एक क्लिक यहां भी...
Tuesday, September 4, 2012
सबका मनपसंद फॉर्मूला समस्याओं का हल इसी पल
अन्याय के खिलाफ हर जेहन में आवाज होती है। उस दिमाग में तक जो खुद कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में अन्याय का सहभागी पात्र होता है। यह मानवीय स्वभाव है। लंबे अरसे तक जब सत्य और असत्य के सवालों को अनसुना किया जाता है, तो वह उठना बंद नहीं करते किंतु अपनी केपिसिटी खो देते हैं। दिमाग के संसारी और भारी कोलाहल के बीच वह सुनाई नहीं देते। लेकिन जिनके दिमागों में यह प्रश्न रह-रहकर उठते रहते हैं, उन्हें चाहिए तत्काल रेमेडी।
फिल्मों की सफलता उसकी आय है तो सौ करोड़ क्लब की फिल्मे सदी की बैंचमार्क फिल्में हैं। और इनका फिल्मी फॉर्मूला एक ही है हीरो कालजयी हो। सुपरमैन हो। शक्तिमान हो और किसी भी हाल में हारे नहीं। इसीलिए शायद लोगों को ज्यादा सीधापन भी भाता नहीं। अन्याय के खिलाफ हर जेहन में आवाज होती है। उस दिमाग में तक जो खुद कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में अन्याय का सहभागी पात्र होता है। यह मानवीय स्वभाव है। लंबे अरसे तक जब सत्य और असत्य के सवालों को अनसुना किया जाता है, तो वह उठना बंद नहीं करते किंतु अपनी केपिसिटी खो देते हैं। दिमाग के संसारी और भारी कोलाहल के बीच वह सुनाई नहीं देते। लेकिन जिनके दिमागों में यह प्रश्न रह-रहकर उठते रहते हैं, उन्हें चाहिए तत्काल रेमेडी। रेमेडी यानी तुरंत निवारण। इस निवारण के लिए वे छटपटाते नहीं, क्योंकि परिवार, घर, समाज, धन और अन्य मोटे रस्सों से बंधा महसूस करते हुए खुद प्रयत्न नहीं कर पाते। ऐसे में उनकी छटपटाहट एक उद्वेग में तब्दील हो जाती है। इसके लिए वह कोई ऐसी इमेज खोजते हैं, जहां पर उनके मन की इस बात का प्रतिनिधित्व होता हो।
सौ करोड़ क्लब की फिल्मों का मनोविज्ञान इसी बात के इर्दगिर्द घूमता है। बिलेम भले ही सलमान पर लगता हो, किंतु फिल्मी कौशल से यह आमिर खान भी बरास्ता गजनी करते हैं। शाहरुख भी तकनीक के जरिए कुछ ऐसा जौहर दिखाने की भरशक कोशिश कर चुके हैं। अक्षय कुमार को भी राउडी में देखा जा सकता है।
यूं तो हीरो की छवि देवकाल से ही अपराजेय मानी जाती रही है। मगर फिल्म के इस नए संस्करण और कलेवर ने इसे और पुख्ता कर दिया है। दक्षिण में यह और भी अतिरेक के साथ किया जाता है। माना जाता है, कि वहां पर दैनिक जीवन में बस, रेल, पगार, कार्यस्थल, सडक़, बिजली, सरकार और अन्य जरियों से आने वाली छोटी-छोटी नाइंसाफी की पुडिय़ाएं लोगों को नशे में रखती हैं। दिमाग में बनने वाली फिल्मों के जरिए तो वे कई बार दोषी को दुर्दातं मौत दे चुके होते हैं, किंतु वास्तव में यह मुमकिन नहीं होता। पर जब वह चांदी के परदे पर उछल-कूद करके हल्के फुल्के तौर तरीकों से ही दुश्मन को धूल चटाते देखते हैं, तो कुछ हद तक नाइंसाफी की नशे की पुडिय़ा से बाहर निकल पाते हैं। इसी मनोविज्ञान को सौ करोड़ क्लब की फिल्में खूब भुनाती हैं। कई बार हम भी इस बहस के खासे हिस्सा बन जाते हैं, कि इन फिल्मों में अभिनय और कहानी की उपेक्षा होती है। किंतु फिल्में अपने आपमें इतनी जिम्मेदार रहेंगी तो शायद पैसा ही न कमा पाएंगी।
एक्शन प्रियता मनुष्य की सहज बुद्धि है। बचपन में हम लोग भी खेतों या नर्मदा के रेतीले मैदानों में रविवार को दूरदर्शन की फिल्मों के एक्शन सींस किया करते थे। इनमें किसी को मारने वाले सींस के साथ या अली डिस्क्यां संवाद बहुत ही आम था। दोस्तों के बीच एक पटकथा रखी जाती थी। वह पटकथा उतनी ही गंभीर होती थी, जितनी कि आज के दौर में बनने वाली सौ करोड़ क्लब फिल्मों की। यानी जोर किसी का पटकथा पर नहीं, सिर्फ मारधाड़ और कोलाहल पर। सब अपनी भूमिकाएं छीनने से लगते थे। लेकिन इस पूरी मशक्कत में कोई भी अमरीश पुरी नहीं बनता था। इसे हम इंसान की सहज सकारात्मकता के रूप में ले सकते हैं। मारधाड सब करना चाहते थे। देश दुनिया से अन्याय को सब अल्विदा कहना चाहते थे, सब शांत और समृद्ध नौकरी पेशा समाज चाहते थे। मगर एक्शन के जरिए। यानी यह मानव स्वभाव है कि वह बदलाव के लिए सबसे आसान विकल्प के रूप में शारीरिक क्षमताओं से किसी को धराशायी करना ही चुनता है।
एक्शन मानव स्वभाव का हिस्सा है, किंतु यह हिंसा कतई नहीं। सकारात्मक बदलावों के लिए इस्तेमाल की जानी वाली शारीरिक कोशिशें हिंसा नहीं हो सकतीं। यह अंतस में बर्फ बना हुआ गुस्सा है, जिसे जलवायु परिवर्तन का इंतजार था। अब वह पिघलने को है। और इसी मनोशा पर आधारित होती है इन फिल्मों की कहानी। ऐसा कोई इंसान नहीं है जिसे इस तरह की फास्ट रेमेडी पसंद न आती है। सबको समस्याओं का हल, उसी पल का फॉर्मूला प्रभावित करता है, परंतु प्रैक्टिकली ऐसा होता नहीं है, इसलिए कुछ लोग या तो ऐसी फिल्में छोडक़र चले आते हैं, या जाते ही नहीं। मगर अधिकतर लोग कम से कम कल्पना में ही सही नाइंसाफी से निपटने का एक शीघ्रतम दिवा स्वप्न जरूर देखना चाहते हैं।
इसका मतलब तो यह होना चाहिए, कि चॉकलेटी हीरो वाली सॉफ्ट कहानियों पर आधारित कॉलेज के प्रेम की फिल्में बननी ही नहीं चाहिए। तो इसका जवाब मेरे पास नहीं है, किंतु एक्शन फिल्मों में आम आदमी अपने गुस्से को तलाशता है। यही हुआ था, जब देश में अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत लोकपाल को लेकर खाना त्यागकर बैठ गए थे। लोगों में एक हीरो दिखा। मगर उनका हीरो सरकारी तरीकों और सियासी कुचक्रों का सामना नहीं कर पाया। टिमटिमाती लौ के साथ अरविंद कुछ हद तक सलमान खान का एक्शन कर जरूर रहे हैं, किंतु यह भी उस क्रांतिकारी बदलाव की अलख नहीं जगाता, जो कि आम लोग देखना चाहते हैं। वरुण के सखाजी
चीफ रिपोर्टर, दैनिक भास्कर, रायपुर
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment