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Tuesday, November 10, 2009

खूब अच्छा लिखो...यही आर्शीवाद मिला...


उस दिन सुबह साढ़े पांच बजे दैनिक भास्कर, भोपाल से हिमांशु का फ़ोन नंबर जब मोबाइल स्क्रीन पर चमका तो लगा कि फिर कुछ खुराफात होगी, एक दिन पहले ही हिमांशु ने सुबह साढ़े छः बजे फ़ोन कर के राधेश्याम रामायण का सस्वर पाठ कर तंद्रा भंग की थी। पर जब फ़ोन उठाया तो उधर से बिना कुछ और कहे आवाज़ आई, "भइया, प्रभाष जी गुज़र गए....!" सारी नींद जैसे काफूर हो गई और मेरे मुंह से बस यही निकला, "कब...क्या हुआ?" हिमांशु की आवाज़ आई, "भइया आलोक जी (आलोक तोमर) से पता कीजिये, यहां पीटीआई की ख़बर है....."
बिना मुंह धोये कंप्यूटर खोला और पीटीआई की वेबसाइट देखी, हिमांशु की बात सच थी.... तब भी विश्वास करना सहज न था सो टीवी ऑन किया और तमाम चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ चलती पायी। दिमाग ने जैसे कुछ देर के लिए काम करना बंद कर दिया तो इन्टरनेट पर उनकी तस्वीरें तलाश करता रहा। सुबह सवा छः के करीब अपने ब्लॉग पर एक श्रद्धांजलि की पोस्ट डाली और साढ़े छः बजे आलोक जी को फ़ोन लगाया, फ़ोन उठते ही एक अजीबोगरीब सवाल पूछा,"सर, कहां हैं आप?" उधर से उत्तर आया, "एम्स में हूं बेटा, रात से ही हूं।"
मैंने फिर कहा, "सर हिमांशु का फ़ोन आया था....क्या वाकई..." फिर दोनों ओर सन्नाटा छा गया और फिर आलोक जी की भर्राई हुई आवाज़ आई जो शायद मैंने पहली बार सुनी थी," हां, दिल का दौरा पड़ा था...मैच के बाद........मैं तो अनाथ हो गया!" मैं जब कुछ सेकेण्ड तक कुछ नहीं बोला तो आलोक जी की आवाज़ आई, "पार्थिव देह साढ़े आठ बजे तक वसुंधरा पहुंच जायेगी...." इसके बाद ज्यादा कुछ कहने की गुंजाइश ना पा के मैंने बस इतना ही कहा, "जी मैं पहुंचता हूँ..."
इसके बाद यशवंत भाई को ख़बर दी और मैं निकल पडा वसुंधरा के लिए.... प्रथम तल पर वही कमरा जहाँ उनसे मिलने वालों के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव हुआ करता था.... प्रभाष जी का शरीर निर्जीव रखा था। झुक के फूल उठाये, चरणों में डाले और जैसे ही उनके पैर छुए, तुरंत याद आ गया उनका वो आर्शीवाद जो उन्होंने पहली बार चरण छूने पर दिया था...."खूब अच्छा लिखो...." और उसके बाद की हर भेंट में उन्होंने यही आर्शीवाद दिया था। भर आई आंखों को पोंछना शुरू किया तो देखा कि कमरे में तमाम लोग खड़े मेरे ही जैसे स्मृति यात्रा में खोये हुए हैं.... नीचे उतरते उतरते सब कुछ एक एक कर के आंखों के सामने घूमता जा रहा था। प्रभाष जी से पहली मुलाक़ात भोपाल में हुई थी एक कार्यक्रम में, उनसे जब गुरुजनों ने मिलवाया तो लपक कर उनके पैर छू लिए और कहा, "आपको तो बहुत पहले से जानता हूँ..." प्रभाष जी बोले,"अपन कहीं मिले हैं क्या भाई?" मैंने तपाक से कहा, "आप तो नही पर हर हफ्ते मैं आपको मिलता हूँ जनसत्ता में!" ठठा के हँसे प्रभाष जी और जोर से बोले कि ये सब लड़के बहुत आगे जायेंगे.... और पहले सर पर हाथ फेरा और फिर चिरपरिचित अंदाज़ में कांधे पर हाथ रख के काफ़ी देर खड़े छात्रों से बतियाते रहे। चलते पर चरण छुए तो वही आर्शीवाद,"खूब अच्छा लिखो!"
उस रात ऐसा लगा कि पता नहीं क्या हासिल कर लिया हो, उस गुरु के दर्शन हो गए जिसको पढ़कर लिखना सीखा। उसके बाद कई बार प्रभाष जी से मुलाक़ात हुई। तीन चार बार भोपाल में और फिर गाजियाबाद और नोएडा में। नौकरी में आने के बाद एक बार उनको फ़ोन किया तो झट से पहचान गए और बोले, "अच्युता (अच्युतानंदन मिश्र) के चेले हो ना... कहां नौकरी लगी?" मैंने जैसे ही उनको बताया कि ज़ी न्यूज़ में तो छूटते ही बोले, "भइया, अच्छा लिखते हो अखबार में क्यों नहीं गए ?" मैं जानता था कि मेरा कोई भी तर्क काम नहीं करेगा सो चुप ही रहा तो बोले,"अरे कोई बात नहीं, काम में मन तो लग रहा है ना.... दरअसल अपन ठहरे पुराने आदमी, अपन को अखबार ही समझ में आता है...." उसके बाद उनके वसुंधरा वाले घर जाकर उनसे मिला और उनकी लाइब्रेरी भी देखी.... कुमार गन्धर्व को भी सुना। साथ बैठा तो आधे घंटे पूरा जीवन वृत्त पूछ डाला, ये भी पूछ लिया कि "पत्रकारिता कर रहे हो तो इंजीनियरों से भरा परिवार संतुष्ट है?" कुमार गन्धर्व के गायन की वो बारीकियां समझायी कि मेरा संगीत का ज्ञाता होने का दंभ चूर चूर हो गया।
इसके बाद चैनल की नौकरी की कृपा से उनसे स्टूडियो में मिलना हुआ. हर बार एक नए विषय पर चर्चा होती पर एक विषय हमेशा वही रहता और वो था क्रिकेट। क्रिकेट के लिए उनका जूनून हमारी पीढी को भी मात देता था। एक बार मैंने गलती से उनके सामने सचिन की बुराई कर दी तो बोले,"भइया, सचिन का भी कोई मुकाबला है क्या और अगर केवल मैच जिता देने के लिए खिलाड़ी खेलेगा तो खेल की कला और लय दोनों ख़त्म हो जायेंगी।" और चलते पर जब भी पांव छुए फिर वही चिर-परिचित आर्शीवाद,"खूब अच्छा लिखो"
उनसे आखिरी बात अभी करीब १५-२० दिन पहले हुई, इधर तहलका में उनका स्तम्भ छपने लगा था, उसे नियमित पढ़ रहा था और उसी को पढ़ के फ़ोन किया। उस पर चर्चा करते करते जब अनायास मैंने पूछ लिया कि इस उम्र में भी आप इतना लिखते हैं और इतने जीवंत हैं तो बोले की होना ही चाहिए नहीं तो जीवन भर का श्रम और पढ़ाई लिखाई व्यर्थ है, की उम्र भर लिखते पढ़ते रहो और अंत में चुप हो के बैठ जाओ। दैनिक जागरण वालों की पैसे लेकर ख़बर छपने की कहानी सुनाने लगे और नए पुराने दोनों मालिकों की बात की। फिर बोले,"भइया, अपन को जो लगता है वही बोलते हैं....और जैसा बोलते हैं वैसा ही लिखते आए हैं!" और उसके बाद जब फ़ोन रखने लगा तो बोले, "फ़ोन कर लिया करो, घर आओ तो और सुकून से बात करेंगे पर नवम्बर के दूसरे हफ्ते के बाद आना....अभी तो बहुत सफर करना है।"
और इसके बाद प्रभाष जी वाकई जीवन के सबसे लंबे सफर पर निकल गए.... और मैं इंतज़ार ही करता रह गया.... उनके घर उनके बिना बुलाए ही गया.... नियत समय से पहले ही गया.... नवम्बर के पहले हफ्ते में.... वो मिले.... सामने ही थे पर उनसे इस बार ना तो क्रिकेट पर ही बात हुई, ना ही कुमार गन्धर्व पर.... और इस बार उन्होंने एक साथ ही सबको बुला लिया था, वो जो उन्हें बचपन से जानते थे.... वो जो उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा थे.... वो जो उनके सहयोगी थे.... वो जिन्होंने उनसे सीखा.... वो जो उनके विरोधी थे.... और वो भी जो उनसे कभी नहीं मिले थे... प्रभाष जी अब आप की कलम किसी भी कागद को कारा नहीं करेगी, पर आपका लिखा पढ़ कर हमने जो सीखा है उसे हम सारे एकलव्य हमेशा याद रखेंगे... और जब तक हाथों में कलम रहेगी, जेहन में आप रहेंगे.... आखिरी में वो बात जो मुझसे हिमांशु ने कही, "हमने.... हम सब ने अपने जीवन काल में कोई महापुरुष नहीं देखा, पर हम इतना ज़रूर कह पायेंगे कि हमने प्रभाष जी को देखा था..."
मयंक सक्सेना
9310797184

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