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Monday, December 28, 2009

ईमां मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ्र...


सालगिरह के दिन (२७ दिसंबर) मिर्ज़ा असदुल्लाह ग़ालिब को याद करने की वजह सिर्फ इतनी नहीं की हिन्दुस्तानी अदब के हज़ारों शैदाई उन्हें खुदा-ए-सुखन के खिताब से नवाजते हैं. हकीकी मायनों में मिर्ज़ा ग़ालिब मुल्क में शायर और शायरी दोनों के पर्याय हैं. ये और बात है की अलग अंदाज़े बयाँ वाला ये बड़ा शायर अपने दीवान में मीर को बारहा अकीदत का नजराना पेश करता है.

रेखता के तुम्ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब,/ कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था
.... आप बेबहरा है जो मोतकिदे मीर नहीं
ग़ालिब के शागिर्द अल्ताफ हुसैन हाली ने यादगारे-ग़ालिब में एक सोहबत का ज़िक्र किया है जिसमें ग़ालिब और जौक के बीच इस बात को लेकर बहस हो रही थी की मीर तकी मीर और मिर्ज़ा रफ़ी सौदा में श्रेष्ठ कौन ? ग़ालिब हाज़िर जवाब व्यक्ति थे. बहस जब लम्बी खिंच गयी तो ग़ालिब ने जौक पर फिकरा कसा की मियाँ मैं तो आपको मीरी(सरदार) समझता था, आप तो सौदाई(पागल) निकले.
ग़ालिब अपने अशार की मकबूलियत के चलते अपनी पैदाइश के दो सदी बाद भी आवाम में अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं जैसे पीढी दर पीढ़ी जुबां पर चढ़ती तुलसीदास की चौपाइयों ने उन्हें अमर कर दिया है. उर्दू पर फारसी रंग को ज्यादा तवज्जो देने की वजह से ग़ालिब बहुधा दुरूह भी लगते हैं और उन्हें मकबूलियत तभी हासिल हुई जब उन्होंने फ़ारसी से पीछा छुडा कर उर्दू का दामन थामा. लेकिन इसके साथ ही हमें इस बात को भी ज़ेहन में रखना चाहिए की उर्दू नस्र को जुबां ग़ालिब के खुतूत से ही मिली है.उनके बहुत से शेर खड़ी बोली कविता से लगते हैं और वे मीर की सादाजुबानी की झलक भी पेश करते हैं. उर्दू शायरी में तसव्वुफ़(आध्यात्म) और दार्शनिकता का रंग भरने का श्रेय भी ग़ालिब को है. लेकिन ग़ालिब तसव्वुफ़ के पेचो-ख़म में कहीं फसते नहीं हैं. ग़ालिब को अपनी शायरी की इस खुसूसियत पर फख्र है-
ये मसाइले तसव्वुफ़ ये तिरा बयाँ ग़ालिब/ तुझे हम वली समझते जो न बादाख्वार होता
ग़ालिब का तसव्वुफ़ उनकी शायरी की सम्प्रेषण शक्ति में कहीं बाधक नहीं बनता, उनके शेर चौंकाते हुए दिल में उतर जाते हैं. कभी कभी तो यकीं ही नहीं होता की कोई बात ऐसे भी कही जा सकती है, या इससे बेहतर भी कही जा सकती है क्या. उनकी ग़ज़लों ने जितनी शामें रौशन की हैं उतनी शायद ही किसी दुसरे शायर के कलाम ने की हों लेकिन इसके बावजूद ग़ालिब ग़ज़ल की विधा से पूरी तरह संतुष्ट नज़र नहीं आते.
बकद्रे शौक नहीं ज़र्फ़ तंग्नाए ग़ज़ल/कुछ और चाहिए वुसत मेरे बयाँ के लिए.
वास्तव में यही असंतोष ग़ालिब के अंदाज़े बयाँ को अलग बनाए रखता है. इसी वजह से ग़ालिब विरोधाभासी भी लगते हैं. वे एक पल जो सांचे बनाते हैं अगले पल उन्हें तोड़ते नज़र आते हैं.
ईमां मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ्र/ काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे ...
ग़ालिब की शायरी को उनके समकालीनों और बाद वाले सभी शायरों ने इज्ज़त बख्शी है. इकबाल जैसे महान परवर्ती शायरों की नींव में ग़ालिब ही नज़र आते हैं. उनके शेर आवाम के जज़्बात को जुबां देते हैं . कई गुलज़ार उनके शेरों से मिलते जुलते गीत लिखकर महान हो जाते हैं. वही शेर जिन्हें ग़ालिब अपनी रुसवाई की वजह मानते हैं -
खुलता किसी पे क्यों मेरे दिल का मुआमला, शेरों के इन्तखाब ने रुसवा किया मुझे !!
हिमांशु बाजपेयी 'हिम लखनवी'
(लेखक कवि एवं पत्रकार हैं, सम्प्रति भास्कर डॉट कॉम में कार्यरत हैं और हिम लखनवी के उपनाम से ग़ज़लें कहते हैं।)

1 comment:

  1. शानदार प्रस्तुति!!

    यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।

    हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.

    मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.

    नववर्ष में संकल्प लें कि आप नए लोगों को जोड़ेंगे एवं पुरानों को प्रोत्साहित करेंगे - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

    निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

    वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

    आपका साधुवाद!!

    नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ!

    समीर लाल
    उड़न तश्तरी

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