संस्कृति विभाग के राहुल सिंह जी ने पिछले दिनों एक घटना पर ध्यानाकर्षित करवाया। एक कोई दबी कुचली सी लेखिका हैं लक्ष्मी शरथ। इन्होंने छत्तीसगढ़ की महिलाओं के छत्तीस पति होने जैसी टिप्पणी अपने एक लेख में की है। और इसे एक कहानी के रूप में चटखारे लेकर बतलाया है, जिसमें एक कोई टोप्पो और दूसरा कोई मुमताज आपस में चर्चा कर रहे थे। इसके बाद से जब मैंने इस लेखिका से बात की तो यह बड़ी बदमिजाज निकली। इतना ही नहीं डरी हुई भी निकली। अब यह कह रही है कि मुझे तो पर्यटन वालों ने बुलाया था। इस इश्यू को मैं मीडिया में नहीं लाना चाहता। चूंकि इससे होगा सो होगा किंतु इस दबी कुचली लेखिका को जरूर एकाध पहचान मिल जाएगी।
क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो बिना मीडिया में आए इसके खिलाफ केस दर्ज करवाए? और शेष मीडिया से भी मेरी अपील है कि वह इस घटना को छापे भी तो इसमें अपनी एक लाइन साफ करते हुए छापे कि हम लेखिका कौन है यह नहीं बताएंगे। इससे विवादों के सहारे संवाद करने वाले गैर जिम्मेदार लोगों की फेहरिश्त बढ़ेगी। अगर कोई ऐसा करना चाहता है तो वह शीघ्र करे।
- सखाजी
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Wednesday, February 22, 2012
Saturday, February 4, 2012
अस्मिता के 19 साल...
चाय की दुकान पर बैठा अखबार पर चर्चा कर रहा लोगों का वो झुंड अचानक उठ कर उस शोर की दिशा में चल देता है...शोर में आवाज़ सुनाई दे रही है, कुछ युवाओं की...अरे क्या कह रहे हैं ये...ये चिल्ला रहे हैं...आओ आओ...नाटक देखो...और फिर देखते ही देखते उस मंझोले शहर के नुक्कड़ पर लोगों का हुजूम इकट्ठा हो जाता है। काले कपड़ों में तैयार वो युवा एक सुर में आवाज़ देते हैं और एक गीत के साथ नाटक शुरु होता है...लोग खूब तालियां बजाते हैं...हंसते हैं...फिर अचानक गंभीर हो जाते हैं...फिर तालियां बजाते हैं...और फिर अचानक से उदास हो उठते हैं...नाटक के अंत में एक धवल केश और दाढ़ी वाला शख्स हाथ जोड़कर लोगों के बीच आ खड़ा होता है...उनसे उस नुक्कड़ नाटक के सरोकारों पर बात करता है, उस के मुद्दों पर बात करता है...उसके बाद शुरु होता है चाय का सिलसिला और लगभग हर शख्स चाहता है कि वो इन बच्चों को चाय नाश्ता कराकर ही जाने दे...
नाटक का अगला सीन पर्दा हटने के साथ शुरु होता है...खचाखच भरे सभागार में कुछ युवा प्रोसीनियम पर एक नाटक कर रहे हैं...दर्शकों में चुप्पी है...चुप्पी टूटती है लेकिन तालियों की आवाज़ों के साथ...कोर्ट मार्शल के उस दृश्य में विकॉश राय बने बजरंग बली सिंह कैप्टेन बी डी कपूर बने शिव कपूर से जिरह कर रहे हैं...सन्नाटा तालियों की गूंज में बदल जाता है...लेकिन अगले ही क्षण जब नाटक की शुरुआत से चुप...बिल्कुल निस्तब्ध बैठे वीरेन बसोया अदालत के कटघरे में फूट फूट कर रो रहे होते हैं...तो लोग चुप होते हैं, बिल्कुल निशब्द...स्तब्ध और आक्रोशित...नाटक खत्म होते ही वो सफेद दाढ़ी और बालों वाला शख्स फिर से मंच पर आता है, और उस भद्र भीड़ से भी उस नाटक के सरोकारों पर बात करता है...लेकिन इस बार एक बदलाव और है, इस नाटक में कुछ पात्र वो किशोर-किशोरियां भी निभा रहे हैं, जो उस नुक्कड़ नाटक के दर्शक थे...
ये कमाल पूरी तरह से एक आदमी के नाम लिखा है...अरविंद गौड़, और काले कपड़ों से रंगीन रोशनियों तक ये है उनका रंगमंडल...अस्मिता।
दरअसल ये दो तस्वीरें हैं जो अस्मिता के उन दो चेहरों को जोड़ती हैं, जो देश के उन दो हिस्सों को जोड़ती हैं, जिन्हें हम इंडिया और भारत कहते हैं। नुक्कड़ नाटक के दर्शक और प्रोसीनियम के दर्शक दोनो ही उद्वेलित हो रहे हैं, एक अपने अधिकारों के लिए जाग रहे हैं, तो दूसरे अपने रवैये के लिए शर्मिंदा हो रहे हैं। दरअसल ये ही कमाल है अरविंद गौड़ नाम के उस शख्स का जिसके लिए साधारण बने रहना सबसे असाधारण कमाल है, ये ही सादगी उनकी भी आभा पिछले तीन दशकों से बढ़ा रही है, और इसी आभा से अस्मिता को चमकते 19 साल हो गए हैं।
जी हां...अस्मिता अपने 19 साल पूरे कर रहा है, अस्मिता 20 वें साल में प्रवेश कर रहा है और साथ ही 2 दशक की यात्रा तय कर आज भी जारी है प्रतिरोध के थिएटर का ये सफ़र। एक अभिनव प्रयोग अस्मिता, जो कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के साथ रामलीला मैदान में हज़ारों लोग जुटा लाता है तो कभी इरोम शर्मिला के साथ जंतर मंतर पर एक काले कानून के खिलाफ आवाज़ उठाता खड़ा होता है। कभी ये गांधी और अम्बेडकर के बीच के रिश्ते को समझने की कोशिश करता करता, वर्ण व्यवस्था की जड़ पर कुदाल चला देता है तो कभी जिन्नाह की रूह को ज़िंदा कर अपने सिर पर इनाम रखवाता है पर झुकना स्वीकार नहीं करता। अस्मिता के ये 20 साल उतार-चढ़ाव से भरे रहे तकनीक से लेकर अभिनेताओं तक सब कुछ बदला लेकिन कुछ नहीं बदला है तो वो है अरविंद गौड़ की जिजीविषा, प्रतिरोध की शैली और अस्मिता की मुखरता।
अस्मिता की बात करते वक्त तमाम और लोगों की तरह मैं गिनवा सकता हूं कि यहां से कौन कौन से अभिनेता निकल कर बॉलीवुड में नाम बन गए हैं लेकिन थिएटर से इतर भी दरअसल अस्मिता की अपनी एक अलग दुनिया है। ये एक अद्भुत परिवार है, जिसमें न जाने कितने सदस्य हैं। 60 से ज़्यादा वर्तमान अभिनेताओं के साथ (जिनमें से ज़्यादातर युवा हैं और 25 साल से कम उम्र के हैं) ये अलग ही घर है। एक घर जहां लगभग हर चौथे दिन किसी का जन्मदिन होता है और हर जन्मदिन पर एक उत्सव। एक ऐसा परिवार जो एक दूसरे के लिए तो दिन रात खड़ा ही है, दूसरों की मदद के लिए भी सबसे आगे है। रामलीला मैदान में आपको याद होगा अस्मिता के काले कपड़े वाले बच्चों का जज़्बा। न जाने कितनी बार मैंने देखा कि अस्मिता के सदस्य कभी किसी की मदद के लिए रक्तदान करने तो कभी किसी मोहल्ले-बस्ती की सफाई में श्रमदान करने निकल पड़ते हैं। एक एसएमएस एक-एक मोबाइल से न जाने कहां कहां पहुंच जाता है। दिल्ली की ये सड़के उन रातों को जूतों के निशानों को अपने ज़ेहन से मिटा नहीं पाई हैं, जब अरविंद गौड़ को इसी दिल्ली ने नाटक करने से प्रतिबंधित कर दिया था। अरविंद गौड़ उस दौर में हर रात मंडी हाउस से शाहदरा अपने घर तक पैदल जाया करते थे और शायद वो ही न झुकने की ज़िद उनके अंदर आज भी कूट कूट कर भरी है...
अरविंद गौड़...और अस्मिता को न जाने कितने साल से सिर्फ चाय और पारले जी के सहारे दिन रात मेहनत करते देख रहा हूं। हो सकता है कि हम में से कई अस्मिता के कलाकारों के अभिनय पर सवाल उठा दें। उनके कम उम्र और कम अनुभव पर सवाल उठा दें...लेकिन अरविंद गौड़ का थिएटर जो सवाल उठा रहा, क्या उनके जवाब हम देने को तैयार हैं? क्या हम इस योगदान को नकार सकते हैं कि देश और समाज के बारे में शून्य समझ रखने वाली एक पूरी पीढ़ी के न जाने कितने युवाओं के दिमाग अरविंद गौड़ बदल चुके हैं। थिएटर के ज़रिए किस कदर सोशल चेंज हो सकता है, ये अरविंद गौड़ और अस्मिता से हम लम्बे समय तक सीख सकते हैं।
हर बार जब अस्मिता जाता हूं, इन जोशीले नौजवान साथियों से मिलता हूं तो कई बार डर लगता है कि कहीं पूंजीवाद की आंधी और इंडिया की शाइनिंग किसी रोज़ अरविंद गौड़ और अस्मिता को न बदल दे। लेकिन तभी रिहर्सल्स के बाद अरविंद जी को साहित्यकार लक्ष्मण राव जी (लक्ष्मण राव के बिना अस्मिता की कहानी अधूरी है...)की चाय की दुकान पर ज़मीन पर ही बैठा देखता हूं, और हाथ से इशारा कर मुझे बुलाते हैं...तो लगता है कि नहीं उम्मीदें अभी बाकी हैं और उम्मीदों को बाकी रहना ही होगा...दिल्ली के आईटीओ पर हिंदी भवन के बाहर बैठा मैं सोच रहा हूं कि काश देश में ऐसे 10 अस्मिता होते, तो क्या हो सकता था...काश अरविंद जी हमेशा ऐसे ही रहें...और अस्मिता भी...बचा रहे बुर्जुआ से और बाज़ार से...अरविंद जी आप सुन रहे हैं न...
(अस्मिता के 20वें साल में प्रवेश के मौके पर कुछ सशक्त प्रस्तुतियां दिल्ली में हो रही हैं...जिस कड़ी में 4 फरवरी को शाम 7 बजे दिल्ली के श्रीराम सेंटर में कोर्ट मार्शल, 12 फरवरी को मयूर विहार में बुज़ुर्गों के लिए अम्बेडकर और गांधी की विशेष प्रस्तुति दोपहर 3 बजे, श्रीराम सेंटर में ही 18 फरवरी को शाम 7 बजे एक मामूली आदमी, 19 फरवरी को दोपहर 3 बजे श्रीराम सेंटर में मोटेराम का सत्याग्रह और 19 फरवरी को ही शाम 7 बजे अम्बेडकर और गांधी का श्रीम सेंटर में मंचन होगा...देखिए कि आप इनमें से किसमें आकर इस दो दशक के जश्न में शामिल हो सकते हैं...)
नाटक का अगला सीन पर्दा हटने के साथ शुरु होता है...खचाखच भरे सभागार में कुछ युवा प्रोसीनियम पर एक नाटक कर रहे हैं...दर्शकों में चुप्पी है...चुप्पी टूटती है लेकिन तालियों की आवाज़ों के साथ...कोर्ट मार्शल के उस दृश्य में विकॉश राय बने बजरंग बली सिंह कैप्टेन बी डी कपूर बने शिव कपूर से जिरह कर रहे हैं...सन्नाटा तालियों की गूंज में बदल जाता है...लेकिन अगले ही क्षण जब नाटक की शुरुआत से चुप...बिल्कुल निस्तब्ध बैठे वीरेन बसोया अदालत के कटघरे में फूट फूट कर रो रहे होते हैं...तो लोग चुप होते हैं, बिल्कुल निशब्द...स्तब्ध और आक्रोशित...नाटक खत्म होते ही वो सफेद दाढ़ी और बालों वाला शख्स फिर से मंच पर आता है, और उस भद्र भीड़ से भी उस नाटक के सरोकारों पर बात करता है...लेकिन इस बार एक बदलाव और है, इस नाटक में कुछ पात्र वो किशोर-किशोरियां भी निभा रहे हैं, जो उस नुक्कड़ नाटक के दर्शक थे...
ये कमाल पूरी तरह से एक आदमी के नाम लिखा है...अरविंद गौड़, और काले कपड़ों से रंगीन रोशनियों तक ये है उनका रंगमंडल...अस्मिता।
दरअसल ये दो तस्वीरें हैं जो अस्मिता के उन दो चेहरों को जोड़ती हैं, जो देश के उन दो हिस्सों को जोड़ती हैं, जिन्हें हम इंडिया और भारत कहते हैं। नुक्कड़ नाटक के दर्शक और प्रोसीनियम के दर्शक दोनो ही उद्वेलित हो रहे हैं, एक अपने अधिकारों के लिए जाग रहे हैं, तो दूसरे अपने रवैये के लिए शर्मिंदा हो रहे हैं। दरअसल ये ही कमाल है अरविंद गौड़ नाम के उस शख्स का जिसके लिए साधारण बने रहना सबसे असाधारण कमाल है, ये ही सादगी उनकी भी आभा पिछले तीन दशकों से बढ़ा रही है, और इसी आभा से अस्मिता को चमकते 19 साल हो गए हैं।
जी हां...अस्मिता अपने 19 साल पूरे कर रहा है, अस्मिता 20 वें साल में प्रवेश कर रहा है और साथ ही 2 दशक की यात्रा तय कर आज भी जारी है प्रतिरोध के थिएटर का ये सफ़र। एक अभिनव प्रयोग अस्मिता, जो कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के साथ रामलीला मैदान में हज़ारों लोग जुटा लाता है तो कभी इरोम शर्मिला के साथ जंतर मंतर पर एक काले कानून के खिलाफ आवाज़ उठाता खड़ा होता है। कभी ये गांधी और अम्बेडकर के बीच के रिश्ते को समझने की कोशिश करता करता, वर्ण व्यवस्था की जड़ पर कुदाल चला देता है तो कभी जिन्नाह की रूह को ज़िंदा कर अपने सिर पर इनाम रखवाता है पर झुकना स्वीकार नहीं करता। अस्मिता के ये 20 साल उतार-चढ़ाव से भरे रहे तकनीक से लेकर अभिनेताओं तक सब कुछ बदला लेकिन कुछ नहीं बदला है तो वो है अरविंद गौड़ की जिजीविषा, प्रतिरोध की शैली और अस्मिता की मुखरता।
अस्मिता की बात करते वक्त तमाम और लोगों की तरह मैं गिनवा सकता हूं कि यहां से कौन कौन से अभिनेता निकल कर बॉलीवुड में नाम बन गए हैं लेकिन थिएटर से इतर भी दरअसल अस्मिता की अपनी एक अलग दुनिया है। ये एक अद्भुत परिवार है, जिसमें न जाने कितने सदस्य हैं। 60 से ज़्यादा वर्तमान अभिनेताओं के साथ (जिनमें से ज़्यादातर युवा हैं और 25 साल से कम उम्र के हैं) ये अलग ही घर है। एक घर जहां लगभग हर चौथे दिन किसी का जन्मदिन होता है और हर जन्मदिन पर एक उत्सव। एक ऐसा परिवार जो एक दूसरे के लिए तो दिन रात खड़ा ही है, दूसरों की मदद के लिए भी सबसे आगे है। रामलीला मैदान में आपको याद होगा अस्मिता के काले कपड़े वाले बच्चों का जज़्बा। न जाने कितनी बार मैंने देखा कि अस्मिता के सदस्य कभी किसी की मदद के लिए रक्तदान करने तो कभी किसी मोहल्ले-बस्ती की सफाई में श्रमदान करने निकल पड़ते हैं। एक एसएमएस एक-एक मोबाइल से न जाने कहां कहां पहुंच जाता है। दिल्ली की ये सड़के उन रातों को जूतों के निशानों को अपने ज़ेहन से मिटा नहीं पाई हैं, जब अरविंद गौड़ को इसी दिल्ली ने नाटक करने से प्रतिबंधित कर दिया था। अरविंद गौड़ उस दौर में हर रात मंडी हाउस से शाहदरा अपने घर तक पैदल जाया करते थे और शायद वो ही न झुकने की ज़िद उनके अंदर आज भी कूट कूट कर भरी है...
अरविंद गौड़...और अस्मिता को न जाने कितने साल से सिर्फ चाय और पारले जी के सहारे दिन रात मेहनत करते देख रहा हूं। हो सकता है कि हम में से कई अस्मिता के कलाकारों के अभिनय पर सवाल उठा दें। उनके कम उम्र और कम अनुभव पर सवाल उठा दें...लेकिन अरविंद गौड़ का थिएटर जो सवाल उठा रहा, क्या उनके जवाब हम देने को तैयार हैं? क्या हम इस योगदान को नकार सकते हैं कि देश और समाज के बारे में शून्य समझ रखने वाली एक पूरी पीढ़ी के न जाने कितने युवाओं के दिमाग अरविंद गौड़ बदल चुके हैं। थिएटर के ज़रिए किस कदर सोशल चेंज हो सकता है, ये अरविंद गौड़ और अस्मिता से हम लम्बे समय तक सीख सकते हैं।
हर बार जब अस्मिता जाता हूं, इन जोशीले नौजवान साथियों से मिलता हूं तो कई बार डर लगता है कि कहीं पूंजीवाद की आंधी और इंडिया की शाइनिंग किसी रोज़ अरविंद गौड़ और अस्मिता को न बदल दे। लेकिन तभी रिहर्सल्स के बाद अरविंद जी को साहित्यकार लक्ष्मण राव जी (लक्ष्मण राव के बिना अस्मिता की कहानी अधूरी है...)की चाय की दुकान पर ज़मीन पर ही बैठा देखता हूं, और हाथ से इशारा कर मुझे बुलाते हैं...तो लगता है कि नहीं उम्मीदें अभी बाकी हैं और उम्मीदों को बाकी रहना ही होगा...दिल्ली के आईटीओ पर हिंदी भवन के बाहर बैठा मैं सोच रहा हूं कि काश देश में ऐसे 10 अस्मिता होते, तो क्या हो सकता था...काश अरविंद जी हमेशा ऐसे ही रहें...और अस्मिता भी...बचा रहे बुर्जुआ से और बाज़ार से...अरविंद जी आप सुन रहे हैं न...
(अस्मिता के 20वें साल में प्रवेश के मौके पर कुछ सशक्त प्रस्तुतियां दिल्ली में हो रही हैं...जिस कड़ी में 4 फरवरी को शाम 7 बजे दिल्ली के श्रीराम सेंटर में कोर्ट मार्शल, 12 फरवरी को मयूर विहार में बुज़ुर्गों के लिए अम्बेडकर और गांधी की विशेष प्रस्तुति दोपहर 3 बजे, श्रीराम सेंटर में ही 18 फरवरी को शाम 7 बजे एक मामूली आदमी, 19 फरवरी को दोपहर 3 बजे श्रीराम सेंटर में मोटेराम का सत्याग्रह और 19 फरवरी को ही शाम 7 बजे अम्बेडकर और गांधी का श्रीम सेंटर में मंचन होगा...देखिए कि आप इनमें से किसमें आकर इस दो दशक के जश्न में शामिल हो सकते हैं...)
(नोट - यह किसी तरह का पी आर का लेख नहीं है...लेखक का अपना मत है...आपके मत भिन्न हो सकते हैं...)
मयंक सक्सेना
मयंक सक्सेना
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