(हिन्दी फिल्मो के मशहूर लेखक और गीतकार हैं प्रसून जोशी। प्रसून जी कभी पेशे से एड गुरु हुआ करते थे पर मन से हमेशा थे साहित्यकार तो आखिरकार सब्र नहीं कर पाये और कूद ही गए सक्रिय लेखन में। प्रसून शानदार कवि हैं और इसका दर्शन हमें उनके फिल्मी गीतों में भी हो जाता है। आँधियों से झगड़ रही है लौ मेरी ...अब मशालों सी बढ़ रही है लौ मेरी ! जैसी पंक्तियाँ लिखने वाले प्रसून जोशी ने कोई 2 साल पहले दैनिक भास्कर के लिए हिन्दी पर एक आलेख लिखा जो आज हिन्दी दिवस के अवसर पर आपके लिए साभार प्रस्तुत है, )
भाषा कोई भी हो, वह अपनी जमीन से उपजती और पनपती है, इसलिए कोई लाख चाहे भी तो उसका रिश्ता उस जमीन से तोड़ नहीं सकता। भाषा को लेकर आज तक जितने भी विवाद हुए हैं, उसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं रहा है। कुछ स्वार्थी तत्वों का हित-साधन उससे जरूर हो जाता है। भाषा का उससे न कुछ बनता है, न बिगड़ता है। जहां तक हिंदी की बात है, वह खुद इतनी सक्षम और सशक्त है कि अपना पालन-पोषण जीवंत तरीके से कर रही है। हर भाषा समय के साथ अपना रूप-रंग बदलती रहती है। इसका मतलब यह नहीं कि वह अपने मूल रूप से च्युत हो रही है। दरअसल उसकी आत्मा नहीं बदलती है। हिंदी को खुद खिलने और खेलने की आजादी मिलनी चाहिए।
हिंदी तो सतत प्रवाहित धारा है। धारा जरूरी नहीं कि सीधी ही चले, आड़ी-तिरछी भी चलेगी। उसे उसी रूप में बहने नहीं दिया गया, तो उसके साथ अन्याय होगा। हिंदी का विकास कभी नहीं रुका, सिर्फ जगह-जगह रूप बदल रहा है। जब मैं उत्तर भारत में था तो मुझे लगता था कि जो हिंदी वहां बोली जा रही है, वही सही हिंदी है। जब मैं मुंबई आया तो पाया कि हिंदी तो यहां भी है, मगर उसमें कुछ टपोरीपन और मस्ती मिली हुई है। उसे ही हर कोई सुनता और बोलता है। किसी को कोई परेशानी भी नहीं होती। इसका मतलब यह नहीं कि हिंदी विकृत हो गई। हां, यह जरूर लगा कि व्याकरण यहां मजबूर हो गया है। भाषा-शुध्दि की आवश्यकता है। मगर यह शुध्दिकरण अभियान कहां-कहां चलाएंगे? इसलिए भाषा को अपनी राह पर चलते रहने की आजादी चाहिए, जो अंतत: समृध्दि ही देगी।
हमें अंग्रेजी से कुछ सीखने की जरूरत है। उसकी समृध्दि का राज सभी जानते हैं कि वह जहां गई है, वहीं की हो गई। भारत, स्पेन, रूस, ऑस्ट्रेलिया में अंग्रेजी को अलग-अलग ढंग से बोला जाता है, क्योंकि वहां की स्थानीय बोलियां उसमें शामिल हो जाती हैं। आंचलिक भाषाओं ने अंग्रेजी को इतना कुछ दे दिया है कि अंग्रेजी ऋणी हो गई है। भारत में भी लगभग सारी भाषाओं के शब्द अंग्रेजी में घुल-मिल रहे हैं। इस मामले में हिंदी पिछड़ रही है। हिंदी के तथाकथित अलमबरदारों ने इसे अपनी ही सीमा में देखने और रखने का मानो संकल्प ले लिया है, लेकिन क्या किसी के रोके हिंदी का विकास रुक रहा है? अगर रुकना होता तो हिंदी के इतने सारे टीवी चैनल नहीं आए होते! और भी दर्जनों चैनल आने वाले हैं। हिंदी के अखबारों के संस्करणों में लगातार वृध्दि हो रही है। पाठकों की संख्या का अनुमान लगाना मुश्किल हो गया है।
टीवी सीरियल्स और हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता और मांग में इजाफा ही हो रहा है। आज के जितने सफल विज्ञापन हिट हैं, वे सारे के सारे लगभग हिंदी में ही हैं। विज्ञापनों में 'कैच लाइन' का बहुत महत्व है, हिंदी में ज्यादा चर्चित हैं। वह चाहे 'ठंडा मतलब...', 'सबका ठंडा एक...', 'दोबारा मत पूछना...', 'पीयो सर उठा के...' हो या फिर 'ज्यादा सफेदी...' हो- हिंदी के सारे कैच लाइन मुहावरे की तरह प्रचलित हो रहे हैं। हिंदीभाषियों को और भी उदार होने की जरूरत है। हृदय विशाल हो जाए तो सीमा-रेखा अपने आप मिट जाएगी। सभी भाषाओं और बोलियों का सहयोग लेना चाहिए। अंग्रेजी के साथ भी जीने की आदत डालनी चाहिए, इसलिए मेरा मानना है कि भाषा के कपाट को कभी बंद नहीं रखना चाहिए। उसका खुला रहना सुखकर और समृध्दिकर है।
कोई कैसे बोलेगा और कोई कैसे- इसे समस्या नहीं समझना चाहिए। हिंदी बोलने की आदत अगर कोई डाल रहा है तो यह अच्छी बात है। गैर-हिंदीभाषी ही क्यों, हिंदीभाषी भी अशुध्द बोलते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि वे हिंदी को बिगाड़ रहे हैं। इसे इस तरह कहना चाहिए कि वे बोलकर भाषा को सीखने और शुध्द करने का प्रयास कर रहे हैं। यह उनकी मुख्यधारा(हिंदी) में शामिल होने की इच्छा है। गाना सबका स्वभाव होता है। कोई अच्छा गाता है और कोई बुरा। बुरा गाने वालों का लगाव गीतों से उतना ही है, जितना अच्छा गाने वालों का। फर्क इतना ही है कि किसी का सुर अच्छा लगता है और किसी का बुरा। गानों की तरह भाषा पर सबकी पकड़ एक जैसी हो, संभव नहीं है।
हिंदी के हितैषी पता नहीं क्यों, इसे लेकर इतना बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं! हम यह क्यों नहीं मानते कि सबका बौध्दिक स्तर एक जैसा नहीं होता? कोई भाषा और व्याकरण के मामले में कमजोर होता है और कोई परिष्कृत शब्दों का इस्तेमाल करता है। इसके बावजूद दोनों में संवाद होना चाहिए। इससे दोनों में समृध्दि आएगी। जिम्मेदारी भी महसूस होगी। हां, यह बात सही है कि आजकल फिल्मों की स्क्रिप्ट रोमन लिपि में लिखी जाती है, मगर इससे क्या फर्क पड़ता है। अंतत: पर्दे पर तो वह हिंदी ही बनकर आती है। इसे अंग्रेजीदां की जिद नहीं कह सकते। संभव है उन्हें अच्छी हिंदी बोलनी आती हो, मगर पढ़नी नहीं। सीधे हिंदी पढ़ने के बाद जो भाव आता है, संभव है वह रोमन से नहीं आता हो, मगर यह काम निर्देशक का है कि संवाद के अनुसार एक्सप्रेशन या इमोशन कैसे लाया जाए! जहां तक फिल्म, टीवी, एड मीडिया में अंग्रेजी स्कूलों से पढ़े लोगों के आने की बात है, इसमें हिंदी को खुश होना चाहिए कि उन्हें हिंदी ही आश्रय दे रही है। वे अंग्रेजी में भले योजना बनाते हों, स्क्रिप्ट भी अंग्रेजी में मांगते हों, सेट पर पूरा माहौल अंग्रेजीनुमा हो, मगर कलाकारों को जब डायलॉग बोलने की बारी आएगी तो क्या बोलेंगे?
वैश्वीकरण के बाद हिंदी का भी विस्तार हो रहा है। हिंदी फिल्में विदेशों में भी धूम मचा रही हैं। इसे सिर्फ भारतीय या भारत के गैर-हिंदीभाषी ही नहीं देखते हैं, बल्कि विदेशी भी देखते हैं और समझने की कोशिश करते हैं। अगर आज की भाषा में कहूं तो हिंदी एक बड़ा बाजार बन गया है। विदेशी भी हिंदी में काम करना चाह रहे हैं। भले उनके डायलॉग डब किए जाएं, मगर हिंदी की सत्ता को वे स्वीकार तो कर ही रहे हैं। हिंदी की अपनी भाव-भूमि है। उसके अपने शब्दों में क्षेत्र, जमीन, मौसम, संवेदना और भावना का असर होता है। 'तारे जमीं पर' में 'मां...' वाला गाना भारतीय जमीन और मानसिकता का प्रतिबिंब है। उसका अनुवाद अगर विदेशी भाषा में होगा तो वह असर नहीं पैदा होगा, क्योंकि वहां की संस्कृति में 'मां' का क्या स्थान है, ठीक-ठीक पता नहीं है। यह निश्चित है कि मां का जो दर्जा यहां है, वैसा कहीं नहीं है। इसलिए मैं मानता हूं कि हिंदी की भाषा जितनी समृध्द है, उतने ही विचार भी परिपक्व हैं। हिंदी को रोकना संभव नहीं है, मगर हमारी जिम्मेदारी है कि हम हिंदी को खिलने की आजादी दें।
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