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Saturday, June 26, 2010

दिग्विजय की स्मृतियां....


दिग्विजय सिंह इतने अचानक जाएंगे इसका कतई अंदेशा नहीं था। इस नवंबर में वे पचपन साल के होने वाले थे और देखने में चालीस से ज्यादा के नहीं लगते थे। जब उनके राजनैतिक मार्गदर्शक चंद्रशेखर अच्छी खासी काया के बावजूद अचानक बीमार पड़ कर हमेशा के लिए चले गये थे उस दिन भी और हमारे गुरु प्रभाष जोशी के निधन के दिन भी उनके घर के नीचे खड़े होकर दिग्विजय सिंह ने कहा था कि इस साली जिंदगी का क्या भरोसा? आज है औऱ कल नहीं.. प्रभाष जी और चंद्रशेखर लंबी उम्र जी चुके थे मगर दिग्विजय सिंह को तो इन दिनों ममता बनर्जी अपने कोटे से रेलवे राज्यमंत्री बनाने को तैयार थी।
बिहार के गिद्धौर इलाके के जमुई गांव के रहने वाले दिग्विजय सिंह चंद्रशेखर की सरकार मे भी थे और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी। तीन बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा के सदस्य रहे थे और आखिरी चुनाव वो नीतिश कुमार के सामने डंके की चोट पर बगावत करके बांका से अपनी दम पर निर्दलीय जीता था। अपनी दम पर दिग्विजय को बहुत भरोसा था। आखिर बिहार के एक देहात से आकर जवाहर लाल नेहरु छात्रसंघ का चुनाव भी वे अपने दम पर ही जीते थे।
दिग्विजय सिंह बहुत सारे रहस्य अपने सीने में दफन करके ले गये। एक रहस्य तो उन्होने पूरी जिंदगी किसी से नहीं कहने के लिए कहा था मगर अब वे नहीं तो बताया जा सकता है। आखिर दिग्विजय ने जिंदगी की शर्त तोड़ दी तो उम्मीद है कि उनकी आत्मा यह शर्त तोड़ने के लिए भी मुझे माफ कर देगी। परवेज मुशर्रफ जब कारगिल के बाद पहली बार भारत आये थे तो आगरा बैठक में उन्हे ले जाने के लिए प्रोटोकॉल के तहत दिग्विजय सिंह को ही नियुक्त किया गया था। दिग्विजय सिंह याद करते थे कि जब गाड़ी तीस जनवरी मार्ग से निकली तो मुशर्रफ ने पूछा कि क्या आपके यहां तारीखों पर भी सड़कों के नाम रखे जाते हैं? दिग्विजय ने मुशर्रफ का सामान्य ज्ञान बढ़ाया था कि तीस जनवरी को आपके मुल्क को साठ लाख रुपये दिलवाने से नाराज नाथूराम गोडसे ने इसी सड़क पर गांधी जी की प्रार्थना सभा में उनकी हत्या की थी। मुशर्रफ ने एक और सवाल किया था कि आपके यहां हमारे कायदे आजम जिन्ना के नाम पर कोई सड़क नहीं है। दिग्विजय ने कहा था योर एक्सीलेंसी आपके यहां महात्मा गांधी के नाम पर कोई गली भी हो तो बता दीजिएगा। फिर भी दिग्विजय और मुशर्ऱफ की दोस्ती हो गयी थी।
अब वो रहस्य जिसके बारे में बहुतों को पता नहीं। आखिर आगरा वार्ता विफल क्यों हुई औऱ मुशर्ऱफ आधी रात को पाकिस्तान के लिए क्यों उड़ गये। कहानियां बहुत सारी कही जाती है मगर दिग्विजय सिंह से ज्यादा किसको पता होगा। दिग्विजय ने बताया था कि होटल के अपने कमरे में भारत के साथ दोस्ती का करार साइन करने मुशर्ऱफ निकल ही रहे थे तभी टीवी चैनल पर भाजपा नेता सुषमा स्वराज पत्रकारों से हरियाणवी अंग्रेजी में बात करते हुए दिखाई पड़ीं। सुषमा स्वराज कह रहीं थी कि पाकिस्तान कितना भी जोर लगा ले हम कश्मीर पर अपना हक कायम रखेंगे। दिग्विजय ने बताया था कि मुशर्ऱफ तैयार हो रहे थे और यह सुनते ही धम से सोफे पर बैठ गये और बहुत रुआंसी आवाज मे पूछा कि इस बयान के बाद मै किसी भी करार पर दस्तखत कर दूं, पाकिस्तान जाकर क्या मुंह दिखाउंगा। इसके बाद वे अटल जी से मिले बगैर वापस निकल गये।
लोदी रोड पर जो बंगला उन्हे सांसद के तौर पर मिला उसी में वे मंत्री बनने पर भी रहें और मंत्री नहीं रहे तो भी रहे। पत्रकारिता के प्रति इतना प्रेम कि प्रभाष जी की कागद कारे वाली रचनावली प्रकाशित हुई तो आयोजन से लेकर कम से कम हजार लोगों की पार्टी का खर्चा खुद उठाया। जब मैं पैगम्बर वाले कार्टून के प्रकाशन के सिलसिले में दिल्ली के तात्कालीन पुलिस आयुक्त के के पॉल का शिकार होकर तिहाड़ जेल पहुंच गया तो साथ देने वालों में दिग्विजय सिंह सबसे आगे थे। उन्होने ने तत्कालीन उप-राष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत से शिवराज पाटील को फोन करवाया । तब तक एक फोन अटल बिहारी वाजपेयी भी कर चुके थे और मुद्दा संसद में उठ चुका था।
दिग्विजय सिंह के घर जाओ तो पेट भऱ कर खाये बगैर नहीं लौटते थे। एक बार अपनी मुसीबत उन्हे बता दो तो वह दिग्विजय सिंह की मुसीबत बन जाती थी। जार्ज फर्नाडीज के अपमान के मामले पर नीतिश कुमार से भिड़ गये और शरद यादव ने जब कहा कि तुम्हे भाजपा से टिकट दिलवा देते हैं तो उन्होने कहा कि इतने बुरे दिन नहीं आये हें। जिस राज्य का मुख्यमंत्री हराने पर तुला हो वहां भी अच्छे खासे वोट पाकर जीते और ठाठ से दिल्ली में झंडा गाड़ा। लोग उन्हे राजपूत वादी कहते हैं मगर उनके सबसे अंतरंग दोस्तों में प्रभाष जी थे, उदयन शर्मा थे और ये दोनों राजपूत नहीं थे। वैसे भी जब ब्राम्हण नेता ब्राम्हणों की राजनीति करते हैं और यादव नेता यादवों की तो दिग्विजय सिंह भी इसी राजनैतिक संसार मे रहने के लिए अभिशप्त थे और इस अभिशाप के बावजूद बहुतों की छत्रछाया बने हुए थे। पत्नी पुतुल औऱ दो प्यारी बेटियों के दिल पर क्या बीत रही होगी। पता नहीं। मगर दिग्विजय सिंह से शिकायत है कि इतने अचानक और बगैर बताये क्यों चले गये। आखिर प्रियरंजन दास मुंशी पिछले तीन साल से बेहोश नहीं पड़े हुए हैं। दिग्विजय सिंह का यह विश्वास था कि उनके दोस्त, और मेरे जैसे छोटे भाई रो रो कर ही याद
करेंगे।
आलोक तोमर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म-टीवी पटकथा लेखक हैं।)

Wednesday, June 23, 2010

कुलपति जी की सेंसरशिप....


(गत दिनों एक घनिष्ठ मित्र की दुर्घटना के कारण लम्बा वक्त उनकी सेवा में अस्पताल में बीता जिस कारण महा माननीय कुलपति जी की विश्वविद्यालय में चल रही तानाशाही के खिलाफ़ चल रहा अभियान थोड़ा मंथर हुआ। इसके लिए आप सबसे ही क्षमाप्रार्थी हूं)
हाल ही में कुछ वर्तमान छात्रों से कुछ नवीन बातें प्रकाश में आई जिन्हें सबके सामने लाना चाहूंगा। पता चला है कि अति आदरणीय कुलपति जी ने अपनी विवादास्पद छवि और अपने तुगलकी फैसलों के लगातार होते विरोध के चलते एक अघोषित सेंसरशिप ही लागू करवा दी गई है।
दरअसल हुआ यह कि हाल ही में विश्वविद्यालय में नियुक्तियों से लेकर तमाम कामकाजों में अनियमितता बरतने और पद के दुरुपयोग के आरोप महान कुलपति जी पर लगे। प्रवेश परीक्षा को लेकर किए गए तुगलकी फैसले का विरोध तो हम कर ही रहे हैं (जिसके बाद भी कुठियाला जी के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी) पर कुछ नियुक्तियों पर भी विवाद खड़ा हो गया। एक नियुक्ति तो है परम आदरणीय कुलपति जी के परम चेले सौरभ मालवीय की। मालवीय जी भी विश्वविद्यालय के कर्मचारी हैं और बाकायदा तन्ख्वाह पर है, उनकी योग्यता भी जान लें वो कुलपति जी के अधीन पीएचडी कर रहे हैं। उनकी ये योग्यता इतनी बड़ी है कि बिना किसी भी साक्षात्कार या प्रतियोगी परीक्षा का सामना किए आज वो विश्वविद्यालय में हैं। मालवीय जी की हैसियत भी कुलपति जी से कम नहीं है, एक बार परिसर में होकर आएं....अगर मालवीय जी दिखाई पड़ गए तो आप खुद ही जान जाएंगे और अगर नहीं तो छात्र बता देंगे कि विश्वविद्यालय में मालवीय जी इंदिरा के संजय सरीखे हैं.....।
खैर फिलहाल तो बात उस घटना की जिसने मुझे ये पूरी पोस्ट लिखने के लिए मजबूर किया है, दरअसल हाल ही में विश्वविद्यालय की प्लेसमेंट सेल में छात्रों के विरोध के बहाने एक नया पद सृजित किया गया। हालांकि इसकी कोई आवश्यक्ता आज तक किसी भी पुराने छात्र को नहीं महसूस हुई पर ये हुआ और उस पद पर नियुक्ति के लिए जब एक भाजपा नेता की पत्नी का नाम तय हो जाने की बात सामने आई तो बवाल ही मच गया। यही नहीं विपक्ष के हंगामे और प्रदर्शन के बाद भी कुठियाला जी जस के तस हैं। पर बात यहीं खत्म नहीं होती, लोकतंत्र के चौथे खम्भे के पहरेदार तैयार करने वाले विश्वविद्यालय के कुलपति अखबारों से ही इतना डर गए कि उस दिन विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में सभी अखबारों से उक्त ख़बर सुबह सुबह ही काट ली गई। इसे क्लिपिंग का नाम दिया जाएगा पर ज्ञात हो कि आज के अखबार से कभी भी क्लिप नहीं काटी जाती हैं....तो भई अब देख लीजिए कि क्या हश्र होगा ऐसे संस्थान में पत्रकारिता का जहां अखबार ही सेंसर हो जाएं......
हां सौरभ मालवीय की बात की थी तो बताते चलें कि अगली पोस्ट में बताएंगे कि कौन हैं सौरभ मालवीय....और क्या कर रहे हैं परिसर में....मेरी कुठियाला जी से कोई निजी शत्रुता नहीं है पर हां किसी भी तरह के भ्रष्टाचार और लोकतंत्र के हनन को मैं निजी शत्रुता की तरह लेता हूं और एक पत्रकार और लेखक के नाते चिल्लाकर बोलूंगा.....अभी और पोल खुलनी बाकी है तो पढ़ते ज़रूर रहें और हां बताता चलूं कि भगत सिंह के शहादत दिवस पर कार्यक्रम करने के लिए छात्रों को जगह नहीं दी गई.....तो कार्यक्रम बाहर लॉन में ही कर लिया गया....कविताएं और पोस्टर फाड़ दिए गए.....अगली बार लॉन से भी बाहर किया गया तो सड़क पर ही जम्हूरियत का जश्न तो मनेगा...मन कर रहेगा.....और हां एक फटे हुए पोस्टर पर शायद पाश की वो कविता लिखी हुई थी......

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

ये पत्रकारिता विश्वविद्यालय है मिस्टर कुठियाला.....और हम में से कोई भी मुर्दा नहीं है और यकीनन मुर्दा शांति नहीं....ज़िंदा कौम का शोर आपके रास्ते में खड़ा है....एक बार कान से उंगलियां हटाकर देखिए....कानों के पर्दे गवाही दे देंगे.....
सेंसरशिप के खिलाफ़....तानाशाही के खिलाफ़....भ्रष्टाचरण के खिलाफ़.....
मयंक सक्सेना
क्या आप साथ हैं?

Monday, June 21, 2010

छत की अहमियत (father's day special)


माँ को धरा का दर्जा दिया जाता है, और हमने भी सदा से धरती की पूजा की है। बेशक धरती की कीमत को आंकना आसान नहीं है लेकिन इस सबके बावजूद छत की अहमियत कभी कम नहीं हो जाती। इस बात को शायद वो इन्सान अच्छे से समझ पायेगा जिसके सर पे छत नहीं होती। उस सुकून को बयां करने वाले शब्द नहीं है जो पिता की छाया में मिलता है। हम कई बार सोचते हैं कि चरम तनाव, चिंता कि स्थितियां हम तक क्यों नहीं पहुँच पाती..यदि इसके तह में जाकर देखें तो वो पिता है जो ढाल बनकर इन सारी विपदाओं से हमें बचा रहे होते हैं।

पिता कि मज़बूरी है कि वो अपने बच्चों को बस दूर से चाह सकता है क्योंकि संवेदनाओं को जाहिर करने वाला सबसे बड़ा हथियार आंसूओ का वो सहारा नहीं ले सकता। बच्चे भी अपने मन की बात बस मां से बताते हैं, उसी के गले से लिपट के अपना प्यार इज़हार करते हैं। इस सारी स्थिति में पिता बस दूर से इन दृश्यों को निहारकर राहत महसूस करता है। पुरुष को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए तेज आवाज और गुस्से का सहारा ही लेना पड़ता है, वह रोता नहीं, नरमी नहीं दिखाता...इसलिए बच्चों पर अपनी भावनाएं व्यक्त करने की छटपटाहट उसे बेचैन किये रहती है। मजबूरन उसे बच्चों को सोते हुए निहारना ही चैन देता है। हमारी सफलता पर हम मां के गले लिपटकर ख़ुशी का इजहार करते हैं पर हमारा मुंह मीठा करने सबसे पहले मिठाई का डिब्बा पिता लेकर आते हैं।

पिता-पुत्र जीवन भर असंवाद की स्थिति में रहते हैं, फिर भी बिना कुछ कहे जाने कैसे पिता को अपने पुत्र की जरूरतों का ख्याल रहता है...बेटे के बड़े होते ही उसे साइकल दिलाना हो, मोबाइल या बाइक दिलाना हो या ATM में पैसे ख़त्म होने से पहले ही रुपये जाना हो सब कुछ बिना कहे ही हो जाता है। अपने सपने और अपनी जरूरतों का गला घोंटकर बस बच्चों कि परवरिश ही जिस इन्सान का एक मात्र उद्देश्य होता है वो है पिता। वो हमसे कभी नहीं कहते कि स्कूल कि फीस कैसे भरी या घर के खर्चे कैसे पूरे किये, या लेपटोप दिलाने के पैसे कहाँ से आये...वे नहीं कहते कि अब उनके घुटनों में दर्द होने लगा है, जल्दी थकान हो जाती है या ब्लड प्रेशर या सुगर बढ गयी है....नहीं, परिस्थितियों के बादलों से बरसी चिंता कि किसी बौछार को ये छत हम तक नहीं पहुँचने देती।

पिता बस पिता होता है उसकी तुलना किसी से नहीं है...अलग-अलग स्टेटस से लोग एक इन्सान के स्तर पर तो भिन्न-भिन्न हो सकते हैं पर पितृत्व के स्तर पे नहीं। एक करोडपति बिजनसमेन या एक झुग्गी के गरीब पिता की पितृत्व सम्बन्धी भावनाओं की ईमानदारी में कोई अंतर नहीं होता, उसके इजहार में भले फर्क हो। हर पुत्र के लिए उसका पिता ही सबसे बड़ा हीरो है, उस एक इन्सान के कारण ही बेफिक्री है, अय्याशी है, मस्ती है। पुत्र के लिए पिता का डर भी बड़ा इत्मिनान भरा होता है,एक अंकुश होता है। प्रायः पिता की हर बात उसे एक बंधन लगती है, पर उस बंधन में भी गजब का मजा होता है।

इन सब में पिता को क्या मिलता है...आत्मसंतोष का अद्भुत आनंद। पुत्र के बचपन से जवानी तक की दहलीज पर पहुचने की यादें मुस्कराहट देती है। बेटे की सफलताये खुद की लगती है। बेटे से मिली हार खुशनसीबी बन जाती है।
आश्चर्य होता है कैसे एक इन्सान खुद को किसी के लिए इतना समर्पित कर देता है? कैसे पूरा जीवन किसी और के जीवन को पूर्णता देने में बीत जाता है? सच कहा है- कि भगवान इन्सान को देखने हर जगह नहीं हो सकता था शायद इसलिए उसने मां-बाप को बनाया।

लेकिन दुःख होता है कि नासमझ इन्सान के सबसे बड़े हीरो यही मां-बाप समझदार इन्सान के लिए बोझ बन जाते हैं। अपने बुढ़ापे के दिन काटने के लिए उन्हें आश्रम तलाशना होता है। हमारे दोस्तों और नए सगे-सम्बन्धियों के सामने वे आउट-डेटेड नज़र आते हैं। ऑरकुट और फेसबुक पर सैंकड़ो दोस्तों का हाल जानने का समय है हमारे पास, पर इतना समय नहीं कि पिता की कमर दर्द या मां की दवा के बारे में पूंछ सके। बुढ़ापे के कठिन दौर में जहाँ सबसे ज्यादा अपनेपन की जरुरत होती है वहां यही बूढ़ा बाप किसी फर्नीचर की तरह पड़ा रहता है। और विशेष तो क्या कहूँ, अपनी संवेदनाओं को झंकृत करने के लिए अमिताभ की फिल्म "बागबान" और राजेश खन्ना की "अवतार" देखिये।

अंत में बागबान के एक संवाद के साथ विश्व के सभी पिताओं के चरणों में नमन करता हूँ "मां-बाप कोई सीढ़ी की तरह नहीं होते कि एक कदम रखा और आगे बढ़ गए, मां-बाप का जीवन में होना एक पेड़ कि तरह होता है, जो उस वृक्ष कि जड़ होते हैं उसी पर सारा वृक्ष विकसित होता है...और जड़ के बिना वृक्ष का कोई अस्तित्व नहीं है। "

Saturday, June 19, 2010

कब सुखेंगे भोपाल के जख्म,क्यों मजबूर हैं हम

कब सुखेंगे भोपाल के जख्म,क्यों मजबूर हैं हम
भोपाल गैस त्रासदी के 26 साल कुछेक महीने बाद पूरे हो जायेंगे लेकिन पीड़ितों के जख्म पर मरहम लगने की कोई संभावना नजर नही आ रही है ,रही सही कसर 9 जून 2010 की अदालती फैसले ने पूरी कर दी है. इस मामलें मे अदालत कर भी क्या सकती थी क्योंकि सीबीआई ने मामूली धाराएं लगाकर भोपाल गैस के मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन सहित अन्य आरोपियों के खिलाफ केस को कमजोर करने की कोई गुंजाइस नही छोड़ी थी. क्या हम भारतीयों की यही नियती है. सरकारी रिपोर्ट पर ही अगर भरोसा करे तो यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के टैंक नंबर 610 से निकली जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का पानी से मिल जाने के कारण तकरीबन 15 हजार लोगो की मौंत हो गई .जो बच गये उनकी जीवन मौत से भी बदतर हो गया..हालांकि हरेक साल भोपाल और देश के कई दूसरे हिस्से में 3 दिसंबर को गैस पीड़ित लोग धरना प्रर्दशन कर सरकार से इंसाफ की भीख मांगते है लेकिन इससे सरकार की सेहत पर कोई असर नही पड़ता है. सरकार के लिए परिस्थितियां बिल्कुल सहज ही होती अगर टैलीविजन चैनलों पर ये नही दिखाया जाता है कि किस तरह हजारों मौतों का गुनेहगार वारेन एंडरसन नीले कलर के एम्बेस्डर को बड़े शान के साथ सुरक्षित हवाई अड्डे वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा पहुंचाया जा रहा हैं और इसके बाद से ही लोगो के जहन मे ये सवाल उठने लगा कि आखिर इतने बड़े गुनहगार को देश से सुरक्षित बाहर किसने भिजवाया....
जाहिर हैं कि 1984 मे देश के प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी थे और सीएम अर्जुन सिंह थे..कलेक्टर हो या एसपी उनके सामने नेताओं के आदेश के मानने के अलावा कोई विकल्प नही बचता हैं और अगर वारेन एंडरसन भोपाल और दिल्ली से सुरक्षित अमेरिका पहुंच जाता है तो इसमे अर्जुन सिंह और राजीव गांधी की भूमिका पर सवाल तो उठते ही हैं..कितना मजबूर होता है एक भारतीय और उसकी जिंदगी का कितना मतलब कितनी सरकार के लिए होती हैं ये उस समय के राजनेताओं द्वारा किये गये गैर जिम्मेदाराना रूख से स्पषट हो जाता है. भोपाल गैस त्रासदी से पीड़ित लोगो को आज भी इंसाफ का इंतजार है 84 के बाद कितनी सरकारे बदली लेकिन एंडरसन को अमेरिका से वापस लाने की ईमानदार कोशिश किसी भी सरकार ने नही की...जरा कल्पना कीजिए कि अगर अमेरिका में कोई भारतीय कंपनी का मालिक इतनी बड़ी घटना का जिम्मेदार होता तो क्या अमेरिका उस भारतीय को अमेरिका से बाहर निकलने देता..जैविक हथियार रखने के आरोप मे अमेरिका एक देश के पूर्व राष्ट्रपति को सरेआम फांसी देता है और दुनिया मुकदर्शक बनी रहती है. हालांकि सद्दाम हुसैन जो किया उसे माफ नही किया जा सकता है लेकिन जो गुनाह एंडरसन ने किया है क्या उसे इस अपराध के लिए माफ किया जा सकता है. आज ईराक हो या अफगानिस्तान हो इस बात का गवाह हैं कि अमेरिका की नजर में उसके नागरिकों के अलावा दूसरे देश के नागिरकों की जान माल की कितनी फिक्र है. वारेन एंडरसन ने कार पर सवार होने के पहले एक इंटरव्यू मे कहा था
NO arrest no house arrest I am free to leave India
कितना बड़ा तमाचा हमारे देश के नीति नियंताओं पर है...और कितना बड़ा सवाल हमारी न्याय प्रणाली पर भी उठता है. (मैं किसी भी राज्य के न्यायधीशों की नियत पर संदेह नही कर रहा हूं )
सवाल तो कांग्रेस के इरादों और सोनिया गांधी पर भी उठेंगे क्योंकि देश में उस समय कांग्रेस की ही सरकार थी और बगैर केंद्रीय नेतृत्व के संकेत के बिना एंडरसन की सुरक्षित विदाई का रास्ता भोपाल से तय नही हो पाता. प्रणव मुखर्जी ने कहा है कि वारेन एंडरसन को छोड़ने का निर्णय भोपाल की क़ानून व्यवस्था को ध्यान मे रख कर किया गया था. अब सवाल ये उठता है कि 26 नवंबर 2008 को जब पाकिस्तानी आतंकवादी कसाब को सेना ने जिंदा पकड़ा था तो क्या उस समय मुंबई की कानून व्यवस्था सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गयी थी.बिल्कुल नही...जनाब कल तक आपकी पार्टी भाजपा को ताने देती थी की आपकी सरकार के विदेश मंत्री आतंकवादियों को विमान मे बैठाकर कांधार ले जाती है लेकिन आपकी सरकार ने तो उस व्यक्ति को देश से बाहर सुरक्षित भेजा है जिस पर 25000 लोगो की मौत की जिम्मेदारी हैं..वैसे कांग्रेस पार्टी विदेशियों को देश से सुरक्षित बाहर और आरोप मुक्त करने मे ज्यादा माहिर है और ओत्तावयों क्वात्रोची का उदाहरण देश के सामने हैं खैर देश और भोपाल को इंसाफ चाहिए ..अगर अमेरिका अपने नागरिकों की जिंदगी बचाने के लिए काबूल और कांधार मे हमले कर सकता हैं तो भारत सरकार को भी भारतीयों की जिंदगी से खिलवाड़ करने वाले एंडरसन या डेविड कोलमेन हेडली के प्रत्यर्पण करने के लिए कूटनीतिक और राजनीतिक मोर्चे पर हर संभव कोशिश करनी चाहिए. भारतीय आष्ट्रेलिया मे पीटते है और हमे आश्वासन के सिवा कुछ नही मिलता है . सवाल सिर्फ भोपाल की घटना को लेकर नही है बल्कि सवाल हमारी विदेश और कूटनीति पर भी जिस पर हमारी सरकार बड़ा गौरावान्वित महसूस करती हैं...लेकिन भारतीय सिर्फ ठगे ही जाते है....

Wednesday, June 16, 2010

Tuesday, June 15, 2010

हाई री भाजपा,वाह री भाजपा

12 -13 जून को पटना मे भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई और शायद सभी जानते है कि इसमे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ साथ भाजपा के 6 राज्यों के सीएम भी शामिल हुए .हालाकि लेकिन गुजरात और नरेंद्र मोदी का मसला हमेशा से एक अलग विषय रहा है. 12 जून को अखबार मे एक विज्ञापन आया जिसमे मोदी और बिहार के सीएम नीतीश कुमार को एक साथ दिखाया गया जिससे व्यथित और गुस्से मे आकर नीतीश ने कानूनी कार्यवाई करने की धमकी दी और साथ साथ उन्होने यह भी कहा की बिहार मे मोदी का क्या काम .जिस तरह से नीतीश ने भाजपा को बिहार मे उसकी औकात बतायी है वो किसी भी सूरते हाल मे आश्चर्य की बात नही है . पहले उत्तरप्रदेश,फिर झारखंड मे शिबू सोरेन का भाजपा को ठेंगा दिखाया जाना ये साबित करता है भाजपा नेतृत्व मे किस तरह की उलझन है. मै यहां सिर्फ बिहार की बात करता हूं.नीतीश कुमार को नाराजगी इस बात को लेकर है कि उन्हे बिना बताये ही नरेंद्र मोदी के साथ उनकी तस्वीर क्यो छपवाई गई . नीतीश कुमार की ये बात एक हद तक सही है ...लेकिन मोदी के साथ हाथ मिलाना मुझे नही लगता है कि ये राष्ट्र या बिहार के लिए शर्म की बात है.मोदी गुजरात राज्य के निर्वाचित सीएम है जिन्हे वहां की जनता ने दो बार भारी बहुमत से सत्ता मे पहुंचाया है. अगर नीतीश को मोदी से हाथ मिलाने मे परहेज है तो फिर भाजपा से पिछले 15 साल से गठबंधन क्यो गांठे रखा है. गुजरात दंगे के बाद एनडीए से रामविलास पासवान,एम करूणानिधी,ममता बनर्जी,फारूख अबदुल्ला,मायावती एक एक कर सारे नेताओं ने भाजपा का साथ छोड़ दिया लेकिन नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ क्यो नही छोड़ा है और छोड़ेगे भी नही क्योकि उन्हे भली भांति ये पता है कि वे बीजेपी के बिना सत्ता मे वापस आ नही सकते ,लालू प्रसाद उन्हे भाव देंगे नही और कांग्रेस मे इतना दम नही है कि वे भाजपा की भरपाई को वो पूरा कर सके...गुजरात दंगे के बाद जिस तरीके से मोदी को अलग थलग करने की कोशिश हुई वो सारी की सारी बेकार हुई है और मै ये विश्वास करता हूं कि गुजरात का दंगा गोधरा में 57 निर्दोष लोगो को तालीबानी तर्ज पर मारे जाने के कारण लोगो की तात्कालिक प्रतिक्रिया थी और मै ये भी मानता हूं कि मोदी के अलावा कोई और होता तो वो भी उसी ढंग से निपटता जैसे मोदी ने निपटा है क्योकि 1984 का दंगा और मार्च 2007 का नंदीग्राम वारदात या फिर 2008 मे असम मे आदिवासियों की सामूहिक रूप से हत्या इसका जीती जागती मिसाल है.हालांकि हिंसा किसी भी चीज का समाधान नही हैं
नीतीश कुमार ने भाजपा को एक तरह से उसकी औकात बिहार मे बतायी ठीक उसी तरह जिस तरह उड़ीसा मे नवीन पटनायक ने भाजपा को उसकी औकात बतायी थी. मै ये नही समझ पा रहा हूं कि एक राष्ट्रीय स्तर की पार्टी जिसकी 6 राज्यो मे अपने दम पर सरकार है वो अपने सहयोगी दलों के सामने इस तरह मजबूर क्यों है. जब कर्नाटक जैसे दक्षिण राज्य मे भाजपा अपनी सरकार बना सकती है तो फिर बिहार जैसे राज्य मे क्यो नही वहां तो पहले से भाजपा का अपना एक अच्छा खासा जनाधार है. भाजपा को यह पता करना पड़ेगा कि क्यो जनाधार वाले नेता को बिहार या झारखंड मे पार्टी लाइन से अलग कर दिया गया. क्यों साफ सुथरी छवि वाले बाबू लाल मरांडी के दामन को छोड़कर भाजपा को शिबू सोरने के हाथ को थामना पड़ा. मोदी भाजपा के साथ साथ गुजरात के सीएम है और भाजपा को चाहिए कि वो इस मसले पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे. वो बताए कि उसके लिए भाजपा ज्यादा मायने रखती है या नीतीश कुमार. राहुल गांधी का उदाहरण उसके सामने है जिन्होनें मुलायम सिंह और लालू यादव को धकिया कर यूपी और बिहार मे अकेले कांग्रेस को चुनाव लड़वाया और नतीजे सबके सामने है. भाजपा को यह पता करना पड़ेगा कि 5 साल के बिहार के शासन काल के दौरान मे उसने जमीनी स्तर पर क्यो ऐसा नेतृत्व नही खड़ा किया जिसके बदौलत भाजपा खुद चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो पाती. बैसाखी के सहारे इंसान कभी दौड़ नही सकता है उड़ीसा मे नवीन पटनायक के सहारे 10 साल तक सत्ता का सुख भाजपा लेती रही और नवीन पटनायक ने एक ही झटके मे उड़ीसा मे भाजपा को उसकी औकात बता दी.स्वस्थ प्रजातंत्र की आवश्यक शर्त है कि विपक्ष मजबूत हो लेकिन भाजपा पिछले 6 साल मे ऐसा करने मे असफल रही हैं. मोदी गुजरात के लिए ही नही पूरे भारत के लिए मिसाल है जिन्होने अपने कुशल नेतृत्व से गुजरात को शिखर पर पहुंचाया है. कुछ लोग ये कहते हैं कि गुजरात मे पहले से ही अकूत संपदा है मोदी ने कुछ नही किया . फिर बिहार के पास भी तो 2000 तक कोयला, अभ्रक, लोहा, यूरेनियम की खदानों का भंडार था क्यो बिहार विकास की दौड़ मे सबसे पिछड़ा रह गया. मै बिहार के भागलपुर से हूं और मै इस बात का गवाह हूं कि किस तरह जिला मुख्यालयों मे भी 18 घंटे तक लाइय नही आती है. स्कूल मे टीचर नही है तो अस्पतालों मे कोई डाक्टर नही. विश्वविधालयों के सेशन 5 -5 साल तक लेट होता है और छात्र लालटेन की रोशनी मे अपनी परीक्षा की तैयारी करते हैं.गुजरात को खुशहाल बनाने के लिए वहां की सरकार ने सुजलां सुफलां और गोकुल ग्राम परियोजना को धरातल पर उतार कर वहां के लोगो को अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने का पूरा अवसर दिया ,बिहार के नेता बताए कि पिछले 60 सालों मे क्या उनके पास ऐसी कोई योजना है ..हालांकि पिछले कुछ सालों मे सड़क और कानून –व्यवस्था मे काफी सुधार आया है. नीतीश कुमार के साथ साथ बिहार के तथाकथित तारणहारों को यह जवाह देना होगा कि आजादी के 56 साल बाद भी बिहार के हिस्से मे कोई सेंट्रल यूनिवर्सिटी क्यो नही ,क्यो नही एम्स या आईआईएम की ब्रांच स्थापित नही हो पायी . क्यो नही बिहार मे निफ्ट की कोई शाखा खुल पायी. क्योंकि दिल्ली ,अहमदाबाद,सुरत,मुंबई, या जालंधर से बिहार आने वाली ट्रेनों मे बिहारी जानवर की तरह यात्रा करने पर विवश रहते है जबकि वे पूरे पैसे भारतीय रेलवे को चूकता करते है.क्यों बिहारी गुजरात ,दिल्ली या मुंबई रोजगार करने के लिए जाए बिहार को इस तरह से प्रगति क्यों नही हो पायी कि दूसरे राज्यों के लोग बिहार शिक्षा और रोजगार के लिए आते .वजह साफ है बेरोजगारी और भूखमरी केवल तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वाले नेताओं ने बिहार की जनता की पीड़ा को नही समझा. आप बिहार जाकर खुद देख सकते है मई जून के महीने मे जब निम्न और मध्यमवर्गीय परिवार के अभिभावक अपने बच्चों को बिहार से बाहर एडमीशन करवाने के लिए एड़ी चोटी एक कर देते है और इसलिए बिहार से प्रतिभा और पैसे दोनों का पलायन भारी पैमाने पर हुआ. वहां पर कोई ऐसा मैनेजमेन्ट,पत्रकारिता, टेक्नालांजी या फिर लां का ऐसा विश्वसनीय संस्थान खुल नही पाया जिस पर वहां के छात्र भरोसा कर सके..आपकी किसी भी व्यक्ति से मतांतरण हो सकता है और राजनीति मे ऐसा होता भी है लेकिन सिर्फ सियासी मकसद पूरा करने के लिए किसी लोक्रपिय और सटीक काम करने वाले चेहरे को इस तरह रूसबा करना किसी भी दृष्टिकोण से जायज नही हैं....

Monday, June 7, 2010

रणवीर के लिए "राजनीति" के मायने.


बॉक्स ऑफिस पर जून का पहला हफ्ता प्रकाश झा की "राजनीति" के रंग में सराबोर है। बड़े सितारे, भव्य दृश्य, बड़े-बड़े पोस्टर्स, आकर्षक ट्रेलर्स, जमकर प्रचार ने इस फिल्म को बहुप्रतीक्षित बना दिया था। हफ्ते की शुरुआत में सिनेमाघरों में जमकर बरसी भीड़ इसे सुपरहिट भी करा देगी। फिल्म से जुड़े हर शख्स के लिए मानसून खुशियाँ लेकर आएगा। खैर, फिल्म की विशेष समीक्षा करना मेरा उद्देश्य नहीं है काफी टिप्पणियाँ फिल्म के सम्बन्ध में की जा चुकी है। मै इस फिल्म के मायने रणवीर के लिए क्या होंगे इस पर विमर्श करना चाहूँगा...
लगातार चौथी हिट रणवीर की झोली में गिरी है इससे वे अपने समकालीन कई सितारों से बहुत ऊपर चले गए है और अपने से ४-५ साल सीनियर शाहिद और विवेक ओबेराय जैसे दूसरे सितारों को भी टक्कर दी है। बड़ी बात ये है कि वे प्रथम पंक्ति के नायक हैं, अरशद वारसी और तुषार कपूर जैसे द्वितीय पंक्ति के नहीं। "सांवरियां" जैसी भव्य फ्लॉप फिल्म से शुरुआत करने वाले रणवीर का उछलना कई फिल्म विश्लेषकों और इंडस्ट्री के लिए एक अनापेक्षित घटना की तरह है। लेकिन रणवीर ने नदी की पतली धार की तरह बालीवुड के इस मायावी संजाल में अपनी जगह बना ली। खुद के करियर को भी उन्होंने "राजनीति" के समरप्रताप की तरह सूझबूझ से दिशा दी।
"राजनीति" में बहुसितारा नायकों की भीड़ में वे ध्रुव तारे की तरह चमक रहे हैं। गोया कि महाभारत का अर्जुन भी वे हैं और कृष्ण भी वे हैं। जो शतरंज कि विसात पर सारे मोहरे खुद की रणनीति से आगे बढाता है। प्रकाश झा ने भी हिम्मत का काम किया जो अजय देवगन और नाना पाटेकर जैसे निष्णांत कलाकारों के बीच रणवीर को ये भूमिका दी। ऐसा नहीं है कि इसे रणवीर से बेहतर कोई नहीं निभा सकता था, लेकिन रणवीर ने भी झा के विश्वास के साथ न्याय किया। एक पढ़े-लिखे जोशीले महत्वाकांक्षी युवा के रूप में वे फब रहे थे।
"राजनीति" कई बुझते सितारों के लिए एक नयी रोशनी देगी जिनमे अर्जुन रामपाल, मनोज वाजपेयी शामिल है तो वही रणवीर के लिए ये नए पंख देने वाली फिल्म साबित होगी। जिसके दम पर वे हिंदी सिनेमा के विशाल आकाश में उड़ान भर सकेंगे। रणवीर को खुद की किस्मत का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए जो उन्हें इतने बेहतर अवसर मुहैया करा रही है। इससे वे सारी फिल्म इंडस्ट्री के लिए 'एप्पल आई' बन गये हैं। "वेक अप सिड" में एक गैर ज़िम्मेदार युवा की भूमिका, "रोकेट सिंह" में हुनरमंद सेल्समेन और अब "राजनीति" के समरप्रताप सिंह...ये सारी अलग-२ भूमिकाएं उन्हें एक हरफनमौला अदाकार साबित कर रही है। हालाँकि मैं रणवीर की किस्मत की बात करके उनकी प्रतिभा पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रहा हूँ। वे प्रतिभा शाली है, और अमेरिका के एक फिल्म संस्थान से विधिवत 'मेथड एक्टिंग' का अध्ययन प्राप्त है। मै सिर्फ ये कहना चाहता हूँ कि कई बार अच्छी प्रतिभाओं को सही अवसर नहीं मिल पाते, ऐसा रणवीर के साथ नहीं है।
जिस तरह से रणवीर आगे बढ रहे हैं उसे देख लगता है कि १-२ साल में वे सितारा श्रेणी में आ जायेंगे जहाँ आज खान चौकड़ी, अक्षय, हृतिक बैठे हैं। लेकिन ये फिल्म इंडस्ट्री है यहाँ जो जितनी तेजी से ऊपर जाता है उससे दुगनी तेजी से नीचे आता है। फिल्म इंडस्ट्री के आसमान से कब कौनसा सितारा टूट जाये ये आकश को भी पता नहीं होता। इसलिए रणवीर ये ध्यान रखे कि खुद को कैसे प्रयोग करना है। स्वयं को अनावश्यक खर्च करने से बचें। इस मामले में आमिर खान को आदर्श बनाया जा सकता है।
बहरहाल, कपूर खानदान को २० साल बाद अपना असल बारिश मिला है। रणवीर को लेकर शायद किसी ऐसी फिल्म की योजना बने जो आर.के.बेनर को फिर जिंदा कर दे। रणवीर की कोशिश होगी कि वो भी अपने पिता और दादा की तरह एक संजीदा अभिनेता बने। "राजनीति " का समर प्रताप सिंह तो बस एक शुरुआत है।
खैर अंत में थोड़ी सी बात "राजनीति" की...भले ये फिल्म सुपरहिट हो, कमाई के कुछ रिकार्ड कायम करे पर ये झा की बेहतर कृति नहीं है। झा एक बहुत उम्दा फिल्म बनाने से चूक गये...एक अराजक, अतिरंजक फिल्म बन गयी जो यथार्थ का असल चित्रण नहीं है। "गंगाजल" और "अपहरण" वाले प्रकाश इसमें नज़र नहीं आये। इंटरवल तक प्रकाश ने अपने पत्ते अच्छे बिछाए थे बस उन्हें खोलने में रायता फ़ैल गया। फिर भी भव्य दृश्यों का फिल्मांकन और इतनी बड़ी स्टारकास्ट को साधना तारीफ के काबिल है। इतनी बड़ी स्टारकास्ट के बाद भी कोई भी स्टार गौढ़ नहीं किया गया है, सभी याद रखे जाते हैं। ढाई घंटे की फिल्म में इतना कुशल प्रबंधन है कि सब को अच्छे अवसर मिले है। और हाँ फिल्म के असली नायक की बात करना तो हम भूल ही गए-वो है भोपाल, जो फिल्म की नसों में रक्त बनकर प्रवाहित हो रहा है। कैमरे की आँख ने बड़ा ख़ूबसूरत भोपाल प्रस्तुत किया है, बड़ी आकर्षक लोकेशन है। कुछ खामियों को छोड़ दिया जाये तो कई खूबियों के लिए फिल्म देखी जा सकती है..........

अफजल की फांसी..इंतजार कब तक

आखिर सच्चाई जुबां पर आ ही गई किसी ने बिल्कुल सही कहा है हकीकत को ज्यादा दिनों तक आप दबा तक नही रह सकते है और किसी ना किसी बहाने वो आपकी जुबां पर आ ही जाती है. दिल्ली की मुख्यमंत्री पद पर 11 साल से लगातार शोभायमान श्रीमती शिला दीक्षित ने एक निजी चैनल पर इंटरव्यू के दौरान इस बात को स्वीकार किया है अफजल की फांसी की फाइल को यथा संभव लटकाया जाए और शायद इसलिए एक फाइल चार साल तक 200 मीटर का फासला तय नही कर सकी और जिस अधिकारियों ने फांसी की फाइल को दबाये रखा उन्हे बकायदा पदोन्नति दी गई.इस रहस्यमय बात को दुनिया के सामने पेश करवाने के लिए इस निजी चैनल को भी बहुत बहुत धन्यवाद .... ये वही गृहमंत्री शिवराज पाटिल है जिसके कार्यकाल के दौरान मुंबई की लोकल ट्रेन पर 11 जुलाई 2006 ,मुंबई मे ही 26 नवंबर 2008 को आंतकी हमले और ना ही जाने सैकड़ो हमले हुए और शायद इसलिए शिवराज सिंह से बेहतरी की उम्मीद भी नही की सकती हैं. अब सवाल ये उठता है कि देश द्रोहियों को फांसी पर लटकाने मे इतनी देरी क्यो हो रही है कायदे से इसकी मौंत की तारीख उच्चतम न्यायालय ने 20 अक्टूबर 2006 ही तय कर दी थी लेकिन इस देश मे मानवतावाद के चंद ठेकेदार ने झूठी इंसाफ की एक ऐसी आंधी चलायी जिसकी वजह से अफजल को अब तक फांसी पर लटकाया नही जा सका.नंदिता हक्सर,अरुंधित राय जैसी मानवतावाद के चंद चाटुकार की वजह से अफजल आज भी मुफ्त की रोटियां जेल मे बैठे तोड़ रहा है .जरा सोचिए अगर अफजल अपने नापाक मंसूबे मे कामयाब हो गया होता तो देश के सामने दो ही परिस्थितियां होती या तो आधी संसद खत्म हो जाती है या फिर ये देशद्रोही प्रधानमंत्री,गृहमंत्री और संसद के अन्य सांसदों को अपने कब्जे मे करके पाकिस्तान मे अपने रह रहे आकाओं के निर्देश मे अपनी मांगे मनवाने मे कामयाब हो जाता है. वो तो देश के जांबांजो की शहादत है जिसकी वजह से संसद भी सुरक्षित है और देश भी. एक और सवाल अफजल के मामले पर सरकार एक यह भी दलील देती है अफजल को फांसी पर लटकाने के पहले कानून व्यवस्था को भी ध्यान रखा जाए. क्या इस आतंकवादी का जनाधार इतना बड़ा है कि इसको फांसी पर लटका देने से देश की विधि व्यवस्था बिगड़ जाए... और अगर अफजल को फांसी पर लटकाने से देश की विधि वयवस्था पर कोई असर पड़ता है तो सरकार यह सरकार की जिम्मेदार बनती है अफजल के समर्थन मे उठने वाली हरेक आवाज को दबा दिया जाए.. मुझे जम्मू कश्मीर के सीएम उमर अब्दुल्ला के स्टेटमेन्ट पर तकलीफ और आश्चर्य होता है जब ये कहते है कि पहले उन 28 दया याचिकाओं पर फैसला करो फिर अफजल गुरू की याचिका पर फैसला करना. क्या इसका मतलब ये निकाला जाए कि ना तो इन 28 याचिकाओं पर फैसला होगा और ना ही अफजल गुरू को फांसी होगी. इससे साफ हो जाता है कि अफजल पर किसका आशीर्वाद है..... ध्यान रहे उमर स्वयं भी कश्मीर के सीएम है और उनके पिता केंद्र सरकार मे कैबिनेट मंत्री है भी ... एक आतंकवादी सिर्फ आतंकवादी है और यह देश के हित मे होगा को उसे जल्द फांसी पर लटकाया जाए. क्योकि देश कांधार जैसे आतंकवादी घटना की पुनरावृति नही चाहता है. हो सकता है कि फिर किसी भारतीय विमान का अपहरण कर आतंकवादी अफजल को मुक्त करने की मांग करे और उस समय देश अरूंधित राय और नंदिता हक्सर जैसे अलगाववादियों का साथ देने वाले लोगो से नही बल्कि मनमोहन सरकार से या और फिर किसी केंद्र सरकार से जवाब मांगेगी...ये वही अरूंधति राय है जिसने नक्सली क बारे मे कहा है
They are gandhian with guns..
बस्तर की शांति, वहां की मधुरता और चंचलता को भंग कर देने वाले देश के आंतरिक गद्दारों नक्सलियों की हरकत का समर्थन करने वाली अरूंधति राय जैसे चाटुकार से भारतीय कुछ उम्मीद नही कर सकता है
देश का हर नागरिक इंसाफ चाहता है और इंसाफ यह है कि अफजल और कसाब को जल्द ही मौंत की नींद सुला दी जाएं...

Thursday, June 3, 2010

विश्वविद्यालय की साख पर बट्टा लगवा देंगे ये तो....

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के नए प्रवेश प्रक्रम के विरुद्ध और पत्रकारिता की पढ़ाई के स्तर को बचाने के लिए हमारी पहल में आपने कल पढ़ा हमारे साथी मलयांचल मिश्रा की अपील को और आज हमें एक पाती भेजी है, ज़ी छत्तीसगढ़ में कार्यरत हमारे साथी नितिन शर्मा ने.....

साथियों,
1 जुलाई 2006 जब भोपाल पत्रकारिता की डिग्री लेने माखनलाल विवि पहुंचा तो चयन होने पर मेरे दोस्तों ने मुझे बहुत बधाई दी..कारण माखनलाल विवि की छवि... मेरे साथ जितने लोगों का चयन हुआ था आज सभी बेहतर चैनल और अखबारों में काम कर रहे हैं..और वजह यह है कि विवि ने लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के माध्यम से अच्छे से अच्छे उन छात्रों का चयन किया जिनमें लेखन क्षमता के साथ साथ पत्रकारिता के गुण भी मौजूद थे.....प्रवेश का ये पैमाना 1992 से बदस्तूर जारी था..हमारे सभी सीनियर भी देश विदेश में पत्रकारिता के क्षेत्र में नाम कमा रहे हैं...मेरा दावा है कि देश के सभी प्रतिष्ठित चैनल और अखबारों में माखनलाल विवि के छात्र विवि का नाम रोशन कर रहे हैं...लेकिन अब ये सिलसिला बंद होने वाला है..अब माखनलाल विवि से पत्रकार नहीं निकलेंगे बल्कि सिर्फ डिग्री हासिल की जाएगी वो भी उसको जिसने पिछली परीक्षा में बेहतर अंक पाए हों...विवि इस वर्ष से प्रवेश परीक्षा बंद कर रहा है..मेरिट को जो चयन का आधार बनाया गया है. जिस दिन मुझे पता चला कि प्रवेश परीक्षा नहीं होगी उसी दिन से बैचेनी और गुस्सा है..समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं. जिस संस्थान ने हमें इस लायक बनाया है..हमें एक पहचान दी है..उस संस्थान के इस बेतुके फैसले से बहुत आहत हुआ..विवि के एक शिक्षक से बात हुई तो उन्होंने भी दुख जताया पर कहा कि ये निर्णय इसलिए लिया गया है ताकि सीटें आसानी से भर जाएं. यदि यही मकसद रह गया है तो विवि अपनी कब्र खुद खोद रहा है...क्योंकि सीटें तो आसानी से भर जाएंगी लेकिन कोई पत्रकार नहीं निकलेगा...ये उन छात्रों के साथ भी धोखा होगा जो बेहतर करियर के लिए अच्छे अंकों के आधार पर प्रवेश पा जाएंगे....क्योंकि कहीं भी नौकरी उनको मेरिट के आधार पर नहीं मिलेगी वहां पर उनकी योग्यता ही देखी जाएगी....आखिर ये क्या पैमाना है...जिसके 80 फीसदी अंक उसे एडमिशन और जिसके 45 फीसदी उसे नहीं...चाहे 45 फीसदी अंक वाला छात्र अच्छा लिखना जानता हो...अच्छा बोलना जानता हो...उसका अच्छा सामान्य ज्ञान हो.
इस संबंध में मैंने अपने मित्र मयंक से बात की और अपनी भावनाओं से अवगत कराया और हमने निर्णय लिया कि इतनी आसानी से विवि की छवि को बट्टा नहीं लगने देंगें...और एक मुहिम चलाएंगे...केव्स संचार के माध्यम से सभी पुरातन साथियों से अपील है कि अपनी भावनाओं एवं विरोध को विवि प्रशासन तक अवश्य पहुंचाएं...जल्द ही कुलपति महोदय को विरोध जताने के लिए मेल एवं एसएमएस अभियान भी चलाया जाएगा...जो भी हो हर संभव कोशिश की जाए ताकि प्रवेश परीक्षा बंद न होने पाए..
नितिन शर्मा
जी छत्तीसगढ़
(आप सब से भी अनुरोध है कि इस मामले में आगे आएं....हमारे साथ खड़े हों इस तानासाही और सनक बरे रवैये के खिलाफ़....हमें लिख भेजें cavssanchar@gmail.com पर....)

इस मुहिम में साथ आने और नई प्रवेश प्रक्रिया का विरोध करने के लिए ऑनलाइन पेटीशन पर हस्ताक्षर करें....

मलयांचल मिश्रा की अपील

प्रिय साथियो,

आपको ये जानकर बड़ा ही आश्चर्य व दुख होगा जैसा की मुझे भी हुआ, की हमारे विश्वविद्यालय ने हमारे २ साल की अथक मेहनत व प्रयास को मिटटी में मिलाने की पूरी तैयारी कर ली है! मुझे मालुम है की २ साल जिस परिवार के साथ हमने कुछ दुखद व सुखद पल बिताये है उस परिवार के लिए आपके सामने ये अपमानजनक शब्द का प्रयोग मुझे नही क्या करना चाहिए पर क्या करू जब भी बच्चे को कोई चोट पहुचती है तो सबसे पहले वो अपने परिवार को ही बताता है, सो ऐसा ही मैंने भी करने की कोशिश की है!
मै आपको अवगत करना चाहूँगा की, विश्वविद्यालय अब नए सत्र में प्रवेश के लिए देश भर में आयोजित की जाने वाली प्रवेश परीक्षा को बंद करके सिर्फ और सिर्फ मेरिट के आधार पर प्रवेश देना चाहता है, अब आप ही मुझे बताये ये कहा तक तर्क या युक्ति सांगत है! हमारी देश की खस्ताहाल शिक्षा व्यवस्था से तो सभी वाकिफ है, और ऊपर से नक़ल माफियाओं ने तो सब गुड गोबर कर दिया है जिससे आज सभी स्कूल, कॉलेज अपनी वार्षिक परीक्षाये गावो में आयोजित कराकर शत प्रतिशत परिणाम प्राप्त करने की होड़ में शामिल हो गए है! अब ऐसे में अगर हमारा विश्वविद्यालय मेरिट के आधार पर विद्यार्थियों को प्रवेश देगा तो आप ही समझ सकते है की इससे विश्वविद्यालय से भविष्य के पत्रकार निकलेंगे या भविष्य के बेरोजगार !
वैसे भी पत्रकारिता के क्षेत्र में बढती अनियमित्ताओ से पूंजीपतियों की बांचे खिली हुई उस पर से विश्वविद्यालय के इस फैसले से तो हमारा बेडा गर्क ही है ! अब आप सभी पुरातन व नवीन साथियो से ये विनम्र अनुरोध है की इस विषय पर खुल कर चर्चा करे तथा किसी महत्वपूर्ण एवं पक्ष के नतीजे पर पहुचे !
आपका
मलयाचल मिश्र
भूतपूर्व विद्यार्थी (विज्ञापन एवं जनसंपर्क विभाग २००७ - २००९ सत्र)
वर्तमान - मेनेजर - पी.आर एंड मार्केटिंग, ए.आर.ए डिजिटल मीडिया ग्रुप, जयपुर

ऑनलाइन अपील पर हस्ताक्षर करें.....

Wednesday, June 2, 2010

किस तरह के पत्रकार बनाएगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय....??

देश की पत्रकारिता को करीब पिछले 2 दशक से कई जुझारु, उत्कृष्ट और सम्मानित पत्रकार देने वाला भोपाल का हमारा माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय एक नए और तुगलकी फैसले का शिकार हो गया है। पत्रकारिता विश्वविद्यालय में जो नई घटना सामने आई है वो अगर घट गई तो पत्रकारिता एक बड़ी दुर्घटना का शिकार हो जाएगी। दरअसल इस बार विश्वविद्यालय प्रशासन ने एक अजीबोगरीब निर्णय लिया है जिसके तहत नए सत्र में प्रवेश के लिए कोई प्रवेश परीक्षा नहीं आयोजित की जाएगी, बल्कि स्नातक के अंकों की मेरिट के आधार पर अभ्यर्थियों को प्रवेश दिया जाएगा।
ज़रा सोचिए बिना यह जाने कि प्रवेश पाने वाला अच्छी भाषा में चार पंक्तियां भी ठीक से लिख सकता है या नहीं, बिना ये समझे कि प्रवेशार्थी को सामान्य सा सामान्य ज्ञान भी है या नहीं और बिना यह सुनिश्चित किए कि वह पत्रकार बनने की मूलभूत अहर्ता रखता है या नहीं उसे केवल उसके स्नातक या बारहवीं के अंक पत्र के आधार पर प्रवेश दे दिया जाएगा.......क्या ये पत्रकारिता के भविष्य से खिलवाड़ नहीं....और क्या ये अन्याय नहीं कई योग्य
छात्रों के साथ.....
क्या वैसे ही पत्रकारिता में अयोग्य....भाषाहीन....और चरण वंदन की परम्परा में रत लोगों की कमी है...जो और एक पूरी खेप तैयार करने की कोशिश हो रही है...वो भी एक ऐसे विश्वविद्यालय में जो अपने आप में एक मानक है....एशिया का पहला विश्वविद्यालय जो पत्रकारिता के लिए स्थापित हुआ था.....ये क्या हो रहा है....
मैं यह नहीं कह रहा कि अंक क्षमता का प्रमाण पत्र नहीं हैं...ज़रूर हैं...पर पत्रकार बनने की क्षमता का नहीं हैं....एकमात्र प्रमाण तो बिल्कुल नहीं.....केव्स संचार की और अपने तमाम साथियों की ओर से मैं इस तरह के किसी भी प्रयास का पुरज़ोर विरोध करता हूं....आज से इस पूरी अतार्किक प्रक्रिया के खिलाफ़ केव्स संचार अभियान छेड़ रहा है.....हम हर तरह से इसे रोकने की कोशिश करेंगे...उम्मीद है आप साथ आएंगे.....क्या कहना है आपका हमें मेल करें.....cavssanchar@gmail.com
क्या हम व्यक्तिगत मतभेदों से ऊपर उठकर इस के खिलाफ एकसाथ लड़ेंगे.....मुझे उम्मीद है जवाब हां में होगा....तो हल्ला बोल.......
आपके विचार हम रोज़...लगातार श्रृंखलाबद्ध तरीके से प्रकाशित करेंगे....तमाम और वेब और प्रिंट माध्यमों की भी मदद लेंगे.....लड़ाई लड़ेंगे...अगर शांति से बात सुनी गई तो वैसे...और नहीं तो कानूनी मदद भी लेंगे.....
कल हम नितिन शर्मा और मलयांचल के अलावा और भी साथियों के वक्तव्य और विचार प्रकाशित करेंगे....और साथ ही पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति का सम्पर्क भी जिससे आप सब सीधे उनसे बात कर सकें...उनसे विनती कर सकें......पत्रकार हैं....कलम से ही लड़ेंगे.....

इस अभियान में हमारे साथ आने के लिए या इस फैसले का पुरज़ोर विरोध करने के लिए ऑनलाइन पेटीशन पर हस्ताक्षर करने के लिए इस तस्वीर पर क्लिक करें....या फिर दिए गए लिंक का प्रयोग करें....

Tuesday, June 1, 2010

जीने की कला भूले रविशंकर...



श्री श्रीरविशंकर के आश्रम में गोली चली। पिस्तौल की यह गोली करीब सात सौ फीट दूर से चली थी और एक आश्रमवासी का पेंट फाड़ते हुए जमीन पर गिर पड़ी थी। यह गोली अगर लग भी जाती तो कंकर से ज्यादा घाव नहीं करती। मगर अब रविशंकर को जैड प्लस सुरक्षा चाहिए। उनका तर्क है कि उनके आश्रम मंे तमाम विदेशी मेहमान भी आते हैं और उनकी सुरक्षा के लिए सरकार को फैसला करना चाहिए।

उधर पुलिस का कहना है कि रविशंकर यानी श्री श्रीरविशंकर झूठ बोल रहे हैं। पुलिस के अनुसार यह गोली तब चली थी जब विश्व विख्यात और करोड़ो शिष्य वाले आध्यात्मिक गुरु रविशंकर पांच मिनट पहले वहां से जा चुके थे। रविश्ंाकर का उल्टे आरोप है कि झूठ पुलिस बोल रही हैं। गोली तब चली जब वे कार में बैठ रहे थे और गोली की आवाज उन्होंने खुद सुनी है। सारी दुनिया को जीने की कला यानी आर्ट ऑफ लिविंग सिखाने वाले रविशंकर अब अपनी जिंदगी को ले कर इतने क्यों डर गए हैं?

रविशंकर एक कार के पुर्जे बेचने वाले परिवार में पैदा हुए थे। उनकी वेबसाइट बताती है कि उन्हें चार साल की उम्र में गीता पूरी याद हो गई थी। यही सच साध्वी उमा भारती के बारे मंे कहा जाता हैं। बंगलुरु से निकले तो रविशंकर सीधे दिल्ली आए और सफदरजंग एक्सटेंशन में महर्षि महेश योगी के शिष्यों के साथ रहने लगे। इनमंे से एक शिष्य वीरेंद्र मिश्र दिल्ली में जाने माने पत्रकार भी है।

रविशंकर ने योग सीखा, महर्षि महेश योगी से मिले और महेश योगी ने उन्हें पंडित कहना शुरू कर दिया। उस समय रविशंकर छोटे छोटे शिविर लगाया करते थे जिनमें किसी में दस और किसी में बीस लोग होते थे। अपने शिविरों की खबर देने अखबारों के ऑफिस खुद जाया करते थे। एक दिन अचानक उन्होंने अपना नाम गुरु रविशंकर रख लिया। देखने में सुंदर हैं ही और योग की साधना को उन्होंने सुदर्शन क्रिया का नाम दे कर बाद में एक सफल व्यापारी की तरह पेटेंट करवा लिया। वे अपने गुरु महेश योगी के रास्ते पर चल रहे थे जिन्होंने अपनी साधना को भावातीत के नाम से पेटंेट करवाया था और उन्हांेने तो अपनी मुद्रा भी चला दी थी।

देश के गृह मंत्री और कर्नाटक के पुलिस महानिदेशक अजय कुमार सिंह एक ही बात कह रहे हैं और वह यह कि आश्रम वासियों का आपसी झगड़ा रहा होगा और गोली का निशाना रविशंकर नहीं थे। हमलावर को अभी तक किसी ने नहीं देखा। अजय कुमार सिंह का तो कहना है कि गोली हवा में चलाई गई थी इसलिए किसी को मारने के इरादे से इसको चलाए जाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। कोई करोड़ो लोगों के गुरु और दुनिया के 150 देशों में अपने आश्रम बनाने वाले रविशंकर को मारने आएगा और देशी पिस्तौल ले कर आएगा यह किसी को हजम नहीं हो रहा।

रविशंकर की जिंदगी में पहले भी कई विवाद रहे हैं। प्रतिबंधित मुस्लिम आतंकवादी
संगठन सिमी के नेताओं से उन्होंने अपने आश्रम में बुला कर बात की थी और खाना खिलाया था। हिंदू आतंकवाद के चक्कर में गिरफ्तार और बर्खास्त कर्नल श्रीकांत पुरोहित ने पुलिस को बयान दिया है कि हिंदू धर्म को बचाने के लिए आत्मरक्षा और आक्रमण की अपनी योजना उन्होंने खुद श्री श्रीरविशंकर को बताई है। कर्नल पुरोहित ने तो मध्य प्रदेश के पचमणि में जहां वे तैनात थे, रविशंकर का साधना शिविर भी आयोजित करवाया था। जो पुलिस प्रज्ञा सिंह और पुरोहित को मालेगांव बम विस्फोट का मुख्य अभियुक्त बना कर पकड़ सकती है उसने रविशंकर से पूछताछ करना जरूरी नहीं समझा।

रविशंकर के नाम में ये जो दो श्री जुड़े हुए है इनकी भी एक कहानी है। रविशंकर ने अपने साधना शिविरों में भीड़ जुटाने के लिए भजन गायकों का इंतजाम किया और उनका निमंत्रण कुछ इस तरह जाता था कि रविशंकर की आध्यात्मिक संगीत संध्या मंे आप आमंत्रित है। विश्व विख्यात सितार गुरु रविशंकर के भुलावे मंे लोग आ भी जाते थे और वहां रविशंकर बच्चों की तरह इठला इठला कर प्रवचन देते थे। सितार गुरु रविशंकर को जब पता चला तो उन्होंने धर्म गुरु बनने जा रहे रविशंकर को आगाह किया कि वे उनके लोकप्रिय नाम का संगीत संध्या के नाम पर इस्तेमाल नहीं करे। रविशंकर ने अपने नाम के आगे एक नहीं, दो दो श्री जोड़ लिए। आज श्री श्रीरविशंकर का आध्यात्मिक कारोबार अरबों डॉलर का हैं, उनके शिष्य आपस में दुआ सलाम भी जय गुरुदेव कह कर करते हैं। उनकी किताबें कई भाषाओं में लाखांे की संख्या में बिकती है। उनकी पत्रिका बहुत लोकप्रिय हैं। इस मामले में उन्होंने महेश योगी और रजनीश को मिला दिया हैं।

मगर सुरक्षा बढ़ाने का रविशंकर का दावा समझ मंे नहीं आता। वे एक आश्रम में रहते हैं। उनके निजी अंगरक्षक भी हैं और अगर उन्हांेने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा तो उन्हें जैड श्रेणी की सुरक्षा क्यों चाहिए? क्या यह अपना रुतबा बढ़ाने की एक बाल सुलभ कोशिश नहीं हैं? अगर है तो इस पर गंभीर आपत्ति की जानी चाहिए। रविशंकर के भक्त दीवानों की तरह उन पर आस्था रखते हैं और जहां वे जाते हैं वहां भक्तों की भीड़ में ही रहते हैं।

ऐसे में कमांडो और भक्तों को उनसे लगातार दूर करने वाले सुरक्षाकर्मी मांगना
कहां तक उचित है? रविशंकर ने योग और आध्यात्मिक को मिलाया हेै मगर वे आर्ट ऑफ लिविंग को वे पता नहीं क्यों जान बचाने की कला में बदल देना चाहते हैं? लोकप्रियता के तमाम टोटके उन्होंने कर डाले। मार्च 2010 में यमुना को बचाने के लिए उन्होंने अभियान छेड़ा था और कहा था कि सात महीने में यमुना को शुद्व कर देंगे। तीन महीने बीत चुके हैं और अभी इस अभियान का पहला कदम भी नहीं रखा गया है।

आलोक तोमर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, टीवी-फिल्मों के प्रसिद्ध पटकथा लेखक हैं। सम्प्रति डेटलाइन इंडिया समाचार एजेंसी के सम्पादक हैं।)

कहां है नक्सलियों के हमदर्द

कहां है नक्सलियों के हमदर्द
6 अप्रेल 2010 दंतेवाड़ा का ताड़मेटला कांड 76 बेगुनाह सैन्य जवानों की जान, बीजापुर के आवापल्ली 15 एसपीओ सहित 31 बेगुनाह की जान, सुकमा मे विस्फोट करके 30 जवानों की जान , 28 मई झारग्राम के पास रेलवे ट्रेक पर विस्फोट कर 150 से ज्यादा बेगुनाहों की जान लेकर देश के सबसे बड़े गद्दारों ने यह साबित कर दिया हैं कि उनका लक्ष्य सिर्फ दिल्ली की सत्ता हासिल करना है और इसके रास्ते मे चाहे कितने भी निर्दोषों की जान क्यो ना चली जायें. नक्सली कौन है कहां से आये है अब मै इसे बताने की कोशिश नही करूंगा क्योकि इनके बारे मे लोग पहले भी विभिन्न माध्यमों के बारे मे जान चुके हैं..पशुपति से लेकर तिरूपति तक ये लाल गलियारे स्थापित करना चाहते है और अगर सरकार अब भी कोई कड़ी कार्रवाई करने मे देर करती है तो ये अपने नापाक इरादे मे कामयाब हो सकते है. तालिबानी तर्ज पर आतंक मचाने वाले ये दहशतगर्द किस तरह से बैखोफ होकर बेगुनाहों के साथ खून की होली खेलते है. मै छत्तीसगढ़ मे हूं और इस राज्य मे किस तरह नकसलियों ने आतंक फैला रखा है उसे दिल्ली मे बैठे नक्सल तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता और संगठन के लोग नही समझ सकते है.सुरक्षा निगरानी संस्थान द इंस्टीटयूट फांर कांफ्लिक्ट मैनेजमेंट की हालिया रिपोर्ट यह बया करती हैं कि नक्सलियों 2005 से अब तक 1680 नागिरक और 990 जवानों को मौंत की नींद सुला चुके है जिसमे झारग्राम की घटना शामिल नही है. लेकिन तथाकथित मानवाधिकार संगठनों ने कभी भी इस पर अपनी प्रतिक्रिया देने की कोशिश नही की है. वो हर पल यही कहते है ये अपने लोग है सरकार द्वारा अपनायी गयी दमनकारी नीतियों के खिलाफ उन्होने बंदूके उठा रखी है. मेरा मानना है कि जब तक असमान विकास और लालफीतासाही जारी रहेगी तब तक असंतोष पैदा होगा. भारत मे हो रहा विकास असमान है इस बात से शायद ही कोई इंकार करे. लेकिन इसका ये मतलब नही है कि आप बेगुनाहों का खून बहाने वालो को बौद्धिक रूप से समर्थन करे,सरकार पर ये दबाव बनाये कि वो नक्सलियों के खिलाफ आपरेशन ग्रीनहंट वापस ले. ये वो मानवाधिकार वादी है जिन्हे नक्सलियों का मर्म तो समझ आता है लेकिन 12 जुलाई 2009 को शहीद हुए राजनांदगांव के एसपी विनोद चौबे की विधवा की टीस नही दिखती है.ये वही लोग है जो संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी पर रोक का समर्थन करते है लेकिन शहीद कभी भी किसी भी सेना के जवानों के परिवार की आपबीती सुनने की तकलीफ नही उठाते है. राजनांदगांव, कांकेर,बीजापुर,बस्तर के इलाके मे नक्सली अपना दहशत फैलाने के लिए भोले भाले ग्रामीणों के बीच जन अदालत लगाते है और इन्ही ग्रामीणों के बीच 4 से 5 लोगो की बेदम पिटाई करने के बाद धारदार हथियार से गला रेत कर हत्या कर देते है. क्या ये मासूमों और बेगुनाहों की हत्या नही..लेकिन अरूंधति राय,स्वामी अग्निवेष, जैसे छद्म मानवाधिकार के समर्थकों को नही दिखता है और दिखेगा भी क्यो क्योंकि इन्होने कभी बस्तर मे अपनी रात गुजारी भी नही है जिस दिन स्वामी अग्निवेष, प्रोफेसर यशपाल जैसे लोग जगदलपुर मे शांति जुलुस निकाल रहे थे ठीक उसी दिन नक्सलियों ने लैंडमाइन ब्लास्ट कर 8 बेगुनाहों को मौंत की नींद सुला दी ,क्या मानवतावाद के इस पुरोधा की नींद अब भी नही जागेगी. नग्सल हिंसा के कारण दंतेवाड़ा, बीजापुर,जैसे इलाके मे शिक्षक , डाक्टर भय से अपने काम पर नही जाते है. बस्तर के 40000 हजार क्षेत्र से ज्यादा क्षेत्रों मे नक्सलियों ने लैंड माइन बिछा रखे है. सरकार स्कूल बनवाना चाहती है तो वे उसे गिरा देते है, अस्पताल को विस्फोट कर गिरा देते है,मोबाइल टावर को निशाना बनाकर संचार सेवा को ध्वस्त कर देते है तो बताए कि ये भोले भाले आदिवासी कहां जाए. सरकार से अगर शिकायत है तो उसे बताने के लिए अहिंसा का रास्ता अपनाया जा सकता है लेकिन बेगुनाहों का खून बनाकर क्या नक्सली आदिवासियों का भला कर पायेंगे. तथाकथित बौद्धिकवादियों को समझना होगा कि नक्सली का उदेश्य केवल बेगुनाहों का मारना या सरकारी सम्पत्तियों को नुकसान पहुंचाना नही बल्कि वे समानांतर सरकार बनाकर वो देश मे अराजकता की स्थिति पैदाकर हिटलर जैसी तानाशाही व्यवस्था लागू करना चाहते है और तब इन मानवतावादियों को कलम चलाने या जुलुस निकालने की स्वतंत्रता नही होगी फिर उनका भी कत्लेआम कुछ इसी तरीके से होगा जिस तरीके से वे निरीह आदिवासियों के साथ खून की होली खेलकर जश्न मनाते है. तथाकथित बौद्धिकवादियों को तो ये पता होगा कि नक्सली 1600 करोड़ रूपये की अवैध वसूली प्रत्येक साल करते है सीधे शब्दों मे कहे तो नक्सली 1600 करोड़ की अवैध वसूली करते हैं ठेकेदारों,ग्रामीणों और सरकार के ब्यूरोक्रेट से करते है क्या तथाकथित मानवतावादियों का ध्यान कभी इस तरफ नही जाता हैं.....शायद जायेगा भी नही क्योकि इनकी दुकानदारी ही सरकार और आदिवासी विरोध के नाम पर चलते है और बकायदा नक्सली चर्चा मे आने के लिए सारे तत्व उपलब्ध कराते हैं . ये बात करना बंद करे कि नक्सली बेगुनाह को निशाना नही बनाते है क्योकि दंतेवाड़ा,बीजापुर, राजनांदगांव और झारग्राम का नरसंहार ये बताता है नक्सली सही मायने मे चाहते क्या है, अगर वे पुलिस को ही निशाना बनाते है तो क्या सीआरपीएफ या पुलिस के जवान इस देश के नागरिक नही हैं क्या इन्हे संविधान ने बराबर से रहने का हक नही दिया है क्या ये सैलरी भारत सरकार की उठाते है और पाकिस्तान के लिए काम करते है. मानवाधिकारवादी समझे कि अगर ये एसी की हवा मे सोते है और दिल्ली मे कनाट प्लेस या मुंबई के गेटवे आंफ इंडिया मे शापिंग का मजा लेते है तो इसकी वजह सिर्फ और सिर्फ सैना के जवानों के द्वारा सरहदों पर लगातार की जा रही निगेहबानी है ....नक्सली सिर्फ और सिर्फ देश के गद्धार है और आतंक को साम्राज्य कायम ही इनका उदेश्य है. अपने लिए सुरक्षा मजबूत करने के मकसद से लिट्टे और तालिबान के तर्ज पर ये नक्सली बच्चे और मासूमों को बंदूक थामने पर विवश करते है , क्या अरूंधति राय इस पर कुछ लिखना चाहेंगी ......
नक्सलियों के बीच सात दिन तक समय गुजारने वाली अरूंधति राय कभी ये बतायेंगी कि 6 अप्रेल 2010 को नक्सलियों द्वारा किये गये नरसंहार मे मारे गये जवान के घर इन्होने कितना वक्त गुजारा है ,नही गुजारा है और शायद गुजारेंगी भी नही क्योंकि ना तो ये और ना ही इनके करीबी दंतेवाड़ा,गढचिरौली, या झारग्राम मे रहकर पंबगाल या छत्तीसगढ़ के लोगो की रक्षा नही करते है.तुलसीदास जी ने सटीक ही लिखा है
बांझ क्या जाने प्रसव की पीड़ा...
अरूंधति राय,प्रोफेसर यशपाल या मानवाधिकार के चंद चाटुकार नक्सलियों की पीड़ा को क्या समझेंगे..
समय आ गया है कि देश के दुश्मनों के सफाई के लिए तमाम राजनीतिक या देश से स्नेह रखने वाले संगठन सेना ,सीआरपीएफ,एसपीओ,कोया कमांडो, आईटीबीपी के जवान के साथ आये, दिग्विजय सिंह, या लालू प्रसाद जैसे नेता से हमे उम्मीद है कि अपने सारे राजनीतिक स्वार्थों की तिलांजली देते हुए देश के आंतरिंक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े चुनौती बने नक्सलियों के खिलाफ उठाये गये कदम मे केंद्र और विभिन्न सरकार का साथ दे....
नक्सली सिर्फ देश के गद्धार है जो हिंसा, अराजकता, खून,कत्लेआम, चिखने और चिल्लाने की भाषा को समझते है और शांति ,अहिंसा से इनका दूर दूर तक का कोई संबंध नही है,दुश्मन का साथ देने वाला भी दुश्मन होता है चोर का साथ देने वाला भी चोर होता है और अगर ये बौद्धिकवादी नक्सल हिंसा का समर्थन करते है तो इनकी आवाज को भी सरकार सख्ती से दबा दे
अगर श्रीलंका जैसा छोटा देश लिट्टे के आतंक से मुक्त हो सकता है तो भारत नक्सल हिंसा से मुक्त क्यो नही हो सकता है
आशा है तथाकथित मानवतावादी और छद्मबौद्धिकवादी देश की निरीह,भोली भाली जनता की आवाज को सुन पायेंगे........
नक्सली सिर्फ देश के सबसे बड़े गद्धार है और कठोरता से इसकी हिंसा को सरकार दबा दे ....
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