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Monday, July 27, 2009

ऐ मेरे वतन के लोगों




हमारे देश ने कल कारगिल के सहीदों की विजय की दसवीं वर्षगांठ मनाई है। हम सभी ने नम आंखों के साथ सहीदों को याद किया है जिस वजह से उन्होंने कुर्बानी दी है उस वजह के लिए इमानदारी से जुड़ने की प्रेरणा दी है हम सभी उस वजह को सिर्फ़ एक दिन ही याद रख पाते हैं बाकी समय न ही हमरे पास वक्त होता है और न ही बहस का कोई औचित्य की इस मुद्दे पर भी बहस सम्भव है। हम और हमारे पास बहस का वक्त होता है इस बात के लिए की राहुल जी सोनिया जी और प्रियंका जी की सुरक्षा मैं सेंध न लगने पाये


हमारे पास वक्त होता है की सच का सामना जैसे सीरियल चलने चाहिए की नही चलने चाहिए हमारे पास वक्त होता है की देश की संसद मैं १५ फीसदी समय इस सत्र मैं कलह और शोर गुल मैं बरबाद हो चुका है। हमारे पास इस बात को जानने और अफ़सोस का भी वक्त है की देश की जितनी मारुती कारें एक साल मैं बिकती हैं उसके आधे भी स्कूल नही खुलते हैं जबकि दोनों की कीमत एक है। हम गर्व सहीदों पर तो तब करते हैं जब यदा कदा कोई मौका पड़ गया हम तो गर्व करते हैं अपनी सभ्यता और संस्कृति पर की अमेरिका इसका क्या मुकाबला करेगा,कल मैंने देखा भोपाल मैं लोग जमा हुए लेकिन कारगिल के लोगों को याद करने के लिए नही बल्कि एक इसाई चर्च के बाहर ये आरोप लगाकर की वहां धर्मान्तरण हो रहा था। चर्च मैं तोड़ फोड़ भी की गई थी। हमारी संवेदनाएं दम तोड़ चुकी हैं उन पर पपडी भी जम चुकी है जब कोई कुरेद देता है दीय्या चिल्ला देते हैं।


कितने लोगों को याद है की लखनऊ मैं अमर सहीद मनोज कुमार पाण्डेय कहाँ रहा करते थे या कितने लोग इस बात से वाकिफ हैं की हमारे सहर से जो भाई सहीद हुए थे उनकी बेवा को वक्त पर पेंशन मिलती भी है या की नही। कितने लोगों को पता है कैप्टेन अनुज नायर के पिता को पेट्रोल पम्प तब मिला था जब उनके ऊपर एक फ़िल्म बन गई, और फ़िल्म के किसी भी कलाकार ने उस फ़िल्म मैं काम करने का एक भी पैसा नही लिया। हम अपनी संवेदनाओं को जीवित रख पायें यही शायद उन सहीदों को हमारी अन्तिम श्रधांजलि होगी और अंत मैं


बस इतना याद रहे एक साथी और भी था
खामोश है जो ये वो सदा है
वो जो नहीं है वो कह रहा है
साथियों तुमको मिले जीत ही जीत सदा
बस इतना याद रहे एक साथी और भी था
जाओ जो लौट के तुम तो घर हो खुशी से भरा
जाओ जो लौट के तुम तो घर हो कुशी से भरा
बस इतना याद रहे एक साथी और भी था
बस इतना याद रहे एक साथी और भी था


आशु प्रज्ञा मिश्रा
माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय
भोपाल

1 comment:

  1. न हौसले न इरादे बदल रहे हैं लोग
    थके थके से हैं पर फिर भी चल रहे हैं लोग

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