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Friday, December 31, 2010

नए साल पर एक कविता...

गया और नया साल

हो कल की जैसे बात,
या कि नींद भरी रात,
किसी अपने की बारात,
बिना लड़े कोई मात।
शायद ऐसे गया, गया साल।।

आये नींद सुनकर गीत,
किसी बेदर्दी की प्रीत,
या कि चुटकी का संगीत,
वर्तमान सा अतीत।
शायद ऐसा ही था वो गया साल।।

चाहे जैसा भी था वो गया साल,
इस बात का किसे है मलाल,
वक़्त आया बनके फिर से द्वारपाल,
आओ सोचें कैसा होगा नया साल?
ज़रा करके देखें खुद से ये सवाल।।

जैसे शादी का हो पत्र,
मिले वर्षों बाद मित्र,
या पुराना कोई इत्र,
कोई ख़बर हो विचित्र।
शायद ऐसा लगे वो नया साल।।

जैसे ग़ज़ल इक हसीन,
कोई सफ़र बेहतरीन,
जैसे दर्द हो महीन,
जैसे साफ हो ज़मीन।
शायद ऐसा लगे वो नया साल।

जैसे घुँघेरू वाली पायल,
या हो जाये कोई क़ायल,
जैसे शेरनी हो घायल,
या कि 'मम्मी जी' का आँचल।
शायद ऐसा लगे वो नया साल।।

जैसे कामगार का पसीना,
बिन श्रृंगार के हसीना,
कोई चुटकुला कमीना,
या फिर मार्च का महीना।
शायद ऐसा लगे वो नया साल।।

जैसे साफ-स्वच्छ दर्पण,
या धुला हुआ बर्तन,
पतिव्रता का समर्पण,
या व्यक्तित्व का आकर्षण।
शायद ऐसा हो वो नया साल।

ये सब थे मान्यवर, मेरे ही उद्‌गार।
कैसा हो नव वर्ष ये, आप ही करें विचार।।
आप ही करें विचार हमें बस इतना कहना।
नया साल मंगलमय हो, प्रतिदिन और रैना।।

आइए कुछ ऐसा करें।


अक्सर पुराने साल में जो नहीं कर पाए उसकी शिकायत और नए साल के संकल्प। शायद यही तो है, थर्टी फस्र्ट। लेकिन मुझे लगता है, ऐसा कुछ भी नहीं है। मेरे लिए 2010 वेरी प्रॉसपेरस रहा। हर कदम पर एक नया अनुभव और मेरी यूएसपी सकारात्मकता में बेइमतहां इजाफा हुआ है। 2010 से मुझे न कोई शिकायत रही न रहा कोई गिला। नए साल के लिए कुछ प्लानिंग होनी चाहिेए। लेकिन इस तरफ कुछ करने की योजनाएं हैं। दोस्तों इस साल इस बात पर ध्यान दिया जाएगा कि हम सब मिलकर एक ऐसा ग्रुप बनाएं, जो सोशल स्टडी के साथ ही साथ सिस्टम की खामियों को दूर करने के लिए शोध करे और ऑल्टरनेटिव्स खोजे। आम लोगों की व्यवस्था। सियासी गंदगी को साफ करने के लिए की जाने वाली व्यवस्था के लिए किसी और को छोड़ दें। बाकी के लिए हम रहें. यानी वेरी प्रैक्टिकल सॉल्यूशन। इनमें हमें भारतीय चुनाव प्रणाली से घृणा करने की बजाए एक वैकल्पिक इससे अच्छी व्यवस्था देने की तरफ ध्यान देना है। इस सिलसिले में जल्द ही हम कुछ चुनिंदा लोग मिलकर इस तरह का प्रयास करने जा रहे हैं, जिसमें सारी बातें बहुत ही औपचारिक और कार्यरूप में परिणित होने वाली की जाएंगी। यह पूरी तरह से वर्चुअल वेबसाइट होगी। इसके सदस्यों को हर विषय पर बोलने का हक और उसपर काम करने का आजादी होगी। दोस्तों मुझे भरोसा है इस काम में आपको मजा भी आएगा और अपने अंदर की बात को कार्यरूप में परिणित होते देखकर खुशी भी होगी। हमारा मकसद होगा सिर्फ और सिर्फ प्रैक्टिकल बाते करना और उन्हें कैसे भी करके इंप्लीमेंट करवाना। इस काम में मेरे सीनियर (प्रोफेशनली और एकडेमिक) प्रसून जी का विशेष योगदान मिलने की आशा है। साथ में मेरे अभिन्न रोहित मिश्र की वैचारिक संपदा का हमें सदैव सहयोग मिलेगा। इसकी शुरुआत भले ही यूनिवर्सिटी के पूर्व और वर्तमान छात्रों के संगठन के रूप मे की जाएगी, लेकिन यह वास्तव में देश के हर युवा विचारवान व्यक्ति का अपना मंच होगा।
भाइयों इस विचार के साथ कि जरूर हम इसे वास्तु रूप में बदल पाएंगे। इस विषयक जनवरी में पूरी तैयारी करने और मार्च तक विधिवत लॉन्च करने की तैयारी है। आगे तो फिर मेरी उम्र रही तो जरूर कुछ करेंगे। आपके वैचारिक, निर्देशात्मक और सुझावात्मक सहयोग की अपेक्षा है। इसे लेकर मेल करें या फोन करें या आप एसएमएस भी कर सकते हैं। ०९००९९८६१७९ इ-मेल sakhajee@gmail.com

बधाई

सभी साथियों को नव वर्ष २०११ की ढेरो शुभकामनाय ।
महेश सिंह
ईटीवी यूपी डेस्क, हैदराबाद।

Wednesday, December 8, 2010

अंजाम तक पहुंचाने वाली सीढ़ी।


भैया आज बड़ी कहानी लिखने का मन हुआ, अजी कोई साहित्यकारों की तरह नहीं बल्कि शानदार कुछ कुछ सच्चा, कुछ ऐसा जो करीब हो किसी सच के। कहानी के फ्लैश बैक में ले जाने से पहले में मिथुन की फिल्मों जैसी सीन क्रिएट करना जरूरी मानता हूं। दरअसल कहानी में कुछ खास तो नहीं है, लेकिन प्रेरणा लेने लायक जरूर है। आपको अगर सोने से भरपूर खजाना मिल जाए, और उसके लिए आपको सिर्फ कहना हो कि खुल जा सिम सिम तो क्या आपको लगेगा नहीं कि यह तो जिंदगी है। वॉह करेंगे, या कहेंगे एन एक्सेलेंट या फिर कहेंगे जरूर मजा आ गया और आप तो यह भी कह सकते हैं, कि फैंटेस्टिक। लेकिन इसके ठीक उलट भी कुछ कहा जा सकता है। क्या कहते हैं यार आपका दिमाग भी खराब हो सकता है। अब यह पूछने की जरूरत कहां है कि कैसे होगा दिमाग खराब। दिमाग खराब भी कई तरीकों से होता है, पूछिए मत कैसे?
कार्यालय में एक जूनियर रिपोर्टर ने कहा भैया फलां खबर लगा लेना, क्योंकि वो उनकी है। यह बात तो ठीक थी खबर लगा लेना लेकिन उनकी विश्लेषण जरा सोचने वाला था। क्या? देखो भैया आगे पढऩे से पहले यह जान लो हम आखिरी तक कोई नाम नहीं बताएंगे, कौन है उनकी न खबर की हेडिंग ही बताने वाले हैं। चले यहां तक पढ़ा है तो आगे की कुछ लाइनें और पढ़ ही लो। क्या हुआ उनकी खबर तो लगा दी लेकिन दिल में बड़ी इच्छा हुई कि क्यों न उनसे हमारी भी किसी इसी तरह की खबर के सिलसिले में मुलाकात या यूं कहिए मुकालात हो जाए।
कहानी शुरू होती है, पुराने हमारे संस्थान से यहां पर भी उनकी उनकी की बहुत चलता था। हर बार कोई न कोई उनकी कह कर कुछ न कुछ उंगली किया करता था। वे हैं तो साधारण से राज्य की सिविल सेवा के मुलाजिम। लेकिन आधे से ज्यादा छत्तीसगढ़ को उनके बारे में यही गलतफहमी है कि वे आईएएस हैं। दरअसल उन्होंने ऐसा आभामंडल अपने पास रखा है, जो साफतौर से उनके सामने पूरे राज्य की सरकार और ब्यूरोक्रेट्स को झुका सा दिखाई देता है। साहब की धर्म मैं श्योर नहीं हूं, कि धर्म लेकिन कहा धर्मपत्नी आती थीं, थीं तो हमारी ही तरह की मुलाजिम वो भी। लेकिन उनके अपने जलवे थे। आती थीं, सीधे स्टूडियो में मेकअप आर्टिस्ट जाकर मेकअप करती थी, चार गाड़ीवान आगे पीछे, पूरा स्टाफ, ऑउटपुट हेड तो अपने कद से भी ऊपर उठकर उनके लिए बड़प्प दिखाते थे। वहां तो खैर कुछ था ही नहीं पता कि वे क्या हैं, और उन्हें इनता स्पेशल ट्रीटमेंट क्यों मिलता है। भैया धान ने जब पूरे राज्य के अधिकारियों और क्षेत्र के कर्मठ जुझारुओं को धन से भरपूर कर दिया तो मामला मीडिया ने उठाने की जेहमत उठाई। तो क्या था फिर वही हुआ जो होता था, क्या मैडम नहीं आती, मुख्यमंत्री ने रोश में आ गए। तब मामला समझ आया कि मैडम दरअसल ऐसे ही आम आदमी की वाइफ हैं, जो आम की खोल में खाम ठोक कर राज्यभर की असली सियासत चलाता है। ऐसा कौन सा पावर प्लांट है, कौन सा ऐसा काम है राज्य में जिसकी रिश्वत सीढ़ी इनसे शुरू न होती है। अब जब नए ऑफिस में आए तो फिर वही हाल देखा। हां लेकिन इस बार उनके साथ किसी पॉवर प्लांट की ठसक नहीं थी, बल्कि एक, दो कॉलम की खबरों में भी अपनी ब्रॉड इमेज थी। रिपोर्टर बोला भैया उनका फोन आया था बोले कि मुझसे मिलोगे तो जान जाओगो कौन हूं। वो डरा तो नहीं था, लेकिन कुछ कुछ सहमा था, क्योंकि वो पत्रकार बनने आया था और उसे पता ही नहीं था कि यह भी एक पत्र का ही हिस्सा है।
रिश्वत की पहली यह सीढ़ी हैं उनकी साहब।
कहानी में पात्रों के नाम, स्थान, समय, घटनाएं सजीव नहीं हैं। कृपया अपने आसपास नजर दौड़ाएं वास्तव में पाएंगे कुछ ऐसे ही लोग। आपको सफोकेशन नहीं होता दम नहीं घुटता। बड़ी तमन्ना है एक बार किसी खबर के सिलसिले में उनसे मुठभेड़ हो। हो सकता है, उन्हें मैं ज्यादा नहीं जानता सुना ही है इसलिए ऐसा सोचते हैं। वास्तव में वह बहुत सज्जन हों। बहरहाल इतना पक्का है वे हैं छत्तीसगढ़ में कोई भी एक करोड़ की रिश्वत से ऊपर का काम करवाने वाली पहली, दूसरी, तीसरी और अंजाम तक पहुंचाने वाली सीढ़ी।
तेरी तो...... रिश्वत की सीढ़ी
आओ भैया कुछ कहो sakhajee@gmail.com
९००९९८६१७९

Saturday, December 4, 2010

राजदीप की बेचारगी....

मीडिया इंडस्ट्री में सबसे कमजोर, लाचार और निरीह कोई है,

तो वो हैं राजदीप सरदेसाई। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि सैलरी, शख्सीयत और शोहरत के लिहाज से जिस टेलीविजन पत्रकार को सबसे मजबूत माना जाता है, जिनकी लोगों के बीच इसी तरह की इमेज है, वो अपने को पिछले एक साल से सबसे मजबूर और लाचार बताता आ रहा है। मौका चाहे जगह-जगह मीडिया सेमिनार के नाम पर स्यापा करने और छाती कूटने का हो या फिर 2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में दिग्गज मीडियाकर्मियों के नाम आने पर मीडिया की साख मिट्टी में मिल जाने पर सफाई के मकड़जाल बुनने का, राजदीप सरदेसाई सीधे तौर पर मानते हैं कि अब एडिटर मजबूर है। यह भी कि मीडिया के भीतर जिस तरह के ऑनरशिप का मॉडल बना है, उसमें एडिटर बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं है।

मैं उनके श्रीमुख से मालिकों के आगे एडिटर के मजबूर हो जाने की बात पिछले छह महीने में चार बार सुन चुका हूं। उदयन शर्मा की

याद में पहली बार कंस्‍टीच्‍यूशन क्लब में सुना, तो एकबारगी तो उनकी इस ईमानदारी पर फिदा हो गया। लगा कि इस शख्स को इस बात का मलाल है कि जैसे-जैसे गाड़ी और फ्लैट की लंबाई बढ़ती जाती है, पत्रकार होने का कद छोटा होता जाता है। फिर दूसरी बार सुना तो लगा कि आजकल फैशन में इसे चालू मुहावरे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं कि अपनी ही पीठ पर आप ही कोड़े मारो ताकि लोग ईमानदारी पर लट्टू हो जाएं। लेकिन सवाल है कि इस स्वीकार के बाद राजदीप सरदेसाई या फिर उनके जैसा कोई भी पत्रकार सुधार की दिशा में क्या कर रहा है। जवाब है, कुछ भी नहीं। तो यकीन मानिए कि आज जब राडिया और मीडिया प्रकरण पर प्रेस क्लब में हुई एडिटर्स गिल्ड की बैठक की फुटेज में राजदीप सरदेसाई को बोलते हुए एक बार फिर सुना तो लगा कि बेहया हो जाना आज के जमाने की सबसे खूबसूरत और कारगार शैली है। इसी बीच जब IBN7 चैनल पर एक बार फिर आशुतोष के सवालों के जवाब देते उन्‍हें सुना तो लगा कि राजदीप सरदेसाई ने मीडिया पर गंभीरता से सोचना-समझना पूरी तरह बंद कर दिया है और इस बंद कर देने में अपने नाम के दम पर यकीन रखते हैं कि वो जैसे चाहें, मीडिया के प्रति लोगों की समझ को ड्राइव कर ले जाएंगे।

आप याद कीजिए, ये आज के वही मजबूर राजदीप सरदेसाई हैं, जिन्होंने नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर हुए टॉक शो में लगभग दहाड़ते हुए कहा था कि हमें सरकार से कोई लेना-देना नहीं है जिसका समर्थन कांग्रेस के मुखौटा पत्रकार और मौजूदा नयी दुनिया के संपादक आलोक मेहता ने यह कहकर दिया कि टेलीविजन का मतलब सिर्फ खबर और राजनीतिक खबर नहीं है। भला हो दूरदर्शन का कि अपने 50 साल को याद करते हुए जब “The Golden Trail, DD@50 :Special feature o Golden Jubilee of Doordarshan” नाम से आधे घंटे का फीचर बनाया, तो इस बातचीत को शामिल किया। राजदीप सरदेसाई ने निजी मीडिया की मार्केटिंग इसी तरह से की और निजी चैनलों को दूरदर्शन के विपक्ष के तौर पर खड़ा करने की कोशिश की। इसकी ताकत को इसी रूप में भुनाने की कोशिश की कि वो सरकार से पूरी तरह मुक्त है और दूरदर्शन से अलग सबसे मजबूत और स्वतंत्र माध्यम है। आज वही राजदीप सरदेसाई, जिन्हें कि सरकार से कुछ भी लेना-देना नहीं था, पूरी तरह आजाद थे, कॉरपोरेट की गोद में गिरते हैं और बनावटी तौर पर ही सही, बिलबिलाने और मजबूर होने का नाटक करते हैं। निष्कर्ष ये है कि न तब मीडिया आजाद और मुक्त था और न आज है। तब उसे सरकार ने अपना भोंपू बनाया और आज ये कॉरपोरेट का दुमछल्लो बना हुआ है।

राजदीप सरदेसाई बहुत ही खूबसूरती से ये बात मानते हैं कि 2G स्पेक्ट्रम घोटाला और नीरा राडिया के मामले में मीडिया के कुछ लोगों ने लक्ष्मण रेखा तोड़ी है। उन्होंने पत्रकार के तौर पर वो किया है, जो कि उन्हें नहीं करना चाहिए। लेकिन इसके आगे जो वो कहते हैं, वो वही एजेंडा है जो कि सबसे पहले 30 नवंबर को NDTV 24X7 का बरखा दत्त के जरिये अपना पक्ष रखने की बात के दौरान का एजेंडा था। राजदीप का कहना है कि हालांकि जो कुछ भी हुआ है, उसमें मीडिया पर उंगलियां उठ रही हैं लेकिन ये पूरे खेल का बहुत ही छोटा हिस्सा है। बड़ा हिस्सा है कि कैसे कॉरपोरेट चीजों को अपने तरीके से बदलना चाहता है। हम सब उसमें बंधे हैं। फिर वो मीडिया के खर्चे, स्‍पांसरशिप और मॉडल पर बात करते हैं, जिसका निष्कर्ष ये है कि हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। यहीं पर आकर एडिटर सबसे लाचार हो जाता है। आज चैनल के रिपोर्टर्स पर अगर प्रेशर है, तो वो इसलिए कि वो चाहकर भी मुस्तैदी से अपने तरीके से स्टैंड नहीं ले सकता। नहले पर दहला आज आशुतोष के भीतर पीपली लाइव के संवाददाता दीपक की आत्मा घुस आती है और ताल ठोंककर कहते हैं कि ये भी तो देखिए कि आज इसी मीडिया ने ए राजा और स्पेक्ट्रम घोटाला की बातें आप तक पहुंचाने का काम किया।

थोड़ी गंभीरता से विचार करें तो एक ही मीडिया हाउस का एक एडिटर कह रहा है कि वो कॉरपोरेट के आगे मजबूर है लेकिन उसी मीडिया हाउस के एक चैनल का मैनेजिंग एडिटर कह रहा है कि इस मजबूरी में भी वो तीर मार लेने का काम कर ले रहा, ये क्या कम है? राडिया और मीडिया को लेकर आज तक न्यूज चैनलों पर इसी तरह के कर्मकांड जारी हैं और शुरू में बरखा दत्त ने 30 नवंबर को जब अपनी बात हमसे साझा करने की कोशिश की तो लगा कि वो सचमुच हमारी गलतफहमियों को दूर करना चाहती है लेकिन अब एक के बा

द एक चैनल जिस तरह से तुम मेरी खुजाओ, मैं तुम्हारी खुजाऊं का काम कर रहे हैं, साफ लग रहा है कि एक नये किस्म की लाबिंग कर रहे हैं, जिसमें इरादा है कि सब झाड़कर खड़े हो जाओ और साबित कर दो कि या तो हमाम में सब नंगे हैं या फिर हम बेदाग हैं। आप बस अपने को बेदाग साबित करने की इस जुगलबंदी पर गौर कीजिए, आपको मीडिया बेशर्मी के इस नये अध्याय से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।

3 दिसंबर 2010 को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में 11 बजे एडिटर्स गिल्ड की आम पत्रकारों से राडिया और मीडिया को लेकर बातचीत हुई। विनोद मेहता ने कहा कि हमें अलग से एथिक्स की बात करने और नियम की चर्चा करने की क्या जरूरत है, सब कुछ साफ है कि एक पत्रकार को क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए। पीआरओ अगर अपने एजेंडे के साथ आ रहा है, तो हमें किस तरह से समझना है। प्रसार भारती बोर्ड की अध्यक्ष मृणाल पांडे जिन्होंने पिछले दिनों एफएम गोल्ड मामले में द हिंदू अखबार से कहा था कि फ्रीक्वेंसी बदले जाने की बात उन्हें किसी ने नहीं बतायी और ये बात उन्हें मीडिया के जरिये पता चली, उन्‍हीं मृणाल पांडे ने इस एडिटर्स गिल्ड और पत्रकारों की

बातचीत में कहा कि आज दरअसल अंग्रेजी मीडिया के एडिटर मालिक हो गये हैं और हिंदी मीडिया के मालिक एडिटर हो गये हैं।

इतने दिनों से चुप रहने के बाद जब NDTV 24X7 ने बरखा दत्त पर लगे आरोप को लेकर एडिटर्स के साथ शो कराया, तो फिर हेडलाइंस टुडे ने भी इसी तरह के शो कराये। उसके बाद तो समझिए कि इन दिनों चैनलों पर एक एक पैटर्न ही बन गया है कि मीडिया को लेकर स्पेशल स्टोरी की जाए। लिहाजा तीन दिसंबर की अधिकांश फुटेज और ओपन और आउटलुक पत्रिका की स्टिल फोटो का इस्तेमाल करते हुए आजतक ने प्राइम टाइम पर स्पेशल स्टोरी चलायी – “मीडिया की लक्ष्मण रेखा। चैनल ने इस स्टोरी के जरिये ये साबित करने की कोशिश की कि मीडिया को लेकर जो कुछ भी कहा जा रहा है, वो दरअसल कुछ लोगों के इसके एथिक्स के फॉलो नहीं किये जाने की वजह से हुआ है, नहीं तो मीडिया ने अपनी जिम्मेदारी बहुत ही ईमानदारी से निभायी है, चाहे वो 2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामला ही क्यों न हो।

इससे ठीक पहले IBN7 पर आशुतोष ने एजेंडा कार्यक्रम में मीडिया ट्रायल पर शो किया, जिसमें कि श्रवण गर्ग(समूह संपादक, दैनिक भास्कर), एनके सिंह (अध्‍यक्ष, एनबीए) और राजदीप सरदेसाई (अध्‍यक्ष, एडिटर्स गिल्‍ड / एडिटर इन चीफ, सीएनएन आईबीएन) को बहस के लिए शामिल किया। इस पूरी बातचीत में करीब 30 फीसदी आशुतोष बोले, 40 फीसदी राजदीप और बाकी तीस फीसदी में दोनों अतिथि पत्रकारों को निबटा दिया गया। आशुतोष के भीतर आज नब्बे के दशक के पत्रकारों की सिम लगी थी। लिहाजा जिस तरह के सवाल उन्‍होंने किये, वो सारे सवाल एक टेलीविजन ऑडिएंस के मन में स्वाभाविक तौर पर उठनेवाले सवाल हैं। आशुतोष ने राजदीप सरदेसाई से साफ तौर पर पूछा कि मीडिया किसी भी तरह का फैसला आने के पहले ही अपनी तरफ से फैसला नहीं दे देता है क्या, उसकी इमेज को, उसके करियर को पूरी तरह खत्म नहीं कर देता क्‍या? ए राजा के मामले में भी मीडिया ने खुद वही किया, तो फिर मीडिया अपने मामले में ऐसा होने पर क्यों परेशान है? इस पर राजदीप सरदेसाई ने कहा कि जब तक आरोप दाखिल नहीं हो जाते, मीडिया ऐसा नहीं करता। हम सुनते हुए साफ तौर पर महसूस कर रहे थे कि वो बचाव करने की मुद्रा में बात कर रहे हैं। कल ही हमने स्टार न्यूज पर सेक्स का सॉफ्टवेयरस्टोरी देखी, जिसमें चैनल ने मॉडल भैरवी के लड़की सप्लाय के धंधे में होने की बात की और कहा कि हालांकि बातचीत का टेप अभी सीबीआई के पास भेजा गया है कि ये उनकी और उसके पति विनीत कुमार की आवाज है या नहीं। लेकिन आधे घंटे की स्टोरी में चैनल ने कहा कि बिना किसी बिजनेस बैकग्राउंड के वो शेयर की कंपनी की सीईओ कैसे बन सकती है और लगभग साबित कर दिया कि भैरवी ने वही सब किया है, जिस बात के आरोप लगे हैं।

इसलिए राजदीप सरदेसाई हों या फिर कोई और ये बात दावे के साथ नहीं कह सकते कि चैनल जो कुछ भी दिखाते हैं, उनकी सत्यता की जांच पूरी तरह कर ली जाती है। आज वो ओपन और आउटलुक के मामले में मीडिया एथिक्स की बात कर रहे हैं। क्या कभी सिस्टर चैनल IBN 7 ने आये दिन ऑनएयर दिखाये जाने वाले स्टिंग ऑपरेशन में शामिल लोगों को बताया कि वो उनके साथ क्या करने जा रहे हैं? घंटों यूट्यूब से फुटेज काटकर स्टोरी चलानेवाले चैनल, जिसमें कि वर्ल्ड न्यूज के नाम पर भी चीजें शामिल होती हैं, कभी उस आवारा वीडियो की ऑथेंटिसिटी पर बात की?

श्रवण गर्ग ने साफ तौर पर कहा कि मीडिया इंडस्ट्री के भीतर बहुत सारे पत्रकार दलाली और लॉबिइंग के काम में लगे हैं, ये अलग बात है कि सबके सब वैसे नहीं है। मुझे आशुतोष के सवाल पर हंसी आयी कि वो पूछते हैं कि ऐसे कितने पत्रकार हैं? जैसे श्रवण गर्ग दलाल पत्रकारों की जनगणना में लगे हों। इतना होने पर भी श्रवण गर्ग को आज के मीडिया में उम्मीद दिखाई देती है। वे कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि सब कुछ पूरी तरह खत्म हो गया है। उनकी इस बात को मजबूती देते हुए एनके सिंह ने कहा कि अच्छे पत्रकार आज की पत्रकारिता को नयी दिशा दे सकते हैं, जिस पर कि आशुतोष ने संतोष जताते हुए कहा कि आज जबकि पिछले छह महीने में मीडिया ने बड़े-बड़े खुलासे किये लेकिन खुद संकट के दौर में आ गयालेकिन मानना होगा कि इसी मीडिया ने 2G स्पेक्ट्रम घोटाले का पर्दाफाश किया। बातचीत करण जौहर और यश चोपड़ा की हैप्पी एंडिंग सिनेमा की तरह खत्म हो जाती है।

2G स्पेक्ट्रम घोटाला और मीडिया को लेकर न्यूज चैनलों पर जितने भी शो चले, सबके सब इसी तरह कुछ कमेटी गठित करने, आदर्श बघारने और सेल्फ जजमेंट जैसे फफूंदी लगे शब्दों की रिपीटेशन के साथ खत्म हो जाते हैं। नतीजा कुछ भी निकलकर नहीं आता है। उल्टे ऑडिएंस को गहरी साजिश का एहसास होता है कि पूरे मामले को पूरी तरह सॉफ्ट किया जा रहा है। अब बताइए कि जो मीडिया किसी का नाम भर आ जाने से उसका पूरा जीवन, करियर, परिवार, सोशल लाइफ सबकुछ लील जाता है, श्रवण गर्ग जैसे दमदार माने जानेवाले पत्रकार कहते हैं कि तो क्या इन पत्रकारों को नौकरी छोड़ देनी चाहिए, करियर छोड़ देना चाहिए? अर्थात नहीं। गर्ग साहब! तो क्या इन पत्रकारों को थाने में अठन्नी जमाकर करके सिर्फ सॉरी बोल लेना चाहिए कि मैंने एरर ऑफ जजमेंट का काम किया है, आगे से नहीं करुंगा?

मैंने पहले भी कहा था और अब भी कहता हूं कि जिस नैतिकता की बात राजदीप सरदेसाई से लेकर एमजे अकबर, श्रवण गर्ग और बाकी के पत्रकार बघार रहे हैं, उस नैतिकता में जब तक वो पूरी तरह पाक-साफ करार नहीं दे दिये जाते, उन्हें कहानी-कविता-चुटकुले के बीच अपना समय बिताना चाहिए। किसी से सवाल करने का न तो उन्‍हें हक है और न ही किसी को उनका जवाब देने की अनिवार्यता। उन्हें समझना चाहिए कि उन्होंने सोशली अपना एक बहुत बड़ा अधिकार खो दिया है। इस तरह की नैतिकता की बात करके हमारे ये महान मीडियाकर्मी जिस तरह से पूरे मामले पर पर्दा डालने के लिए बेचैन हो रहे हैं, उसमें ये भी चिंता शामिल है कि अभी दो मामला दो-तीन पत्रकारों के नाम भर आने का है, आये दिन लाबिइंग और दलाली के बीच होनेवाली पत्रकारिता की शक्ल उघड़कर सामने आ जाएगी तो क्या होगा? हमें ये लोग जो मीडिया को कॉरपोरेट से अलग बता रहे हैं, आज मीडिया खुद कॉरपोरेट है। कॉरपोरेट का पक्ष लेते हुए वो एक तरह से अपना ही पक्ष ले रहे होते हैं। इस मामले में तीन दिसंबर 2010 को पी साईनाथ का दि हिंदू में लिखा लेख THE REPUBLIC ON A BANANA PEEL पढ़ा जाना चाहिए। कुल मिलाकर मेरी अपनी समझ है कि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जैसी गभग अब फर्जी हो चली बात को छोड़कर मीडिया एथिक्स के बजाय मीडिया बिजनेस एथिक्स की बात करनी चाहिए और हमें एक रीडर और ऑडिएंस के बजाय एक कनज्‍यूमर के तौर पर ईमानदारी से प्रोडक्ट मुहैया कराना चाहिए।

(विनीत कुमार - दिल्ली विश्वविद्यालय के मीडिया अध्ययन के शोधार्थी, टीवी और रेडियो की वर्तमान प्रवृत्ति पर सतत लेखन, मीडियाकर्मियों से मालिकों तक के बीच अपने धारदार ौर विश्लेषणपरक लेखन के लिए जाने और माने जाते हैं। एक उम्दा वक्ता और एक अच्छे श्रोता के साथ मित्र भी।)

Wednesday, December 1, 2010

क्योंकि वो लोग बड़े उंगलीबाज होते हैं।


खुलासों और खुल्लमखुल्ला का दौर है, भैया ने कहा था, जो करो वो करो और उसका समर्थन इसलिए मत करो क्योंकि आपने किया है, बल्कि इसलिए करो ्कयोंकि आपके मन ने कहा वो सही है। विकीलीक्स के खुलासे और बिग बॉस में पॉमेला के कपड़े सबकुछ ऊपर दोनों लाइनों से ही उपजा है। भैया ने यह भी कहा था, बेटा शहर के लोग तेजी से बढ़ रहे हैं, थोड़ा अपने आसपास के लोगों की उंगलियां भा थामने की कोशिश करना। क्योंकि वो लोग बड़े उंगलीबाज होते हैं। विकीलीक्स ने खुलासा किया, अरे या यूं कहिए कुछ कही हुई बात को कहा, कुछ सुनी हुई घटनाओं को कंप्यूटर के माथे पर चिपकाया है। लेकिन मुझे इस बात की बड़ी खुशी हुई कि अबतक छुपकर लादेन, जैश ए मुहम्मद, ही अफगानी यानी पाकिस्तानी पहाडिय़ों से दुनिया को ललकारते थे, चंबल के बीहड़ों में छुपकर डाकू अमीरों को धमकाते थे, सत्यम के जंगलों से लंबी, घनी, काली मूंछों वाले दुनियाभर के लोगों को चंदन लगाते थे, सचमुच के शेर को नोंच कर उसकी खाल संसार में बेंचते थे। छत्तीसगढ़, प.बंगाल के हरियर को सिस्टम बदलने की तपोभूमि बनाते थे। सबके सब निगेटिव एफट्र्स लगा रहे है और निगेटिव नतीजे चाहते हैं। मगर पहली बार कोई ऐसा भी है, जो छुपकर कहीं से अपना सबसे बड़ा पॉजिटिव नेटवर्क चला रहा है। वो है विकीलीक्स। भैया ने कहा था ईमानदारी के लिए किए गए हरेक एफट्र्स स्वर्ग की ओर जाते हैं। हां लेकिन उन्होंने यह भी कहा था, कि भीख देने के लिए की गई चोरी ठीक नहीं है, क्योंकि भीख देना किसी संविधान की अनुसूची छठवीं के आर्टिकिल 345 क के च के अनुसार जरूरी है कहीं नहीं लिखा। संविधान और कानून की लंब-लंबी बतियां और इस तरह की पेचीदगियां भला किसी को समझ में आ सकती हैं। और फिर अगर जो समझ में आ गया और आपको पता चल गया तो आपको कोई अपराधी ही साबित नहीं कर पाएगा। भैया विकीलीक्स ने अच्छे काम के लिए ऐसा किया है, तो क्या अच्छा है। पहली बार कोई ऐसा नेटवर्क कम से कम मेरी जानकारी में तो पहली ही बार आया है, जो वाकई अच्छा काम कर रहा है। इसके मालिक को मानना पड़ेगा, उसे रॉबिन हुड कहें या फिर तथाकथित बुद्धिजीवियों की नजरों में नक्सली जो भी कहिए कह दीजिए। लेकिन प्लीज विकीलीक्स से कहिए अपनी सूचनाएं कमर्शियली बाउंड न ही करे। यहां एक बात का जिक्र करना बेहद जरूरी है, कि अखबार, टीवी, इंटरनेट इन्हें तब तक नहीं चलाया जा सकता जबतक कि विज्ञापन का भूसा न भरा जाए। तब यह सभी माध्यम कहां ईमानदार रह जाएंगे। आप सब तो समझदार हैं, मैं तो अपने आपको अपडेट करने के लिए ऐसा कह रहा था। अजी क्यों न कहें विचारों की अभिव्यक्ति का जो मामला है। जनाब कुछ दिनों से मीडिया के चालचलन पर कई किस्से कहानियां और बात बतंगियां बाजार में प्रचलन में हैं, उनमें कभी महंगाई की तरह हाई राइजिंग स्पीड आ जाती है, तो कभी शेयरों के सूचकांक बनकर नीचे लुढकते जाती हंैं। लेकिन विकीलीक्स ने नई राह दिखाई है। हां कम से कम उनके लिए तो है ही जो सियासत के जरिए हिताहित की बात तो करते हैं, लेकिन रोटी के चारों ओर ऐसे घूमते हैं, जैसे कोई चखरी हो। हां याद आया वो चखरी जो बच्चों को दीवाली के वक्त और बुजुर्गों को बच्चों के मैरिड होने के बाद याद आती है। वो चखरी जो बिटिया के बाप को बिटिया के पीले रंग से हाथ रंगने के वक्त याद आती है। वही चखरी जो गांधी जी ने घुमाई की सूत कत गया और उस सूत में सबके सब बंध गए, वही चखरी जिसे तिरंगे ने बीच में लगाकर चौबीसों घंटे जागते रहने की दलील दी है। वही चखरी तो है यहंा जो कभी मेले ठेले में घूमती थी और अम्मा पापा के दिए पैसों में अपने ऊपर बैठने नहीं देती थी, कहती थी इसमें बैठने के लिए तीन बार मेले का इंतजार करना होगा। चलोअच्छा हुआ कोई तो कहीं से अच्छे काम कर रहा है, विकीलीक्स को सलाम करते हैं, उसके साथ आम आदमी तो रहेगा, लेकिन पूरा सिस्टम समूह नहीं चलेगा। अमेरिका है, भैया ने कहा था अमीरों के चोचले होते हैं, वे कभी भी अपनी कुछ भी करतूत की दलील नहीं देते बल्कि उसे समाज में स्टेटस सिंबल के तौर पर परोस देते हैं, और हम और हमारा समाज अंधभक्त होकर स्वीकारता जाता है। भैया ने इस बार फिर कहा चलो कोई तो है जो भूमिगत किसी अच्छे कारण से हुआ है। हां लेकिन इस बार भैया ने यह सीधे सामने बैठकर नहीं कहा बल्कि मोबाइल पर समस करके कहा है, यानी अखबार, फिल्म, न्यूज चैनल्स, वेब जर्नलिज्म, नारदिज्म, मंथराइज्म, हुनमानिज्म आदि के बाद अब आ रहा है, ऐसा मीडिया जो पत्रकारों को जर्नलिस्ट, संपादक आदि के पारंपरिक तमगों और खोलों से बाहर निकालकर सीधा सच्चा भूमिगत भू-सुधारक वेबिस्ट बना देगा। जय हो विकीलीक्स।।।।।।।।
सादर आमंत्रित हैं, भैया चाहें तो अंग्रेजी में या हिंदी में मेल (पुरुष) कर सकते हैं। समस के लिए भी नंबर दे रहा हूं, आगे तो आपकी ही मर्जी चलेगी न, क्योंकि गोविंदा अंकल ने कहा है मैं चाहे ये करूं मैं चाहे वो करूं मेरी मर्जी। जी सर्जी।।।।.
वरुण के सखाजी, ०९००९९८६१७९.sakhajee@gmail.com

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