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Friday, November 13, 2009

प्रभाष जी की आत्मा को भगवान कभी शांति नहीं दे...


प्रभाष जोशी चले गए। उनकी अस्थियां भी उस नर्मदा में विसर्जित हो गई जिस वे हमेशा मां कहते थे और अक्सर नर्मदा को याद कर के इतने भावुक हो जाते थे कि गला भर आता था। इन दिनों हमारे प्रभाष जी को ले कर संवेदनाओं के लेख, संस्मरण और शोक सभाओं का दौर चल रहा है। वे लोग जो कुछ दिन पहले तक इंटरनेट पर प्रभाष जी को इस युग का सबसे पतित, मनुवादी और ब्राह्मणवादी पत्रकार करार दे रहे थे, उनकी बोलती बंद है। उनमें से कई तो उनके निधन पर घड़ियाली आंसू भी बहाते दिखे। लेकिन अब वक्त प्रभाष जी को याद करने से ज्यादा उनके सरोकारो को याद करने का है। तिहत्तर साल की उम्र में भी जिन सरोकारो को ले कर प्रभाष जी देश के हर कोने तक हर किस्म के वाहन से और होटलों से ले कर लोगों के घरों में ठहर कर पत्रकारिता के कायाकल्प और उसमें आ गए दोषों से कलंक मुक्ति की अलख जगा रहे थे, उनके इसी सरोकार को जारी रखना और आगे बढ़ाना शायद प्रभाष जी को सबसे बड़ी श्रध्दांजलि होगी।
पता नहीं आज जो लोग आंसू बहा रहे हैं वे इस सरोकार को सहेजने में कितनी रुचि दिखाएंगे। सरोकार रोटी और शराब के पैसा नहीं देता। उसके लिए तो प्रभाष जी जैसा कलेजा चाहिए और एक सक्रिय और तेजस्वी वैराग्य चाहिए। प्रभाष जी पत्रकारिता के नाम पर हो रही धंधेबाजी के खिलाफ जूझ रहे थे। वे समाज की हर बुराई और हर अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ भी वे खड़े थे और बंगाल के नंदीग्राम के ग्रामीणों के साथ भी शामिल थे। हमारे मित्र और विश्वविख्यात कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा बता रहे थे कि चंडीगढ़ में एक्सप्रेस के संपादक रहने के दौरान उन्होंने एक सवाल किया था कि जिस देश में 70 प्रतिशत लोग खेती पर आधारित हो वहां गंभीर कृषि पत्रकारिता क्यों नहीं हो सकती? देवेंद्र शर्मा कृषि वैज्ञानिक बनने के रास्ते पर थे मगर कृषि पत्रकार बन गए और इन दिनों उन्हीं से पता लगा कि विदेशी बीजों और मल्टीनेशनल खेती के अलावा किसानों पर कर्जे के खिलाफ भी प्रभाष जी की जंग जारी थी।
प्रभाष जी के बेटे संदीप ने उनके अंतिम क्षणों का वर्णन किया है। सचिन के आउट होते ही वे टीवी वाले कमरे से उठ कर चले गए थे और संदीप जो खुद भी रणजी और कांउटी तक खेल चुके थे, ने पिता को फोन किया तो आखिरी सवाल था कि क्या स्कोर हुआ है? इसके बाद फोन मां ने लिया और कहा कि बेटा जल्दी आओ, पिता जी बेहोश हो गए। सो प्रभाष जी के अंतिम शब्द थे- 'क्या स्कोर हुआ है'। क्रिकेट की भाषा में ही कहे तो प्रभाष जी ने अपने आपको हिट विकेट कर दिया। उम्र हो चली थी। पच्चीस साल से शुगर के मरीज थे। एक बाई पास सर्जरी हो चुकी थी। पेस मेकर लगा हुआ था। फिर भी अगर किसी से मिलना है तो मिलना है। तीन मंजिल चढ़ के चले जाएंगे।
प्रभाष जी जैसा न कोई हुआ है, न कोई होगा क्योंकि जैसा कि पहले और हमेशा कहा कि प्रभाष जोशी बनने के लिए कलेजा चाहिए। जिस समय प्रभाष जी का जनसत्ता अपने चरम पर था और विज्ञापन देने वालों की और पैसा दे कर खबर छपवानों वालों की लाइन लगी होती थी, प्रभाष जी ने जनसत्ता को घाटे में चलने दिया लेकिन वे सौदे नहीं किए जिनके खिलाफ वे आखिर तक लड़ रहे थे। इंडियन एक्सप्रेस के एक्सप्रेस टॉवर्स की किराएदार न्यू बैंक ऑफ इंडिया के घपलों को बैंक के निपट जाने तक उजागर करने का पूरा मौका दिया और इसके बावजूद दिया कि उनके खास मित्र और बड़े वकील लक्ष्मी मल्ल सिंघवी रामनाथ गोयनका तक पहुंच गए थे। इसके अलावा अखबार को साल में करोड़ों का विज्ञापन देने वाले मारुति उद्योग समूह के मुखिया के खिलाफ अभियान चलाया, विज्ञापन बंद हो गए मगर उन्हें परवाह नहीं थी।
बाजार के कुछ नियम होते हैं मगर पत्रकारिता की एक पूरी आचार संहिता होती है। प्रभाष जी ने इस आचार संहिता को वास्तविकता बनाने के लिए कई मोर्चे खोल रखे थे। इतना ही नहीं एक मोर्चा हिंद स्वराज का भी था। प्रभाष जी भारत की पत्रकारिता को आजादी का मंत्र देने वाले रामनाथ गोयनका की एक प्रमाणिक जीवनी लिखना चाहते थे और एक किताब आजादी के बाद की राजनीति पर लिखना चाहते थे और यह सब दो साल में यानी 75 का आंकड़ा पार करने के पहले कर लेना चाहते थे। मगर काल ने मौका ही नहीं दिया।
प्रभाष जोशी को याद करना असल में उन कामनाओं को पूरा करना होगा जिनमें से एक भी खुद उनके लिए नहीं थी। वे एक मुक्त और ताकतवर समाज चाहते थे। ऐसा समाज बने और वही प्रभाष जी को याद करे, इससे बड़ी श्रध्दांजलि दूसरी नहीं हो सकती। मगर दिक्कत यह है कि आज अखबार चलाने के साथ शराब की फैक्ट्रियां और दूसरे कारोबार करने वाले लोगों की जो जमात है और इसमें से कई अखबार को सिर्फ अपने कारोबार का कवच बनाना चाहते हैं उनके लिए उनके पत्रकार उनके धंधे के चौकीदार के अलावा कुछ नहीं होते।
प्रभाष जी की लड़ाई पत्रकार को चौकीदार बनाने के खिलाफ थी। जो यह लड़ाई जारी रखेगा वही प्रभाष जी की परंपरा का हिस्सेदार होने का हक पाएगा। प्रभाष जी के जाने के यथार्थ का आभास सिर्फ पत्रकारिता जगत को नहीं बल्कि पूरे समाज को होने में वक्त लगेगा। अभी से बहुत सारे आंदोलनकर्मी, बहुत सारे जूझारू पत्रकार और बहुत से साहित्यकार कहने लग गए हैं कि प्रभाष जी के बिना सब कुछ अधूरा लग रहा है। प्रभाष जी को भी इस संसार में जो अधूरा लगता था उसे पूरा करने की कोशिश वे कर रहे हैं। पहले भी कह चुका हूं और फिर कह रहा हूं कि प्रभाष जी वैरागी नहीं थे मगर उनकी सांसारिकता और उनके संघर्ष हमारे संसार को बेहतर और रहने लायक बनाने वाले थे। प्रभाष जी की आत्मा को भगवान कभी शांति नहीं दे। उनकी आत्मा हमारी नायक बनी रहे। आंखे बंद कर के सुनिए यह आत्मा पुकार रही है- आओ और संघर्ष के सहयात्री बनो। कोई है?

आलोक तोमर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जनसत्ता की प्रभाष जोशी के नेतृत्व वाली कोर टीम का हिस्सा रहे हैं....सम्प्रति डेटलाइन इंडिया के सम्पादक और सीएनईबी समाचार में सलाहकार संपादक हैं। आलोक जी को आप aloktomar@hotmail.com पर संदेश भेज सकते हैं।)

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