सियासी घोड़े जब हिनाहिनाएं और कोई सहीस उन्हें न रोके तो समझों आप अपने घर में नहीं बल्कि अस्तबल में हैं। अस्तबल मतलब घोड़ों का घर, जहां उन्हीं की पुस्तंगे हैं और उन्हीं का निजाम। नेताओं के आमसभाओं में भीड़ बढऩे लगा, अफसर की तनी हुई भौहों को लोग उनकी अदा मानने लगें, तो समझो यह दो दुरात्माओं की रतिक्रिया है और जल्द ही हिटलर जन्म ले रहा है। कौआ इमली के ऊंचे डाल पर बैठकर चील को ललकारने लगे और गिद्ध को पंखे मारे तो समझो या तो गांव में कौओं सी कालिमा आने वाली है। या फिर आप मरघट पर हैं। मरघट पर आदमी तफरीह करने नहीं जाता, जहां तक मेरा ख्याल है। यहां ता तो आदमी आधी रात को आत्मा को जगाने जाता है, या फिर किसी सोए आदमी को स्वाहा करने।
छत्तीसगढ़ राज्य के भी कमोबेश यही हाल होने जा रहे हैं। जनाब आपको जानकर
होगा कि यहां पर नेता का मतलब राजा और अफसरान का मतलब वजीरियत से कम नहीं होता। अरे यहां तक तो फिर भी ठीक है, जब किसी बड़े अफसर के बीवी किसी मंच पर यदा-कदा पायलों की झनकार बिखेरती है तो फिर क्या कहने। मुहतरमा अखबारों की सुखियां बन जाती हैं। दरअसल ऐसा कोई भी राजनेता या अफसर चाहता ही है। नेता जिसने बड़े श्रम के बाद बमुश्किल कुर्सी पाई है, वो भी व्हील चेयर जो चारों तरफ बिना किसी बाधा के घूम सकती है, तो भला वह क्यों जनता नाम की चुहिया से डरे। इसी तरह कहने को देश के तथाकथित सबसे बौद्धिक इम्तहान को पास करके कुसी पर बिराजमान अफसर भी क्यों न ऐंठ रखें। छत्तीसगढ़ में न जाने क्यों ऐसा सा लगता है, कि यहां की सत्ता सिविल लाइंस से चलती है, जहां या तो नेता हैं या फिर अफसर और अगर इनके अतिरिक्त कोई है, तो बनिए। हां कहीं किसी पेड़ के नीचे फेंफड़ें फडफ़ड़ाता भूखा नंगा रिक्शाधारी दिखने में इंसान सा जान पड़ता जीव भी है।
यह सब तो आम बात हो गई, अब आइए, महाराज ऐसी बात पर जिसे लोग अपनी आस्था का केंद्र मानते हैं। मीडिया। खासकर टीवी और अखबार। यह दोनों ही मीडिया परिवार के सक्रिए और प्रेस परिवार के अग्रणी सदस्य हैं। छत्तीसगढ़ में सियासी और अफसरान की वाहवाही का इनपर बड़ा जिम्मा है। कोई नेता हैं, कहने को तो शहर के हैं, अंदरूनी तौर पर सीएम हाउस के पैरेलल सत्ता चलाते हैं। मंत्री भी हैं, एक रचनाशील व्यक्ति को अपनी इंडीयन पॉलिटिक्स सर्विस (आईपीएस) के जरिए उखाड़ फेंका। कोई मुन्ना-मुन्ना सा नाम है जिनका वो भी मंत्री हैं, लेकिन बदमिजाजी के उभरते सोने हैं। कुछ-कुछ इसी तरह से जैसे गणेश की झांकी बनाते वक्त किसी उधम मचाते बच्चे को हथौड़ी थमाना हो। ताकि वह बच्चा इस छोटी सी नाममात्र की जिम्मेदारी को पाकर उधम से विमुख हो जाए और काम ठीक से होने लगे। ऐसा ही इस्तेमाल उनका हो रहा है, मुख्यमंत्री के घर से। राज्य की दीख पड़ती विकास मरीचिका से सब गद-गद हैं।
मीडिया भाई। शहर के रहने वाले किसी मंत्री का टेरर कहूं, या फिर यह उसकी खरीदी ताकत। बृजमोहन अग्रवाल के किसी समर्थक ने रायपुर के कालीबाड़ी चौक पर एक वर्टिकल होर्डिंग लगाव रखा है। इसमें बृजमोहन अग्रवाल के बचपन से लेकर अबतक के फोटो के साथ उनके उस दौर के नाम भी लिखे हैं। कोई आश्चर्य नहीं। किंतु आश्चर्य होता है, लल्ला यानी बृजमोहन ने जन्म लिया, बाजू में कृष्ण की तस्वीर। वाह। वाह। वाह। फिर मोहना, यानी विद्यार्थी जीवन। बृजमोहन युवावस्था। और सियासी युवावस्था श्री बृजमोहन और अब माननीय श्री बृजमोहन अग्रवाल मंत्री छत्तीसगढ़ शासन। और फिर तस्वीर है गोवर्धन पर्वत को उठाए कृष्ण की तस्वीर।
कृष्ण और बृजमोहन में कोई फर्क नहीं।
इससे भी ज्यादा शर्मनाक, यह पोस्टर कई दिनों से लगा है, एक भी विचारवान, चैतन्य, रचनाशील, सोच सकने वाले या सियासी विपक्षियों की नजरों से नहीं निकला। यानी उन्होंने बृजमोहन को स्वीकार कर लिया। जबलपुर में कांग्रेस के एक नेता ने सोनिया और मनमोहन सिंह की तुलना झांसी की रानी से कर दी थी। वह पूर्व विधायक था। आत राजनीति में उसका कहीं कोई अतापता नहीं। इस तरह की देश में कई और भी घटनाएं हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में कोई इस प त्योरियां टेढ़ी करने वाला नहीं है।
अखबार दैनिक भास्कर, दैनिक पत्रिका, दैनिक हरिभूमि, दैनिक नई दुनिया और इकलौता रीजनल न्यूज चैनल, जी-24 घंटे। मगर अफसोस कि बृजमोहन का तांडव या आतंक कहिए जनाब कि एक छोटे से कार्यकर्ता की इस गुस्ताखी पर किसी के मन में कोई तल्खी नहीं। मुझे भी इस बात में आप शामिल कर लें।
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