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Wednesday, October 17, 2012

कब निखरेगा ये बछड़ा

किसान अपने बछड़े को बैल बनाने से पहले दो युक्तियां करता है। पहली तो मैं बता नहीं सकता दूसरी निखारने की। इसके लिए वह नाथ डालकर बछड़े को बलात बैलगाड़ी में लगाकर खेतों में घुमाता है। पूरा गांव उस गाड़ी के पीछे मजे करता घूमता है। खासकर बच्चे। और जब बछड़ा नहीं निखरता तो दूसरी युक्ति के रूप में उसके गले पर बेवजह एक लकड़ी डाल दी जाती है, ताकि उसकी आदत है। तब भी नहीं निखरता तो बछड़े को खेत में गहरे हल गड़ाकर निखारा जाता है। और फिर भी नहीं निखरा तो किसान उसे गर्रा कहकर बेचने की कवायद में जुट जाता है। और कई बार वह कसाइयों के हात्थे भी चढ़ जाता है। मोरल ऑफ द स्टोरी श्रमवीर, कर्मवीर बनो वरना कसाई के चाक पर गर्दन रखो। संसार कहता है कर्म करो या मरो।
ऐसा ही राहुल बाबा के साथ सोनिया कर रही हैं। उन्हें 25 साल के बाद तो निखारने के लिए मना पाईं। फिर लोकसभा के आम चुनाव 2009 में नाथ डाली गई। पहला काम जो किसान करता है वह तो शादी के इतने लेट होने से अपने आप हो गया। (एक विधि से किसान बछड़े का मर्दानापन कम करता है)। फिर उन्हें रिएक्टिवेट करके बैलगाड़ी में नुहाया (लगाया) गया। यानी महासचिव बनाया गया। फिर भी नहीं निखरे तो यूपी में प्रपंच करवाया गया। फिर भी नहीं निखर रहे तो अब सोनिया उन्हें केबिनेट में लाने की तैयारी में हैं। पीएम सीधे न सही तो बेटा केबिनेट में अंकल लोगों से कुछ सीखकर बिजनेस में हाथ बटा। मगर राहलु बाबू हैं कि चिगते (हिलते) ही नहीं है। अब किसान करे तो क्या। कसाई को बेचेगा तो भगवान मार डालेंगे, नहीं तो जिंदगीभर खिलाएगा तो बोझ पड़ेगा। और फिर बछड़ा बड़ा होकर दो लाइन में किसी एक में जाता है, पहली तो किसान के साथ बैल बन कर सालों सेवाओं के बाद ससम्मान सेवनिवृत्ति की तरफ जाती है। कुछ-कुछ आदमी के नौकरी करने जैसा। और दूसरी लाइन सांड बनने की होती है, यह रिस्की है किंतु मजेदार है। इसमें भी एक लाभ है अगर सांड के रूप में आपकी पोस्टिंग गांव में हुई तब तो लोग पूज भी सकते हैं और पेट भी पाल लेंगे, लेकिन अगर शहर में हुई तो समस्या होगा, यहां तो सब्जियों के ठेलों पर लट्ठ ही मिलते हैं। और गाहेबगाहे मौका मिलते ही सकाई भी लपक सकते हैं। अब राहुल बाबा को सोनिया सियासी सेवानिवृत्ति तो देंगी नहीं। केबिनेट में और लाकर देखती हैं, अगर वे सुबह जल्दी उठकर मंत्रालय (मनी फैक्ट्री) जाने लगे तो ठीक वरना फिर किसान को खेती के लिए अपनी दूसरी बछिया पर निर्भर रहना पड़ेगा, वह खेतों में जा नहीं सकेगी तो फिर कौन बचा.....वा.......ड्रा ! वरुण के सखाजी

Saturday, September 22, 2012

बड़ा अजीब पीएम है देश का

प्रधानमंत्री सच कह रहे हैं, किंतु तरीका ठीक नहीं। वे बिल्कुल भी एक जिम्मेदार व्यक्ति की तरह नहीं बोले। न ही एक देश के जिम्मेदार प्रधानमंत्री की तरह ही बोले। वे एक प्रशासक और गैर जनता से कंसर्न ब्यूरोक्रैट की तरह बोले। पैसे पेड़ पर नहीं लगते? 1991 याद है न? महंगी कारों के लिए पैसा है डीजल के लिन नहीं? और सबसे खराब शब्द सिलेंडर जिसे सब्सिडी की जरूरत है वह 6 में काम चला लेता है और गरीबों के लिए कैरोसीन है? अब जरा पीएम साहेब यहां भी नजर डालिए। देश में गरीबों को कैरोसीन मिलता कितना मशक्कत के बाद है और मिलता कितना है यह भी तो सुनिश्चि कीजिए। सिलेंडर जो यूज करते हैं वह 6 में काम चला लेते हैं, तो जनाब क्या यह मान लें कि गरीब कम खाते हैं या फिर मध्यम वर्ग कभी अपनी लाचारी और बेबसी से बाहर ही न आ पाए। सिलेंडर पर अगर आप कर ही रहे हैं कैपिंग तो इसके ऊपर के सिलेंडर एजेंसियों के चंगुल से मुक्त कर दीजिए। पीएम साहब1991 याद दिलाकर देशपर जो अहसान आप जता रहे हैं, वह सिर्फ आपका अकेले का कारनामा नहीं था। और ओपन टू ऑल इकॉनॉमी की ओर तो भारत इंदिरा गांधी के जमाने से बढ़ रहा था। 1991 से पहले जैसे जिंदगी थी ही नहीं? जनाब जरा संभलकर बोला कीजिए। पैसे पेड़ पर नहीं उगते यह एक ऐसी बात है जो किसी को भी खराब लग सकती है। ममता को रिडिक्यूल कीजिए, जनता को नहीं। यूपीए आप बचा लेंगे मगर साख नहीं बचा पाएंगे। और पैसे तो पेड़ पर नहीं लगते कुछ ऐसा जुमला है जो गरीब या भिखारियों को उस वक्त दिया जाता है जब वे ज्यादा परेशान करते हैं, क्या जनता से पीएम महोदय परेशान हो गए हैं। जब भी किसी विधा का शीर्ष उस विधा का गैर जानकार व्यक्ति बनता है तो उस विधा को एक सदी के बराबर नुकसान होता है। मसलन नॉन आईपीएस को डीजीपी, नॉन जर्नलिस्ट को एडिटर, नॉन एक्टर को फिल्म का मुख्य किरदार बना दिया जाए। वह उद्योग सफर करता है जिसमें ऐसी शीर्ष होते हैं। और हुआ भी यही जब पीएम डॉ. मनमोहन सिंह बनाए गए? - सखाजी

Tuesday, September 18, 2012

ओ.....ओ....जाने जाना, ढूंढे तुझे दीवाना

देश में अचानक एक बड़ा राजनैतिक तूफान आ गया। ममता ने यूपीए से नाता तोडऩे की घोषणा कर दी। कांग्रेस के माथे पर ज्यादा सलवटें नहीं आईं। जैसे वे यह खबर सुनने के लिए तैयार से थे। बीजेपी को सांप सूंघ गया। अभी तक कोई न बयान न राय? सपा, बसपा के अपने राग और अपने द्वेष हैं। मुलायम पर कोई भरोसा करने तैयार नहीं, वे दिल से चुनाव चाहते हैं, तो माया अभी इंतजार के मूड में हैं। दिल मुलायम, चाल खराब: मुलायम पर कोई भरोसा करने तैयार नहीं। मुलायम भी ऐसे हैं कि जानते हैं, कल को कोई भी नतीजे आए, वे बिना कांग्रेस के पीएम नहीं बन पाएंगे। बीजेपी तो उन्हें हाथ भी नहीं रखने देगी। तब वे कांग्रेस से सीधा भी मुकाबिल नहीं होना चाहते। जबकि चुनाव के लिए आतुर हैं, दरअसल समाजवादियों का कोई भरोसा नहीं कब कहां गुंडई कर दें और अखिलेश बाबू परेशान में पड़ जाएं और चुनाव तो दूर की कोड़ हो जाए। ऐसे में उनके पास अब एक अवसर आया है कि कुछ टालमटोल करें और सरकार गिरा दें। अब देखना यह है कि वे इस काबिल शतरंजी चाल को कैसे चलते हैं? माया मंडराई: माया से दूर रहना ही ठीक लगता है। क्योंकि यह लोग बड़े महंगे होते हैं। न जाने कितने तो पैसे लेंगे और कितने मामले वापस करवाएंगे। ऊपर से तुर्रा यह होगा कि यूपी को परेशान करो, ताकि अखिलेश माया के चिर शत्रु परेशा हो जाएं। अब सोनिया की यह होशियारी है कि चुनाव में जाएं या फिर इन दुष्टों को लें। ममता न पसीजेगी: ममता नाम की ममता हैं। वे नहीं पसीजेंगी। चूंकि वे पंचायत में कांग्रेस से हटकर लडऩा चाहती थी। वे यह खूब जानती हैं कि कांग्रेस के बिना बंगाल में बने रहना कठिन है। वह यह भी जानती हैं, कि इस बार भले ही वे वाम की खामियों से जीत गईं, लेकिन कांग्रेस अगर साथ में रही तो वे अगली लड़ाई इसी से लड़ेंगी। इसलिए पहले तो इन्हें राज्य से बेदखल किया जाए। शरद, करुणा: शरद पवार ईमानदार हैं। वे चाहते हैं हमेशा रहेंगे कांग्रेस के साथ। चूंकि महाराष्ट्र के समीकरण कहते हैं, कांग्रेस के साथ वे नहीं जीतेंगे। शिवसेना के साथ जाएं। तो मन ही मन वे भी चाहते हैं कि विधानसभा और लोकसभा एक साथ ही हो जाएं, तो उन्हें कुछ लाभ मिलना होगा तो जल्द मिल जाएगा। हां देर सवेर यह जरूर सोचते हैं कि उनकी छवि के अनुरूप कांग्रेस बीजेपी के सत्ता से दूर रखने के लिए समर्थन देकर पीएम बनवा सकती है। मगर शिवसेना के साथ गए तो क्या करेंगे? यह वे सोचेंगे यही उनकी काबिलियत भी है। क्या अब आएगा नो कॉन्फिडेंस: बीजेपी इस पूरे मामले में अभी कुछ नहीं बोलेगी। वह शुक्रवार के बाद जब औपचारिक रूप से यह तय हो जाएगा तभी वह कॉन्फिडेंस वोट के लिए कहेगी। मगर सीधे नहीं, बल्कि ममता को अपने हाथ में लेकर। बीजेपी अपनी पुरानी सहयोगी बीएसपी को भी साथ में ले सकती है। बीएसपी एक ही कीमत पर जाएगा, कि अग कांग्रेस उसे उपेक्षित कर दे। चलिए अब देखते हैं भाजपा क्या करती है? हाल फिलहाल देश की राजनीति में यह बड़ी उथल-पुथल है। कांग्रेस अगर इस वक्त चुनाव में गई तो कम से कम 5 केंद्रीय मंत्री और 6-7 सांसद समेत 40 से ज्यादा विधायक इनके दूसरी पार्टियों से चुनाव लड़ेंगे। इतना ही नहीं बीजेपी बिल्कुल भी तैयार नहीं है फिर भी गाहेबगाहे उसके हत्थे सत्ता चढ़ सकती है। हालांकि कांग्रेस यह जानती है कि थर्ड, फोर्थ जो भी फ्रंट बने बीजेपी को बाहर रखने के लिए किसी को भी पीएम बनाने में सहयोग देगी। अंत में लेफ्ट राइट: लेफ्ट इस समय राजनीति के मूड में नहीं, वे ममता से चिढ़ते हैं। मगर ग्राउंड वास्तव में उनके भी विचारों के उलट जा सकता है। इसलिए वे कांग्रेसी समानांतर दूरी बनाए रखते हुए अपनी तीसरी दुनिया की ताकत जुटाएंगे, ताकि भूले भटके ही सही कहीं वाम का पीएम बन गया तो? वरुण के सखाजी

Monday, September 17, 2012

रिझाती है अल्पिन तुम्हारी मासूमियत

बचपन में जब अल्पिन को देखता तो लगता था यह कमाल की चीज है। यूं तो अल्पिन में बहुत कुछ ऐसा होता भी नहीं कि कोई कमाल उसमें लगे। पर न जाने क्यों यह मुझे आकर्षित करती थी। इसके दो सिरों को गोलाकार सा ऐंठकर बना वृत जैसे कोई फूले कपोल सी युवती हो जान पड़ता। तो वहीं कंटोप में ढंकी इसका नुकीला सिरा आज्ञाकारिता के गुण को लक्षित करता। कैसे वह एक इशारे पर कंटोप में ठंक जाता। जरा सा दबाओ तो बाहर फिर वैसे ही अंदर। कालांतर में सोच बढ़ी, समझ बढ़ी तो अल्पिन जो कभी मेरे जीवन की बड़ी इंजीनियरी थी, वह इंजीनियरी की सबसे निचले ओहदे की कमाल साबित हुई। आज भी जब मुझे घर पर कहीं अल्पिन दिखती है तो खुशी होती है। लगता है अपनी बिछड़ी माशूका को देख रहा हूं। स्कूल गया तो वहां पर एक अलग तरह की पिन देखी, जिसे भी लोग कई बार अल्पिन कहते थे। मुझे इस बात से बड़ी कोफ्त थी कि लोग छोटी सी इस पिन को अल्पिन कहकर अल्पिन जैसी महान इंजीनियरिंग टूल को अपमानित करते हैं। कितनी खूबसूरती से वह अपने टिप (नोक) को छोटे से कवर में ढांप लेती है। जब काम नहीं होता तो वहां आराम करती है। यह इसलिए भी वहां चली जाती है कि बिना काम के मेरी नोक खराब हो जाएगी। चूंकि खुली रहेगी तो कोई न कोई उसे छेड़ेगा जरूर। अल्पिन की यह सोच मुझे बहुत प्रेरित करती थी। उस वक्त तो इस अल्पिन को लेकर सिर्फ एक मोहब्बत थी, वो भी बेशर्त। न कुछ और न कुछ और। पर जब सोचने की ताकत बढ़ी तो इस मोहब्बत के कारण समझ में आए। दरअसल यह अल्पिन अपनी नोक पर कंटोप इसलिए पहन लेती थी, ताकि भोथरी होने से बची रही तो वक्त पर काम आ सके। ठीक एक बुद्मिान और समझदार व्यक्ति की तरह। ऐसा व्यक्ति अपनी दिमागी शार्पनेस को बेवजह नहीं जाया करते। वे खुद के ही बनाए एक कंटोप में सारी समझदारी और शक्ति के संभालकर रखते हैं। लेकिन इस अल्पिन से इतर, इसी की हमशक्ल एक और पिन होती है। इस पिन का इस्तेमाल अक्सर कागजों को नत्थी करने में किया जाता है। लेकिन प्यारी अल्पिन तो नारी श्रृंगार के दौरान यूज की जाती है। वह कागजों की नहीं, सौंदर्य की चेरी है। हमशक्ल वाली पिन ने इस अल्पिन को तेजी से खत्म करने की कोशिश की। मगर अपने नुकीले स्वभाव को न छिपा पाने और नुकसान पहुंचाने को लेकर बिना नैतिकता की सोच वाली होने के कारण इसे समाज में वह स्थान नहीं मिल पाया। जबकि अल्पिन, पिन, सुई, कांटा समाज की सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाली पिन ही है। मगर अल्पिन तो जैसे आम लोगों में बैठी खूबसूरत विशिष्ट चीज है, सुई जैसे समाज की कारिंदा सोच की प्रतिनिधि है। तो वहीं कांटे नैतिकता से परे बेझिझक, गंवार टाइप के दुर्जन लोग हैं। अल्पिन ने महज अपनी मोहब्बत ही नहीं दी, मुझे तो कई आयामों पर सोचने की शक्ति भी दी है। विद्वानों की तरह मूर्खों में ऊर्जा न खपाना कोई विमूढ़ता नहीं। और इन बेवकूफों के बीच प्रतिष्ठा न पा सकने का कोई अफसोस भी नहीं। एक दिन जब अल्पिन ने बाजार के फेरे में आकर अपना रूप बदला तो मैं भौंचक रह गया। वह अब आकर्षक शेप में थी। अपनी असलियत को कहीं अंदर ढंके हुए बाहर तितलीनुमा कवच के साथ आई। इस रूप को देखकर तो मुझे और भी इसकी ओर आकर्षित होना चाहिए था। मगर हुआ उल्टा। मुझे इसका यह रूप बिल्कुल भी नहीं भाया। चूंकि मैं तो इसके असली रूप से ही मोहब्बत करता हूं, कैसे इसे अनुमोदन दे दूं। और जब प्यार निस्वार्थ भाव से होता है, तो फिर उसमें कोई भी तब्दीलगी इसे भौंडा बना देती है। प्यार की इस परिभाषा को सर्वमान्य तो नहीं कहा जा सकता, हां मगर एन एप्रोप्रिएट एंड अल्मोस्ट एडमायर्ड एक्सेप्टीबल काइंड ऑफ लाव जरूर कहा जा सकता है। और मोहब्बत का यह प्रकार ऐसा होता है कि लाख बदलावों के बाद भी अपनी माशूका में खोट नहीं देखता। अल्पिन की इस भंगिमा को देखकर भले ही पलभर के लिए क्रोध घुमड़ा हो, मगर यह वसुंधरा सा उड़ भी गया। सबकुछ जानकर भी यह यकीं नहीं हुआ, कि मेरी प्यारी अल्पिन ने जान बूझकर अपनी मासूमियत को इस नकल से ढांप लिया होगा। बार-बार जेहन में यही लगता रहता है कि अल्पिन को जरूर सुई, कांटा, पिन, स्टेप्लर की नन्ही दुफनियांओं ने मिलकर साजिश की होगी। अल्पिन की मासूमियत और उनकी उपयोगिता दोनों को बरक्स रखा जाए तो भी अल्पिन बीस ही निकलती। इसी ईष्र्या ने शायद अल्पिन को बलात ऐसा रूप दे दिया गया हो। यह अल्पिन के लिए मेरा जेहनी पागलपन से सना प्यार है, या फिर उसपर भरोसा। यह तो नहीं पता, पर यह जरूर समझ आता है कि आपकी मोहब्बत कई बुराइयों को भी अच्छाइयों में बदल सकती है, फिर वह चाहे अल्पिन से हो या हाड़ मांस के हम और आपसे। वरुण के सखाजी

Thursday, September 6, 2012

कौन है यह वाशिंगटन पोस्ट और क्यों मच रहा है हल्ला

यह नहीं कि वाशिंगटन पोस्ट या टाइम गलत हैं या सही हैं। बस सवाल सिर्फ इतना है कि वे जो कुछ भी कह रहे हैं वह उनकी खबर क्यों है? व्यावसायिक परिदृश्य में देखें तो मीडिया के नाम पर विदेशी मीडिया की मनमानी कतई लोक की आवाज नहीं है। यह नितांत विदेशी कूटनीति का हिस्सा है। इसलिए दुनिया के मंच पर जब देश के संदर्भ में कोई बात की जाए, तो सावधानी रखना जरूरी हो जाता है।
कायदा ए कायनात में भी इंसान को अपनी आवाज पेश करने की इजाजत हक के बतौर बख्सी गई है। यह अच्छी बात भी है। आदिकाल से इंसानी बिरादरी को अनुशासित और गवर्न करने के लिए बनाई गईं व्यवस्थाएं सबसे ज्यादा डरती भी इसी से हैं। आवाजों को अपने-अपने कालखंडों में मुख्य बादशाही ताकतों ने कुचलने की कोशिश की है। कभी कुचली भी गई हंै, तो कभी सालों कैदखानों में बंद भी कर दी गईं हैं। किंतु फिर अचानक अगर कैद करने वाली बादशाही ताकत को किसीने उखाड़ा भी, तो वह यही कैदखानों में बंद आवाजें थीं। लोकतंत्र में इसका अपना राज और काज है। काज इसलिए कि यह अपनी स्वछंदता और स्वतंत्रता के बीच के फर्क से परे प्रचलन में रहती है। और असल में गलती इस आवाजभर की भी नहीं है, दरअसल आवाज को नियंत्रित करने वाले भी इसे गवर्न के नाम पर दबोच देना चाहते हैं, तो आवाजें बुलंद करने वाले आजादी के नाम पर अतिरेक कर डालते हैं। ऐसे में न तो आवाज की ककर्शता ही खत्म हो पाती है और न ही इसकी ईमानदारी ही बच पाती है। कहने का कुल जमा मायना इतना है कि माध्यमों की सक्रियता के चलते होने वाली उथल-पुथल और अर्थ स्वार्थ पर चिंता की जानी चाहिए। साथ ही यह भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि वह आखिरकार कहीं कैद न होकर रह जाए। मौजूदा सिनेरियो में आवाज को बकौल टीवी, प्रिंट और वेब मीडिया देखा जाना चाहिए। हर देशकाल में यह तो माना गया कि आवाज महत्वपूर्ण है। और यह भी जान लिया गया कि यह सर्वशक्तिमान से कुछ ही कम है। किंतु कहीं कोई मुक्कमल योजना नहीं बनाई जाती कि इसका इस्तेमाल कैसे करें। हर उभरते हुए लोक राष्ट्र में आवाजें भी समानांतर उभरती हैं। सरकारी व्यवस्थाएं भी सक्रिय होती हैं। किंतु दोनों ही एक खिंचाव के साथ आगे बढ़ती हैं। आवाजें उठती और बैठती रहती हैं। परंतु व्यवस्थाओं का एक ही मान रहता है कि वह इन जोर-जोर से सुनाई दे रहीं लोक ध्वनियों को सुनकर मान्यता नहीं देंगे। और यही दोनों की जिद अंतिम रूप में अतिरेक में बदल जाती है। आवाजें अपनी राह लाभ, हानि के विश्लेषण से परे होकर नापती रहती हैं, तो व्यवस्थाएं लोक सेवक का लड्डू हाथ में लिए निर्धुंध कानों में रूई ठूंसे हुई जो बन पड़ता है अच्छा बुरा काम किए जाती हैं। आवाजों का शोर और आवाजों की उपेक्षा दोनों ही इस काल में अपने चरम पर हैं। समूची दुनिया से नितनई सनसनीखेज बातें होती रहती हैं। एक माध्यम ने तो लीबिया के गद्दाफी को ही उखाड़ फेंका, तो असांज ने मुखौटे पहने हुए लोगों के गंदे चेहरे सबके सामने रखे। आवाजें अपना काम कर रही हैं। लेकिन यह इसलिए और ज्यादा कर रही हैं, कि इनकी ताकत को बादशाही शक्तियां या तो पहचानती नहीं है या फिर पहचानकर मान्यता देने के मूड में नहीं हैं। भारत में भी स्टिंग ऑपरेशन के जरिए सियासी दलों के नेता बेनकाब होते रहे हैं और कालांतर में हाफ शर्ट पहनकर नीति, रीति और व्यवस्था को कब्जाए बैठे नौकरशाह भी चाल, चरित्र में बेढंगेपन के साथ सबके सामने आए। यह कारनामा किया इन्हीं आवाजों ने। राजतंत्र में आवाजों को नहीं आने दिया जाता था। और अगर किसी तरह से कहीं से आ भी गई तो कुचलने की ऐसी वीभत्स प्रक्रिया अपनाई जाती थी, कि लोगों की रूह कांप जाए। मगर जब दुनिया को लोकतंत्र की नेमत मिली तो व्यवस्थाओं के सामने खूबसूरत विकल्प था। एक ऐसा तंत्र ऐसी व्यवस्था, जिसे लोक ही चलाएगा, लोक ही बनाएगा और लोक के लिए ही यह बनी रहेगी। किंतु लोकतंत्र, जिसे भारी खून खराबे के जरिए बरास्ता यूरोप इंसानों ने पाया उसके मूल में आखिर यही आवाज व्यवस्था की नाक में दम करने फिर हाजिर थी। और इस बार यह आवाज कुछ ऐसी है कि इसे छाना नहीं जा सकता। बादशाही ताकतों को इसे अपने कानों में बिना किसी फिल्ट्रेशन के ही सुनना पड़ेगा। कर्कशता, गालियां, मनमानापन, बेझिझकी, बेसबूतियापन और सच्चाई, शांति, समझदारी से मिश्रित रहेगी। वाशिंगटन पोस्ट ने हमारे पीएम के बारे में जो भी लिखा, टाइम ने जो भी संज्ञा दी थी। यह सब कुछ इसी आवाज से निकलने वाली कर्कश ध्वनियां हैं। इन्हें रोका नहीं जा सकता है, किंतु उपेक्षित किया जा सकता है। संसार में सबसे बड़ी ताकत या तो दमन है या उपेक्षा। दमन जब नहीं किया जा सकता तो उपेक्षा कर देनी चाहिए। यह नहीं कि वाशिंगटन पोस्ट या टाइम गलत हैं या सही हैं। बस सवाल सिर्फ इतना है कि वे जो कुछ भी कह रहे हैं वह उनकी खबर क्यों है? व्यावसायिक परिदृश्य में देखें तो मीडिया के नाम पर विदेशी मीडिया की मनमानी कतई लोक की आवाज नहीं है। यह नितांत विदेशी कूटनीति का हिस्सा है। इसलिए दुनिया के मंच पर जब देश के संदर्भ में कोई बात की जाए, तो सावधानी रखना जरूरी हो जाता है। वक्त आ गया है कि इन आवाजों को बादशाही ताकतें मान्यता दें। वक्त आ गया है कि आवाजों को नीति, रीति और योजनाओं में शामिल किया जाए। मुमकिन है फिर वाशिंगटन पोस्ट का कमेंट किसी देश के पीएम के लिए पूरी जिम्मेदारी के साथ आएगा और उसपर प्रतिक्रिया भी राष्ट्रीय सीमाओं की गरिमा के अनुकूल होगी। यह नहीं कि अपने शत्रु पड़ोसी की बुराई दूसरे मुहल्ले वाले करें तो हम भी दुंधभियां बजा-बजाकर करने लग जाएं। वरुण के सखाजी चीफ रिपोर्टर, दैनिक भास्कर, रायपुर

Tuesday, September 4, 2012

सबका मनपसंद फॉर्मूला समस्याओं का हल इसी पल

अन्याय के खिलाफ हर जेहन में आवाज होती है। उस दिमाग में तक जो खुद कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में अन्याय का सहभागी पात्र होता है। यह मानवीय स्वभाव है। लंबे अरसे तक जब सत्य और असत्य के सवालों को अनसुना किया जाता है, तो वह उठना बंद नहीं करते किंतु अपनी केपिसिटी खो देते हैं। दिमाग के संसारी और भारी कोलाहल के बीच वह सुनाई नहीं देते। लेकिन जिनके दिमागों में यह प्रश्न रह-रहकर उठते रहते हैं, उन्हें चाहिए तत्काल रेमेडी।
फिल्मों की सफलता उसकी आय है तो सौ करोड़ क्लब की फिल्मे सदी की बैंचमार्क फिल्में हैं। और इनका फिल्मी फॉर्मूला एक ही है हीरो कालजयी हो। सुपरमैन हो। शक्तिमान हो और किसी भी हाल में हारे नहीं। इसीलिए शायद लोगों को ज्यादा सीधापन भी भाता नहीं। अन्याय के खिलाफ हर जेहन में आवाज होती है। उस दिमाग में तक जो खुद कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में अन्याय का सहभागी पात्र होता है। यह मानवीय स्वभाव है। लंबे अरसे तक जब सत्य और असत्य के सवालों को अनसुना किया जाता है, तो वह उठना बंद नहीं करते किंतु अपनी केपिसिटी खो देते हैं। दिमाग के संसारी और भारी कोलाहल के बीच वह सुनाई नहीं देते। लेकिन जिनके दिमागों में यह प्रश्न रह-रहकर उठते रहते हैं, उन्हें चाहिए तत्काल रेमेडी। रेमेडी यानी तुरंत निवारण। इस निवारण के लिए वे छटपटाते नहीं, क्योंकि परिवार, घर, समाज, धन और अन्य मोटे रस्सों से बंधा महसूस करते हुए खुद प्रयत्न नहीं कर पाते। ऐसे में उनकी छटपटाहट एक उद्वेग में तब्दील हो जाती है। इसके लिए वह कोई ऐसी इमेज खोजते हैं, जहां पर उनके मन की इस बात का प्रतिनिधित्व होता हो। सौ करोड़ क्लब की फिल्मों का मनोविज्ञान इसी बात के इर्दगिर्द घूमता है। बिलेम भले ही सलमान पर लगता हो, किंतु फिल्मी कौशल से यह आमिर खान भी बरास्ता गजनी करते हैं। शाहरुख भी तकनीक के जरिए कुछ ऐसा जौहर दिखाने की भरशक कोशिश कर चुके हैं। अक्षय कुमार को भी राउडी में देखा जा सकता है। यूं तो हीरो की छवि देवकाल से ही अपराजेय मानी जाती रही है। मगर फिल्म के इस नए संस्करण और कलेवर ने इसे और पुख्ता कर दिया है। दक्षिण में यह और भी अतिरेक के साथ किया जाता है। माना जाता है, कि वहां पर दैनिक जीवन में बस, रेल, पगार, कार्यस्थल, सडक़, बिजली, सरकार और अन्य जरियों से आने वाली छोटी-छोटी नाइंसाफी की पुडिय़ाएं लोगों को नशे में रखती हैं। दिमाग में बनने वाली फिल्मों के जरिए तो वे कई बार दोषी को दुर्दातं मौत दे चुके होते हैं, किंतु वास्तव में यह मुमकिन नहीं होता। पर जब वह चांदी के परदे पर उछल-कूद करके हल्के फुल्के तौर तरीकों से ही दुश्मन को धूल चटाते देखते हैं, तो कुछ हद तक नाइंसाफी की नशे की पुडिय़ा से बाहर निकल पाते हैं। इसी मनोविज्ञान को सौ करोड़ क्लब की फिल्में खूब भुनाती हैं। कई बार हम भी इस बहस के खासे हिस्सा बन जाते हैं, कि इन फिल्मों में अभिनय और कहानी की उपेक्षा होती है। किंतु फिल्में अपने आपमें इतनी जिम्मेदार रहेंगी तो शायद पैसा ही न कमा पाएंगी। एक्शन प्रियता मनुष्य की सहज बुद्धि है। बचपन में हम लोग भी खेतों या नर्मदा के रेतीले मैदानों में रविवार को दूरदर्शन की फिल्मों के एक्शन सींस किया करते थे। इनमें किसी को मारने वाले सींस के साथ या अली डिस्क्यां संवाद बहुत ही आम था। दोस्तों के बीच एक पटकथा रखी जाती थी। वह पटकथा उतनी ही गंभीर होती थी, जितनी कि आज के दौर में बनने वाली सौ करोड़ क्लब फिल्मों की। यानी जोर किसी का पटकथा पर नहीं, सिर्फ मारधाड़ और कोलाहल पर। सब अपनी भूमिकाएं छीनने से लगते थे। लेकिन इस पूरी मशक्कत में कोई भी अमरीश पुरी नहीं बनता था। इसे हम इंसान की सहज सकारात्मकता के रूप में ले सकते हैं। मारधाड सब करना चाहते थे। देश दुनिया से अन्याय को सब अल्विदा कहना चाहते थे, सब शांत और समृद्ध नौकरी पेशा समाज चाहते थे। मगर एक्शन के जरिए। यानी यह मानव स्वभाव है कि वह बदलाव के लिए सबसे आसान विकल्प के रूप में शारीरिक क्षमताओं से किसी को धराशायी करना ही चुनता है। एक्शन मानव स्वभाव का हिस्सा है, किंतु यह हिंसा कतई नहीं। सकारात्मक बदलावों के लिए इस्तेमाल की जानी वाली शारीरिक कोशिशें हिंसा नहीं हो सकतीं। यह अंतस में बर्फ बना हुआ गुस्सा है, जिसे जलवायु परिवर्तन का इंतजार था। अब वह पिघलने को है। और इसी मनोशा पर आधारित होती है इन फिल्मों की कहानी। ऐसा कोई इंसान नहीं है जिसे इस तरह की फास्ट रेमेडी पसंद न आती है। सबको समस्याओं का हल, उसी पल का फॉर्मूला प्रभावित करता है, परंतु प्रैक्टिकली ऐसा होता नहीं है, इसलिए कुछ लोग या तो ऐसी फिल्में छोडक़र चले आते हैं, या जाते ही नहीं। मगर अधिकतर लोग कम से कम कल्पना में ही सही नाइंसाफी से निपटने का एक शीघ्रतम दिवा स्वप्न जरूर देखना चाहते हैं। इसका मतलब तो यह होना चाहिए, कि चॉकलेटी हीरो वाली सॉफ्ट कहानियों पर आधारित कॉलेज के प्रेम की फिल्में बननी ही नहीं चाहिए। तो इसका जवाब मेरे पास नहीं है, किंतु एक्शन फिल्मों में आम आदमी अपने गुस्से को तलाशता है। यही हुआ था, जब देश में अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत लोकपाल को लेकर खाना त्यागकर बैठ गए थे। लोगों में एक हीरो दिखा। मगर उनका हीरो सरकारी तरीकों और सियासी कुचक्रों का सामना नहीं कर पाया। टिमटिमाती लौ के साथ अरविंद कुछ हद तक सलमान खान का एक्शन कर जरूर रहे हैं, किंतु यह भी उस क्रांतिकारी बदलाव की अलख नहीं जगाता, जो कि आम लोग देखना चाहते हैं। वरुण के सखाजी चीफ रिपोर्टर, दैनिक भास्कर, रायपुर

Saturday, September 1, 2012

नहीं बचाएगा तुम्हे कोई...

नित नई होती तकनीक अगर गुमान करे तो यह उसका हक है। कल तक ब्लैक एंड वाइट से आज की रंगरंगीली दुनिया के निर्माण में इसका रोल अहम है। तकनीक अपनी शक्ति को लेकर जितनी भी इतराना चाहे, वह इतरा सकती है। हमारे जीवन को आसान बनाने में इसकी भूमिका को शब्द दो शब्द में कहना तकनीक को मुहल्ला विचार मंच की ओर से दिए जाने वाली कोई उपाधिभर होगी। जबकि तकनीक की भूमिका इतनी वृहद है कि इसे नोवल प्राइज या संसार का और भी कोई बड़ा पुरस्कार दिया जाए तो भी कम ही लगेगा। मीलों दूर बैठे लोगों से बातें, समंदरों की दूरियां घंटों में पार करने या फिर अंतरिक्ष की बारीकियों को खंगालने की बात हो। तकनीक तुम कमाल हो। तकनीकी को दरअसल कई बार मोबाइल फोन से नापा जाता है। यानी नई तकनीकी तो स्मार्ट फोन, तो नई तकनीक यानी एंड्रायड। लेकिन तकनीकी इससे भी वृहद है। तकनीक हमारे जीवन की एक तरह से पयार्य सी है। इतनी करीबी, इतनी दासी, इतनी सेवक, इतनी जरूरी कि शायद मानव निर्मित वस्तुओं में सबसे ज्यादा उपयोगी। तकनीकी भले ही डिवाइस पर अवलंबित हो, किंतु मनुष्य के मस्तिष्क के भीतर छुपी कलाओं से कमतर नहीं है। यहां तक कि वह कला को भी एक दिन चैलेंज कर सकती है। कला बेचारी सालों से इंसान की संगिनी बनी हुई कभी सुरों से झरती, तो कभी कलम से टपकती रही है। न इसे डिवाइस चाहिए न कोई ऐसा जरिया, जिसके बगैर यह प्रस्फुटित न हो सके। कला का इतना तक कहना है कि तकनीकी को जन्म तक उसी के मौसेरे, चचेरे भाइयों ने दिया है। कला का एक यह दावा है, तो तकनीक का भी अपना दंभ है कि वह कला को भी पछाड़ देगी। हो भी सकता है वह अपने मंसूबे में कामयाब हो जाए। कला पीछे बैठ जाए। इससे कोई नफे नुकसान की बात भी नहीं होगी। मगर तकनीक का दंभ नहीं टूटेगा। तकनीक से क्या कुछ मुमकिन नहीं है। एक मोबाइल कंपनी के एड में तो यह तक बताया जाता है, कि एक व्यक्ति अपने ऑफिस से अचानक एक पार्टी में सिर्फ मोबाइल के बूते चला जाता है। वह जैकेट स्टोर खोजता है, फिर गिटार बजाने की प्रैक्टिस करता है और चंद मिनटों में पार्टी में हुंदड़ाकर वापस अपने ऑफिस में बेहद ही सज्जन किस्म के एक्जेक्यूटिव की तरह काम करने लगता है। यह मोबाइल से ही मुमकिन हुआ था। वह तो खैर गिटार था, अगर कोई और भी वाद्य यंत्र होता तो भी शायद इंसान चंद मिनटों की मंोबाइल प्रैक्टिस से सीख सकता है। तकनीक अपने साथ एक संसार लेकर चल रही है। तेजी से अपना साम्राज्य फैला रही है। देश दुनिया के हर तत्व की अगुवा और प्रतिनिधि बन रही है। इसमें बेशक नेतृत्व क्षमता है भी तो सही, किंतु फिर भी इसका बड़बोलापन ठीक नहीं है। तकनीक चीखती है चिल्लाती है, अपनी क्षमताओं पर नाज करती है, अपनी शक्तियों को बिखेरती है और प्रभावित करती है, अन्य तत्वों को हाईजेक करती है। अपने में समाहित करती है। कला के पास यह हुनर नहीं। तकनीक ने तबला वादन, गायन, लेखन, वाचन, मंचन, अभिनय समेत कमोबेश सभी कलाओं को कब्जा सा लिया है। कोई बात नहीं। इन सबने तकनीक की अधीनता स्वीकार भी कर ली। सहज और स्वभाविक जो हैं। तकनीक का दंभ आगे बढ़ा और आगे बढ़ा तो कला को चुनौति भी दे दी जाएगी। किंतु कला का एक ही जवाब तकनीक को मूक कर सकता है। वह जवाब है तकनीक तुम श्रेष्ठ हो, संसार को आसान बना रही हो, हम पर भी शासन कर रही हो, किंतु याद रखना। तुम अपने आपको ही खा जाती है। छत्तीसगढ़ की लोक कला को बचाने के लिए 108 संगठन बनेंगे, किंतु नोकिया 3310 बचाओ समिति कभी नहीं बनेगी। तुम नित नई हो, तुम चंचल हो, तुम निर्मल हो, तुम अच्छी हो, किंतु दंभी हो। तुम्हें बचाने के लिए कभी आईफोन-3 बचाओ समिति कभी नहीं बनेगी। कोई पेट वाली टीवी बचाओ आंदोलन नहीं होगा। कोई अन्ना तुम्हारे पुरान वर्जन को करप्शन की भेंट चढऩे से रोकने खानपीना नहीं छोड़ेगा। हां मगर कला को पूरा भरोसा है उसके लिए आदिकाल से भावीकाल तक यह सिलसिला जरूर चलता रहेगा। वरुण के सखाजी

Wednesday, August 15, 2012

आजादी के 66 साल और हम...



देश को स्वतंत्रता मिले आज हमें 66 साल हो चुके हैं। पर इस स्वतंत्रता की सही कीमत तो वहीं लोग जानते हैं। जिन्होंने परतंत्र भारत में रहकर स्वतंत्रता की सुनहरी किरण महसूस की थी। और इसे पाने के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों को देश हित के लिए न्यौछावर कर दिया।

आज देश के सामने कई चुनौतियां है पर इन चुनौतियों के बीच ही हमने आजदी के साढ़े छह दशक बीत जाने के बाद भी अपने लोकतंत्रीय देश को बनाए रखा है। और आज हम इसी कारण एक युवा राष्ट्र के रूप में दुनिया भर में पहचाने जाते हैं, पर हमारी सभ्यता ने इस बीच कई दौर देखे, जिनमें हमें पहले भी कई लोगों ने गुलाम बनाया पर वो अपने इन मंसूबों में कभी कामयाब नहीं हो पाए और हमेशा से ही देश के वीर जवानों और साहसी महापुरषों के सामने अपने घुटने झुकाने पढ़े। इतिहास गवाह है कि हमने यह आजादी यूं ही नहीं मिली बल्कि इसके लिए हमारे देशभक्तों ने देश पर खुद को समर्पित कर इसे हमारे लिए मुक्त किया है और हमारा दायित्व है कि हम इसे हर क्षेत्र में और भी बेहतर बनाएं।

और इस तरह 15 अगस्त 1947 को हम स्वतंत्र हुए और जल्द ही एशिया की महाशक्ति बनकर उभरे, वहीं देश ने एक तरफ तो लोकतंत्र का पहला पड़ाव 1952 में तब पूरा किया जब हमारे देश में पहली बार आम चुनाव हुए। इस दौर में भारत अर्थव्यवस्था की और तेजी से बढ़ा, नवउदारवाद के रास्ते निजी क्षेत्र में चहुंओर गति देने की नीति अपनाई गई, देश के पहले प्रधानमंत्री स्व. पं.जवाहरलाल नेहरू और स्व.राम मनोहर लोहिया ने उद्योग जगत की चकाचौंध में खो जाना ही ठीक समझा। इसके बाद तो भारत उभरती अर्थवयवस्था में तब्दील होता चला गया। और आज भी इसी गति से निरंतर अपनी साख विदेशी बाजारों में बनाए रखने में सक्षम हुआ है।

Tuesday, August 14, 2012

टीम अन्ना के बाद, बाबा का भी अनशन खत्म....!


एक राजनीतिक पार्टी को हराने की घोषणा करते हुए आखिर बाबा रामदेव ने अनशन तो खत्म कर दिया। पर, क्या वे वाकई में राजनीति के जरिए ही सही, देश का धन जो स्विस बैंक में जाकर काला हो गया है, उसे फिर से भारत लाकर देशवासियों को दें पाएंगे। यह एक ऐसा प्रश्न है जो हर देशवासीयों के मन में जरूर कौंधता होगा।

ऐसे में क्या बाबा रामदेव की मुहिम 'ब्लैक मनी' को भारत ला पाएगी... ये एक गंभीर प्रश्न है जो कि सरकार और उसके नुमाइंदे भी न दे पाएं। इस बार बाबा रामदेव ने कई दावे किए जिनमें से उन्होने एक दावा यह भी किया है कि उनके अगले ऐलान से सरकार हिल जायेगी। वहीं बाबा रामदेव की मानें तो इस आंदोलन में 400 सांसदों का साथ भी मिलेगा। खैर यह बात अलग है कि अभी दो दिन पूर्व ही बाबा ने खुद ही मंच से यह हुंकार की थी, कि उनके साथ 225 सांसद हैं।

इसके साथ ही योग गुरू ने कहा है कि 2014 तक तक कोई बड़ा आंदोलन नहीं करना चाहते। अब सीधी कार्रवाई होगी। बाबा ने अगली रणनीति का खुलासा करते जो कुछ भी कहा उसमें यहीं कॉमन है जो भी पार्टी काला धन वापस लाने में रोड़ा अटकाएगी उसको चुनाव में हराना है, और इस बार भी उनका यही रुख रहा। देश में मौजूदा सरकार पर निशाना साधते हुए योग गुरू का कहना है कि आज देश में जो गरीबी, अभाव और भूख बढ़ रही है वो सब इन्हीं की देन है।

बाबा का हर बार, इस बार मौजूदा केन्द्र सरकार पर है। बाबा ने संप्रग के खिलाफ विपक्षी पार्टियों का मोर्चा बनाने के संकेत देते हुए कहा है कि भ्रष्ट पार्टियों में सबसे ऊपर कांग्रेस है। बढ़ती महंगाई, भूख, अभाव और गरीबी के लिए यही कांग्रेस जिम्मेदार है। वहीं योग गुरू ने कहते हैं कि उनको 400 सांसदों का समर्थन हासिल है। पर इस बात की क्या पुष्ठि है कि ये सांसद दूध के धुले हुए ही हों, क्या इनके पास मौजूद धन ईमानदारी से कमाया हुआ ही हो और इनका धन स्विस बैंको में न हो क्या ये पुष्ठि बाबा अपने सांसदों के रवैये और व्यवहार  को रुप में लिखित दे सकते हैं।

हाल ही में टीम अन्ना का आंदोलन लोकपाल के मुद्दे पर चर्चा में रहा और आगे भी इनकी मुहिम जारी रहेगी पर बाबा की टीम अन्ना से दूरियां क्यों हुए जब देश एक है, मुद्दे एक हैं, हम सभी भारतवासी एक हैं तो बाबा का टीम अन्ना से मुंह मोढ़ना कहां तक जाय़ज है ?और केवल काले धन को लेकर ही आंदोलन करना, कहां तक जाय़ज है ? देश के और भी कई मुद्दे हैं। जिनके कारण आज हर वर्ग का तबका परेशान है। अगर मान लें कि देश में काला धन आ जाता है तो क्या ये धन वाकई में जरुरत मंदों को मिलेगा या फिर वहीं हश्र होगा। जिसका जिक्र कई साल पहले हमारे स्व.पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि कि- 'देश के जरुरत मंदो को सरकारी सुबिधा का महज एक प्रतिशत लाभ ही मिल पाता है। और 99 प्रतिशत हिस्सा सिस्टम की भेंट चढ़ जाता है'।

लोकपाल की जरुरत भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने की मुहिम है और काला धन लाना देश हित में जरूरी, पर बाबा का टीम अन्ना से इस तरह दूरियां बनाना क्या नज़रिया पेश करता है ? क्या बाबा लोकपाल को लेकर गंभीर नहीं...

ये एक गंभीर प्रश्न है जिसका उत्तर वक्त ही आगे बताएगा...!

Friday, August 10, 2012

मनोरंजन पर भारी शोक समाचार

मनोरंजन अपनी कमी या ज्यादाती को रोटी की तरह पेट या शरीर पर नहीं दिखाता। यह मनुष्य के मानस, आचरण, व्यवहार से नजर आता है। इसका मीटर डाउन हुआ तो खराब ऊपर हुआ तो खराब। संतुलित होना जरूरी है। और इंसान की पहचान रोटी तो है नहीं, उसकी सोचने समझने की शक्ति ही असली पहचान है। तब मनोरंजन एक तरह से रोटी से भी ज्यादा जरूरी हुआ। हास्य का बोध, रुदन का एहसास यह सभी मनोरंजन से ही तो आएगा न?
गांव छोटा था। सबलोग एक दूसरे को जानते थे। कोई अपना या पराया नहीं था। सबके दुख से सब दुखी और सबके सुख से दुखी। यकीनन यह गांव किसी सतयुग का काल्पनिक गांव कतई नहीं था। मनोरंजन के साधन सीमित। इतने सीमित कि तार बिजली तक से मनोरंजन करना पड़ता। जले हुए ट्रांसफार्मर से एल्युमिनियम के तार निकालना और उनसे कुछ बनाना। सबकुछ आनंद के लिए। टीवी के नाम पर महज एक पटवारी की टीवी। दोस्ती करो तो टी
वी वरना महरूम। देखें तो कहां देखें मृगनयनी, मुंगेरीलाल के हसीन सपने, हम लोग, भीमभवानी और सबसे ज्यादा जरूरी महाभारत। संडे को तो खेतों में चरने वाले जानवर, खरपतवार, कीड़े मकोड़े, हिरण, हिन्ना सब जान गए थे कि आज संडे है। दूर तलक न खेतिहर मजदूर न मालिक। सब सुन्न सपाटा। वजह सुबह महाभारत शाम को हिंदी फीचर फिल्म। बीच में कुछ खाना पीना और जरूरी काम। फिल्म कौन सी या तो मारधाड़ वाली या फिर रोमांटिक। यह फर्क तो नहीं पता था, पर हां कुछ जादुई सी दुनिया का जरूर एहसास होता। कहीं कोई सितारों के बीच परि है, तो कहीं कोई बहन का बदला लेने मिथुन लाल सलाखें नंगे हाथों से पकड़ रहा है, तो कहीं प्रेम चौपड़ा मृदुभाषिता से अच्छे खासे सेठों की दौलत कब्जा रहा है। मनोरंजन के सीमित साधनों पर ही निर्भर रहना था। और तिसपर तरह-तरह के बंधन अलहदा से थे। टीवी नहीं देखना चाहिए, आंखे तो खराब होती ही हैं, साथ में पढ़ाई भी। यह तो ऐसी समस्या थी कि बुजुर्गों को बच्चों को टीवी देखने से हर हाल में रोकना था और बच्चों, महिलाओं और नौजवानों की जिद थी कि टीवी हर हाल में देखना है। तो मामला विरोध, सहमति, असहमति, वार्ता, संवाद और चोरी, मनमानी के जरिए सुलझ भी जाता। मगर समस्या तब विकराल हो जाती जब गांव या देश में कोई मर जाए। यह चूंकि संवेदनशील मामला होता था। इसपर नौजवानों ने अगर तर्क दिए तो यूपीए-2 जैसा मामला होगा, कि लोकपाल लाओ नहीं तो भ्रष्टाचार के पोषक कहलाओ। विरोध करें टीवी बंद का तो मरें, चुपचाप देखें तो मन की नैतिकता खा जाए। मगर मनोरंजन तो मनोरंजन है। क्या करें, यह भी खाने, पीने, या अन्य दैनिक कार्यों की तरह ही जरूरी है। लेकिन ऐसा जरूरी जिसपर लोकचर्चा नहीं होती। मनोरंजन अपनी कमी या ज्यादाती को रोटी की तरह पेट या शरीर पर नहीं दिखाता। यह मनुष्य के मानस, आचरण, व्यवहार से नजर आता है। इसका मीटर डाउन हुआ तो खराब ऊपर हुआ तो खराब। संतुलित होना जरूरी है। और इंसान की पहचान रोटी तो है नहीं, उसकी सोचने समझने की शक्ति ही असली पहचान है। तब मनोरंजन एक तरह से रोटी से भी ज्यादा जरूरी हुआ। हास्य का बोध, रुदन का एहसास यह सभी मनोरंजन से ही तो आएगा न? मगर क्या करें। टीवी बंद करने के आदेश और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने बिना वक्त गंवाए टीव के निचले हिस्से में लगीं 3 बटनों में कोने वाली चट से बंद कर दी। यह काम करने में अक्सर वे बजरंगी टाइप के कार्यकर्ता आगे रहते थे, जो खुद भी टीवी देखना चाहते थे, किंतु बड़ों की नजर में सकारात्मक छवि के लिए ऐसा करते। एक पल के लिए तो ऐहसास होता आज के दौर के वेलेंटाइंस के अनुयायियों पर लगने वाली पाबंदी सा। मगर मसला ऐसा कि विरोध, प्रतिरोध और मनमानी किसी की गुंजाइश नहीं। लोग भी जैसे मरने के लिए तब तक बैठे रहते थे, जब तक कि कोई अच्छा सा कार्यक्रम न आने वाला हो। कस्तवारिन 90 साल की थी। घर के एक कोने में रह रही थी, बीसों साल से तो वह बूढ़ी होना तक बंद हो चुकी थी। जैसी की तैसी थी। न जाने क्या हुआ। मरने का क्या मुहूर्त सा खोज रही थी। बेटा धनसिंह खुद चाहता था मरे ये तो अब। पढ़ा लिखा नहीं था न? जो बुद्धि रखते थे, वे कहते अब तो माताराम को भगवान उठा ले, वे बड़े कष्ट में हैं। जैसे यह बड़े दयालु हैं। मगर चूंकि इंसानी बिरादरी की पहचान हैं संवेदनाएं, तो कस्तवारिन मरे, या नौजवान बेटा। अपने आप कोई मरे या दुर्घटना में। असर सीधा टीवी पर ही पड़ता। फिल्म चल रही थी राजकुमार, दृश्य था हाथी पर बैठा एक आदमी। बचपन था। पता नहीं क्या संवाद थे, क्या एक्टिंग थी। क्या प्लॉट था, होने वाला क्या था, फिल्म में। मगर एक बात थी गहरे से, हाथी को देखकर मन इतना खुश हो रहा था, कि अभी इसपर लद जाऊं। फिल्म पूरे शबाव पर थी। बाकी दर्शकों का तो नहीं पता पर मैं जरूर हाथी की मदमस्त चाल और वहां के परिवेश में फिल्माया गया उत्साह देखकर मुदित था। मनोरंजन अपार हो रहा था। इतना कि जैसे में किसी प्रभू की याद में रोकर भी प्राप्त न कर सकता। विशुद्ध आध्यात्मिक आनंद सा। मगर सुख कहां लंबे टिकते हैं। डर था बिजली न चली जाए, देश में कोई झंडा झुकाऊ आदमी न मर जाए। और सबसे बड़ा डर तो था कि कस्तवारिन का। चूंकि ऐसा पहले भी कई बार हुआ जब कस्वारिन मरते-मरते बच गई। चूंकि कोई कार्यक्रम नहीं आ रहा था न? और तभी टीवी वाले कमरे में दाखिल हुए दो कार्यकर्ता और टीवी को कोने वाले बटन को पकडक़र मरोड़ दिया। इससे पहले कि कोई कुछ कह पाता फरमान सुनाया गया। कस्तवारिन चल बसीं। लोगों का अंदेशा सच में तब्दील हो गया। पता नहीं क्यों कस्वारिन राजकुमार फिल्म का ही इंतजार कर रही थी। लेकिन उस बेचारी का क्या दोष, वो न मरती तो देश में कोई और मरता। चंद्रकांता के दौरान तो मरे भी थे न वो जो झंडा झुकाऊ। - वरुण के सखाजी

Saturday, August 4, 2012

करिए करिए शाहा ब्यारी..एक आध्यात्मिक आनंद

नर्मदा का रेतीला मैदान, तो कई बार ऊंची घाटी को छूते पल्लड़। यानी कभी गर्मी में तो कभी भारी बारिश तो कभी ठंड की सिहरन में भी मल मास पड़ा। पर महिलाओं में इतना जोश को सुबह 4 बजे से नर्मदा के एक महीने तक लगातार स्नान करतीं। फिर पूजन और एक बहुत ही खूबसूरत भजन गीत: करिए करिए शाहा ब्यारी, जी महाराजा अवध विहारी, इतनी सुन मैया जानकी जी बोली कहा बनी तरकारी। कहने को यह भजन था, लेकिन अध्यात्म के गहरे मंथन सा आनंद इसमें आता। नर्मदा में ठिठुरते हुए स्नान फिर बीच में भगवान की मूर्ति और फिर यह गीत। हम लोग ज्यादा नहीं समझते थे। गांवों में मनोरंजन के साधन भी कम होते हैं,
इसलिए ही सही। मगर सब दोस्त टोली बनाकर इस आनंद में शरीख होते जरूर थे। कालांतर प्रकारांतर में पता चला कि यह एक धार्मिक विधि है। सभी महिलाएं मल मास (विक्रम संवत में हर तीन साल में एक महीना अतिरिक्त होता है। इसे ही मल मास या पुरुषोत्तम मास कहा जाता है) या कार्तिक मास में ब्रह्म मुहूर्त की गोधुली बेला में स्नान कर शायद पाप धोना चाहती होंगी, मगर मेरे लिए तो सिर्फ इस गीत का सुमधुर गीतात्मक आनंद जरुरी था। बचपन बीता कुछ चीजों की समझ बढ़ी। तब सालों बाद गांव पहुंचे तो देखा पहले मल मास के स्नान के लिए सुबह से ही महिलाएं घरों घर बुलौआ सा देती हुई जाती थी। यह बुलौआ महज एक आह्वन नहीं हुआ करता था, बल्कि आत्मिक रूप से माईं, चाची, बड़ी अम्मा, दादी या किसी को उनके गांव के नाम वाली फलां के नाम से पुकारती हुईं चली जाती थीं। यह कोई वंृदावन की कृष्ण भक्ति सा नजारा था, लेकिन जब में इस बार गया तो सबकुछ बदल सा गया था। अगस्त में यह मल मास चल रहा है, महिलाएं अब भी उसी नर्मदा में नहाने जा रहीं हैं। किंतु तरीका बदल गया है। पहले जो पूरा गांव एक होकर धमनी के रास्ते, ऊपर के रास्ते से नर्मदा में इकट्ठा होता था, वह अब सब अपनी-अपनी राह से नर्मदा जा रहा था। कोई किसी को नहीं बुलाता, अब बस कुछ झुंड थे। कोई एक जाति के नाम पर तो कोई एक परिवार के नाम पर। इनमें कुछ ऐसे झुंड भी थे, जो मुहल्लों के नाम पर हैं। कुल संख्या में भी कमी आई थी। मेरे लिए यह सब रोमांचक था, चूंकि शहरी परिवेश ने जो दिया सो दिया लेकिन सुबह जल्दी उठने की अच्छी आदत वह हमेशा के लिए लेकर उड़ गया। लेकिन करिए करिए शाहा ब्यारी की एक सुरमयी धुन अभी भी कानों में तैर जाती है, तो एक आध्यात्मिक संगीत मन के भीतर कहीं बज उठता है। निश्चित तौर पर यह एक धार्मिक विधि और पापों से मुक्ति का एक जरिया थी। किंतु यह प्रक्रिया गांवी सहजता, अपने कर्मोंं के साथ ईश्वरीय चिंतन, सबके बीच के प्रेम, उत्सवी भारतीय मानस, को प्रतिबिंबित करती थी। पूरी जिंदगी भले ही सही और गलत के बीच फैसला न कर सके हों, किंतु एक डुबकी इस नाम पर लगाना कि जो कुछ गलत किया उसके लिए माफी अच्छी बात थी। यह उस युगबंधक मनुष्य के मानस पर एक तमाचा भी है, जो यह मानता है कि युग बदला है तो हम सतयुग या अच्छे युग के कैसे हो सकते हैं। एक अलग इंसानी फितरत भी यहां झलकती है कि इंसान चाहे कितना ही आगे पीछे, ऊपर नीचे चला जाए मगर वह अपने गलत कामों को सुधारने की कोशिश करता ही रहेगा। सालों बाद के गांवी गुटों को देखकर तकलीफ होती जरूर है, किंतु यह सोचकर कि इंसान हमेशा सुधरने की कोशिश करता है। इस मामले में भी वह आज नहीं, कल नहीं परसों जरूर अपने मुहल्ला गुटों को खत्म करके एकल गांवी गुट बन सकेंगे। चूंकि इन दिनों मल मास चल रहा है और यह महिलाएं स्नान भी कर ही रहीं है, तो मुमकिन है वे फिर चाची, दादी, बड़ीअम्मा, नन्हेघर की दादी, नैलापुर वाली, कैलकच्छ वाली, भौजी आ जाओ चिल्लाती हुईं नर्मदा जरूर जाएंगी। और मुझे वो गीत सुनने मिलेगा करिए करिए शाहा ब्यारी, जी महाराज अवध विहारी, इतनी सुन मैया जानकी जी बोलीं कहा बनी तराकारी। करिए करिए शाहा ब्यारी... वरुण के सखाजी चीफ रिपोर्टर, दैनिक भास्कर, रायपुर

Friday, July 27, 2012

हास्य के साथ हास्यास्पद बदलाव की आशा

एक वीडियो कॉन्फ्रेंस के दौरान अरविंद केजरीवाल से बात हुई। यह बात करीब अभी से एक साल पुरानी है। यानी पिछले साल जब अन्ना हजारे करप्शन विरोधी मशीन ईजाद कर रहे थे। अरविंद से मैंने पूछा था कि आपके पास ह्युमन चैन क्या है? जिसके जरिए आप देशभर के जन सैलाब को बांधे रखेंगे। एकाध बार तो सही है कि लोग स्वस्फूर्त आ भी जाएंगे। और फिर मीडिया के पास कुछ और रहा तो फिर आप क्या करेंगे।? अरविंद इतने आत्मविश्वस्त थे कि वे कुछ भी विरोधी बात नहीं सुनना चाहते थे। उन्होंने इस प्रश्न को इतना हल्के से लिया और कहा, यह तो लोगों को सोचना है कि वे करप्शन से निपटने के लिए कोई बिल पास करवाने की विल रखते हैं या नहीं। अरविंद की इस बात से मैं सहमत नहीं हुआ। मैंने वीडियो कॉन्फ्रेंस की अपनी मर्यादाओं के बीच तीन बार उनसे इस पर बहस चाही। मगर अरविंद को लगा जैसे मेरे अखबार ने उन्हें यहां अपमानित करने के लिए बुलाया है। तो वह पैर पटककर बोले यह तो मीडिया के कुछ जिम्मेदार लोगों को सोचना होगा, वरुण जी आप इस बारे में नहीं समझ पाएंगे। मेरा प्रश्न पत्रकार के नाते जरूर था, किंतु आम आदमी की छटपटाहट भी था। मैं वास्तव में इस टीम से जुडऩा चाहता था। किंतु मुझे कोई रास्ता ही नहीं दिख रहा था। इससे जुडऩे के लिए टीवी देखना इकलौती शर्त थी, वो भी न्यूज चैनलों की बातें जो वे पूर्वाग्रस्त से भी कह सकते थे। उस दौर का मेरा मानस था कि देश, राष्ट्र अगर रिएक्ट कर रहा है, यह नहीं कि वह लोकपाल के लिए लड़ रहा है। बस रिएक्ट कर रहा है, तो अच्छा अवसर है हमें भी समाज में आगे आना चाहिए। मन मानस सब तैयार था कि कैसे भी इस महा आंदोलन में कूदेंगे। चाहे नौकरी जाए, चाहे घर, चाहे परिवार। देशप्रेम या यूं कहिए एक सोशल कंर्सन इतना बलवान हुआ। किंतु अरविंद की बेहूदा इस बात ने झल्ला दिया। मैं यह नहीं कहता कि मैं कूद ही जाता, किंतु कूद जरूर जाता। अगर अरविंद या अन्ना थोड़े भी प्रैक्टिकल होते। भीड़ के बूते आगे बढ़े लोगों को आखिरकार चाहिए तो भीड़ ही होती है। मैं नहीं गया उल्टा मुझे कोफ्त सी भी हुई कि यह क्या व्यवस्था बदलने की बात कर रहे हैं, वो भी इतने अव्यवस्थित तरीके से। इस विंडबना ने मुझे इस आंदोलन से दूर किया और यह भी मैं दावे से कहता हूं कि मेरे जैसे लाखों लोगों को आंदोलन ने ऐसी ही गैर जिम्मेदाराना बातों से दूर किया है। अब जब बाबा रामदेव उर्फ राजनीतिज्ञ योगासन गुरु यह कह रहे हैं, कि लोकतंत्र में अपनी बात मनवाने के लिए कम से कम 1 फीसदी लोग तो साथ हों। तो गलत नहीं कह रहे। सच है ऐसे तो यह पर्सनल आंदोलन हो गया। और रहा अनशन का तो यह लोकतंत्र में गरिमापूर्ण स्थान रखता है, लेकिन कल, परसो, शाक भाजी जैसा अनशन हो गया तो क्या होगा। यह अभी भी मौका है अन्ना को थिंक टैंकों की शरण में होना चाहिए। वे इसे फिर से बनाकर निश्चित ही प्रासंगिक, सांदर्भिक और कार्यरूपित आंदोलन की शक्ल में ढाल सकेंगे। अन्ना को मेरा खुला निमंत्रण है अगर चाहें तो मुझसे बात कर सकते हैं। इसी हास्य के साथ गंभीर बात पर हास्ययुक्त तरीके से बदलाव की अति हास्यास्पद आशा के साथ। वरुण।

Sunday, July 22, 2012

पंचायत मतलब सबकुछ गलत क्यों?

कभी फरमानों तो कभी बेजा शोषण के अरमानों के लिए खाप पंतायतें अपने पाप के साथ चर्चाओं में रहती हैं। इसे लोकतंत्र का चरम कहिए या फिर अतिश्योक्ति। या यूं भी कह सकते हैं कि यह मौजूदा यूनिफॉर्म सिस्टम के खिलाफ एक अजीब सी आवाज भी है। हम यह भी जानते हैं कि गांधी के ग्राम सुराज की परिकल्पना इन्हीं पंचायतों की सीढ़ी से साकार हो सकती है। मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में इन्हीं पंचायतों की गरिमा और गर्व की बात की जाती है। इन्हीं पंचायतों में मानव के स्वभावगत व्यवस्थापन की कल्पना भी की जाती रही है। लेकिन अफसोस कि अब खापें खंडहर होकर भी भूतिया सोच और फरमानों की एशगाह सी बन गईं हैं। हमारे गांव मेंं किसी दौर में एक ऐसी ही पंचायत हुआ करती थी। नजदीकी गांव तक से लोग इस पंचायत में जमीनी विवाद से लेकर हर उस बात के लिए आते थे, जो कि यहां सच्चे न्याय के लिए संभावित नजर आती। सालों इस पंचायत ने न्याय दिया। मुझे याद है 1993 में एक बड़े किसान के हलवाए (नौकर) को उसके ही रिश्तेदारों ने लठ से मार-मारकर अधमरा कर दिया था। यह घटना बिल्कुल गुपचुप तरीके से हुई। हलवाए को मरा मानकर मारने वाले घर आ गए। लेकिन दूसरे दिन जब हलवाए की खोज की गई तो वह खेत में मरणासन्न मिला। पुलिस को बुलाने जैसी बातें भी की गईं। साथ ही गांव की यही पंचायत भी सक्रिय हो गई। सक्रिय इसलिए नहीं कि कोई उलूल-जुलूल फरमान जारी करेगी। सक्रिय इसलिए भी नहीं कि पुलिस के दखल को कम करेगी। और सक्रिय इसलिए भी नहीं हुई कि पंचायत तय कर दे कि कौन हत्यारा है। पंचायत के लोगों ने एक राज्य की व्यवस्था की तरह आनन-फानन में पंचों को बुलाया। पूरे गांव के लोग जमा हुए। एक संसद सा माहौल। एक ऐसी संसद जहां पर प्रतिनिधि चुना नहीं, उसका राज्य में पैदा होना ही चुने जाने के बराबर है। हर कोई खुलकर इस पंचायत में बात कर सकता था। पंचायत का मुख्य विचार यही निकला कि यह महज एक हलवाए की हत्या के प्रयास का मामला नहीं, बल्कि गांव की शांति का भी मसला है। पंचों ने इस मौके पर बहुत ही संजीदा और जिम्मेदाराना रुख अपनाया। पंचायत ने पुलिस को पड़ताल में साथ देने के लिए युवाओं की टोली बनाई। बुजुर्गों ने अपने अनुभवों को सांझा किया। यहां पर न तो रॉ जैसी जासूस एजेंसी थी, न सीबीआई जैसी जांच एजेंसी। मगर इस पंचायत ने ऐसे किया जैसे एक राज्य में कोई सरकार करती। पुलिस के साथ मिलकर पूरे गांव ने एक सप्ताह के भीतर हत्यारों की गतिविधियों को पकड़ लिया। मरणासन्न हलवाया बयान देता इससे पहले ही अपराधी हिरासत में थे। यह कहानी कहने का मतलब महज इतना है कि गांवों की यह पंचायतें खाप नहीं हैं। न ही यह ऐसी हैं जिनके वजूद को खत्म कर दिया जाए। अच्छा होगा कि इनके बारे में नकारात्मक राय फैलाने की बजाए इन्हें नैतिकता और प्राकृतिक न्याय के प्रति उन्मुख किया जाए। और गांधी के ग्राम सुराज की परिकल्पना को साकार बनाया जाए। वरुण के सखाजी

Tuesday, July 10, 2012

फिल्म एक था टाइगर में आईएसआई और रॉ की तुलना गलत

सलमान खान की नई फिल्म एक था टाइगर पाकिस्तान में आईएसआई के नाम को इस्तेमाल करने पर बैन हो गई है। दूर से जरूर ऐसा लगता है कि यह पाकिस्तान का हठवादी फैसला है, किंतु जरा करीब जाइए तो लगेगा वास्तव में ऐसा ही फैसला तो भारत को भी लेना चाहिए। यह कैसी बात है कि पाकिस्तान की आईएसआई और भारत की रॉ को एक ही जैसा मान लिया गया और किसी को एतराज तक नहीं हुआ। फिल्म के ट्रेलर में एक वाइस ओवर में कहा गया है पिछल 65 सालों में भारत पाकिस्तान के बीच 4 जंगों हो चुकी हैं, और इनके नतीजे भी सभी को पता हैं। किंतु पाकिस्तान की आईएसआई और भारत की रॉ ऐसी एजेंसियां हैं तो हर घंटे जंगों लड़ा करती हैं। इस बात पर भारत सरकार को कड़ा ऐतराज होना चाहिए। दरअसल फिल्म का यह डायलॉग साबित करता है कि भारत की रॉ एजेंसी भी आईएसआई की तरह ही आतंकवाद को बढ़ावा देने में मदद करती है। रॉ जैसी प्रतिष्ठित स्वरक्षा के लिए जासूसी करने वाली एजेंसी पर यह आरोप सरासर गलत कहने वाले भारत में ही ऐसी फिल्में चालाकी से ऐसा कर जाती हैं। सलमान खान उत्साहित फिल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं। भीड़ इकट्ठा करने के लिए माने जाते हैं, एक अच्छे कलाकार हैं। किंतु चुपके से इस तरह का इंजेक्शन भारतीय मानुष में लगा देना बिल्कुल ही गलत है। इस बात पर जंू तक नहीं रेंगा लोगों के सिर पर, कि फिल्म ने कितनी ही चालाकी से यह साबित कर दिया कि रॉ और आईएसआई में कोई फर्क नहीं। आईएसआई मुल्ला परस्ती के साये में आतंक और सिर्फ भारत के खिलाफ आतंक फैलाने में सहायक होती है। यह बात कई आतंकियों के पकड़े जाने के बाद अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म पर भी साबित हो चुकी है। किंतु रॉ के बारे में पाकिस्तान ऐसे कई मिथ्या प्रयास कर चुका है, साबित नहीं कर पाया। एक अदद फिल्म ऐसा कहकर करने जा रही है और हम हैं कि चुप बैठे हैं। - वरुण के सखाजी

Tuesday, July 3, 2012

बचपन: वक्त का खूबसूरत कोना

बालमन की सुलभ इच्छाएं बड़ी आनंद दायक होती हैं। कई बार सोचते-सोचते हम वक्त के उस कोने तक पहुंच जाते हैं, जहां हम कभी सालों पहले रचे, बसे और रहे होते हैं। जिंदगी जैसे अपनी रफ्तार पकड़ती जाती है, हम उतने ही व्यवहारिक और यथार्थवादी होते जाते हैं। किंतु यह यथार्थ हमसे कल्पनाई संसार की रंगत ले उड़ता है। वह कल्पनाई संसार जो अनुभवों की गठरी होता है, सुखद एहसासों के आंगन में मंजरी होता है, हल्की सहसा आई मुस्कान की वजह होता है। इस कल्पनाई संसार से दूर जाकर हम देश, दुनिया की कई बातें सीखते, समझते और जानते हैं। किंतु जब बचपन की यह खोई, बुझी, बिसरी और स्थायी सी सुखद यादें दिमाग में ढोल बजाती हैं, तो मन भंगड़ा करने लग जाता है। यादों की धुन पर मन मस्ती में डूब गया, जब 20 साल पुरानी चिल्ड्रन फेवरेट लिस्ट पर चर्चा शुरू हुई। किस तरह से एक अदद स्वाद की गोली के लिए तरसते थे, किस तरह से हाजमोला कैंडी के विज्ञापन को देख मन मसोस कर बैठ जाते थे, कैसे स्कूल के रास्ते में पडऩे वाली दुकानों पर लटके पार्ले-जी के विज्ञापन को देख मन डोल उठता था। सोचने लगते कि वह बच्चा कितना लकी है जो इस बिस्किट के पैकेट पर छपा रहता था, जब चाहे बिस्किट खाता होगा। खूब खाता होगा, मम्मी तो उसे कभी मना करती नहीं होगी, फोटो तक उसका खिंचवाया है। बालमन यहां तक इच्छा कर बैठता कि काश मेरे घर बैल गाड़ी में ऊपर तक भरकर बिस्किट आएं। और ऐसा नहीं कि यह इच्छा मर गई हो, वह इमेज भी आज जेहन में जस की तस है, जब इस बात की कल्पना की गई थी। मेरा घर, उसमें खड़ी लकड़ी की बैल गाड़ी, उसमें लदे फसल के स्थान पर बिस्किट, हरेक बिस्किट में दिख रहा है वही गोरा-नारा हिप्पीकट बच्चा। इस बात की कल्पना कोयल जब भी मन के किसी कोने से कूकती है तो यादों का बियावां खग संगीत पर और जवां हो जाता है। वो मध्यप्रदेश राज्य परिवहन निगम की बसों के पीछे बना एक सुंदर सा बच्चा और हाथ में लिए स्वाद की गोली। वाह मजा आ जाता। जब उसे देखता और उसके चेहरे की परिकल्पना करते कि वह कितना लकी है जिसके हाथ में स्वाद की गोली है, वो भी जब वह चाहे तब। स्वाद के प्रति क्रेज ऐसा रहा कि टीवी पर जब एड आता स्वाद-स्वाद और एक व्यक्ति आसमान से स्वाद की गोलियां फेंकता तो लगता था जैसे अब गिरी या कब गिरी मेरे आंगन में। बालमन की कल्पनाएं यहीं नहीं थमतीं वह मीठे पान पर भी खूब मुज्ध होता है। मीठे पान में डलने वाले लाल-लाल पदार्थ को क्या कहते हैं आज भी नहीं मालूम, मगर हम लोग उसे हेमामालिनी कहते थे। लोग इसमें मीठे पेस्ट की ट्यूब डालकर उसे धर्मेंद्र कहते थे। तब तो नहीं, लेकिन आज लगता है धर्मेंद्र और हेमामालिनी का मीठे पान की दुनिया में अद्भुत योगदान रहा है। बालमन एक और कुलांचे भरता है। बातों ही बातों में शरारतें भी जवां होने लगती हैं। इनमें छुप-छुपकर कंचा खेलने, स्कूल में आधी छुट्टी के बाद न जाने, चौक चौराहों पर बैठकर बड़ों की बातें सुनने जैसी बातों पर लगे प्रतिबंध आज के अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंधों जैसे विषय हुआ करते थे। बालमन की कल्पनाएं उस वक्त और अंगड़ाई लेने लगती हैं, जब बीसों साल पुराने किसी खाद्य उत्पाद के पैकेट्स कहीं मिल जाएं। कहीं बात छिड़े तो यूपी, बिहार, गुजरात, की सीमाओं से परे होकर कॉमन इच्छाएं, कठिनाइयां, कमजोरियां, चोरियां, शरारतें और मन को आह्लादित करने वाली खुशियां मिलने लग जाती हैं। इस अद्भुत बचपन के सफर को संभालकर रखने की जिम्मेदारी अपने दिमाग की किसी स्टोरेज ब्रांच को दे दीजिए, वरना सोने जैसी मंहगी होती मेमोरी में स्पेस नहीं बचेगा इन खूबसूरत एवर स्माइल स्वीट मेमोरीज को सहजेने के लिए। चूंकि संसार में घटनाएं बहुत बढ़ गईं हैं। रोजी के जरिए आपका दिमागी ध्यान ज्यादा चाह रहे हैं, ऐसे में दिमाग के पास हर घटना के डाटा रखने की जिम्मेदारी है, तब फिर कहां रखेंगे इन बाल चित्रों जैसे स्माइली इवेंट्स को। वरुण के. सखाजी

Thursday, June 21, 2012

प्रोफेशन की आंधी में इंसानी भार न खो दें

प्रोफेशन की आंधी में इंसानी भार न खो दें अपने जूनियर्स के प्रति आपका नजरिया कूटनीतिक से ज्यादा ईमानदारी भरा हो यह जरूरी है। कूटनीति भी कंपनी के कुछ हितों के लिए जरूरी है। किंतु ईमानदारी की कीमत पर कतई नहीं। चूंकि आपका जूनियर आपसे ही सीखता है। अगर हम अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के चलते जूनियर के लिए नकारात्मक रहेंगे तो संभव है कि हम अपना इंसानी वजन तो खो ही रहे हैं, साथ ही कंपनी को भी एक खुराफाती ब्रेन दे रहे हैं। कई फैसले, जिनमें जूनियर यह अपेक्षा करता है कि इसमें रिस्क फैक्टर है तो निर्णय आप लें और उसे अमल करने को कहें। तो हमें ही साफ कर देना चाहिए कि यह करना है या नहीं करना है। खासकर तब, जबकि वह फैसला हम भी स्वयं लेने में डर रहे हों। कहीं कोई ऐसी बात न हो जाए, जो कंपनी की पॉलिसी के विपरीत हो। ऐसी स्थिति में जिम्मदारी और साहस की बड़ी जरूरत होती है। और ऐसा तभी हो सकता है, जब हम सिर्फ और सिर्फ काम के प्रति सजग, समर्थ, बहादुर और जिम्मेदार होंगे। कंपनियों के मुख्य काम के अलावा भी कई जिम्मेदारियां सीनीयर्स के कंधों पर होती हैं, ऐसे में मुमकिन है कि हम लगातार कूटनीतिक होते चले जाएं। किंतु इन सब पेशेवराना तंग दर्रो से भी होकर हमें अपने आपको बेहद साफ सुथरा और खासकर ईमानदार बने रहना होगा। दरअसल यह बात जेहन में उस वक्त आई, जब गांव के बहुत धनाड्य रहे परिवार के अंतिम सदस्य की बड़ी गुरवत में दम तोडऩे की खबर सुनी। दुनिया से जाने के बाद उनके बारे में जो ख्याल आया वह बड़ा नकारात्मक था। दिमाग के सिनेमा हॉल में उनके जीवन की डॉक्यूमेंट्री चलने लगी। वे बड़े सेठ हुआ करते थे। इस समय उन पर कई व्यावसायिक जिम्मेदारियां थीं। वे अपने कर्मचारियों के प्रति ऐसा रवैया रखते थे, कि अगर कल को बड़े सेठ नाराज हुए तो वे गोलमोल कुछ ऐसा कह सकें कि ठीकरा कर्मचारी पर फूट जाए। जब भी उनसे किसी बड़े फैसले के लिए पूछा जाता तो वे कोई ऐसी बात करते कि वह घूम फिरकर पूछने वाले की ही जिम्मेदारी रह जाए। ऐसे में कई कर्मचारी परेशान भी रहते थे। किंतु वह कुछ बोल नहीं सकते थे। यह बात इतनी शातिर तरीके से वे करते थे कि लोग समझ ही नहीं पाते। लेकिन जब उन सेठ के यहां से कर्मचारी दूसरी जगह काम पर गए तो उन्हें कहने के लिए एक भी काम से जुड़ा उदाहरण नहीं मिला। नई जगह पर भी उनके काम में यही डर रहा कि हमारा बॉस कोई भी बात हमपर ही ढालेगा। छोटे सेठ इस बात की लंबे समय तक ताल भी ठोकते रहे। आज जब नव पेशेवर युग शुरू हुआ तो न उन सेठ जी का पता चला और वैसे कर्मचारियों का। असली में उदारवाद के बाद तेजी से देश में नव पेशेवर युग जो शुरू हुआ है, तो कोई भी ऐसी कंपनियां, लोग, संस्थाएं या विचार आगे नहीं बढ़ पा रहे, जो स्पष्ट और ईमानदार न हों। यह नकारात्मक विचार होता है कि झूठ जीत रहा है, बल्कि मुझे तो कई बार लगता है कि सतयुग आ रहा है। ऐसे लोग इतनी तेजी से रिप्लेस हो रहे हैं, कि अगले 6-8 सालों में पेंशनर्स हो जाएंगे। वक्त ने हमेशा अपने साथ बदलने वालों को ही साथ में लिया है, जो नहीं बदले वे दूर कहीं पीछे रह गए हैं। गोलमोल बात, अस्पष्ट विचार, सोले के सिक्के (दोनों तरफ एक से, सिर्फ भ्रम भर रहे कि दो पहलू होंगे) जैसे गैर इंसानी भार के लोग अगले दशक तक अल्प संख्यक हो जाएंगे। वरुण के सखाजी

Monday, June 18, 2012

प्रणब ने टेंटुआ दबाया था पत्रकारों का

प्रणब ने टेंटुआ दबाया था पत्रकारों का भारत की बदकिस्मती कहिए या फिर जनाब इसे अंधापन भयानक रोग। जिन प्रणब के हाथों देश के प्रथम पुरुष की कमान आने को है वह जरा देखें तो क्या कर रहे थे इनरजेंसी के दौरान। शाह कमिशन में प्रणब को अपात काल में सर्वाधिक मीडिया पर अत्याचार का दोषी पाया गया था। इस रिपोर्ट को देश की कई लाइब्रेरी में भी रखा गया था। किंतु जैसा कि होता है भारत के लोग लंबे अरसे बाद कांग्रेस से परेशान होकर हर किसी को चुन लेते हैं और वह अपने आपको साबित भी नहीं कर पाता। जैसा कि हुआ था जनता पार्टी की सरकार में। और अभी भी। वाह रे एनडीए चुप है। औकात इतनी भी नहीं कि एकाध कैंडीडेट उतार सके। यहां देखिए कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर में भी सबसे ज्यादा लड्डुओं को अपने मुंह में ठूंसे खड़ी है। मैं कह रहा था प्रणब के खिलाफ केस भी दर्ज हुआ और इस रिपोर्ट के आधार पर उन्हें दोषी माना गया। किंत इंदिरा ने अपनी सरकार आते ही सारे केस वापस ले लिए। प्रणब ये वही शख्स हैं, जिन्होंने पत्रकारों का तो जैसे गला दवा रखा था। और न जाने कितनों को जेल में ठूंस दिया और बाद में कुछ छुट्टुओं को तो मरवाया भी था। और आज वह राष्ट्रपति की गरिमा को सुशोभित करेंगे। वहीं यह वही प्रणब हैं जिन्होंने सभी लाइब्रेरी से इस शाह कमिशन की रिपोर्ट को जला देने के लिए कहा था। अभी इसकी इकलौती रिपोर्ट एक ऑस्ट्रेलियन लाइब्रेरी में रखी हुई है।

Friday, March 30, 2012

नूर नासूर बन गया

लड़कियों का नूर नासूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
काम आता नहीं, मेल चेक करना तक
कतार में हैं बॉस से अदने चाकर तक
सैलरी उठातीं इन बालाओं का सुरूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
टाइम जो जी में आया आ गईं
लंच हुआ तो पेल-पेल के खा गईं
आंसुओं को कह ही रखा है
लगे तुम्हे जरा भी ठेस चले आना
चश्में से झांकती आंखों का गुरूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
लिपस्टिक्स, लाली, गुलाली, फाउंडेशन
चूड़ी कंगन, बेंदी, वॉव, सरप्राइज में मुंह खुला
शैंपू, साड़ी, चप्पल, रंग, रोगन
परफ्यू सा बातों में घुला
काम कहां, किसे करना है
बॉस टैंपरेरी झूठा ही सही हुजूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
खैर है सरकारी, जहां यह तो नहीं हैं
मगर स्वेटर न जाने कितनी बुनी हैं
ऊन के भाव बैठ वित्त विभाग में बताएं
डंडे के पीले कलर पर पुलिस में आपत्ति जताएं
लाल कर दो प्यार होगा,
काम होगा, मुजरिमों का दीदार होगा
वुमन हरासमेंट सेल में सुबकना जरूर बन गया
हर दफ्तरान का यह दस्तूर बन गया
- सखाजी

Wednesday, February 22, 2012

Not news

संस्कृति विभाग के राहुल सिंह जी ने पिछले दिनों एक घटना पर ध्यानाकर्षित करवाया। एक कोई दबी कुचली सी लेखिका हैं लक्ष्मी शरथ। इन्होंने छत्तीसगढ़ की महिलाओं के छत्तीस पति होने जैसी टिप्पणी अपने एक लेख में की है। और इसे एक कहानी के रूप में चटखारे लेकर बतलाया है, जिसमें एक कोई टोप्पो और दूसरा कोई मुमताज आपस में चर्चा कर रहे थे। इसके बाद से जब मैंने इस लेखिका से बात की तो यह बड़ी बदमिजाज निकली। इतना ही नहीं डरी हुई भी निकली। अब यह कह रही है कि मुझे तो पर्यटन वालों ने बुलाया था। इस इश्यू को मैं मीडिया में नहीं लाना चाहता। चूंकि इससे होगा सो होगा किंतु इस दबी कुचली लेखिका को जरूर एकाध पहचान मिल जाएगी।
क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो बिना मीडिया में आए इसके खिलाफ केस दर्ज करवाए? और शेष मीडिया से भी मेरी अपील है कि वह इस घटना को छापे भी तो इसमें अपनी एक लाइन साफ करते हुए छापे कि हम लेखिका कौन है यह नहीं बताएंगे। इससे विवादों के सहारे संवाद करने वाले गैर जिम्मेदार लोगों की फेहरिश्त बढ़ेगी। अगर कोई ऐसा करना चाहता है तो वह शीघ्र करे।
- सखाजी

Saturday, February 4, 2012

अस्मिता के 19 साल...

चाय की दुकान पर बैठा अखबार पर चर्चा कर रहा लोगों का वो झुंड अचानक उठ कर उस शोर की दिशा में चल देता है...शोर में आवाज़ सुनाई दे रही है, कुछ युवाओं की...अरे क्या कह रहे हैं ये...ये चिल्ला रहे हैं...आओ आओ...नाटक देखो...और फिर देखते ही देखते उस मंझोले शहर के नुक्कड़ पर लोगों का हुजूम इकट्ठा हो जाता है। काले कपड़ों में तैयार वो युवा एक सुर में आवाज़ देते हैं और एक गीत के साथ नाटक शुरु होता है...लोग खूब तालियां बजाते हैं...हंसते हैं...फिर अचानक गंभीर हो जाते हैं...फिर तालियां बजाते हैं...और फिर अचानक से उदास हो उठते हैं...नाटक के अंत में एक धवल केश और दाढ़ी वाला शख्स हाथ जोड़कर लोगों के बीच आ खड़ा होता है...उनसे उस नुक्कड़ नाटक के सरोकारों पर बात करता है, उस के मुद्दों पर बात करता है...उसके बाद शुरु होता है चाय का सिलसिला और लगभग हर शख्स चाहता है कि वो इन बच्चों को चाय नाश्ता कराकर ही जाने दे...
नाटक का अगला सीन पर्दा हटने के साथ शुरु होता है...खचाखच भरे सभागार में कुछ युवा प्रोसीनियम पर एक नाटक कर रहे हैं...दर्शकों में चुप्पी है...चुप्पी टूटती है लेकिन तालियों की आवाज़ों के साथ...कोर्ट मार्शल के उस दृश्य में विकॉश राय बने बजरंग बली सिंह कैप्टेन बी डी कपूर बने शिव कपूर से जिरह कर रहे हैं...सन्नाटा तालियों की गूंज में बदल जाता है...लेकिन अगले ही क्षण जब नाटक की शुरुआत से चुप...बिल्कुल निस्तब्ध बैठे वीरेन बसोया अदालत के कटघरे में फूट फूट कर रो रहे होते हैं...तो लोग चुप होते हैं, बिल्कुल निशब्द...स्तब्ध और आक्रोशित...नाटक खत्म होते ही वो सफेद दाढ़ी और बालों वाला शख्स फिर से मंच पर आता है, और उस भद्र भीड़ से भी उस नाटक के सरोकारों पर बात करता है...लेकिन इस बार एक बदलाव और है, इस नाटक में कुछ पात्र वो किशोर-किशोरियां भी निभा रहे हैं, जो उस नुक्कड़ नाटक के दर्शक थे...
ये कमाल पूरी तरह से एक आदमी के नाम लिखा है...अरविंद गौड़, और काले कपड़ों से रंगीन रोशनियों तक ये है उनका रंगमंडल...अस्मिता।
दरअसल ये दो तस्वीरें हैं जो अस्मिता के उन दो चेहरों को जोड़ती हैं, जो देश के उन दो हिस्सों को जोड़ती हैं, जिन्हें हम इंडिया और भारत कहते हैं। नुक्कड़ नाटक के दर्शक और प्रोसीनियम के दर्शक दोनो ही उद्वेलित हो रहे हैं, एक अपने अधिकारों के लिए जाग रहे हैं, तो दूसरे अपने रवैये के लिए शर्मिंदा हो रहे हैं। दरअसल ये ही कमाल है अरविंद गौड़ नाम के उस शख्स का जिसके लिए साधारण बने रहना सबसे असाधारण कमाल है, ये ही सादगी उनकी भी आभा पिछले तीन दशकों से बढ़ा रही है, और इसी आभा से अस्मिता को चमकते 19 साल हो गए हैं।
जी हां...अस्मिता अपने 19 साल पूरे कर रहा है, अस्मिता 20 वें साल में प्रवेश कर रहा है और साथ ही 2 दशक की यात्रा तय कर आज भी जारी है प्रतिरोध के थिएटर का ये सफ़र। एक अभिनव प्रयोग अस्मिता, जो कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के साथ रामलीला मैदान में हज़ारों लोग जुटा लाता है तो कभी इरोम शर्मिला के साथ जंतर मंतर पर एक काले कानून के खिलाफ आवाज़ उठाता खड़ा होता है। कभी ये गांधी और अम्बेडकर के बीच के रिश्ते को समझने की कोशिश करता करता, वर्ण व्यवस्था की जड़ पर कुदाल चला देता है तो कभी जिन्नाह की रूह को ज़िंदा कर अपने सिर पर इनाम रखवाता है पर झुकना स्वीकार नहीं करता। अस्मिता के ये 20 साल उतार-चढ़ाव से भरे रहे तकनीक से लेकर अभिनेताओं तक सब कुछ बदला लेकिन कुछ नहीं बदला है तो वो है अरविंद गौड़ की जिजीविषा, प्रतिरोध की शैली और अस्मिता की मुखरता।
अस्मिता की बात करते वक्त तमाम और लोगों की तरह मैं गिनवा सकता हूं कि यहां से कौन कौन से अभिनेता निकल कर बॉलीवुड में नाम बन गए हैं लेकिन थिएटर से इतर भी दरअसल अस्मिता की अपनी एक अलग दुनिया है। ये एक अद्भुत परिवार है, जिसमें न जाने कितने सदस्य हैं। 60 से ज़्यादा वर्तमान अभिनेताओं के साथ (जिनमें से ज़्यादातर युवा हैं और 25 साल से कम उम्र के हैं) ये अलग ही घर है। एक घर जहां लगभग हर चौथे दिन किसी का जन्मदिन होता है और हर जन्मदिन पर एक उत्सव। एक ऐसा परिवार जो एक दूसरे के लिए तो दिन रात खड़ा ही है, दूसरों की मदद के लिए भी सबसे आगे है। रामलीला मैदान में आपको याद होगा अस्मिता के काले कपड़े वाले बच्चों का जज़्बा। न जाने कितनी बार मैंने देखा कि अस्मिता के सदस्य कभी किसी की मदद के लिए रक्तदान करने तो कभी किसी मोहल्ले-बस्ती की सफाई में श्रमदान करने निकल पड़ते हैं। एक एसएमएस एक-एक मोबाइल से न जाने कहां कहां पहुंच जाता है। दिल्ली की ये सड़के उन रातों को जूतों के निशानों को अपने ज़ेहन से मिटा नहीं पाई हैं, जब अरविंद गौड़ को इसी दिल्ली ने नाटक करने से प्रतिबंधित कर दिया था। अरविंद गौड़ उस दौर में हर रात मंडी हाउस से शाहदरा अपने घर तक पैदल जाया करते थे और शायद वो ही न झुकने की ज़िद उनके अंदर आज भी कूट कूट कर भरी है...
अरविंद गौड़...और अस्मिता को न जाने कितने साल से सिर्फ चाय और पारले जी के सहारे दिन रात मेहनत करते देख रहा हूं। हो सकता है कि हम में से कई अस्मिता के कलाकारों के अभिनय पर सवाल उठा दें। उनके कम उम्र और कम अनुभव पर सवाल उठा दें...लेकिन अरविंद गौड़ का थिएटर जो सवाल उठा रहा, क्या उनके जवाब हम देने को तैयार हैं? क्या हम इस योगदान को नकार सकते हैं कि देश और समाज के बारे में शून्य समझ रखने वाली एक पूरी पीढ़ी के न जाने कितने युवाओं के दिमाग अरविंद गौड़ बदल चुके हैं। थिएटर के ज़रिए किस कदर सोशल चेंज हो सकता है, ये अरविंद गौड़ और अस्मिता से हम लम्बे समय तक सीख सकते हैं।
हर बार जब अस्मिता जाता हूं, इन जोशीले नौजवान साथियों से मिलता हूं तो कई बार डर लगता है कि कहीं पूंजीवाद की आंधी और इंडिया की शाइनिंग किसी रोज़ अरविंद गौड़ और अस्मिता को न बदल दे। लेकिन तभी रिहर्सल्स के बाद अरविंद जी को साहित्यकार लक्ष्मण राव जी (लक्ष्मण राव के बिना अस्मिता की कहानी अधूरी है...)की चाय की दुकान पर ज़मीन पर ही बैठा देखता हूं, और हाथ से इशारा कर मुझे बुलाते हैं...तो लगता है कि नहीं उम्मीदें अभी बाकी हैं और उम्मीदों को बाकी रहना ही होगा...दिल्ली के आईटीओ पर हिंदी भवन के बाहर बैठा मैं सोच रहा हूं कि काश देश में ऐसे 10 अस्मिता होते, तो क्या हो सकता था...काश अरविंद जी हमेशा ऐसे ही रहें...और अस्मिता भी...बचा रहे बुर्जुआ से और बाज़ार से...अरविंद जी आप सुन रहे हैं न...
(अस्मिता के 20वें साल में प्रवेश के मौके पर कुछ सशक्त प्रस्तुतियां दिल्ली में हो रही हैं...जिस कड़ी में 4 फरवरी को शाम 7 बजे दिल्ली के श्रीराम सेंटर में कोर्ट मार्शल, 12 फरवरी को मयूर विहार में बुज़ुर्गों के लिए अम्बेडकर और गांधी की विशेष प्रस्तुति दोपहर 3 बजे, श्रीराम सेंटर में ही 18 फरवरी को शाम 7 बजे एक मामूली आदमी, 19 फरवरी को दोपहर 3 बजे श्रीराम सेंटर में मोटेराम का सत्याग्रह और 19 फरवरी को ही शाम 7 बजे अम्बेडकर और गांधी का श्रीम सेंटर में मंचन होगा...देखिए कि आप इनमें से किसमें आकर इस दो दशक के जश्न में शामिल हो सकते हैं...)

(नोट - यह किसी तरह का पी आर का लेख नहीं है...लेखक का अपना मत है...आपके मत भिन्न हो सकते हैं...)

मयंक सक्सेना

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