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Saturday, December 6, 2008

६ दिसम्बर पर कैफी आज्ज़मी की एक नज़्म -

राम बनवास से जब लौटके घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक़्सेदीवानगी आँगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहाँ से मेरे घर में आये

जगमगाते थे जहाँ राम के क़दमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अँगडाई जहाँ
मोड़ नफ़रत के उसी राहगुज़र से आये

धर्म क्या उनका है क्या ज़ात है यह जानता कौन
घर न जलता तो उन्हें रात मे पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा लोग जो घर में आये

शाकाहारी है मेरे दोस्त तुम्हारा ख़ंजर
तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की ख़ता ज़ख़्म जो सर में आये

पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे
पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राजधानी की फ़िज़ा आयी नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे !

5 comments:

  1. शाकाहारी है मेरे दोस्त तुम्हारा ख़ंजर
    तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
    है मेरे सर की ख़ता ज़ख़्म जो सर में आये

    sahi kaha ...

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  2. बहुत खूब सूरत नज्म है। इसे पढ़वाने का बहुत बहुत आभार।

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  3. अच्छी बात है दोस्त.......काश भारत का हर मुस्लिम क़ैफ़ी,नुसरत,क़ैफ़ भोपाली या तमाम शायर बन जायें तो सारी समस्या का निदान हो जाये.........हिमांशु कुच ऐंसा भी लिखो,रचो तो मन की एक परत और खुले.....जबाव ज़रूर दीजिए।।।।।। 09009986179 या SAKHAJEE@YAHOO.CO.IN पे या ळिखें वरुण कुमार श्रीवास्तव असाइनमेंट डेस्क ज़ी24घंटे,छत्तीसगढ़,आर्सन मोटर्स लोधीपारा,रायपुर 01.(छ.ग.)

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  4. कैफ़ी की ये नज़्म अगर मैंने ६ दिसम्बर से पहले देखि होती तो अपनी पी टी सी में शामिल करता

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