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Saturday, November 28, 2009

विकिपीडिया सियासी बकवास का ...आईने में लिब्रहान


विवेक मिश्रा

रात में समाचार देख कर सोया की संसद में गन्ने के उचित मूल्य के मुद्दे पर विपक्ष ने किसानो को सड़क पर उतारकर सरकार को मुश्किल में डाल दिया है और कल सरकार ज़रूर किसानो के लिए कुछ करेगी लेकिन कहते है कल किसने देखा है ,आम आदमी तो नही देख सकता क्यूंकि वह सियासत का मोहरा जो है खैर मै मुद्दे से भटक रहा हूँ,लेकिन लगता है सरकार को मुद्दे से भटकने का मुद्दा चाहिए रहता है कांग्रेस सरकार किसानो की मसीहा जो ठहरी सुबह हुई संसद का माहौल और मिज़ाज दोनों बदला बदला दिखा आज अडवानी ख़ुद ही एक समाचार पत्र लिए प्रवेश कर रहे थे यह वही समाचारपत्र था जो जसवंत सिंह के लिए हाल में अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का साधन बना था समाचारों में हेडिंग बन रही थी बोतल से फिर जिन्ना का जिन्न निकला खैर जसवंत सिंह की अभिव्यक्ति चल निकली और हमेशा की तरह विवादित चीज़ हिट फोर्मुले पे हिट हुई विवादित शब्द से ध्यान आया संसद में उस दिन अडवानी जी के हाथो में जो समाचार पत्र था उसके पहले पेज पे ही विवादित ढांचा यानी बाबरी १९९२ के आरोपी लगभग ६८

जिंदा जिन्नों के बारे में छपा था हमारी विपक्ष संसद के शुरू होते ही किसान और गन्ना दोनों को ताख पे रखा और सरकार से लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट जो सत्रह सालो से बोतल में कैद थी को पेश करने की मांग कर दी ,उधर समाचार चैनेल से लेकर पूरी मीडिया ने बयार बहने की दिशा को भांपकर किसान और गन्ने को स्क्रीन से बाहर फेककर अडवानी एंड संस की जिन्न टीम को अपने स्क्रीन में कैद कर भूखे किसानो को खाने को परोस दिया मेरी नीद खुलने के बाद और रात में बेड पर जाते समय तक इन चीजो ने मुझे बैचैन कर दिया की अब गन्ना किसानो का ? समझ में आया की सुगर लाब्बिंग ने किसानो के नेता होने का दावा करने वालो को इतनी मीठी चाय पिला दी है की वे देश को आज़ाद कराने वाले नेताओं पर भी संसय करने लगे है साथ यह भी कह रहे है की इस मीठी चाय पर कौन न कुर्बान हो जाए ,मुझे सैफ अली खान की तरह इन किसान नेताओं का भविष्य भी कुर्बान होता दिख रहा है टाटा के चाय उत्पाद ने नया स्लोगन भी निकाला है चाय पिलाओ घूस नही लेकिन टाटा वाले भूल गए की यदि चाय मीठी हुई तो ?मैंने बहूत बकवास कर ली क्या करू आदत से मजबूर जो हूँ कुछ लोग यह भी कहते है आंकड़े बताता नही केवल मुंह खोला और जो आया भक से कह दिया ,लिख दिया फिलहाल एक सर्व विदित तथ्य आपको बता दूँ की समाचार पत्र का नाम इंडियन एक्सप्रेस था अब इसने लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट स्वय खोजी या इससे खोज्वाई गयी खोज का विषय है यह हमारे किसान के सबसे वफादार नेता और हम सभी भारतीय किसानो के बीच पढ़े लिखे सरदार माफ़ कीजियेगा सरकार मनमोहन सिंह का कहना है जांच लिब्रहान की तरह १७ का दूना ३४ साल में न आए बस यही दुआ है मेरी और सियासत के जिन्नों से अनुरोध है की किसानो के बचे गन्ने तो कम से कम न चूसो घर जाओ और किसानो के खून को चूस कर जो फ्रूटमिक्सेर मंगवाया है मंहगे फलो को उसमे डाल कर रस निकालो और गालो को लाल करो ......जारी रहेगा

Thursday, November 26, 2009

हमें नहीं आता

हमें बताना नहीं आता
ग़म के साथ ए हसीना हमें जीना नहीं आता
मोहब्बत तो हम भी करते हैं,
मगर ठुकराए इज़हार पर पीना हमें नहीं आता
मयख़ाने की शिरक़त हम अक्सर किया करते हैं,
मगर बस्ल ए इंतज़ार में, आंखे भिगाना हमें नहीं आता
क़ॉलेज के गेट पर हो खड़े,
राह तेरी तकता ज़रूर हूं, मगर क्या करूं
दिल को एक जगह टिकाना हमें नहीं आता
दुनिया के हुज़ूर से कहना ज़रूर, बुरक़े के भीतर छुपे
बदन पर इतराना हमें नहीं भाता
कनखियों से सुरमाई आंखे क़हर ढाती तो हैं
मगर पसंद इस तरह किसी को
बहकाना हमें नहीं आता
सुर्ख आफताब से गालों पर लेकर डिंपल हंसना हसीना
तुम्हे पाने की मशक्कत में पसीना बहाना हमें नहीं आता
होगी नवाब की भोपाली झील तेरी नीली आंखे
मगर इन आंखों की चाह में आंसु बहाना हमें नहीं आता
गुलाबी बाग की हसरतें हैं,तेरे होठों की तरह फड़फड़ाने की
मगर असल में बस्ल की चाह में
सब कुछ लुटाना हमें नहीं आता
चले जाओगे ज़िंदगी से क्या समझते हो
ख़ुदा की नेमत "जान" इस तरह गंवाना हमें नहीं आता
एक बात तुमसे कहे देता हूं,
मेरी "जान" मेरे बदन में नहीं ,
बसती है तुममें बताना हमें नहीं आता
वरुण के सखाजी
पत्रकार
ज़ी24घंटे,छत्तीसगढ़
9009986179

हमें नहीं आता

हमें बताना नहीं आता
ग़म के साथ ए हसीना हमें जीना नहीं आता
मोहब्बत तो हम भी करते हैं,
मगर ठुकराए इज़हार पर पीना हमें नहीं आता
मयख़ाने की शिरक़त हम अक्सर किया करते हैं,
मगर बस्ल ए इंतज़ार में, आंखे भिगाना हमें नहीं आता
क़ॉलेज के गेट पर हो खड़े,
राह तेरी तकता ज़रूर हूं, मगर क्या करूं
दिल को एक जगह टिकाना हमें नहीं आता
दुनिया के हुज़ूर से कहना ज़रूर, बुरक़े के भीतर छुपे
बदन पर इतराना हमें नहीं भाता
कनखियों से सुरमाई आंखे क़हर ढाती तो हैं
मगर पसंद इस तरह किसी को
बहकाना हमें नहीं आता
सुर्ख आफताब से गालों पर लेकर डिंपल हंसना हसीना
तुम्हे पाने की मशक्कत में पसीना बहाना हमें नहीं आता
होगी नवाब की भोपाली झील तेरी नीली आंखे
मगर इन आंखों की चाह में आंसु बहाना हमें नहीं आता
गुलाबी बाग की हसरतें हैं,तेरे होठों की तरह फड़फड़ाने की
मगर असल में बस्ल की चाह में
सब कुछ लुटाना हमें नहीं आता
चले जाओगे ज़िंदगी से क्या समझते हो
ख़ुदा की नेमत "जान" इस तरह गंवाना हमें नहीं आता
एक बात तुमसे कहे देता हूं,
मेरी "जान" मेरे बदन में नहीं ,
बसती है तुममें बताना हमें नहीं आता
वरुण के सखाजी
पत्रकार
ज़ी24घंटे,छत्तीसगढ़
9009986179

Tuesday, November 24, 2009

सबकी मिली भगत सबको फायदा

बाबारी का जिन्न फिर बाहर आगया है। कहने को ये घटना आज से सत्रह साल पुरानी है, जिसे कोई शर्म,कोई शौर्य और धैर्य का अवसान मानता है। लेकिन सच में ये घटना थी क्या..क्या वास्तव में किसी विदेशी अक्रांता की बनाई गई जागीर को तोड़ देना अपने धर्म और जाति के लिए कर्तव्य परायणता होगी या फिर राष्ट्रवाद होगा क्या हमने इस विवादित ढांचे को गिरा कर बाबर की बर्बरता और उसकी पौध याने औरंगज़ेब की ज़्यादितियों को भुला दिया या इतिहास में दर्ज़ इस सच को पौछ पाये..शायद जवाब आसान नहीं होगा।
एक बार फिर आंतक के लिए एक जुट होते देश के सामने वही दो सवाल आएंगे एक आंख मेरी धर्म कहलाती है दूसरी राष्ट्र..मैं किसे क़ुर्बान करूं...मुस्लिम कठमुल्लों को पटरी पर दौड़ती ज़िंदगी को फिर एक बार पाक में बैठे आक़ाओं की उस बात को साबित करने का मौक़ा मिल गया है जिसमें वो अक्सर भारतीय मुस्लिमों को हिंदुओं से दूर रहने की सलाह देते हैं..कहा करते है उनके हित भारत में नहीं बल्कि भारत के भीतर एक और पाकस्तान बनाने में हैं....सीमापार के ये तथाकथित इस्लाम के प्रचारक सक्रिय हो गये हैं..और सबसे बड़ी बात इस रिपोर्ट की ये है कि इससे निकलने वाले राज़ दरअसल राज़ हैं ही नहीं...सब खुली ख़िताब की तरह पढ़ा, समझा जा सकता है। रिपोर्ट लीक हुई अफसोस ये नहीं जिस वक्त लीक हुई वो समय राष्ट्रीय एकता और गौरव को नये आयाम देने वाला है...इसी महीने के आखिरी सप्ताह में मुम्बई हमले की सालग़िरह होगी और देश के दूसरी बड़ी आबादी इस बात से आशंकित और आतंकित होगी कि कहीं फिर भगवा सेना सक्रिय होकर कुछ ऐंसा ना करने लग जाए जो 1992 का दोहराव हो....उनके हाथों में ज़रूर शोक के प्रतीक कैंडल,काली पट्टी या कुछ और हो सकता है हो मगर दिल में एक भय खौफ और ख़तरनाक यादें होंगी वो जो बात उस पीढ़ी को नहीं बताना चाहते थे जो उस वक्त पैदा नहीं हुई थी...वो पीढ़ी ख़ुद ही सब जान जाएगी...
अब सवाल ये उठता है कि आखिर रिपोर्ट इसी वक्त क्यों लीक हुई या कराई गई...ये कोई परीक्षा का पर्चा नहीं जो बदमाशों ने लीक किया हो या गैस पेपर नहीं है..बल्कि देश की अस्मिता औऱ मान गौरव सम्मान के साथ राष्ट्रीय शांति का मसला है...इसके पीछे सरकार का हाथ है या जो भी है, कोई माइने नहीं रखता ये बात अल्हदा है।
इस रिपोर्ट के नजदीकी बुरे असर और दूरगामी बुरे असर दोनो पर हम इन बिंदुओं पर सोचते हुए विचार कर सकते हैं..
पहला देश के मुखिया का बाहर होना और रिपोर्ट का लीक होना-मनमोहन सिंह एक मंझे हुए खिलाड़ी है वे इसका ठीकरा अपने सिर नहीं लेना चाहते अब तक उनकी छवि सीधे सरल औऱ काम के प्रति निष्ठावान की बनी हुई है..औऱ फिर वे अपने वाक् चातुर्य के आभाव में गरम मुद्दे पर बहस में बुरे फंस भी सकते थे..
दूसरा इसी बीच उनका पाकस्तान के लोकतांत्रिक अस्तित्व पर सवाल खड़ा करना कि कौन है वहां जिससे बात की जा सके याने पाकस्तान की ज़म्हूरियत भारत की नज़र में बोगस है असल ताकत वहा के सेना नायकों और तालिबानियों में है...जो कि सच भी है..इस बयान ने वैश्विक पटल पर एक नई सोच और बहस दोनों ही समान रूप से रखी हैं..जिसमें शर्म-अल-शेख के साझां बयान का पश्चाताप भी शामिल है..
तीसरा गन्ना के गड़ने से कांग्रेस नीति संप्रग में ठीकराबाज़ी से लोगों औऱ विपक्ष का ध्यना पूरी तरह से हटाना....
तीसरा स्पेकट्रम घोटाले को सेफसाइड करना....चौथा कोड़ा पर पड़ रहे कोड़ों को भले ही केंद्र ने ही परोक्ष समर्थन दिया हो लेकिन पार्टी इसे तह तक नहीं ले जाना चाहती कांग्रेस के पुराने सहयोगी कोड़ा ने घोटाला नहीं किया बल्कि झारखण्ड के सीएम की करतूत है..याने कोड़ा और कांग्रेस का मेल कमतर दिखाना...पांचवा औऱ आखिरी भाजपा ने राव को घेरा तो कांग्रेस कैसे चुप रहे वो ऐंसा काला चिठ्ठा लेकर आई जिसने उसे फिर बूस्ट कर दिया।
वास्तव में सियासी दांव बड़े गहरे होते हैं...बाबरी के जिन्न को निकालना...वंदेमातरम् पर फतवे वाली सभा में परोक्ष रूप से रहना सबके बड़े गहरे माइने हैं...जिन्हे आम आदमी नहीं समझना नहीं चाहता..
इससे जो देश का माहौल बनेगा वो भाजपा या किसी औऱ भगवा का नुकसान नहीं होगा..बल्कि डूबती बिखरती पार्टी को फिर एक बार स्थापित होने का मौका मिलेगा वहीं सपा जो मुस्लिम परस्ती से कुछ दिन बाहर आई थी वो फिर उसी कूप में डूब जाएगी..वहीं ये सत्र तो गया जिसमें देश के बड़े मुद्दों पर चर्चा होनी थी..कुल मिला कर ऐंसा लगा कांग्रेस को मुद्दों से बचने का फायदा..भाजपा को रिस्टेंड होने का फायदा सपा को फिरका ताकतों का प्यार दोबारा मिलने की संभावनाओ का फायदा होता दिखाई दे रहा है जो साबित करता है कि शायद ये सर्वदलिय रमनीति थी जो सर्वदिलीए भारत को सियासी सौहवत के बुरे असरों के रूप में मिल रहीं है..
लिब्रहान रिपोर्ट लीक हुई कराई गई जो भी हुआ मतलव नहीं बहरहाल इससे ये ज़रूर लगता है कि जनता को अब नेता खुले आम मूर्ख बनाने लगे हैं..जिसमें कोई हिंदू नहीं कोई मुस्लिम नहीं हौ बल्कि सिर्फ एक आदमी है जिसे नेता वोटर कहते हैं। कल्याण कब भगवा भगवान छोड़ सपाई हो जाते हैं..मौहभंग होने या उपेक्षा से फिर भगवा छत्ते के आस-पास मंडराने लगते है कब उमा को पार्टी की उपेक्षा बुरी लगती है औऱ कब वो अटल आजवाणी को बाप समान कहने लगती है पवार कांग्रसे से अलग होते हैं लेकिन फिर वही लोगो के बीच साझा हो जाते है.शिबु कल तक साथ आज नहीं लालू संप्रग के घटक रहे तो लगने लगा वे इससे बड़े हो गये हैं तो बिहार में कैसे कांग्रेस को आने दे झगड़ा कुर्सी टेबल सब कुछ नाचक ..ना जाने कब किस नेता को क्या अच्छा बुरा लग जाता है पता नहीं चलता इतना खुल कर किसी राज या युग में जनता को नहीं छला गया। इसलिए किसी रिपोर्ट, सर्वे, और साराशों पर ना जाए बल्कि सीधे सियासत की अंधी चाल को समझें...
वरुण के सखाजी
पत्रकार ज़ी24घंटे,चत्तीसगढ़
रायपुर
09009986179
sakhajee@yahoo.co.in

Saturday, November 21, 2009

खेती की सियासत


छत्तीसगढ़ राज्य देश के नक़्शे पर उस वक़्त उभरा जब समूचा राष्ट्र नेताओं से सवाल कर रहा था कि आखिर देश में कभी गठबंधन की सरकार स्थायित्व दे पाएगी या य़ूं ही कभी किसी वजह से तो कभी किसी वजह से लड़खड़ाती और गिरती रहेगी...इसी के साथ 2 राज्यों ने भी अपना जीवन शुरू किया लेकिन इनमें से सिर्फ़ छत्तीसगढ़ है जो स्वस्थ है झारखण्ड तो जैसे बुरी तरह से बीमार है...अस्थिरता तो अस्थिरता देश का तबसे बड़ा घोटाला भी यहां सामने आया...लेकिन राज्य छत्तीसगढ़ अपनी ज़िंदगी की नई इबारत लिख रहा है...राज्य में रमन की सरकार बड़ी लोकप्रिय और कर्मठ है इसमें कोई शक नहीं।
लेकिन इस राज्य में भी वोट की राजनीति की जाती है..विधायकों की खरीद-फरोख्त तो अब पुरानी बात हो गई लेकिन बेमतलव का औबिलीगेशन जारी है...देश का सबसे बड़ा विद्युत उत्पादक होने के नाते राज्य को एक अल्हदा पहचान भी मिली हुई है...लेकिन क्या रमन सरकार को येन वक्त पर किसानों के आंदोलन के सामने हथियार डाल देने थे...धमतरी की हिंसा से घवराए सीएम ने ये फैसला इतने जल्द लिया कि कोई सोच भी नहीं सका...माना कि देश में किसानों से किसी को भी द्वेष नहीं होगा इन्हें कइयों रियायतें भी दी जानी चाहिए ताकि किसान अपनी तंग ज़िंदगी से परेशान ना हो औऱ खेती घाटे का सौदा क़तई ना रहे...लेकिन इन सबके बीच क्या सरकार को इन बातों पर ग़ौर नहीं करना चाहिए...
पहला राज्य़ के किसानों को मुफ्त बिजली देने से खज़ाने पर पड़ने वाले भार की पूर्ती कहां से की जाएगी।
दूसरा 200 करोड़ के अधिभार से राज्य के शेष विकास कार्यों पर क्या फर्क पड़ेगा
तीसरी क्या महज़ बिजली देने से किसान खुश हो जाएंगे या फिर उनकी वाकई यही समस्या है
चौथा इसकी क्या व्यवस्था की गई है कि खेतों में सिंचाई के नाम पर कनेक्शन लेकर इसका दुरूपयोग नहीं होगा जिसमें विभागीय कर्मी भी शामिल होते हैं
पांचवा क्या इस फैसले से राज्य के कर्मठ किसानों की कर्मठता पर असर नहीं होगा. या फिर वे हर मौकों पर सरकार के सामने हाथ फैलाए खड़े नहीं हो जाए जिससे किसानों की कर्मठता तो ख़त्म हो ही जाएगी साथ ही प्रदेश भविष्य में आंदोलनों और सरकारों पर पूरी तरह से निर्भर हो जाएगा, हालाकि ये देश की समस्या है लेकिन इसके पीछे नेता वोटिंग कॉज देकर बच निकलते हैं...
छठा क्या इस तरह मुफ्त बिजली बांट कर सरकार दोबारा पॉवर एक्सीलेंसी एवार्ड जीत सकेगी
सातवां क्या सरकार ये भूल गई कि इसी साल गर्मियों में बढ़ते पावर लोड के कारण राज्य सरकार को केंद्र के सामने अपने एनटीपीसी वाले कोटे के लिए ज़द्दोजहद करनी पड़ी थी
आठवां क्या सरकार भूल जाती है कि छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत मंडल का ख़ुदका कुल उत्पादन दोनों स्रोतों , पनबिजली और थर्मल बिजली से 2200 मेगावॉट तक ही पहुंचता है..जबकि सरप्लस का मतलव आईपीयू औऱ सीपीयू की बिजली होता है..
नौवां क्या सरकार इस बात को नहीं जानती कि यही बिजली बेंच कर राज्य को करोड़ों का लाभ होता है..
दसवां क्या यही किसान प्रेम है...जिसमें खजाना लुटाया जाए...अगर ऐंसा है तो फिर सभी किसानों को कह देना चाहिए कि वे खेतों पर ना जाए बल्कि किसी शेड के नीचे बैठ कर आंदोलन करें।
ये महज़ वोट की राजनीति होती है..जिसे राजनीति के चतुर सुजान रमन सिंह ने क्यों किया इस पर नज़र डालते हैं..
पहला इस मुद्दे पर कांग्रेस की सियासी बढ़त को ख़त्म करना जो वैशालीनगर परिणामों के बाद सामने आई है...
दूसरा अगर मुद्दा आगे बढ़ा जाता तो रियायतें देने के बाद भी श्रेय कांग्रेस को जाता और अगर रियायतें नहीं दी जातीं तो रमन की चांउर वाले बाबा की वोटिंग इमेज पर बुरा असर पड़ता
तीसरा कांग्रेस को बे-मुद्दा करके साबित करना कि सरकार चहुंओर विकास की लहर चला रही है इससे देश की सियासत में सीएम का रुतबा तो बढ़ता है साथ ही डॉ.रमन सिंह की पार्टी के भीतर बेहतर छवि भी बनती...यानें वे एक अच्छे प्रबंधक भी बन जाते...जो कि उन्हे शिवराज से आगे निकलने में मदद करता..गौरतलब है कि शिवराज के डंपर घोटाले ने उनकी पार्टी के भीतर छवि को कम किया है जो एक खराब प्रबंधन का नतीज़ा माना गया है, ऐंसी ही सूझ-बूझ धान घोटाले के वक्त दिखा कर साबित किया था..इन सबसे सीएम का क़द लगातार बढ़ा है..
लेकिन क़द के चक्कर में प्रदेश के साथ बड़ा अन्याय हो सकता है..
किसी भी नेता से पर्सनली पूछा जाए तो वो यही कहता है कि ये सब हमारी सियासी मज़बूरी है वरना हम भी ऐंसा नहीं चाहते...लेकिन इसका समाधान किसी के पास नहीं किसानों की राजनीति अब जोरों पर है हालाकि देश के बड़े नेता मुलायम हों या लालू सभी ने किसानों की नौका का इस्तमाल किया है यहां तक कि अजीत सिंह तो हरित प्रदेश को लेकर किसान पुत्र के नाम से ही जाने जाते हैं...ऐंसे बहुत से नेता हैं जो किसानों के हितैषी कहे जाते हैं..नवीनतम् घटनाक्रम में गन्ना किसानों की बात की जाए तो कांग्रेस के यू-टर्न और शरद पवार पर ठीकरे ने फिर साबित किया कि किसान बड़ा वोट बैंक है...लेकिन सालों से किसानों के हित की बात की जा रही है और ऐंसा नहीं है कि किसी किसान नेता को किसानों के लिए कुछ करने का मौका ना मिला हो कम या ज्यादा सभी को मौका मिल चुका है लेकिन इस सबके बाद ही से किसानी में इज़ाफ़ा किसी नेताई करिश्में से नहीं बल्कि उद्योगपतियों के नये प्रयोगों से हुआ है...जिसमें देश के इंडस्ट्रीयालिस्ट्स ने खेती के उपकरण आमलोगों तक सस्ते दामों पर पहुंचाए...जिससे खेती मौसम के चंगुल से किसी हद तक बाहर आ सकी...सरकारी स्तर पर भी कोशिशें क़ाबिले तारीफ़ हैं...लेकिन पर्टीकुलर नेता इसका श्रेय नहीं ले सकता भले वो इस नाम पर वोट लेले।
अब बात करते हैं सरकारी मदद और किसानों के उत्थान की तो ये कहना ग़लत ना होगा कि इसके बाद से ही किसानों की मेहनत पर उल्टा असर पड़ा है...गांवों में अपराध बढ़ा है, और हद तो तब हो जाती है कि देश के भंडारण में अनाज इतना कम पड़ जाता है कि बाहर से आयात करना पड़ जाता है...राज्य छत्तीसगढ़ की बात की जाए तो देश के कुल चावल उत्पादन का बड़ा हिस्सा राज्य का है लेकिन शायद मौसम की बैरूखी से ज़्यादा सरकारी योजनाओं के कारण 20 सालों बाद देश को चावल का आयात करने पर मज़बूर होना पड़ा....
वरुण के सखाजी
पत्रकार ज़ी24घंटे छत्तीसगढ़ रायपुर
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Wednesday, November 18, 2009

हैडली नहीं हैदर अली...

आंतकी वारदातों के बढ़ते ग्राफ और तरह-तरह की बातों ने ज़ेहन में कई सवालात खड़े कर दिए है...दरअसल..मन बेहद विचलित है कि कोई भला कैसे ये कह सकता है कि फलां वर्ग या समाज धर्म के लोग ऐसे होते हैं..क्यों इस मामले में इतना पूर्वाग्रह होता है...इन दिनों हैडली प्रकरण बड़ा उछला हुआ है...सच तो जो भी हो लेकिन भारतीय तीव्रतम् मीडिया को मसाला ख़ूब मिला है...मुम्बई हमले में शामिल था देश के एक-एक शहर को घूमा आदि..आदि। खैर ये तो किसी भी सूचना माध्यम के साथ होता है..मेरे मन में सहसा ही हैडली के बारे में ख़्याल आया कि ये जो डेविड कॉलमेन हैडली है, कहीं इसका असल नाम दाउद क़ल उम्मैन हैदर अली तो नहीं....इस तरह का विचार ज़ेहन में यूं ही नहीं आया था..बल्कि ऐंसे विचारों की शुरूआत कंधार काण्ड के बाद हुई थी ,जब हाईजैकर्स में से एक का नाम शंकर था जो बाद में साकिर निकला...औऱ चल पड़ा सिलसिला आतंकी वारदातों का...जुड़ने लगा नाम इनके पीछे..अक्सर ऐंसी कौम का जो पहले से ही भारत जैसे सहिष्णु देश में रहने की ज़द्दोजहद कर रही है...हर चेकपोस्ट पर अपने देशभक्त होने का सबूत दे रही है...इसी दौरान मैंने एक निजी समाचार चैनल के खास कार्यक्रम में देवबंद के मदनी साहब के विचार जाने उनका दर्द उनकी टीस हर शब्द में थी...बात-बात पर कटघरे में खड़े होने वाले मुल्ला मौलवियों के सामने अब आखिर कितने और सवाल हैं...रजत शर्मा जैसे मंझे हुए पत्रकार अपना पूर्वाग्रह रोक ना सके..उनका भी एक सवाल सीमापार और देशी लोगों के बीच भेद ना कर सका...मुझे तकलीफ इस बात की है..कि आखिर मुस्लिम कौम ही क्यों कटघरे में है अमरिका में भारतीय क्यों नहीं जबकि वहां तो खुले तौर पर भारतीय आज़ादी का दिन औऱ बाकी सब वो राष्ट्रीय त्यौहार मनाये जाते हैं..जो उन्हें सीधा एक भारत परस्त साबित करतीं हैं..क्या कारण है कि भारत में ही ऐंसा होता है...इसके पीछे हम उस पुरानी सोच पर भी चल कर देखते हैं..जिसमें हिंदी वर्णमाला पढ़ाते वक़्त कई ऐंसी चीज़ें पढ़ाई जाती हैं..जिन्हें बच्चा अपने दिमाग में हमेशा के लिए बिठा लेता है..जैसे कि....क्ष क्षत्रिए का और फोटो रहता है एक योद्धा का...जो तलवार ढाल लिए खड़ा रहता है..तब से अब तक कोई अगर ख़ुद को क्षत्रिए बताता है..या ठाकुर जाति का बताता है तो ख़ुदवख़ुद ज़ेहन में बचपन की पढ़ाई गई तस्वीर उभरने लगती है..जबकि सच उस तस्वीर के इतर होता है...ऐंसे ही हर काली पगड़ी बढ़ी दाढी वाला व्यक्ति आतंकी नज़र आता है और ये हमें पढ़ाया गया उस आतंक की क्लास में जो शुरू हुई थी..सन् 2001 में जब अमरिका तिलमिलाया था..तभी एक चेहरा आतंक का पर्याय बन गया..उसकी शक़्ल हुबहू उसी शक़्ल से मिलती है जो आज मौलाना मुल्ला मौलवियों का लुक है...सीधी बात ये है कि धर्म की आड़ लेकर जितनी क्रूरता आतंकियों ने की है और कर रहे हैं उतना ही ग़ैरज़िम्मेदाराना रवैया उनका भी है जो सच्चे इस्लाम के विचारक हैं..चाहे वो मस्ज़िद में हों या मज़ार में..सब जगह वो हैं..अब अच्छी बात है कि मदनी साहब जैसे लोग आतंक और इस्लाम में फर्क करने के लिए सामान्य सभाएं भी करने लगे हैं..देवबंद का सम्मेलन कई माइनों में देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी के चाल,चरित्र,और चेहरा को निर्धारित करने वाला था...जिसमें समय के साथ इस आबादी का सही चेहरा औऱ मौहरा सामने आएगा वहीं बहुसंख्यकों का भी इनके प्रति नज़रिए साफ होता जाएगा..अब हमें क्ष क्षत्रिए का प पंडित का ल लाला का पढ़ाया जाएगा तो तस्वीरें ऐंसी तो बनेंगी ही ना...लेकिन फिर भी पूर्वाग्रह जैसी चीज़ें देश,समाज,दुनिया और धर्म सबके लिए घातक हैं..मीडिया ने इस सम्मलन से वंदेमातरम् उठाया बाकियों पर तो ध्यान ही नहीं गया......इस देश का विचार मीडिया,मुस्लिम,और महंत बनाते हैं तब इनकी भूमिकाएं खास के साथ ही ज़िम्मेदाराना भी हो जाती हैं....

Monday, November 16, 2009

जन्मदिन मुबारक जनसत्ता

सत्रह नवम्बर १९८३ को प्रभाष जी ने हिन्दी पत्रकारिता को तेवर दिए थे। जनसत्ता की शुरुआत करके। प्रभाष जी पिछले दिनों ही हमसे दूर हुए। अपने बिल्कुल शुरूआती वर्षों में जनसत्ता ने लोकप्रियता के सभी कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए थे। हम आज भी वो कहानी सुनते हैं जब प्रिंटर की बीमारी के चलते जनसत्ता के पाठकों से ये अपील की गई थी की उसे मिल बाँट के पढ़ा जाए। इसे चौथा थाना कहा जाता था। १९८३ में भारत की एक टीम विश्वकप उठा लायी थी। जनसत्ता की एक टीम की चर्चा आजतक होती है। भले ही ये बिखर गई हो। ये सबकुछ आज भी सुना, पढ़ा और लिखा जाता है। जनसत्ता आज भी दूसरों से आगे है लेकिन ख़ुद से कहीं पीछे हो गया है। इस मोड़ पर प्रभाष जी का एकदम से जाना और दुखद है। आज जनसत्ता के जन्मदिन के रोज़ हम इस बात की उम्मीद कर सकते हैं की ये दुबारा से अपने स्वर्णकाल तक पहुचेगा।

Friday, November 13, 2009

प्रभाष जी की आत्मा को भगवान कभी शांति नहीं दे...


प्रभाष जोशी चले गए। उनकी अस्थियां भी उस नर्मदा में विसर्जित हो गई जिस वे हमेशा मां कहते थे और अक्सर नर्मदा को याद कर के इतने भावुक हो जाते थे कि गला भर आता था। इन दिनों हमारे प्रभाष जी को ले कर संवेदनाओं के लेख, संस्मरण और शोक सभाओं का दौर चल रहा है। वे लोग जो कुछ दिन पहले तक इंटरनेट पर प्रभाष जी को इस युग का सबसे पतित, मनुवादी और ब्राह्मणवादी पत्रकार करार दे रहे थे, उनकी बोलती बंद है। उनमें से कई तो उनके निधन पर घड़ियाली आंसू भी बहाते दिखे। लेकिन अब वक्त प्रभाष जी को याद करने से ज्यादा उनके सरोकारो को याद करने का है। तिहत्तर साल की उम्र में भी जिन सरोकारो को ले कर प्रभाष जी देश के हर कोने तक हर किस्म के वाहन से और होटलों से ले कर लोगों के घरों में ठहर कर पत्रकारिता के कायाकल्प और उसमें आ गए दोषों से कलंक मुक्ति की अलख जगा रहे थे, उनके इसी सरोकार को जारी रखना और आगे बढ़ाना शायद प्रभाष जी को सबसे बड़ी श्रध्दांजलि होगी।
पता नहीं आज जो लोग आंसू बहा रहे हैं वे इस सरोकार को सहेजने में कितनी रुचि दिखाएंगे। सरोकार रोटी और शराब के पैसा नहीं देता। उसके लिए तो प्रभाष जी जैसा कलेजा चाहिए और एक सक्रिय और तेजस्वी वैराग्य चाहिए। प्रभाष जी पत्रकारिता के नाम पर हो रही धंधेबाजी के खिलाफ जूझ रहे थे। वे समाज की हर बुराई और हर अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ भी वे खड़े थे और बंगाल के नंदीग्राम के ग्रामीणों के साथ भी शामिल थे। हमारे मित्र और विश्वविख्यात कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा बता रहे थे कि चंडीगढ़ में एक्सप्रेस के संपादक रहने के दौरान उन्होंने एक सवाल किया था कि जिस देश में 70 प्रतिशत लोग खेती पर आधारित हो वहां गंभीर कृषि पत्रकारिता क्यों नहीं हो सकती? देवेंद्र शर्मा कृषि वैज्ञानिक बनने के रास्ते पर थे मगर कृषि पत्रकार बन गए और इन दिनों उन्हीं से पता लगा कि विदेशी बीजों और मल्टीनेशनल खेती के अलावा किसानों पर कर्जे के खिलाफ भी प्रभाष जी की जंग जारी थी।
प्रभाष जी के बेटे संदीप ने उनके अंतिम क्षणों का वर्णन किया है। सचिन के आउट होते ही वे टीवी वाले कमरे से उठ कर चले गए थे और संदीप जो खुद भी रणजी और कांउटी तक खेल चुके थे, ने पिता को फोन किया तो आखिरी सवाल था कि क्या स्कोर हुआ है? इसके बाद फोन मां ने लिया और कहा कि बेटा जल्दी आओ, पिता जी बेहोश हो गए। सो प्रभाष जी के अंतिम शब्द थे- 'क्या स्कोर हुआ है'। क्रिकेट की भाषा में ही कहे तो प्रभाष जी ने अपने आपको हिट विकेट कर दिया। उम्र हो चली थी। पच्चीस साल से शुगर के मरीज थे। एक बाई पास सर्जरी हो चुकी थी। पेस मेकर लगा हुआ था। फिर भी अगर किसी से मिलना है तो मिलना है। तीन मंजिल चढ़ के चले जाएंगे।
प्रभाष जी जैसा न कोई हुआ है, न कोई होगा क्योंकि जैसा कि पहले और हमेशा कहा कि प्रभाष जोशी बनने के लिए कलेजा चाहिए। जिस समय प्रभाष जी का जनसत्ता अपने चरम पर था और विज्ञापन देने वालों की और पैसा दे कर खबर छपवानों वालों की लाइन लगी होती थी, प्रभाष जी ने जनसत्ता को घाटे में चलने दिया लेकिन वे सौदे नहीं किए जिनके खिलाफ वे आखिर तक लड़ रहे थे। इंडियन एक्सप्रेस के एक्सप्रेस टॉवर्स की किराएदार न्यू बैंक ऑफ इंडिया के घपलों को बैंक के निपट जाने तक उजागर करने का पूरा मौका दिया और इसके बावजूद दिया कि उनके खास मित्र और बड़े वकील लक्ष्मी मल्ल सिंघवी रामनाथ गोयनका तक पहुंच गए थे। इसके अलावा अखबार को साल में करोड़ों का विज्ञापन देने वाले मारुति उद्योग समूह के मुखिया के खिलाफ अभियान चलाया, विज्ञापन बंद हो गए मगर उन्हें परवाह नहीं थी।
बाजार के कुछ नियम होते हैं मगर पत्रकारिता की एक पूरी आचार संहिता होती है। प्रभाष जी ने इस आचार संहिता को वास्तविकता बनाने के लिए कई मोर्चे खोल रखे थे। इतना ही नहीं एक मोर्चा हिंद स्वराज का भी था। प्रभाष जी भारत की पत्रकारिता को आजादी का मंत्र देने वाले रामनाथ गोयनका की एक प्रमाणिक जीवनी लिखना चाहते थे और एक किताब आजादी के बाद की राजनीति पर लिखना चाहते थे और यह सब दो साल में यानी 75 का आंकड़ा पार करने के पहले कर लेना चाहते थे। मगर काल ने मौका ही नहीं दिया।
प्रभाष जोशी को याद करना असल में उन कामनाओं को पूरा करना होगा जिनमें से एक भी खुद उनके लिए नहीं थी। वे एक मुक्त और ताकतवर समाज चाहते थे। ऐसा समाज बने और वही प्रभाष जी को याद करे, इससे बड़ी श्रध्दांजलि दूसरी नहीं हो सकती। मगर दिक्कत यह है कि आज अखबार चलाने के साथ शराब की फैक्ट्रियां और दूसरे कारोबार करने वाले लोगों की जो जमात है और इसमें से कई अखबार को सिर्फ अपने कारोबार का कवच बनाना चाहते हैं उनके लिए उनके पत्रकार उनके धंधे के चौकीदार के अलावा कुछ नहीं होते।
प्रभाष जी की लड़ाई पत्रकार को चौकीदार बनाने के खिलाफ थी। जो यह लड़ाई जारी रखेगा वही प्रभाष जी की परंपरा का हिस्सेदार होने का हक पाएगा। प्रभाष जी के जाने के यथार्थ का आभास सिर्फ पत्रकारिता जगत को नहीं बल्कि पूरे समाज को होने में वक्त लगेगा। अभी से बहुत सारे आंदोलनकर्मी, बहुत सारे जूझारू पत्रकार और बहुत से साहित्यकार कहने लग गए हैं कि प्रभाष जी के बिना सब कुछ अधूरा लग रहा है। प्रभाष जी को भी इस संसार में जो अधूरा लगता था उसे पूरा करने की कोशिश वे कर रहे हैं। पहले भी कह चुका हूं और फिर कह रहा हूं कि प्रभाष जी वैरागी नहीं थे मगर उनकी सांसारिकता और उनके संघर्ष हमारे संसार को बेहतर और रहने लायक बनाने वाले थे। प्रभाष जी की आत्मा को भगवान कभी शांति नहीं दे। उनकी आत्मा हमारी नायक बनी रहे। आंखे बंद कर के सुनिए यह आत्मा पुकार रही है- आओ और संघर्ष के सहयात्री बनो। कोई है?

आलोक तोमर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जनसत्ता की प्रभाष जोशी के नेतृत्व वाली कोर टीम का हिस्सा रहे हैं....सम्प्रति डेटलाइन इंडिया के सम्पादक और सीएनईबी समाचार में सलाहकार संपादक हैं। आलोक जी को आप aloktomar@hotmail.com पर संदेश भेज सकते हैं।)

Tuesday, November 10, 2009

खूब अच्छा लिखो...यही आर्शीवाद मिला...


उस दिन सुबह साढ़े पांच बजे दैनिक भास्कर, भोपाल से हिमांशु का फ़ोन नंबर जब मोबाइल स्क्रीन पर चमका तो लगा कि फिर कुछ खुराफात होगी, एक दिन पहले ही हिमांशु ने सुबह साढ़े छः बजे फ़ोन कर के राधेश्याम रामायण का सस्वर पाठ कर तंद्रा भंग की थी। पर जब फ़ोन उठाया तो उधर से बिना कुछ और कहे आवाज़ आई, "भइया, प्रभाष जी गुज़र गए....!" सारी नींद जैसे काफूर हो गई और मेरे मुंह से बस यही निकला, "कब...क्या हुआ?" हिमांशु की आवाज़ आई, "भइया आलोक जी (आलोक तोमर) से पता कीजिये, यहां पीटीआई की ख़बर है....."
बिना मुंह धोये कंप्यूटर खोला और पीटीआई की वेबसाइट देखी, हिमांशु की बात सच थी.... तब भी विश्वास करना सहज न था सो टीवी ऑन किया और तमाम चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ चलती पायी। दिमाग ने जैसे कुछ देर के लिए काम करना बंद कर दिया तो इन्टरनेट पर उनकी तस्वीरें तलाश करता रहा। सुबह सवा छः के करीब अपने ब्लॉग पर एक श्रद्धांजलि की पोस्ट डाली और साढ़े छः बजे आलोक जी को फ़ोन लगाया, फ़ोन उठते ही एक अजीबोगरीब सवाल पूछा,"सर, कहां हैं आप?" उधर से उत्तर आया, "एम्स में हूं बेटा, रात से ही हूं।"
मैंने फिर कहा, "सर हिमांशु का फ़ोन आया था....क्या वाकई..." फिर दोनों ओर सन्नाटा छा गया और फिर आलोक जी की भर्राई हुई आवाज़ आई जो शायद मैंने पहली बार सुनी थी," हां, दिल का दौरा पड़ा था...मैच के बाद........मैं तो अनाथ हो गया!" मैं जब कुछ सेकेण्ड तक कुछ नहीं बोला तो आलोक जी की आवाज़ आई, "पार्थिव देह साढ़े आठ बजे तक वसुंधरा पहुंच जायेगी...." इसके बाद ज्यादा कुछ कहने की गुंजाइश ना पा के मैंने बस इतना ही कहा, "जी मैं पहुंचता हूँ..."
इसके बाद यशवंत भाई को ख़बर दी और मैं निकल पडा वसुंधरा के लिए.... प्रथम तल पर वही कमरा जहाँ उनसे मिलने वालों के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव हुआ करता था.... प्रभाष जी का शरीर निर्जीव रखा था। झुक के फूल उठाये, चरणों में डाले और जैसे ही उनके पैर छुए, तुरंत याद आ गया उनका वो आर्शीवाद जो उन्होंने पहली बार चरण छूने पर दिया था...."खूब अच्छा लिखो...." और उसके बाद की हर भेंट में उन्होंने यही आर्शीवाद दिया था। भर आई आंखों को पोंछना शुरू किया तो देखा कि कमरे में तमाम लोग खड़े मेरे ही जैसे स्मृति यात्रा में खोये हुए हैं.... नीचे उतरते उतरते सब कुछ एक एक कर के आंखों के सामने घूमता जा रहा था। प्रभाष जी से पहली मुलाक़ात भोपाल में हुई थी एक कार्यक्रम में, उनसे जब गुरुजनों ने मिलवाया तो लपक कर उनके पैर छू लिए और कहा, "आपको तो बहुत पहले से जानता हूँ..." प्रभाष जी बोले,"अपन कहीं मिले हैं क्या भाई?" मैंने तपाक से कहा, "आप तो नही पर हर हफ्ते मैं आपको मिलता हूँ जनसत्ता में!" ठठा के हँसे प्रभाष जी और जोर से बोले कि ये सब लड़के बहुत आगे जायेंगे.... और पहले सर पर हाथ फेरा और फिर चिरपरिचित अंदाज़ में कांधे पर हाथ रख के काफ़ी देर खड़े छात्रों से बतियाते रहे। चलते पर चरण छुए तो वही आर्शीवाद,"खूब अच्छा लिखो!"
उस रात ऐसा लगा कि पता नहीं क्या हासिल कर लिया हो, उस गुरु के दर्शन हो गए जिसको पढ़कर लिखना सीखा। उसके बाद कई बार प्रभाष जी से मुलाक़ात हुई। तीन चार बार भोपाल में और फिर गाजियाबाद और नोएडा में। नौकरी में आने के बाद एक बार उनको फ़ोन किया तो झट से पहचान गए और बोले, "अच्युता (अच्युतानंदन मिश्र) के चेले हो ना... कहां नौकरी लगी?" मैंने जैसे ही उनको बताया कि ज़ी न्यूज़ में तो छूटते ही बोले, "भइया, अच्छा लिखते हो अखबार में क्यों नहीं गए ?" मैं जानता था कि मेरा कोई भी तर्क काम नहीं करेगा सो चुप ही रहा तो बोले,"अरे कोई बात नहीं, काम में मन तो लग रहा है ना.... दरअसल अपन ठहरे पुराने आदमी, अपन को अखबार ही समझ में आता है...." उसके बाद उनके वसुंधरा वाले घर जाकर उनसे मिला और उनकी लाइब्रेरी भी देखी.... कुमार गन्धर्व को भी सुना। साथ बैठा तो आधे घंटे पूरा जीवन वृत्त पूछ डाला, ये भी पूछ लिया कि "पत्रकारिता कर रहे हो तो इंजीनियरों से भरा परिवार संतुष्ट है?" कुमार गन्धर्व के गायन की वो बारीकियां समझायी कि मेरा संगीत का ज्ञाता होने का दंभ चूर चूर हो गया।
इसके बाद चैनल की नौकरी की कृपा से उनसे स्टूडियो में मिलना हुआ. हर बार एक नए विषय पर चर्चा होती पर एक विषय हमेशा वही रहता और वो था क्रिकेट। क्रिकेट के लिए उनका जूनून हमारी पीढी को भी मात देता था। एक बार मैंने गलती से उनके सामने सचिन की बुराई कर दी तो बोले,"भइया, सचिन का भी कोई मुकाबला है क्या और अगर केवल मैच जिता देने के लिए खिलाड़ी खेलेगा तो खेल की कला और लय दोनों ख़त्म हो जायेंगी।" और चलते पर जब भी पांव छुए फिर वही चिर-परिचित आर्शीवाद,"खूब अच्छा लिखो"
उनसे आखिरी बात अभी करीब १५-२० दिन पहले हुई, इधर तहलका में उनका स्तम्भ छपने लगा था, उसे नियमित पढ़ रहा था और उसी को पढ़ के फ़ोन किया। उस पर चर्चा करते करते जब अनायास मैंने पूछ लिया कि इस उम्र में भी आप इतना लिखते हैं और इतने जीवंत हैं तो बोले की होना ही चाहिए नहीं तो जीवन भर का श्रम और पढ़ाई लिखाई व्यर्थ है, की उम्र भर लिखते पढ़ते रहो और अंत में चुप हो के बैठ जाओ। दैनिक जागरण वालों की पैसे लेकर ख़बर छपने की कहानी सुनाने लगे और नए पुराने दोनों मालिकों की बात की। फिर बोले,"भइया, अपन को जो लगता है वही बोलते हैं....और जैसा बोलते हैं वैसा ही लिखते आए हैं!" और उसके बाद जब फ़ोन रखने लगा तो बोले, "फ़ोन कर लिया करो, घर आओ तो और सुकून से बात करेंगे पर नवम्बर के दूसरे हफ्ते के बाद आना....अभी तो बहुत सफर करना है।"
और इसके बाद प्रभाष जी वाकई जीवन के सबसे लंबे सफर पर निकल गए.... और मैं इंतज़ार ही करता रह गया.... उनके घर उनके बिना बुलाए ही गया.... नियत समय से पहले ही गया.... नवम्बर के पहले हफ्ते में.... वो मिले.... सामने ही थे पर उनसे इस बार ना तो क्रिकेट पर ही बात हुई, ना ही कुमार गन्धर्व पर.... और इस बार उन्होंने एक साथ ही सबको बुला लिया था, वो जो उन्हें बचपन से जानते थे.... वो जो उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा थे.... वो जो उनके सहयोगी थे.... वो जिन्होंने उनसे सीखा.... वो जो उनके विरोधी थे.... और वो भी जो उनसे कभी नहीं मिले थे... प्रभाष जी अब आप की कलम किसी भी कागद को कारा नहीं करेगी, पर आपका लिखा पढ़ कर हमने जो सीखा है उसे हम सारे एकलव्य हमेशा याद रखेंगे... और जब तक हाथों में कलम रहेगी, जेहन में आप रहेंगे.... आखिरी में वो बात जो मुझसे हिमांशु ने कही, "हमने.... हम सब ने अपने जीवन काल में कोई महापुरुष नहीं देखा, पर हम इतना ज़रूर कह पायेंगे कि हमने प्रभाष जी को देखा था..."
मयंक सक्सेना
9310797184

Monday, November 9, 2009

प्रभाष जी का जाना ...

प्रभाष जी चले गए। सचिन और क्रिकेट के दीवाने से टीम इंडिया की ऐसी रुसवाई देखी नही गई। सचिन जब आउट होता है और इंडिया हार जाती है तो क्रिकेट प्रेमी अक्सर दर्शक दीर्घा या कमरा छोड़ जाते हैं। प्रभाष जी दुनिया ही छोड़ गए। अगर वो होते तो निश्चित तौर पर सचिन की इस बेमिसाल पारी को कई मिसालें और मिलतीं।

मृत्यु से कुछ घंटों पहले ही वे जनसत्ता लखनऊ की उसी कुर्सी पर बैठे थे जहाँ बैठकर मैंने इस संस्थान में पत्रकारिता के गुर सीखे थे। यहाँ के ब्यूरो चीफ अम्बरीश कुमार की तबियत नासाज़ थी तो उनका हाल जानने आए थे, जिद करके और जाते-जाते अभिभावक की तरह झिड़की भी दे गए थे "अपना ख्याल रखा करो" । इत्तेफाक से जब मैंने फ़ोन किया तो पत्रकारिता के बीते दौर की चर्चाएं चल ही रहीं थीं। मैंने न जाने कितने ही लोगों को बताया की आज जोशी जी लखनऊ में थे। कुछ ही वक्त बाद जब उनके जाने की ख़बर सुनी तो यकीं ही नही हुआ।

जनसत्ता ने हमेशा मुझे अपनी तरफ़ खीचा है। मित्र मंडली में जब मैं जनसत्ता जाने के सपने की बात करता था तो दोस्त यही कहते थे की वहां जाना बुढापे में पहले खूब काम कर लो वहां वानप्रस्थ होता है। मुझे जल्दी थी। प्रभाष जी के स्वप्न के साथ जुड़ने की उनके जीवनकाल में ही। अलोक तोमर साहब या अम्बरीश जी को जब प्रभाष जी के विषय में बात करते सुनता हूँ तो रश्क होता है। प्रभाष जी उस जनसत्ता परिवार के अभिभावक थे और मैं इस परिवार का हिस्सा बनना चाहता था। प्रभाष जी जल्दी चले गए या कहें मैंने ही देर कर दी। हो सकता है की कभी जनसत्ता पहुच जाऊं लेकिन उस आकर्षण और जूनून में एकाएक कमी आ गई है। क्यूंकि वो प्रभाष जी से ही था। जोशी जी के बिना जनसत्ता कैसा होगा इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।

जिस साल बैचके सब लोग हिन्दुस्तान, सहारा, अमर-उजाला और जागरण में इंटर्नशिप करने गए थे मैंने जनसत्ता लखनऊ को चुना था इसलिए ताकि जनसत्ता के अनुभव पर इतरा सकूँ, भले ही ये इन्टर्न के तौर पर ही क्यूँ न हो।

मेरा मिजाज़ भी जनसत्ता के ही करीब था, लखनऊ में जागरण और हिन्दुस्तान की रौनक के सामने भले ही ये उतना चमकीला न दीखता हो लेकिन इसका अलग रंग आपको ज़रूर नज़र आएगा। जैसे की मैं बैच में चमकीला नही था लेकिन कुछ अलग पहचान तो थी ही।

इन्टर्न के दौरान ही पहली बार प्रभाष जी से मिला था। ह्रदय नारायण दीक्षित की किताब के लोकार्पण कार्यक्रम में। हिंद स्वराज और यंगिस्तान पर अद्भुत बोले थे। उसके बाद विश्वविद्यालय में हमारी फेयरवेल पार्टी में आए थे और बोल गए थे की आप भारत के सबसे अच्छे पत्रकारिता संस्थान के हिस्से हैं।

सत्रह नवम्बर को जनसत्ता का जन्मदिन होता है। पत्रकारिता के विद्यार्थी तो प्रभाष जी के हमेशा कृतज्ञ रहेंगे की उन्होंने हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों को एकमात्र पढने लायक अखबार दिया। गज़ब अखबार। जो रिक्शे वाले और गाय की फोटो फ्रंट पेज पर लगाता है। अभी तक पूरी हेडिंग छापता है। उल्टे सीधे विज्ञापनों से दूर है। फिल्मी चर्चाओं में वक्त नही बरबाद करता। संस्कृति पत्रकारिता को अभी तक गंभीर विषय मानता है। साजिद रशीद और तरुण विजय को एकदम ऊपर नीचे छापता है.ये सब प्रभाष जी का दिया हुआ है। सम्पादक वही थे सही मायनों में। जब तक वो रहे मालिक नही चम्बल में डाकुओं का समर्पण और बढ़ी तनखा लेने से इनकार केवल वही कर सकते हैं। नियमों से समझौता नही किया। पत्रकारिता की पूरी एक खेप तैयार की। अलोक तोमर जनसत्ता से जाने के बाद भी उनके भक्त हैं। अम्बरीश जी को मिलने का वक्त नही दिया क्यूंकि मालिक की धौंस लेकर आए थे।

चौथे थाने का ये थानेदार अपने अन्तिम वक्त तक अपराधियों को शिकंजे में लेता रहा। कागद कारे जैसा वृहद् कालम उम्र की इस अवस्था में लिख पाना उन्ही के बस की बात थी। प्रभाष जी के भारत-ऑस्ट्रलिया मैच पर लिखने की उम्मीद थी जो अधूरी रह गई। इस दौर में मैंने पत्रकारिता का एक ही महापुरुष देखा और वो हैं प्रभाष जी। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने भी उनके निधन को खूब-खूब कवर किया। बहुत दिनों बाद उसकी भूमिका से खुशी हुई। प्रभाष जी आपकी सबसे ज्यादा कमी अगर किसी को खलेगी तो वो पत्रकारिता की तरुण पीढी है...

Friday, November 6, 2009

युग का अवसान .....


कल देर रात हिन्दी पत्रकारिता के युग पुरूष प्रभाष जोशी का देहावसान हो गया। केव्स संचार की ओर से उनको भावभीनी श्रद्धांजलि.....हिन्दी पत्रकारिता के लिए ये राह भटकने के बाद दिक् सूचक के खो जाने जैसा है....प्रभाष जी हम सब आज आप के कारे किए कागदों की वजह से पत्रकार हैं...आपको पढ़ पढ़ के लिखना सीखा है....और आपको याद याद कर कर के लिखते रहेंगे.....

गूगल बाबा का वरदान - हिन्दी टंकण औजार

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