। तब सालों बाद गांव पहुंचे तो देखा पहले मल मास के स्नान के लिए सुबह से ही महिलाएं घरों घर बुलौआ सा देती हुई जाती थी। यह बुलौआ महज एक आह्वन नहीं हुआ करता था, बल्कि आत्मिक रूप से माईं, चाची, बड़ी अम्मा, दादी या किसी को उनके गांव के नाम वाली फलां के नाम से पुकारती हुईं चली जाती थीं। यह कोई वंृदावन की कृष्ण भक्ति सा नजारा था, लेकिन जब में इस बार गया तो सबकुछ बदल सा गया था। अगस्त में यह मल मास चल रहा है, महिलाएं अब भी उसी नर्मदा में नहाने जा रहीं हैं। किंतु तरीका बदल गया है। पहले जो पूरा गांव एक होकर धमनी के रास्ते, ऊपर के रास्ते से नर्मदा में इकट्ठा होता था, वह अब सब अपनी-अपनी राह से नर्मदा जा रहा था। कोई किसी को नहीं बुलाता, अब बस कुछ झुंड थे। कोई एक जाति के नाम पर तो कोई एक परिवार के नाम पर। इनमें कुछ ऐसे झुंड भी थे, जो मुहल्लों के नाम पर हैं। कुल संख्या में भी कमी आई थी। मेरे लिए यह सब रोमांचक था, चूंकि शहरी परिवेश ने जो दिया सो दिया लेकिन सुबह जल्दी उठने की अच्छी आदत वह हमेशा के लिए लेकर उड़ गया। लेकिन करिए करिए शाहा ब्यारी की एक सुरमयी धुन अभी भी कानों में तैर जाती है, तो एक आध्यात्मिक संगीत मन के भीतर कहीं बज उठता है। निश्चित तौर पर यह एक धार्मिक विधि और पापों से मुक्ति का एक जरिया थी। किंतु यह प्रक्रिया गांवी सहजता, अपने कर्मोंं के साथ ईश्वरीय चिंतन, सबके बीच के प्रेम, उत्सवी भारतीय मानस, को प्रतिबिंबित करती थी। पूरी जिंदगी भले ही सही और गलत के बीच फैसला न कर सके हों, किंतु एक डुबकी इस नाम पर लगाना कि जो कुछ गलत किया उसके लिए माफी अच्छी बात थी। यह उस युगबंधक मनुष्य के मानस पर एक तमाचा भी है, जो यह मानता है कि युग बदला है तो हम सतयुग या अच्छे युग के कैसे हो सकते हैं। एक अलग इंसानी फितरत भी यहां झलकती है कि इंसान चाहे कितना ही आगे पीछे, ऊपर नीचे चला जाए मगर वह अपने गलत कामों को सुधारने की कोशिश करता ही रहेगा। सालों बाद के गांवी गुटों को देखकर तकलीफ होती जरूर है, किंतु यह सोचकर कि इंसान हमेशा सुधरने की कोशिश करता है। इस मामले में भी वह आज नहीं, कल नहीं परसों जरूर अपने मुहल्ला गुटों को खत्म करके एकल गांवी गुट बन सकेंगे। चूंकि इन दिनों मल मास चल रहा है और यह महिलाएं स्नान भी कर ही रहीं है, तो मुमकिन है वे फिर चाची, दादी, बड़ीअम्मा, नन्हेघर की दादी, नैलापुर वाली, कैलकच्छ वाली, भौजी आ जाओ चिल्लाती हुईं नर्मदा जरूर जाएंगी। और मुझे वो गीत सुनने मिलेगा करिए करिए शाहा ब्यारी, जी महाराज अवध विहारी, इतनी सुन मैया जानकी जी बोलीं कहा बनी तराकारी। करिए करिए शाहा ब्यारी... वरुण के सखाजी चीफ रिपोर्टर, दैनिक भास्कर, रायपुर

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