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Sunday, December 6, 2009

6 दिसम्बर.........

रात बीतने वाली है....और घड़ी से नज़रें चुराता कैलेंडर गवाही दे रहा है कि तारीख हो चली है....6 दिसम्बर....और साल हो गए हैं 17....तब मैं शायद 8 साल का था...और पूरे मोहल्ले में शोर था कि मस्जिद ढह गई....कुछ एक आध सड़कछाप लड़कों जिन्हें पूरा मोहल्ला हिकारत की नज़र से देखता था उनके अलावा कोई भी बहुत खुश नहीं था....कहने को कुछ लोगों ने मिठाइयां बांट दीं और दिए जलाने का नाटक भी किया पर सबके अंदर एक अजीब सा डर था...कि अब क्या होगा....आपस में बात कर रहे थे कि अब बवाल और बढ़ जाएगा....क्या फायदा....एक सवाल जो अनुत्तरित है कि जो मज़हब या धर्म आप को असुरक्षित कर दे...आप की नींदें उड़ा दे....देश, दुनिया और परिवार के लिए बहुत कुछ कर सकने में सक्षम सैकड़ों युवाओं को मौत की ओर धकेल दे....उस मज़हब को लेकर क्या करना यार....खैर इस पर आगे भी बात होगी....फिलहाल बाबरी की टूट और देश की फूट पर कैफ़ी आज़मी की एक नज़्म....जो शायद राम क्या सोचते ये सोचती है.....


दूसरा बनवास

राम बनवास से जब लौटके घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक़्से दीवानगी आँगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहाँ से मेरे घर में आये

जगमगाते थे जहाँ राम के क़दमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अँगडाई जहाँ
मोड़ नफ़रत के उसी राहगुज़र से आये

धर्म क्या उनका है क्या ज़ात है यह जानता कौन
घर न जलता तो उन्हें रात मे पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा लोग जो घर में आये

शाकाहारी है मेरे दोस्त तुम्हारा ख़ंजर
तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की ख़ता ज़ख़्म जो सर में आये

पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे
पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राजधानी की फ़िज़ा आयी नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे

कैफ़ी आज़मी


7 comments:

  1. बहुत कुछ मिला इससे लोगो को ,किसी को कुर्सी मिली किसी धन, मगर हमें किया मिला?
    बशीर बद्र का एक शेर है
    लोग टूट जाते हैं इक घर बनाने मैं
    तुम तरस नही खाते बस्तियाँ जलाने मैं,

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  2. पहले भी कहीं पढ़ी थी. आपका आभार इस प्रस्तुति का.

    आलेख में खैफ़ी आज़मी को कैफ़ी आज़मी कर लें, टंकण त्रुटि हो गई है.

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  3. दर्द तो उतना ही है जितना कैफी ने इस नज्म में बयाँ किया है।

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  4. कभी मैंने भी लिखा था-
    एक मन्दिर से बड़ा है आदमी
    एक मस्ज़िद से बड़ा है आदमी
    आदमी से है बड़ा कुछ भी नहीं
    किसी भी ज़िद से बड़ा है आदमी

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  5. .
    .
    .
    "एक मन्दिर से बड़ा है आदमी
    एक मस्ज़िद से बड़ा है आदमी
    आदमी से है बड़ा कुछ भी नहीं
    किसी भी ज़िद से बड़ा है आदमी"

    आदरणीय वीरेन्द्र जैन जी ने इन चार लाईनों मे सब कुछ समेट दिया है।

    आदरणीय दिनेशराय द्विवेदी जी सही कहते हैं ... दर्द तो बहुत गहरा है... और हाँ, मेरा अगाध विश्वास था कानून, संविधान और तंत्र पर... उस दिन सब चूर-चूर हो गया।

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  6. आपके और कैफी साहब के हिसाब से तो 6 दिसंबर को बड़ी भारी गलती हो गई....तो सारे देश के मन्दिरों को तोड़ के फिर से बाबरी मस्जिदें बनवा दी जाएं तो....आप दोनों खुश हो जाएंगे.....वैसे जब जन्मभूमि तोड़कर बाबरी बनाई गई थी तब कैफी साहब ने कुछ नहीं लिखा था क्या

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  7. आपकी प्रोफाइल तस्वीर जितना कह रही है अनिल जी....अब उससे ज़्यादा मैं कुछ क्या कहूं....जवाब में...

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