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Thursday, December 31, 2009

9/9......शर्म/गर्व....2009...

2010 बस चौखट पर ही है, आपको लिए कुछ ऐसे पल ले कर आया हूं जो परस्पर विरोधाभासी थे...कुछ देश के लिए गर्व की वजह बन रहे थे तो कुछ शर्मिंदगी के कारण.....

एक पूरा साल बीत गया....बीत गए 365 दिन...हर दिन देश के लोगों ने देखा कुछ नया....कुछ अनोखा....और कुछ अलग....साल भर तमाम लोग... तमाम वजहों से चर्चा में आते रहे....पर इनमें से सबकी चर्चा एक जैसी नहीं थी....कुछ तो देश के गौरव के प्रतीक बन गए....पर कुछ देश के दामन पर दाग भी लगा गए....आज हम ऐसी ही कुछ कहानियां लेकर आए हैं....जो साल 2009 में देश के गर्व और शर्म की वजह बनती रहीं....

  1. इन शर्म और गर्व दोनों की तारीखें एक ही थी....और वक्त में एक महीने का अंतर.....27 सितम्बर को कश्मीर की रुखसाना अपने घर में घुसे एक आतंकी को मार कर मुल्क का गौरव बन गई....तो ठीक एक महीने बाद अक्टूबर की 27 तारीख को देश और देश की व्यवस्था शर्मसार हो गई...जब माओं वादियों ने पश्चिम बंगाल में पूरी की पूरी ट्रेन बंधक बना ली....शर्म और गर्व का नौवां पायदान....27 तारीख इस साल देश के लिए शर्म और गर्व दोनो का सबब बन गई....जी हां दो अलग अलग महीनों की एक ही तारीख अलग अलग मौके की गवाह बन गई....पहला वाकया है 27 सितम्बर का....उस रात जम्मू कश्मीर के राजौरी की रुखसाना कौसर के घर में कुछ आतंकी घुस आए....रात 10 बजे रुखसाना के घर में ज़बर्दस्ती घुसकर इन आतंकवादियों ने पहले उसके भाई और चाचा पर हमला कर दिया.....और फिर उसे मां बाप को मारना पीटना शुरू कर दिया....रुखसाना ने इस मौके पर वो नहीं किया जो कोई और लड़की करती....न वो रोई...न ही चिल्लाई....और न ही दहशत गर्दों के सामने गिड़गिड़ाई....उसने अपने भाई के साथ कर दिया एक आतंकी पर हमला....घायल आतंकी जब भागने लगा तो रुखसाना ने उस पर उसी की ए के 47 से फायर किया....जिसमें आतंकी मारा गया....बाकी आतंकवादी भाग खड़े हुए....और इस तरह कश्मीर की बेटी बन गई देश का गर्व.....लेकिन जहां सितम्बर की 27 तारीख को रुखसाना ने अकेले दम पर आतंकियों से लोहा लिया....तो अक्टूबर की 27 तारीख को एक राज्य की पूरी व्यवस्था माओवादियों के सामने घुटनों पर दिखी....27 अक्टूबर को राजधानी एक्सप्रेस जब दिल्ली से भुवनेश्वर जा रही थी....तो पश्चिम बंगाल में झारग्राम के पास पूरी रेलगाड़ी को ही माओवादियों ने अगवा कर लिया....माओवादी अपने एक गिरफ्तार नेता को छोड़ने की मांग कर रहे थे.... अपनी तरह की इस पहली घटना ने राज्य में कानून व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिए....हालांकि माओवादी बाद में खुद ही ट्रेन छोड़ कर चले गए....पर ज़ाहिर है कि माओवादियों से निपटने के दावे शर्म में बदल गए....देश ने देखा कि किस तरह एक राज्य की पूरी सुरक्षा व्यवस्था विफल होकर शर्म बन जाती है....तो दूसरी ओर एक अकेली लड़की हाथ में बंदूक लेकर आतंकियों से भिड़ कर गर्व बन जाती है....
  2. शर्म और गर्व के क्षण ऐसे भी थे....जब जिन पर गरिमा संभालने की ज़िम्मेदारी थी वो चूकते नज़र आए....और उन्होंने मान बढ़ाया जिनकी पहचान साधारण थी....लखनऊ की 11 साल की युगरत्ना ने दुनिया भर में देश का मान बढ़ाया....तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शर्म अल शेख में साझा बयान से अकेले शर्मिंदगी उठाई.....ये है शर्म और गर्व का साल का आठवां पल.... शर्म का मौका था शर्म अल शेख में....गुट निरपेक्ष देशों के सम्मेलन का.....जहां पहुंचे थे प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह....और फिर वहां हुई पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसुफ़ रज़ा गिलानी और मनमोहन सिंह की मुलाकात....लेकिन मुंबई हमलों के ज़ख्मों से भी प्रधानमंत्री ने कोई सबक नहीं लिया....और बना दिया शर्म अल शेख को देश की शर्म....वहां जारी हुए भारत और पाक के साझा बयान में भारत ने उस दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर कर दिए....जिसमें भारत पर बलूचिस्तान में अस्थिरता फैलाने का आरोप लगाया गया था.....शर्म अल शेख में देश के प्रधानमंत्री ने देश को शर्मसार कर दिया....तो दूसरी ओर देश को एक छोटी सी बच्ची ने अभूतपूर्व गर्व दिया....लखनऊ की ग्यारह साल की युगरत्ना श्रीवास्तव ने इतिहास रच दिया....युगरत्ना को मिला संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में ग्लोबल वॉर्मिंग पर बोलने का मौका....और युगरत्ना ने वहां बराक ओबामा समेत दुनिया भर के नेताओं को सम्मोहित कर दिया....देश ने देखा कि कैसे देश का प्रतिनिधि शर्म का सबब बना तो एक साधारण बच्ची असाधारण गर्व....
  3. बॉलीवुड दुनिया भर में भारत की एक और विशेष पहचान है....लेकिन इस साल इसकी साख पर एक धब्बा लग गया...और नाम था शाइनी आहूजा....साल भर शाइनी के ज़ख्म बॉलीवुड को सालते रहे....लेकिन दूसरी ओर साल के अंत में महानायक अमिताभ बच्चन ने....पा में अपने अनोखे किरदार और बेजोड़ अभिनय से गर्व बढ़ाया....7वीं शर्म और सातवां गर्व....बॉलीवुड के लिए शर्मिंदगी का ये वो अहसास था जो शायद ने वाले कई सालों में नहीं मिटेगा....फिल्म इंडस्ट्री का एक उभरता हुआ अभिनेता एक ऐसे मामले में फंसा कि जेल जा पहुंचा....और पूरी मुंबई का सर झुक गया....शाइनी आहूजा बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार हुए....शाइनी पर लगाया उनकी ही नौकरानी ने बलात्कार का आरोप....और इन आरोपों का पुष्टि भी हो गई.....शाइनी की इस हरकत ने कर दिया बॉलीवुड समेत देश को शर्मसार....लेकिन दूसरी ओर इसी इंडस्ट्री के एक शख्स ने गौरव पताका भी फहरा दी....और कोई नहीं वो शख्स हैं महानायक अमिताभ बच्चन....अमिताभ ने आर बाल्की की फिल्म पा में प्रोजेरिया से ग्रसित एक बच्चे के किरदार को निभा कर....इतिहास रच दिया....अमिताभ जो उम्र के सातवें दशक में हैं वो इस तरह के किसी किरदार को निभाने वाले दुनिया के अकेले फिल्म अभिनेता हैं.....और तो और उनका अभिनय भी बेजोड़ रहा....अमिताभ ने एक और इतिहास बनाया उन्होंने इस फिल्म में अपने ही बेटे अभिषेक के बेटे का किरदार निभाया....तो एक ओर शाइनी आहूजा की वजह से बॉलीवुड को मिला न मिटने वाला ज़ख्म....तो बिग बी ने दिया बड़ा गौरव....
  4. शर्म और गर्व के इस तराजू पर छठा भार है धर्म का....एक ओर अपने आश्रम...और अपनी साख पर तमाम विवाद झेल कर धर्म की शर्म बन गए....आसाराम बापू....तो दूसरी ओर दुनिया भर में देसी योग के प्रचार मे जुटे स्वामी रामदेव...बढ़ा रहे थे देश का गौरव.....कहते हैं कि धर्म इंसान को सही राह दिखाता है....और उसका माध्यम होता है गुरु...पर तब क्या जब गुरू होने का दावा करने वाले ही राह भटक जाएं....धर्मगुरू खुद ही अधर्म के दलदल में फंस जाएं....इस साल कुछ ऐसा ही हुआ....धर्मगुरू आसाराम बापू मशहूर से विवादित हो गए....उन पर लग गए हत्या के प्रयास से लेकर हेराफेरी तक के आरोप....ये साल आसाराम बापू के लिए अच्छा नहीं रहा....आसाराम बापू का छिंदवाड़ा आश्रम तो पहले ही दो बच्चों की रहस्यमय मौत को लेकर विवादों में था....लेकिन इस साल उन पर देश भर में न केवल तमाम ज़मीनों पर अवैध कब्ज़े के आरोप लगे....बल्कि दिल्ली और अहमदाबाद में हत्या के प्रयास और अपहरम के मुकदमे भी दर्ज हो गए.....तो दूसरी ओर एक बार फिर गर्व का पर्याय बन गए बाबा राम देव....इस विश्वप्रसिद्ध योगगुरू ने हर साल की तरह इस साल भी दुनिया भर में योग शिविर तो आयोजित किए ही....देश की राजनीति पर भी तीखे कटाक्ष किए....और तो और सीएनईबी से विशेष बातचीत में बाबा रामदेव ने एक व्यापक आंदोलन खड़ा करने.....और राजनीति में अपने प्रतिनिधि उतारने की भी लगभग एक घोषणा सी कर दी....इस तरह से एक जहां एक ओर एक धर्मगुरू पर लगे आरोप धर्म को शर्म बना रहे थे....तो दूसरा धर्मगुरू धर्म का असली मतलब समझा रहा था.....
  5. हमारे पांचवें पायदान पर है धर्म बन चुका खेल क्रिकेट....मैं खड़ी हूं उस पिच पर जिसने देश को दुनिया भर में शर्मसार किया....कार्बन मोबाइल श्रृंखला के आखिरी मैच में कोटला की पिच इतनी खराब थी....कि मैच रद्द हो गया....दर्शक खाली हाथ लौटे....तो दूसरी ओर इसी साल भारतीय टीम ने टेस्ट रैंकिंग में पहली बार नम्बर वन बनकर....देश का सर गर्व से ऊंचा कर दिया.....20-20 विश्व विजेता टीम इस बार के 20-20 विश्व कप से शुरुआती दौर में ही बाहर हो गई....तो सचिन ने एक बार फिर क्रिकेट के शीर्ष को छुआ.....लेकिन सबसे बड़ा गर्व का मौका तब आया जब भारतीय टीम टेस्ट इतिहास में पहली बार....टेस्ट रैंकिंग में पहले स्थान पर पहुंची....77 साल में पहली बार आए इस मौके ने भारतीय क्रिकेट और भारत दोनो का सिर फख्र से ऊंचा कर दिया.....लेकिन जाते जाते ये साल एक ऐसा अपराधबोध....और शर्मिंदगी दे गया....जो हमेशा सालता रहेगा....दिल्ली के फिरोज़शाह कोटला मैदान में भारत और श्रीलंका की वन डे सीरीज़ का आखिरी मैच.....घटिया पिच के चलते रद्द करना पड़ा....वो भी तब जब मैच की पहली पारी के 24 ओवर खेले जा चुके थे....पिच इतनी खराब थी श्रीलंकाई टीम मैदान से वॉकआउट कर गई.....और मैच रद्द कर दिया गया....डीडीसीए की पिच कमेटी ने इस्तीफा दे दिया.....आईसीसी ने जांच बिठा दी....पर इस सब से भारतीय क्रिकेट की गरिमा को जो ठेस पहुंची वो शर्मनाक है.....क्रिकेट बन गया शर्म और गर्व दोनो का कारण.....
  6. चौथे नम्बर पर साल 2009 में एक तरफ थे झारखंड के मुख्यमंत्री मधु कोड़ा....जिन पर लगे आय से अधिक सम्पत्ति के आरोपों ने एक बार फिर देश की राजनीति को शर्मिंदा किया....तो दूसरी ओर थे कई उच्च न्यायालयों....और उच्चतम न्यायालय के जज जो अपना सम्पत्ति का ब्यौरा सार्वजिनक कर बन गए देश का गर्व.....इस साल शीर्ष पदों पर रहे लोगों की सम्पत्ति एक तरफ राष्ट्रीय शर्म बन रही थी.....तो दूसरी ओर दुनिया भर में हमारी इज़्ज़त भी बढ़ा ही रही थी....सम्पत्ति शर्म बन गई देश के अपनी तरह के इकलौते मुख्यमंत्री रहे मधु कोड़ा की वजह से.....झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा पर आय से अधिक....बल्कि कहें तो बहुत अधिक सम्पत्ति के आरोप लग गए.....जांच अधिकारियों की मानें तो कोड़ा के पास उनकी आय से कई हज़ार गुना अधिक सम्पत्ति है....आरोप लगते ही कोड़ा की तबीयत बिगड़ गई और वो अस्पताल में भर्ती हो गए....लेकिन जांच अधिकारी भी उनका इंतज़ार करते रहे और बाहर आते ही वो गिरफ्तार हो गए....फिलहाल जांच चल रही है....तो दूसरी ओर देश के कई उच्च न्यायालयों....और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने एक ऐसा सराहनीय कदम उठाया...जिससे देश की न्यायपालिका ही नहीं....देश की साख भी पूरी दुनिया में बढ़ गई....न्यायाधीशों ने अपनी सम्पत्ति की सार्वजनिक तौर पर घोषणा की....और बन गए भ्रष्ट नेताओं और अफसरों के लिए एक मिसाल....बढ़ा दिया देश का मान....
  7. दोनो वरिष्ठ पुलिस अधिकारी....दोनो पर थी कानून व्यवस्था बनाए रखने की ज़िम्मेदारी....लेकिन एक ओर देश की पुलिस को दुनिया भर में शर्मसार कर रहे थे....वरिष्ठ आईपीएस एस. पी. एस राठौर....तो दूसरी ओर छत्तीसगढ़ में एक एसपी विनोद कुमार चौबे नक्सलियों से लड़ते हुए शहीद हो गए....शर्म और गर्व का तीसरा विरोधाभास....देश के हालिया माहौल में बस एक ही आवाज़ चारों ओर से आ रही है....और इस आवाज़ ने देश को शर्मसार भी कर दिया है....आवाज़ है रुचिका को इंसाफ़ दो....ये आवाज़ न केवल देश के पुलिस अधिकारियों के रवैये पर.... बल्कि न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाती है....और इस आवाज़ के पीछे छुपी है एक आला पुलिस अधिकारी की करतूत....हरियाणा के पूर्व डीजीपी.....एस पी एस राठौर ने एक 14 साल की लड़की से 19 साल पहले छेड़छाड़ की....केस दर्ज कराने पर उसके परिवार को इतना प्रताड़ित किया गया कि 17 साल की उम्र में उस लड़की ने आत्महत्या कर ली....और अब जब 19 साल बाद आया उस मुकदमे का नतीजा....तो राठौर को मिली सिर्फ 6 महीने की सज़ा....अदालत से बाहर राठौर का मुस्कुराता चेहरा बन गया पूरे देश के लिए शर्म....दूसरी तरफ था एक और आईपीएस अधिकारी....जो तैनात था छत्तीसगढ़ में....और उसकी जांबाज़ी बन गई राठौर जैसे अफसरों के लिए एक सीख....छत्तीसगड़ के राजनांदगांव के एसपी विनोद कुमार चौबे नक्सलियों से भिड़ते हुए शहीद हो गए....12 जुलाई को नक्सलियों के हमले की ख़बर मिलने पर घटनास्थल के लि रवाना हुए एसपी विनोद कुमार चौबे.... रास्ते में हुए हमले में नक्सलियों से लोहा लेते हुए 36 पुलिसकर्मियों के साथ शहीद हो गए.....और बढ़ा गए न केवल पुलिस बल्कि देश का सम्मान....
  8. दो संवैधानिक पद....दो ज़िम्मेदार ओहदे....लेकिन कितना बड़ा विरोधाभास....एक ओर नारायण दत्त तिवारी...बेहद विवादित सेक्स स्कैंडल में फंस कर राजभवन की गरिमा को तार तार कर रहे थे....तो दूसरी ओर देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल हर दिन देश के सम्मान में इजाफा कर रही थी....दूसरा पायदान.... एक राष्ट्रपति भवन....एक राजभवन....एक देश का संवैधानिक प्रमुख....तो एक राज्य में उसका प्रतिनिधि....एक ने बढ़ा दिया देश का मान...तो एक ने कर दिया राजभवन का मानमर्दन....आंध्र प्रदेश का राजभवन उस वक्त शर्म का राष्ट्रीय प्रतीक बन गया...जब वहां के राज्यपाल नारायण जत्त तिवारी पर बेहद आपत्तिजनक आरोप लगे....आंध्र के एक समाचार चैनल ने दावा किया कि उसने तिवारी का एक स्टिंग ऑपरेशन किया है....और उसमें नारायण दत्त तिवारी कुछ महिलाओं के साथ बेहद आपत्तिजनक अवस्था में नज़र आ रहे हैं....दावा किया गया कि ये दृश्य राजभवन के अंदर के हैं....और आखिरकार इस सेक्स स्कैंडल के बाद तिवारी को इस्तीफा देना पड़ा....लेकिन देश के इतिहास में पहली बार एक राजभवन इस तरह से शर्मसार हुआ...और शर्मसार हुई राजमर्यादा.....एक ओर नारायण दत्त तिवारी पर लगे आरोपों से देश की अस्मिता तार तार हो रही थी....तो दूसरी ओर देश की संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल रोज़ नए इतिहास रच रही थी....वो न केवल तमाम तरह की सामाजिक गतिविधियों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही थीं...बल्कि इस उम्र में भी वो कभी आइएनएस विराट पर नज़र आई....तो कभी सुखोई में आसमान की ऊंचाईयों पर दिखाई दीं....एक राज्यपाल ने किया शर्मिंदा....तो राष्ट्रपति ने दिलाया गौरव....
  9. अब बात साल की सबसे बड़ी शर्म और सबसे बड़े गर्व की....और ये दोनो ही देश के लिए आने वाले दिनों में सबक बनेंगे....दोनो जुड़े हैं हिंदी से....शर्म के क्षण की गवाह बनी महाराष्ट्र की विधानसभा जहां....कुछ बवालियों ने हिंदी को थप्पड़ जड़ दिया....तो गर्व का गवाह बना वो क्षण जब एक युवा सांसद ने मातृभाषा न होने के बाद भी....मंत्रिपद की शपथ हिंदी में ली.....ये है पहला पायदान.... देश की आर्थिक राजधानी मुंबई....मुंबई में महाराष्ट्र विधानसभा....विधानसभा का शपथग्रहण....और फिर....एक थप्पड़....एक हमला....एक प्रहार....एक विधायक पर नहीं बल्कि पूरे देश के सम्मान पर....हिंदी के सम्मान पर....देश ने लोकतंत्र का सबसे काला दिन देखा....और देखा क्षेत्रवाद की राजनीति का सबसे भयानक चेहरा...जब महाराष्ट्र विधानसभा में सपा के विधायक अबू आज़मी के हिंदी में शपथ लेने पर....मनसे के विधायकों ने न केवल हंगामा खड़ा कर दिया....बल्कि अबू आज़मी को इस गलती की सज़ा के तौर पर थप्पड़ भी जड़ दिया....पर थप्पड़ लगा हिंदी के चेहरे पर....पूरे देश के चेहरे पर...लोकतंत्र के चेहरे पर....देवनागरी लिपि में ही लिखी जाने वाली मराठी के नाम पर हिंदी को अपमानित कर दिया गया....ये पल बन गया साल का देश का सबसे शर्मनाक पल....तो दूसरी ओर संसद में एक गर्व का इतिहास रच दिया इस लोकसभा की सबसे कम उम्र की सांसद ने....मिजोरम से एनसीपी सांसद अगाथा संगमा ने मातृभाषा न होने के बावजूद....मंत्रिपद की शपथ हिंदी में ली....न केवल देश भर में प्रशंसा पाई....और हिंदी के मान को स्थापित किया....बल्कि उन लोगों के लिए एक सबक बन गई जो राजनीति के लिए हिंदी का विरोध करते हैं....हिंदी पर थप्पड़ बन गया साल की सबसे बड़ी शर्म.... तो अगाथा संगमा की शपथ बन गई साल का गर्व....

देश किसी एक का नहीं है....देश अलग अलग लोगों और उनकी मेहनत से बनता है....देश अगर गर्व से तनता है तो शर्म से झुकता भी है....लेकिन जब जब देश में कुछ नादान लोग शर्मिंदगी की वजह बनते हैं....तो उसी वक्त कुछ हाथ उठ कर देश का झुकता सर थाम लेते हैं....और ज़ाहिर है शर्म पर हमेशा गर्व की जीत होती है....ये थी साल 2009 की शर्म और गर्व की कहानियां....

(प्रस्तुत आलेख एक कार्यक्रम '9/9 शर्म/' गर्वके तौर पर सीएनईबी समाचार चैनल पर 30 और 31 दिसम्बर को प्रसारित हो चुका है

शुभकामनाएं.....

एक वर्ष भी बीत गया, नया वर्ष फिर आया है,
कितना खोया,कितना पाया?गणित नहीं लग पाया है।
वर्ष 2009 विदा हुआ और छोड़ गया अपनी तमाम खट्‍टी-मीठी यादें.... इस दौरान इन 365 दिनों में हम सबने सफलता के कई सुहाने सफर तय किए.... हालाँकि कुछ खोया भी और कई चुनौतियों से दो चार भी होना पड़ा..... लेकिन पिछला साल हमें नए साल के लिए कई सफलताओं से भी रूबरू करा कर गया.... और उम्मीद है कि 2010 का सूरज भी हमारे जीवन में सुख, समृद्धी, उत्साह, उमंग और उत्सव की किरणों से सजा हुआ उदित हो.... बस इन्हीं शब्दों के साथ आप सभी को नववर्ष की ढेर सारी शुभकामनाएं.....
आपका अपना
महेश मेवाड़ा
Zee News छत्तीसगढ़

Wednesday, December 30, 2009

भूख....मजबूरी....और नया साल....



नया साल 2010 आने वाला है .... अब इसे दो हज़ार दस बोलेंगे...या फिर वाइ2के की तर्ज पर ट्वेंटी टेन...साल तो बदल जाएगालेकिन क्या हालात बदलेंगे......टीवी चैनल में मैं क्राइम कवर करता हू....सनसनीखेज खबरे...लूट डकैती हत्या बलात्कार....और रोज़ ही कुछ ऐसा ही देखता और
लिखता हूं.......आज सुबह ही ऑफिस के बाहर कड़कड़ाती ठंड में दो मासूम हाथ दिखाई दिए जो ठंडे पानी से बर्तन धो रहे थे...वो मासूम बच्चा एक मज़दूर है
जो खाने की ठेली पर काम करता है..बदले में उसे दो वक्त की रोटी और चंद रुपए मिलते हैं...मैं सोच रहा था वो और उसके जैसे ना जाने कितने
मासूम कहां न्यू इयर मनाएंगें...क्या वो काग़ज पर नए साल के पहले दिन की तारीख़ भी ठीक से लिख पाएगा...क्या वो भी पिछले एक हफ्ते से दिल्ली और
एनसीआर में होने वाली न्यूइयर पार्टी का मजा लेने के लिए पासेज़ के जुगाड़ में लगा होगा....क्या वो भी 31 दिसंबर की रात को 12 बजते ही विक्षिप्तों की तरह हैप्पी न्यूइयर हैप्पी
न्यूइयर चिल्लाएगा....जवाब मै जानता हूं...फिर भी पता नहीं क्यों पूछ रहा हूं.... लेकिन उसके मासूम हाथों में जमाने भर का दर्द नज़र आता है ..... उसका बचपन ठंडे पानी के साथ बह गया है....लेकिन उसमें टीआरपी नहीं है...उसमें मसाला नहीं है....
उसके बारे में कौन जानना चाहेगा...खबर तब है जब किसी नामी स्कूल और बड़े बाप के बेटे के बचपन पर कोई आच आए......न्यू इयर की रात मैं भी उसके बारे में भूल जाउंगा.... दिल्ली की सुरक्षा की चिंता
करुगा....हैप्पी न्यू इयर मनाने वाले लोगों के लिए पुलिस और प्रशासन ने क्या इंतेज़ाम किए हैं ... वैसे भी खबर बड़ी है क्योंकि आईबी ने अलर्ट जारी किया है.... वो ज्यादा महत्तवपूर्ण हैं..... लेकिन उसके मासूम हाथ अभी भी मेरी आंखों
के सामने हैं .... लेकिन कब तक शायद मैं भी कुछ वक्त में उनको भूल जाउंगा... आख़िर मैं भी "पत्रकार" हूं... ख़बर की चिंता करूं या फिर उसकी ... अब इस बात पर समझ नहीं आ रहा कि मैं हंसू या रोउं ... क्योंकि उस बच्चे का नाम तक तो मैने नहीं पूछा ... जब वो ही ख़बर नहीं है तो उसके नाम में क्या रखा है...जाने कब वो दिन आएगा .. जब सांप छछूंदर...नेताओं के सेक्स स्कैंडल ... रियलिटी शो की जगह ... इस जैसे बच्चे हैडलाइन बनेंगे...अब इसका भी जवाब शायद मुझे पता है ... लेकिन उम्मीद पर दुनिया क़ायम है
रुम्मान उल्ला खान
(रुम्मान पिछले पांच साल से अपराध पत्रकार के तौर पर सक्रिय हैं और सम्प्रति सीएनईबी समाचार चैनल में कार्यरत हैं।)


Tuesday, December 29, 2009

देश के नाम, देश की पाती

केव्स संचार पर हम अपनी तरफ़ से तो आपके लिए नए वर्ष के स्वागत में काफ़ी कुछ प्रकाशित करेंगे ही, हम चाहते हैं कि आप पाठक भी इस स्वागत समारोह में हमारे साथ शामिल हों.....यह विशेष अंक १० जनवरी तक चलेगा....हम चाहते हैं कि आप हमें अपनी रचनाएँ, अपनों के नाम संदेश हमें भेजें.....हमारा ई मेल पता है cavssanchar@gmail.comयही नहीं हम एक विशेष अभियान " देश के नाम, देश की पाती" भी लेकर आए हैं जिसमे आप भारत कितना एक जुट है इसके लिए अपने शुभकामना संदेश भारतीयों के नाम भी भेज सकते हैं इसके लिए हमें अपने संदेश भेजें jantajanaardan@gmail.com ! सर्वश्रेष्ठ संदेश हम रोज़ प्रकाशित करेंगे और अंत में उन पर आधारित एक विशेष आलेख प्रकाशित करेंगे !

एक मेहमान साथी.....

प्रिय साथियों,
आज से हमारे साथ एक मेहमान ब्लॉगर जुड़ रहा है....CAVS संचार के सभी लेखक मंडल और पाठकों से इस नए सदस्य का परिचय कराने बेहद हर्ष का विषय है। हमारे अतिथि ब्लॉगर है रुम्मान उल्ला खान। रुम्मान पिछले 5 साल से एक अपराध पत्रकार के तौर पर काम कर रहे हैं और सम्प्रति सीएनईबी समाचार चैनल में अपराध संवाददाता के तौर पर कार्यरत हैं। रुम्मान की सामाजिक विषयों में गहरी रुचि है और अपराध पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण सामाजिक समस्याओं की गहरी समझ रखते हैं।
हम आशा करते हैं कि रुम्मान का हमारे साथ जुड़ना हमारी टीम को और बेहतर....रोचक...गंभीर और तथ्यपरक बनाएगा। रुम्मान का CAVS परिवार में स्वागत है।

Monday, December 28, 2009

ईमां मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ्र...


सालगिरह के दिन (२७ दिसंबर) मिर्ज़ा असदुल्लाह ग़ालिब को याद करने की वजह सिर्फ इतनी नहीं की हिन्दुस्तानी अदब के हज़ारों शैदाई उन्हें खुदा-ए-सुखन के खिताब से नवाजते हैं. हकीकी मायनों में मिर्ज़ा ग़ालिब मुल्क में शायर और शायरी दोनों के पर्याय हैं. ये और बात है की अलग अंदाज़े बयाँ वाला ये बड़ा शायर अपने दीवान में मीर को बारहा अकीदत का नजराना पेश करता है.

रेखता के तुम्ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब,/ कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था
.... आप बेबहरा है जो मोतकिदे मीर नहीं
ग़ालिब के शागिर्द अल्ताफ हुसैन हाली ने यादगारे-ग़ालिब में एक सोहबत का ज़िक्र किया है जिसमें ग़ालिब और जौक के बीच इस बात को लेकर बहस हो रही थी की मीर तकी मीर और मिर्ज़ा रफ़ी सौदा में श्रेष्ठ कौन ? ग़ालिब हाज़िर जवाब व्यक्ति थे. बहस जब लम्बी खिंच गयी तो ग़ालिब ने जौक पर फिकरा कसा की मियाँ मैं तो आपको मीरी(सरदार) समझता था, आप तो सौदाई(पागल) निकले.
ग़ालिब अपने अशार की मकबूलियत के चलते अपनी पैदाइश के दो सदी बाद भी आवाम में अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं जैसे पीढी दर पीढ़ी जुबां पर चढ़ती तुलसीदास की चौपाइयों ने उन्हें अमर कर दिया है. उर्दू पर फारसी रंग को ज्यादा तवज्जो देने की वजह से ग़ालिब बहुधा दुरूह भी लगते हैं और उन्हें मकबूलियत तभी हासिल हुई जब उन्होंने फ़ारसी से पीछा छुडा कर उर्दू का दामन थामा. लेकिन इसके साथ ही हमें इस बात को भी ज़ेहन में रखना चाहिए की उर्दू नस्र को जुबां ग़ालिब के खुतूत से ही मिली है.उनके बहुत से शेर खड़ी बोली कविता से लगते हैं और वे मीर की सादाजुबानी की झलक भी पेश करते हैं. उर्दू शायरी में तसव्वुफ़(आध्यात्म) और दार्शनिकता का रंग भरने का श्रेय भी ग़ालिब को है. लेकिन ग़ालिब तसव्वुफ़ के पेचो-ख़म में कहीं फसते नहीं हैं. ग़ालिब को अपनी शायरी की इस खुसूसियत पर फख्र है-
ये मसाइले तसव्वुफ़ ये तिरा बयाँ ग़ालिब/ तुझे हम वली समझते जो न बादाख्वार होता
ग़ालिब का तसव्वुफ़ उनकी शायरी की सम्प्रेषण शक्ति में कहीं बाधक नहीं बनता, उनके शेर चौंकाते हुए दिल में उतर जाते हैं. कभी कभी तो यकीं ही नहीं होता की कोई बात ऐसे भी कही जा सकती है, या इससे बेहतर भी कही जा सकती है क्या. उनकी ग़ज़लों ने जितनी शामें रौशन की हैं उतनी शायद ही किसी दुसरे शायर के कलाम ने की हों लेकिन इसके बावजूद ग़ालिब ग़ज़ल की विधा से पूरी तरह संतुष्ट नज़र नहीं आते.
बकद्रे शौक नहीं ज़र्फ़ तंग्नाए ग़ज़ल/कुछ और चाहिए वुसत मेरे बयाँ के लिए.
वास्तव में यही असंतोष ग़ालिब के अंदाज़े बयाँ को अलग बनाए रखता है. इसी वजह से ग़ालिब विरोधाभासी भी लगते हैं. वे एक पल जो सांचे बनाते हैं अगले पल उन्हें तोड़ते नज़र आते हैं.
ईमां मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ्र/ काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे ...
ग़ालिब की शायरी को उनके समकालीनों और बाद वाले सभी शायरों ने इज्ज़त बख्शी है. इकबाल जैसे महान परवर्ती शायरों की नींव में ग़ालिब ही नज़र आते हैं. उनके शेर आवाम के जज़्बात को जुबां देते हैं . कई गुलज़ार उनके शेरों से मिलते जुलते गीत लिखकर महान हो जाते हैं. वही शेर जिन्हें ग़ालिब अपनी रुसवाई की वजह मानते हैं -
खुलता किसी पे क्यों मेरे दिल का मुआमला, शेरों के इन्तखाब ने रुसवा किया मुझे !!
हिमांशु बाजपेयी 'हिम लखनवी'
(लेखक कवि एवं पत्रकार हैं, सम्प्रति भास्कर डॉट कॉम में कार्यरत हैं और हिम लखनवी के उपनाम से ग़ज़लें कहते हैं।)

Saturday, December 26, 2009

जीनियस की इडियट्स : भैया आल इज बैल


ये आमिर की फिल्म है, इसके डायरेक्टर राजकुमार हिरानी है, चेतन भगत के फेमस उपन्यास पे लिखी गई है। इतनी चीजें काफी है इस फिल्म को देखने के लिए, लेकिन एक बात आपको बता दूँ- इस फिल्म के साथ 'नाम बड़े और दर्शन छोटे' जैसी कोई बात नहीं है। एक लाजबाव फिल्म है, और यकीन मानिये कुछ दिनों बाद आप इस फिल्म का जलवा खुद देखेंगे। और हाँ आप खुद जल्दी से जाकर इसे देख आइये नहीं तो कुछ दिनों बाद गली-गली में इसकी चर्चा सुनकर आप का फिल्म देखने का मज़ा किरकिरा हो जायेगा।

हास्य जब सार्थक अर्थ देने लग जाये तब वह व्यंग्य कहलाने लगता है, कुछ ऐसा ही इस फिल्म के साथ भी है। भारतीय शिक्षा प्रणाली पर गहरा तमाचा है। मुन्नाभाई के द्वारा चिकित्सा व्यवस्था की पोल खोलने वाले राजकुमार हिरानी ने इस बार इडियट्स के द्वारा शिक्षा कैसे दे? ये पाठ पढाया है। आमिर का एक और करिश्मा लोगों के सामने है। आमिर के परफेक्शनिस्ट की छवि इस फिल्म से और मजबूत होगी।

लोग अब गांधीगिरी की शिक्षा get well soon के बाद इडियट्स की aal is well को रटने वाले है। इस बार मुन्नाभाई m.b.b.s. का dean डॉ अस्थाना नहीं, इंजीनियर कॉलेज के प्रोफेसर बुद्धे परेशान है। फिर एक स्टुडेंट्स ऐसा आता है जिसे टॉप करने की आदत सी हो गई है। सारे बने-बनाये सिस्टम से लड़ता है और बता देता है कि कैसे सारी भारतीय शिक्षा पद्धत्ति सड़ी हुई है। जो भले सफल इन्सान बनाना तो जानती है पर काबिल इन्सान बनाना नहीं।

काफी छुपे हुए तथ्यों को हिरानी ने अपने महीन नज़रिए से निकाल कर दिखाया है। इतना कसा हुआ फिल्म संपादन है कि दर्शक १ सेकेंड का सीन भी मिस करना नहीं चाहता। फिल्म का संगीत स्टोरी को ही आगे बढाता है। आमिर के अलावा बचे हुए दोनों कलाकार मंजे हुए है, शर्मन और माधवन दोनों ने अपना काम बखूबी निभाया है। करीना को करने के लिए बहुत कुछ नहीं है, पर वे भी याद रखी जाएँगी। इसके अलावा लॉन्ग-इलायची कि तरह ठुसे गए छोटे-छोटे पात्र भी लाजबाव है।

फिल्म देखने के बाद झूमने को दिल करता है। फिल्म में कई conflict है फिल्म ख़त्म होते-होते all is well हो जाता है। ये किस टाइप कि फिल्म है, ऐसी तुलना मै नहीं कर सकता। ये अपने टाइप कि सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। महानता के नाते इसे 'लगे रहो मुन्नाभाई', 'रंग दे बसंती', 'लगान' की श्रेणी में रखा जा सकता है। खैर इसका चमत्कार तो आपके सामने आ ही जायेगा।

बहरहाल , मै आमिर का बहुत बड़ा फेन हूँ तो हो सकता है इसकी चर्चा करने में अतिरेक हो गया हो। लेकिन फिल्म बहुत अच्छी है। और इस पोस्ट का टाइम जरूर देख लेना। बाकि समीक्षाये इसके बाद ही आपको पड़ने मिलेगी।

लेकिन देखना ये भी रोचक होगा कि इस फिल्म का प्रभाव लोगो पर कब तक रहता है? क्योंकि हम ताली तो कई चीजों पर बजाते है, पर उसे जीवन में अपनाते नहीं है। सम्भंतः ये भी 'रंग दे बसंती', 'तारे ज़मीन पर' और लगे रहो मुन्नाभाई' की तरह एक सुखद अतीत बनकर रह जाएगी।

Friday, December 25, 2009

Right & duty go simultaneously


Gujrat is rapidly going to be ideal state of india. This happens, when a political will works. State legislature passed compulsory voting in civic elections act. This shows real commitment of the government, for the citizen. This is very surprising that some of politicians are protesting the Guj-state's commitment to the people.If protesters are unable to appriciate this act on the political base, if they do not like to give chance, if they think this is not in fevoure of public, than they should realise to public that early in future certainly some of electional improving steps can be considered. Either protesters should support to the Guj-govt on this matter or they atleast think about some improvements in electional process. If they are not supporting to govt, so the people can understand now opposotional political intentions behind this protest. We greet it as a good step, because after 1947 there were big challange ahead to interprit democracy's charateristics. Gandhi jee suggested that the congress should be desolved as political party rather it can be better as volunteer organization, and all congerssmen dispersed across the country and let them teach democracy to all of indian people. When Gandhi adviced this some of power greeders are larking thier toung to test power. Everyone respecting to congress and awarding its members but some of congressmen wanted to pick benefit of the emmotions. They used to believe in, respect autometic comes through power but power can not come through respect. Again when some political will is resound after Vallabha (The iron man) so some of pseudo leaders are opposing an important step to improving electional process and trying to realize to all of people who began to criticize system and politics and its opraters like bureaocrates and politicians but don't participate in the electional process. Although Gujrat is first state that adopts this in india, but in world having several countries, those believe in mendatory voting. We all wellcome to the Gujrat govt's step to mendat voting in civic election. This is very much important to maintain with enhancing democratic traditions and literacy. Keep voting who are doing this piose,patriotic,and country dedication task and start who feel to vote is time westage and i apeal to all of you please vote for democracy.

Thursday, December 24, 2009

खाकी...लाल बत्ती और शराब....

ये दृश्य उत्तर भारत में कहीं का भी हो सकता है....पर फिलहाल उत्तर प्रदेश का है....शहर का नाम है ग़ाज़ियाबाद....और जगह ग़ाज़ियाबाद का रेलवे स्टेशन....और उस स्टेशन का विजय नगर का प्रवेश द्वार....23 दिसम्बर यानी कि कल रात करीब सवा दस बजे...एक मित्र को ट्रेन पकड़ा कर उतरा ही था....कि देखा कि बाहर एक लाल बत्ती की एम्बेसडर खड़ी है....सरकारी....सफेद रंग की....नम्बर भी बताऊंगा अभी....खैर आगे बढ़ते हैं....मैं अभी अपनी बाइक का लॉक खोल ही रहा था कि एक फोन आ गया...इतने में गाड़ी के अंदर से एक भद्दी सी गाली के साथ पीछे रखे पान के खोखे की तरफ एक फरमाइश उछाली गई....अबे....*&*)_(%*&_ एक सिगरेट ला जल्दी....
आवाज़ से लग गया कि जनाब लोग शराब के नशे में हैं....मुड़कर गाड़ी के अंदर देखा तो खून खौल उठा....लाल बत्ती की गाड़ी के अंदर बैठी थी खाकी.....खाकी बोले तो अपने रक्षक पुलिस वाले...और कोई कांस्टेबल या सिपाही नहीं...साक्षात यम का रूप लिए एक दरोगा साहब भी विराजमान थे....और सुना रहे थे अपनी वीरता का एक किस्सा....उनके अलावा गाड़ी में तीन लोग और थे....दो तो साफ साफ पुलिस की वर्दी में दिख रहे थे....एक शायद हेड कांस्टेबल और दूसरा कांस्टेबल.....एक की मूंछें नत्थूलाल जैसी थी....और एक कुछ युवा था....चौथा शख्स ड्राईइविंग सीट पर था....हो सकता है पुलिसवाला हो...या न भी हो....खैर ये तीनो वर्दी में थे....और इन पर कानून की रक्षा की ज़िम्मेदारी थी...पर तीनो कानून तोड़ रहे थे...चौथा भी शामिल था....पर शायद वर्दी में नहीं था....कौन कौन से कानून ये तोड़ रहे थे इस पर भी बात कर लेते हैं....
  • पहला ये सार्वजनिक स्थल पर मदिरापान कर रहे थे.....जी हां लाल बत्ती की इस गाड़ी के अंदर शराब के दौर पर दौर चल रहे थे...वो भी खुलेआम रेलवे स्टेशन पर....बल्कि युवा पुलिस वाला तो हाथ में पैग लेकर सड़क पर घूम रहा था....
  • दूसरा ये कि ये तीनो रेलवे स्टेशन के परिसर में ये हरकत कर रहे थे...जहां तक मेरी जानकारी है वो ज़मीन गाज़ियाबाद रेलवे स्टेशन के अंतर्गत आती है.....
  • तीसरा ये कि तीनो ही वर्दी में थे....यानी कि ऑन ड्यूटी मदिरा सेवन हो रहा था....
  • चौथा ये कि उसके बाद इन लोगों ने उस कार के सीडी प्लेयर पर एक बेहद ही अश्लील गाना चला कर उसकी आवाज़ को पूरे वॉल्यूम पर कर दिया....और उसी वक्त एक ट्रेन आई होने के कारण वहां आस पास तमाम महिलाएं भी खड़ी थी...मतलब सार्वजिनक स्थल पर अश्लील व्यवहार का भी मामला....
  • पांचवां ये कि उसके बाद मैं जो इनको देख रहा था...मुझ पर निगाह पड़ते ही मुझे इशारे से बुलाया गया...और धमकाने वाले अंदाज़ में कहा गया कि देख क्या रहा है बे....मेरे थोड़ा तेवर दिखाने पर चुपचाप कार में बैठ गए साहब....
  • छठा....अब ये बताइए कि जब चारों ही पी रहे थे....तो गाड़ी भी ड्राइवर साहब ने पी कर ही चलाई होगी...एक और मामला....शराब पी कर गाड़ी चलाने का...इसमें तो साहब दो साल की कैद भी हो सकती है.....
अब इसके आगे की बात कि आप में से जो लोग कानून के जानकार हों....ये ज़रूर बताएं कि आखिर कौन कौन से अभियोग लगते हैं इन पुलिस वालों पर....दिनेशराय जी आप से ज़रूर जानना चाहूंगा....अब ये बताएं साहब कि ऐसों के हवाले तो हमारी आपकी सुरक्षा है....आज गंदे गाने चलाए कल पता चला कि कार से बाहर उतर कर स्त्रियों से अभद्रता ही करने लगें...भई नशे में जो ठहरे....अच्छा और ये भी बता दूं कि गाड़ी जिस भी व्यक्ति की रही होगी...वह कोई जनसेवक ही था और वहां नहीं था....गाड़ी पर लाल बत्ती थी...और ये पुलिस वाले शायद सुरक्षा या एस्कोर्ट ड्यूटूीपर थे....और जिन साहब की गाड़ी थी अगर वो इस बात से अनभिज्ञ हैं तो उनसे भी निवेदन है कि ऐसा न होने दें....वरना फिर रुचिका जैसी किसी मासूम की कोई वहशी पुलिसवाला जान ले लेगा....
अब बताता हूं गाड़ी का नम्बर....क्योंकि सबसे ज़रूरी ये है कि इन नीच पुलिसवालों की पहचान हो....उस लाल बत्ती की एम्बेसडर का नम्बर था......
UP32 BN5931

अब साहब गाड़ी का नम्बर भी सबके सामने है....सरकारी गाड़ी थी...नम्बर लखनऊ का है पर पुलिस गाज़ियाबाद की ही थी.....लेकिन सवाल जस का तस है कि जब कानून के रक्षक ही अपराधियों सरीखा व्यवहार कर रहे हों....तब क्या किया जाए और कैसे माओवादियों...या नक्सलियों को गलत ठहराया जाए...और कैसे माना जाए कि आदिवासी इलाकों में पुलिस ज़ुल्म नहीं करती होगी....जब शहरों का ये हाल है....और फिर जब पुलिस ऐसी है तो क्या नागरिक कानून हाथ में ले लें...करें क्या...जवाब चाहिए.....
गाड़ी का नम्बर एक बार फिर नोट कर लें.....
UP32 BN5931

Wednesday, December 23, 2009

कब कटेगी चौरासी- कब पढ़ेंगे आप :पुस्तक समीक्षा-रवीश कुमार







जरनैल सिंह ने चिदंबरम पर जूता फेंक कर सही किया। जूता नही फेंकता तो चौरासी के दंगों की ऐसी भयानक दास्तान किताब की शक्ल में नहीं आ पाती। हर पन्ने में हत्या,बलात्कार और निर्ममता के ऐसे वाकयात हैं जिन्हें पढ़ते हुए आंखें बंद हो जाती हैं। दिल्ली इतना ख़ून पी सकती है,पचा सकती है,जब इस किताब को खतम किया तो अहसास हुआ। तभी जाना कि उन्नीस साल गुज़ार देने के बाद भी शहर से रिश्ता क्यों नहीं बना। वैसे भी जिस जगह पर अलग अलग शहरों से आ कर लोग रोज़मर्रा संघर्ष में जुटे रहते हैं वहां सामाजिक संबंध कमज़ोर ही होते हैं। हर किसी की एक दूसरे से होड़ होती है। घातक। कस्बों और कम अवसर वाले शहरों में रिश्ते मज़बूत होते हैं। भावनात्मक लगाव बना रहता है। किसी बड़े शहर के हो जाने के बाद भी। लेकिन कब कटेगी चौरासी पढ़ते पढ़ते यही लगा कि कांग्रेस समर्थित दंगे का समर्थन लोग भी कर रहे थे। भीड़ सिर्फ कांग्रेसी नहीं थी। इस भीड़ में आम शहरी भी शामिल थे। जो चुप रह गए,वो भी शामिल थे। उनकी यादों में चौरासी कैसे पच गया होगा,अब यह जानने के लिए बेचैन हो गया हूं। जिन लोगों ने अपनी आंखों के सामने पड़ोसी की किसी सरबजीत कौर की अस्मत लूटते हुए और उसकी चीख सुनते हुए अपनी रातें चुप चाप काट ली होंगी,जरनैल तुम इन पड़ोसियों से भी बात करो। उन पर भी किताब लिखो। इस किताब में पड़ोसी के बर्ताव,भय और छोटी मोटी कोशिशों की भी चर्चा है। उस पड़ोसी की भी है जिसने बचाने की कोशिश की और जान दे दी। लेकिन अलग से किताब नहीं है।


‘त्रिलोकपुरी, ब्ल़ॉक-३२। सुबह आंखों के सामने अपने पति और परिवार के १० आदमियों को दंगाइयों के हाथों कटते-मरते देखा था और अब रात को यही कमीने हमारी इज़्ज़त लूटने आ गए थे।‘यह कहते हुए भागी कौर के अंदर मानो ज्वालामुखी धधकने लगता है। ‘दरिंदों ने सभी औरतों को नंगा कर दिया था। हम मजबूर,असहाय औरतों के साथ कितने लोगों ने बलात्कार किया,मुझे याद नहीं। मैं बेहोश हो चुकी थी। इन कमीनों ने किसी औरत तो रात भर कपड़ा तक पहनने नहीं दिया।‘


‘इतनी बेबस औऱ लाचार हो चुकी थीं कि चीख़ मारने की हिम्मत जवाब दे गई थी। जिस औरत ने हाथ-पैर जोड़ कर छोड़ देने की गुहार की तो उससे कहा आदमी तो रहे नहीं, अब किससे शर्म करती हो।‘


जरनैल ने व्यक्तिगत किस्सों से चौरासी का ऐसा मंज़र रचा है जिसके संदर्भ में मनमोहन सिंह की माफी बेहद नाटकीय लगती है। नेताओं को सज़ा नहीं मिली। वो भीड़ कहां भाग कर गई? वो पुलिस वाले कहां गए और वो प्रेस कहां गई। सब बच गए। प्रेस भी तो इस हत्या में शामिल थी। नहीं? मैं नहीं जानता लेकिन जरनैल के वृतांतों से पता चलता है कि चौरासी के दंगों में प्रेस भी शामिल थी।


जरनैल लिख रहे हैं। इतने बड़े ज़ुल्म के बाद भी आसपास मरघट जैसी शांति बनी रही, मानो कुछ हुआ ही नहीं। मीडिया मौन है और टीवी पर सिर्फ इंदिरा गांधी के मरने के शोक संदेश आ रहे हैं। तीन हज़ार निर्दोष सिख राजधानी में क़त्ल हो गए और कोई ख़बर तक नहीं। क्या लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ सत्ता का गुलाम हो गया था, या इसने भी मान लिया था कि सिखों के साथ सही हो रहा है? यह तो इंडियन एक्सप्रेस के राहुल बेदी संयोग से ३२ ब्लॉक त्रिलोकपुरी तक पहुंचे तो इस बारे में ख़बर आई।


ये है महान भारत की महान पत्रकारिता। हर बात में अपनी पीठ थपथपाने वाली पत्रकारिता। मनमोहन सिंह की तरह इसे भी माफी मांग कर नाटक करना चाहिए। कम से कम खाली स्पेस ही छोड़ देते। यह बताने के लिए कि पुलिस दंगा पीड़ित इलाकों में जाने नहीं दे रही इसलिए हम यह स्पेस छोड़ रहे हैं। इमरजेंसी के ऐसे प्रयासों को प्रेस आज तक गाती है। ८४ की चुप्पी पर रोती भी नहीं।


शुक्रिया पुण्य प्रसून वाजपेयी का। उन्हीं की समीक्षा के बाद जरनैल सिंह की किताब पढ़ने की बेकरारी पैदा हुई। सिख दंगों को देखते,भोगते हुए एक प्रतिभाशाली क्रिकेटर अच्छा हुआ पत्रकार बन गया। वर्ना ये बातें दफन ही रह जातीं। जिस लाजपत नगर में जरनैल सिंह रहते हैं, उसके एम ब्लॉक में अपना भी रहना हुआ है। दोस्तों के घर जाकर रहता था। कई साल तक। कभी अहसास ही नहीं हुआ कि यहां ज़ख्मों का ऐसा जख़ीरा पड़ा हुआ है। ये जगह चौरासी की सिसकियों को दबा कर नई ज़िंदगी रच रही है। हम सब प्रवासी छात्र लाजपतनगर के इन भुक्तभोगियों को कभी मकान मालिक से ज़्यादा समझ ही नहीं सके। दरअसल यही समस्या होती है। महानगरों की आबादी अपने आस पडोस को संबंधों के इन्हीं नज़रिये से देखती है। कई साल बाद जब तिलकविहार गया तो लगा कि सरकार ने दंगा पीड़ितों पर रसायन का लेप लगाकर इन्हें हमेशा के लिए बचा लिया है। तिलकविहार के कमरे,उनमें रहने वाले लोग इस तरह से लगे जैसे कोई हज़ार साल पहले मार दिये गए हों लेकिन मदद राशि की लेप से ज़िंदा लगते हों। ममी की तरह। त्रिलोकपुरी से रोज़ गुज़रता हूं। तिलकविहार की रहने वाली एक महिला ने कहा था कि वहां हमारा सब कुछ था। यहां कुछ नहीं है। हर दिन खुद से वादा करता हूं कि त्रिलोकपुरी जा कर देखना है। अब लगता है कि चिल्ला गांव जाना चाहिए। जहां से आई भीड़ ने त्रिलोकपुरी के महिलाओं के साथ बलात्कार किया था। महसूस करना चाहता हूं कि यहां से आए वहशी कैसे अपने भीतर पूरे वाकये को ज़ब्त किये बैठे हैं। बिना पछतावे के। कैसे किसी एक ने भी अपने गुनाह नहीं कबूले। अगर पछतावे को लेकर कांग्रेस और मनमोहन सिंह इतने ही ईमानदार हैं तो त्रिलोकपुरी जाएं, तिलकविहार जायें और दंगा पीड़ितों से आंख मिलाकर माफी मांगे। संसद की कालीन ताकते हुए माफी का कोई मतलब नहीं होता।

ख़ैर। मैं इस किताब का प्रचारक बन गया हूं। इस शर्म के साथ मैंने उन पत्रकारों की बहस क्यों सुनी जिनसे आवाज़ आई कि जरनैल को अकाली दल से पैसा मिला है। जरनैल का पोलिटिक्स में कैरियर बन गया। शर्म आ रही है अपने आप पर। जरनैल ने जो किया सही किया। जो भी किया मर्यादा में किया। जरनैल के ही शब्दों में अभूतपूर्व अन्याय के ख़िलाफ अभूतपूर्व विरोध था। आप सबसे एक गुज़ारिश है। पेंग्विन प्रकाश से छपी निन्यानबे रुपये की इस किताब को ज़रूर पढ़ियेगा। त्रिलोकपुरी और तिलकविहार ज़रूर जाइयेगा और हां एक बात और,पढ़ने के बाद अपने अपने पूर्वाग्रहों से संवाद कीजिएगा।

रवीश कुमार
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार और एनडीटीवी इंडिया के आफटपुट प्रमुख हैं, प्रस्तुत समीक्षा उनके ब्लॉग कस्बा से साभार....जरनैल सिंह की पुस्तक कब कटेगी चौरासी अंग्रेज़ी में भी I Accuse के नाम से पेंगुइन प्रकाशन पर उपलब्ध है।

Monday, December 21, 2009

अवतार : एक फिल्म से बढकर बहुत कुछ....


इस हफ्ते होलिवुड की फिल्म अवतार रिलीज़ हुई है। एक वैज्ञानिक फंतासी फिल्म है। सबसे बड़ी विशेषता ये है कि 'TAITENIC' के निर्देशक जेम्स कैमरून की फिल्म है। बेहद शानदार, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक। ये मैं तब कह रहा हूँ जबकि फिल्मों के मामले में मेरा टेस्ट विशुद्ध भारतीय है। वो इसलिए की शायद मुझे विदेशी फिल्मों में भारतीय आत्मा नहीं मिलती। बहरहाल यदि 'ब्लास्ट फ्रॉम पास्ट',' डे आफ्टर टुमारो' और अवतार जैसी फ़िल्में हो तो होलीवूड की फिल्मों से भी परहेज़ नहीं।

एक उपग्रह को पृष्ठभूमि में संजोये संवेदनशील फिल्म हैं। जिसमे इन्सान की राक्षसी इच्छाओं का भी पर्दाफास किया गया है। हम पर्यावरण के संरक्षण के लिए असफल कोपेनहगन जैसे सम्मेलन तो कर रहे हैं पर अन्दर समायी अनंत इच्छाए सारा व्रम्हांड लील जाना चाहती है। हमारी भूख को मिटाने में ये धरती समर्थ है पर तमन्नाओं की बाढ़ को शांत करने की हिम्मत इसमें नहीं है। इसलिए ये बहसी इन्सान दुसरे गृहों पर डेरा डालने चला है। उन गृहों पर भी ये अपनी हिंसक प्रवर्ती से साम्राज्य करना चाहता है। युद्ध के अलावा इसे कोई साधन नज़र नहीं आता। कुछ यही सन्देश देती आगे बढती है ये फिल्म। फिल्म में प्रदर्शित चित्रण अयथार्थ है पर इंसानी सोच का प्रतिबिम्ब यथार्थ है।

फिल्म में कई छोटे-छोटे सन्देश समाये हुए हैं, दर्शक अपनी प्रकृति के हिसाब से चीज ग्रहण करता है। कैमरून की taitenic भी एक लव-स्टोरी और एक भीषण हादसे के चित्रण से बढकर बहुत कुछ सिखाती थी। पर ये हम पर निर्भर है की हम उससे क्या लेते हैं।

आज के इस वैज्ञानिक युग में मशीनों की आदत हमें कुछ इस तरह हो गई है कि हम खुद मशीन बन गए है और मशीनों के संवेदना नहीं होती। फिल्म के एक दृश्य में वैज्ञानिक अन्तरिक्ष में जाने वाले नायक से कहता है वहां जाकर कुछ वेवकूफी मत कर देना। यहाँ वेवकूफी का मतलब दिल से काम लेने से है, प्यार करने से है। जी हाँ मशीने दिल नहीं लगाती।

पेन्डोरा नामके उपगृह पे रहने वाले लोगों को लुभाकर उनका राज्य हथियाने का षड़यंत्र रचा जा रहा है। पर अफ़सोस हमारे पास ऐसी कोई चीज नहीं जो उन्हें लुभा सके। हमारे कागज के नोट उनके लिए कागज के टुकड़े है। और उनके पास प्रकृति का खज़ाना है। जिसे हमने हमारी लालसाओं के सैलाब में नष्ट कर दिया।

खैर, एक उम्दा फिल्म है। चालू महीने में दो बढ़िया हालीवुड फ़िल्में देखने को मिली-२०१२ और अवतार। आपने यदि इसका लुत्फ़ उठाया हो तो जरुर देखिये।

Sunday, December 20, 2009

दहशतगर्दी , आसाराम बापू , पी.डी.दिनाकरन और तेलंगाना

दुनिया भर में फैल रही दहशतगर्दी एक ऐसा रोग है जो आसानी से पीछा नहीं छोड़ेगा . भारत में लोगों को रोगों कि आदत लग चुकी है लेकिन इलाज़ कम हैं और रोगों के साथ जिंदगी जीने कि मज़बूरी ज्यादा . भारत में दहशतगर्दी के इलाज़ इसलिए कारगर कम है क्योंकि हर चौथा भारतीय अपने आपको वी.आई.पी. की श्रेणी में रखता है . सुरक्षा के नियमों और कानूनों से खुद को ऊपर समझता है. चालान होने की सूरत में हर छुट भैया मोबाइल पर अपनी सिफारिस जुटाता है. हवाई अड्डों पर सिक्यूरिटी चेक अपनी बेईज्ज़ती समझता है. कोई हैरानी नहीं कि हमारे यहाँ आतंकी हमले होते रहेंगे

दिल्ली मुंबई और कोलकाता में रेस्ट हाउस और कोठरियों कि तलाशी चल रही है . देश में हाई अलर्ट जारी किया गया है . क्योंकि देश के प्रमुख हिस्सों में आतंकवादी घुसे हैं ऐसा खुफिया एजेंसी का कहना है . खुफिया खबर ये भी है कि आतंकी तालिबान से ट्रेनिंग लेकर आये हैं .

11 सितम्बर 2001 को अमेरिका पर दहशतगर्दी हमला हुआ और उसी साल 13 दिसंबर को भारत में संसद भवन पर हमला हुआ . अमेरिका में उस हमले के बाद कोई आतंकी वारदात नहीं हुइ है . लेकिन भारत के कई शहरों में आतंकी हमले हुए है . वज़ह साफ़ है कि अमेरिका ने सबक लेकर अपनी सुरक्षा से समझौता नहीं किया . भारत में भी जब तक सियासत कि जगह सुरक्षा को तवज्जों नहीं दी जाएगी , हालात नहीं सुधरेंगे .

लोकसभा के एक स्पीकर हुआ करते थे , सोमनाथ चटर्जी , वो खुद को इतना भारी भरकम वी. आई.पी. मान बैठे कि लन्दन जाने के लिए सिक्यूरिटी चेक करवाने से इनकार कर दिया. ये इतना शर्मनाक इसलिए है क्योंकि जो लोग खुद को वी. आई.पी. मानते है उन्हें दूसरों के लिए मिसाल कायम करनी चाहिए लेकिन दूसरों को नसीहत देने वाले, प्रवचन देने वाले लोग कानून के घेरे में आते ही कानून तोड़ने की कोशिश करने लगते है . ऐसे ही लोगों में एक नाम है कथा वाचक आसाराम बापू का .सदियों से सुनाई जाने वाली कथा कहानी को अपने अंदाज़ में सुनाने वाले आसाराम बापू के पांडाल में जुटने वाली भीड़ सभी राजनितिक पार्टियों और नेताओं को ललचाती है . शायद इसीलिए आसाराम बापू के खिलाफ मामले को जितनी मांग सी.बी.आई. को सौपने की हो रही है उससे कही ज्यादा कोशिश आसाराम बापू को हर आरोपों से बचाने की हो रही है. संघ परिवार आसाराम को बचाना चाहता है. वज़ह साफ़ है , सन 2004 में मनमोहन सरकार के खिलाफ बी.जे.पी. के एक धरने में जब भीड़ नहीं पहुंची तो आसाराम को बुलाया गया. अपने चेलों को लेकर आसाराम मौके पर पहुंचे और बी.जे.पी. की लाज बचाई . अब बारी आसाराम की लाज बचाने की है . गुजरात ही नहीं मध्य प्रदेश के कुछ आश्रमों में हुए बच्चों की मौत के मामलों में आरोप बापू , उनके बेटे और आश्रम पर है. आसाराम बापू और उसके बेटे पर उसके पुराने सेक्रेट्री राजू चंडोक ने आरोप लगाया कि वो काला जादू करते हैं . जिसके लिए कभी कभी नरबली की ज़रुरत होती है. इसके बदले में राजू चंडोक को तीन गोलियां मार दी गयीं . उधर जिनके बच्चों और परिवार वालों की लाशें आसाराम के आश्रम के बाहर पाई गयी है उन्हें इन्साफ मिलेगा या नहीं ये सवाल कायम है.

एक और मामले में ये सवाल कायम है की इंसाफ मिलेगा या नहीं और ये मामला एक ऐसे जज से जुड़ा हुआ है जिसका काम तो इन्साफ देना है लेकिन ये जज खुद ही कटघरे में खड़ा है . कर्नाटक हाई कोर्ट के जस्टिस पी.डी.दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग की मुहिम ने जोर पकड़ लिया है ... राज्यसभा के 76 सांसदों ने उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी से मिलकर दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग चलाने की मांग की.... दरअसल दिनाकरन पर आमदनी से ज्यादा ज़मीन जायदाद जुटाने , सरकारी जमीन पर कब्ज़ा करने , हैसियत का गलत इस्तेमाल करने , मनवाधिकार हनन और सरकारी कर्मचारियों के काम में बाधा डालने का आरोप है. संसद के इतिहास में तीसरी बार ऐसा हो रहा है की किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग लाया जा रहा है. अगर जस्टिस दिनाकरन पर लगे आरोप सही होते है तो उन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए ताकि मिसाल कायम हो.

अपनी और हाथियों की मूर्तियाँ बनवाने की शौक़ीन उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती स्वर्गीय सरदार बल्लभ भाई पटेल के खिलाफ हो गयी. सरदार पटेल ने छोटे छोटे रजवाड़े को एक में मिला कर भारत को मौजूदा शक्ल दी .लेकिन ये जानते हुए कि हमारी पार्टियाँ परिवारों के कब्जे में है जो नए छोटे मोटे राजे रजवाड़े है. मायावती और छोटे राज्य चाहती है.वैसे मायावती की पार्टी को लोकसभा चुनाव में काफी मार पड़ी . सिर्फ 21 एम.पी. मिले है लेकिन फिर भी जो फैसला पूरे देश के लिए दूरगामी माएने रखते है. उस पर पत्र लिखने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है. मायावती अकेले नहीं है उनके साथ है 5 सांसदों की पार्टी वाले चौधरी अजी सिंह और एक एम.पी. की पार्टी वाले वन मैन पार्टी जसवंत सिंह …. बहाना तेलंगाना

अलग तेलंगाना की लड़ाई 1969 से चल रही है लेकिन इसने इतनी तेजी हाल ही में पकड़ी है. अलग तेलंगाना प्रदेश का झंडा थमने वाले के. चन्द्रशेखर राव 2001 में चंद्रबाबू नायडू के साथ थे. लेकिन जब उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया तो वे अलग तेलंगाना की मांग लेकर टी.डी.पी. से अलग हो गए. फिर 2006 में इसी मसले पर कांग्रेस से अलग हो गए । गए और 2009 में फिर कांगेस के साथ हो गए . दो सांसदों और ग्यारह विधायकों के दम पर चल रही इनकी लड़ाई की आग को बाकी नेता पूरे देश में बड़ी तेजी के साथ फैलाने की कोशिश कर रहे हैं . मायावती ने बुंदेलखंड और हरित प्रदेश देने की बात को कह कर आग और बढा दी है. और फिर कहा की पूर्वांचल भी बनना चाहिए . जिन प्रदेशों के मुख्यमंत्री इतने उदार नहीं है. वहां के उन संगटन में जान आ गयी जो वर्षों पहले अलग राज्य की लड़ाई लड़ कर ख़त्म हो चुके थे. राजस्थान में मरुप्रदेश , बिहार और वेस्ट बंगाल की सीमा पर सीमांचल , पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड , असाम में बोडोलैंड सहित पूरे देश में करीब 10 से ज्यादा राज्यों की मांग चल रही है. सन 2000 में N.D.A. की सरकार ने उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ और झारखण्ड राज्य बना दिया . बी.जे.पी.खुद को छोटे राज्यों की तरफदार कहती है लेकिन तेलंगाना के मसले पर वह चुप है. क्योंकि तेलंगाना की लड़ाई लड़ने वाले के. चंद्र्शेखेर कांग्रेस के साथ है . ये छोटे राज्यों की बड़ी राजनीती है. आज़ादी से पहले की छोटी छोटी रियासतों की तरफ देश को ले जा रहे नेता ये मसला नहीं उठाते की 1953 के बाद देश में राज्यों के पुनर गटन के लिए नया आयोग क्यों नहीं बना?

Thursday, December 17, 2009

पा...

कल रात भोपाल के ज्योति सिनेप्लेक्स में पा देखी। बच्चन साहब परदे पर आये और पहले सीन में ही रुला दिया। (औरो-२ की आवाज़ के बीच अवार्ड लेकर झूमने का शॉट याद करें।) मुझे जानने वाले ये बात कह सकते हैं फिल्में देखते वक़्त मैं आदतन रोता हूँ इसलिए मेरे रोने से पा फिल्म महान नहीं हो जाती। लेकिन सिर्फ मैं ही नहीं रोया। ज्योति में कल ज्यादातर की आँखें नाम थीं। यकीन मानिए भोपाल में बीई के जिन स्टूडेंट्स को आतंक का पर्यार और कुख्यात माना जाता है, उनमे से भी ज्यदातर की आँखें नाम थीं .एक बेचारा तो मेरे साथ ही बैठा था। स्पाई-कट बाल, डोले-शोले और हाथों में झहुआ भर ब्रेसलेट पहने ये लड़का ऐसे रो रहा था जैसे की चाचा चौधरी की कॉमिक्स में पात्र रोते हैं-बू-हू-हू । अमिताभ कहीं से भी अमिताभ नहीं लगे। ७० साल का बूढा, हर जगह १२ साल का बच्चा ही लगा। छोटी-छोटी बालसुलभ मनोवृत्तियाँ जिस तरह से अमिताभ ने परदे पर उकेरीं यकीन मानिए बच्चे के सिवाय उनको कोई दूसरा नहीं उकेर सकता, या कहें बच्चे के सिवा। छोटा बच्चा कितना स्मार्ट हो सकता है। अपनी जिद से मां बाप के बीच की दीवार भी गिरा सकता है। और ग्लोब को सफ़ेद रंग कर मुल्कों के बीच की दीवार भी। आखिरी संवादों में से एक संवाद छोटी लड़की का था जो कहती है "गलती करने वाला गलती सहने वाले से ज्यादा हर्ट होता है।" होता ऐसा ही है। या लापतागंज के कचुआचाचा के अंदाज़ में कहें तो कभी-कभी नहीं भी होता है। फिल्म जब ख़त्म हुई और लोग बाहर निकल रहे थे तो यकीन मानिए मैंने ज़िन्दगी में पहली बार ऐसा मंज़र देखा। लोग सीढिया उतर रहे थे आहिस्ता-आहिस्ता ,लेकिन कोई किसी से बात नहीं कर रहा था। ये वही ज्योति है जिसमे आमतौर पर लोग फिल्म छूटने के बाद ऐसे भागते है जैसे स्कूल से छुट्टी होने के बाद बच्चे घर भागते हैं...इन्ही बाहर आने वालों में से मैं भी था। बाहर आया तो बाहर लगे अमिताभ उर्फ़ औरो के पोस्टर को सलाम किया। और तबसे अब तक ज़ेहन में सिर्फ औरो अटका है।

Wednesday, December 16, 2009

मफ़लर-रवीश कुमार का एक पुराना लेख


आज सुबह सुबह घर से निकलना पड़ा तो भाई बोला कि मफलर ले लो कान पर बांध लेना....अचानक करीब दो साल पहले पढ़े एक लेख की याद ताज़ा हो आई जो रवीश भाई ने लिखा था....रवीश जी तो किसी परिचय के मोहताज हैं नहीं.....तब अपन नए नए ब्लॉगर थे और रवीश जी का वो लेख बड़ा पसंद आया था....आज उस याद को आप सब से फिर साझा कर रहा हूं....रवीश जी की मौन अनुमति तो हमेशा रहती ही है....लेख पढ़े मज़ा न आए तो पैसे वापस....


मफ़लर

सर्दी के तमाम कपड़ों में मफ़लर देहाती और शहरी पहचान की मध्यबिंदु की तरह गले में लटकता रहता है। एक सज्जन ने कहा आप भी मफ़लर पहनते हैं। देहाती की तरह। एक पूर्व देहाती को यह बात पसंद नहीं आई। आखिर मुझे और मेरे मफ़लर में कोई फ़र्क नहीं है। मफ़लर एक पुल की तरह वो पट्टी है जो फैशन भी है और पुरातन भी।कैसे? बस आप मफ़लर को सर के पीछे से घुमाते हुए दोनों कान के ऊपर से ले आईये और फिर ठुड्डी के नीचे बांध कर कालर में खोंस दीजिए। आप देहाती की तरह लगते हैं। मफ़लर तब फ़ैशन नहीं रह जाता। नेसेसिटी की तरह सर्दी से बचने का अनिवार्य ढाल बन जाता है। बिहार, उत्तर प्रदेश के ठीक ठाक लोगों से लेकर रिक्शेवाले, चायवाले तक इसी अंदाज़ में मफ़लर की इस शैली को ज़माने से अपनाते रहे हैं।
मफ़लर पर किसी ने शोध नहीं किया है। शायद ब्रितानी चीज़ होगी। लेकिन हम मफ़लर से पहले शाल को भी इसी अंदाज़ में कॉलर के ऊपर गांठ बांध कर ओढ़ते रहे हैं। हिमालय से नीचे उतर कर आने वाली सर्द हवाओं से बचने के लिए। लालू जैसे नेता तो कपार के ऊपर घूमा घूमा कर बांध देते हैं। मफ़लर का एक रूप यह भी है।लेकिन मफ़लर का एक अंदाज़ खांटी देहाती होने के बाद भी शहरी रूप में बचा रहा है। जिसे आप अपने कोट के दोनों साइड के बीच लटका देते हैं। यहां मफ़लर का कुछ हिस्सा कोट के पीछे रहता है और कुछ कोट के बाहर। यह मफ़लर का शहरी रूप है। इस रूप में आप स्मार्ट कहे जाते हैं।मफ़लर नेसेसिटी से फ़ैशन हो जाता है।
देहात और शहर के बीच का एक मध्यबिंदु मफ़लर में ही वो ताकत है जो पल में देहाती और पल में शहरी हो सकता है। वो मेरे जैसा है। पूर्व देहाती और मौजूदा शहरी। कृपया मफ़लर को गया गुज़रा न समझें। इससे मेरी आत्मा आहत होती है।
रवीश कुमार वरिष्ठ पत्रकार
रवीश कुमार वरिष्ठ पत्रकार है, सम्प्रति एनडीटीवी इंडिया के आउटपुट हेड हैं और कस्बा इनका ब्लॉग है....

Tuesday, December 15, 2009

मीडिया का अंदरूनी लोकतंत्र

पत्रकारिता यानी पांचवां वेद. पत्रकारिता मतलब लोकतंत्र का चौथा खम्भा . पत्रकारिता अर्थात खबरपालिका .पत्रकारिता ज़ुबान है आम जनता की.आनेवाले समय में ना जाने और भी कई उपाधियों से नवाजी जाएगी हमारी पत्रकारिता .आज पत्रकारिता का रंग-ढंग ,रूप,तेवर और कलेवर सब कुछ बदल चुका है. कभी देशभक्ति ,सामाजिक क्रांति ,जोश ,जूनून और जज्बे की मिसाल हुआ करने वाली हमारी पत्रकारिता के संस्कार आज बदल चुके हैं . वर्तमान पत्रकारिता एक उद्द्योग हैं ,एक कारोबार है ,एक पेशा है.अब पत्रकारिता मिशन की नहीं कमीशन की होती है.आज पत्रकारिता नहीं चाटुकारिता होती है .मीडिया में राजनीति का  पूरा-पूरा घालमेल हो चुका है.मीडिया पर व्यापारियों,उद्द्योग्पतिओं ,और राजनीतिज्ञों का कब्ज़ा हो चुका है .हर दिन पत्रकारिता के कायदे -कानूनों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं .मीडिया एथिक्स अब बस पत्रकारिता के किताबों में दफन हो कर रह गई है . कुछ सार्थक करने की बजाय ,पत्रकार ब्लाग्बाज़ी करते हैं .इसके माध्यम से एक - दूसरे पर आरोप मढ़ते हैं. मशहूर होने का नया तरीका ढूंढते हैं. क्या यही है बदलते ज़माने की पत्रकारिता . देश में दुनिया भर के विकास के मुद्दे पड़ें हैं उनपर चर्चा करने और एक मुहिम छेड़ने की जगह फिजूल के काम करते हैं .
खुद को गर्व से लोकतंत्र का चौकीदार कहने वाली के भीतर कई छेद हैं जिनपर पत्रकारिता के ये कर्णधार बात करने से कतराते हैं . दूसरों के विचारों को नया आयाम देने वाली और समस्याओं को उजागर करने वाली मीडिया अपने अन्दर के विचारों को कोई आयाम नहीं दे पा रही है. ये सोचनेवाली बात हैं. ऐसे में भारतीय मीडिया का कई विकारों से ग्रसित होना लाज़िमी है . चौथा खम्भा आज चार गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं . 1. भारतीय मीडिया में भर्तियों का कोई स्पष्ट तरीका नहीं है. 2 .मीडिया में जाति का ज़हर कूट-कूट कर भरा है . 3 . मीडिया में  स्त्री प्रेम बढ़ा है . 4 . मीडिया में जन सरोकार वाली ख़बरों की  लगातार भ्रूण -हत्या हो रही है .
चर्चा करते हैं पहली बिमारी की . 1. गलैमर और शोहरत पाने की चाहत लेकर मीडिया के मैदान में कूदने वाले अनभिज्ञ ,अनजान और आँखों में कुछ कर गुजरने का सपना लेकर आनेवाले युवा और भावी पत्रकारों को जब ये पता लगता हैं की इस क्षेत्र में बिना जुगाड़ के नौकरी नहीं मिलती है तो उनके आँखों से खून के आसूं निकलने शुरू हो जाते हैं . न्यूज़ चैनलों तक पहुचने का एकमात्र रास्ता है जुगाड़ ,अपवाद स्वरुप आईआईएमसी जैसे संस्थानों के बच्चों को छोड़कर . मीडिया में भर्ती का कोई साफ तरीका नहीं है . काम करने का कोई निर्धारित समय नहीं . वेतन तय नहीं है ,जिस चैनल या अखबार को जो मन में आया उतने पैसे में रख लिया नौकरी पर.सुरक्षित भविष्य की कोई गारंटी नहीं . जब मन चाहा कोई भी कारण बताकर निकाल दिया जाता है पत्रकारिता की दुकान से . रिटायरमेंट की कोई पॉलिसी नहीं हैं यहाँ पर . मरते दम तक सम्पादक  बने रहो और हाथ में कलम हिलने लगे तब  तक काम करते रहो. और युवा पत्रकारों के राह की रोड़ा बने रहो. ऐसे ही कुछ हालत हैं भारतीय पत्रकारिता के . स्वतंत्र पत्रकारिता में भी ये युवाओं की जान नहीं बख्शते . वहा ये माजरा है की तुम तो अनुभवहीन लेखक हो तुम्हारी रचनाये कैसे छापें ?.और अगर छाप भी दिया तो एक पैसे नहीं देते . क्या करें, कहाँ जायें ये युवा ? इंटर्नशिप के नाम पर 6 या उससे भी अभिक दिन तक काम कराकर इन युवाओं कोबाहर  का रास्ता दिखा दिया जाता है ये कहकर की तुम तो अभी फ्रेशर हो ? क्या जितने भी पत्रकार आज काम कर रहें है वो क्या शुरुआत से ही काम का अनुभव रखते थे या उन्होंने भी कही से काम की शुरुआत की होगी ?कुकुरमुत्ते की तरह रोज़ नए मीडिया स्कूल और नए चैनल ,अखबार खुल रहे हैं लेकिन जॉब नदारद .जिन्हें मिल भी रहा है उन्हें बिना किसी जुगाड़ के इन्हीं. मीडिया में कैम्पस प्लेसमेंट लगभग १ प्रतिशत होता है .  ये सब बुनियादी बातें आज की मीडिया के सामने बड़े  सवाल के तौर पर खड़ी हैं  ?
मीडिया की दूसरी बीमारी है जाति .पूरे मीडिया पर सवर्णों का कब्ज़ा है .टीवी स्क्रीन , अखबार के सम्पादकीय पन्ने  और उससे भी पेट ना भरा तो ब्लॉग के माध्यम से बड़ी-बड़ी उपदेशात्मक बातें करने वाले ये तथाकथित वरिष्ठ पत्रकार ,जाने माने पत्रकार और संपादकों ,मैनेजिंग एडिटरों को  तनिक भी इस से इत्त्तिफाक नहीं है खुद के अन्दर की गन्दगी को कैसे साफ़ किया जाए ?मीडिया में दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों आने के पावों के निशान भी नहीं मिलते . तभी तो आरक्षण और अल्पसंख्यक ,गरीबी जैसे मुद्दों पर इनके सवर्णी मानसिकता की साफ़ झलक भी देखने को मिलती है . तंग मानसिकता के लोग क्या पत्रकारिता को पवित्र बनाये रख्नेंगे ये बड़ा सवाल सबके सामने है ? ऐसा लगता है पूरी मीडिया सवर्णों की बपौती है .
मीडिया की तीसरी सबसे बड़ी बीमारी है स्त्री प्रेम . पूरी दुनिया में 42 प्रतिशत महिला पत्रकार हैं .एशिया में २१प्रतिशत महिला पत्रकार हैं .वहीँ भारतीय पत्रकारिता पर पुरूषों का एकाधिकार हैं .भारत में सिर्फ १२ प्रतिशत महिला पत्रकार हैं .अंग्रेजी और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में महिलाओं की तादाद ज्यादा है . लेकिन इनके चयन का आधार योग्यता नहीं सुन्दरता हैं . अपवाद के तौर पर कुछ महिला पत्रकारों को छोड़कर आज भी  कोई महिला पत्रकार ,पत्रकारिता के शीर्ष पर नहीं नहीं पहुच पाई है.चैनलों को बिकाऊ बनाने के लिए सुन्दर-सुन्दर कन्याओं को एंकर और रिपोर्टर के तौर पर पेश किया जाता है ..उन्हें न्यूज़रूम के माहौल में रंगीनियत लाने और बॉस के केबिन को गुलज़ार बनाए रखने के लिए चैनलों में लगातार भरा जा रहा है . अब यही संस्कृति अखबारों में भी तेज़ी से फैल रही है.महिला अधिकारों ,महिला आरक्षण ,वेश्यावृति ,लिंग-भेद जैसे मसले पर चिकनी
-चुपड़ी बातें करने वाले इन बड़े पत्रकारों की सोच की सोच कैसी है भारतीय पत्रकारिता में महिलाओं की स्थिति को देखकर लगाया जा सकता है .आज मेदिअमें काम करने वाली हर महिला पत्रकार कुंठा और असुरक्षा के बीच काम कर रही है . उसके काम में बाधा पहुंचाई जाति है . उसके साथ बातचीत या काम के दौरान द्विअर्थीसम्वादों  का प्रयोग किया जाता है .
मीडिया की  चौथी बिमारी है जन सरोकार के ख़बरों की भ्रूण-हत्या करना . आज की मीडिया के लिए हिरोईनों की चढढ -चोली और बिकनी खबर है .मॉडल का रैम्प पर टोपलेस हो जाना खबर है . सेक्सौर सेंसेक्स खबर है .राखी सावंत की नौटंकी और बिगबॉस का नंगापन खबर है . आत्महत्या करते किसान ,गरीबी ,भुखमरी बेरोज़गारी मीडिया के लिए खबर नहीं है .
आज मीडिया का चरित्र कारोबारी हो चुका है मीडिया का  समाज कारोबारी हो चुका है .एक लोकतान्त्रिक देश में मीडिया का तानाशाह रूप देखने को मिल रहा है .मीडिया के चरित्र का लगातार पतन हो रहा है . मीडिया अपने पावर का सही उपयोग नहीं कर पा रही है .उसके पत्रकार पुलिस और यातायात कर्मचारियों को धमकाने ,आम आदमी को डराने और वसूली करने जैसे कामों में अपनी शक्ति का उपयोग करते हैं . और रौब के साथ हर जगह कहते फिरते है की मैं फलां चैनल या अखबार का पत्रकार हूँ .पत्रकारिता की छवि आज विकृत हो चुकी है उसे सुधरने का काम पत्रकारिता के कर्णधार ही कर सकते है .लेकिन वो अपनी दुकान सजा रहे है उन्हें पत्रकारिता किधर जा रही है उससे कोई मतलबनहीं.
आज एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया , प्रेस इंस्टिट्यूट आफ इंडिया ,प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया जैसे संसथान संपादकों के लिए आराम गाह बन चुके हैं जिस पर बारी-बारी से हर बड़े पत्रकार को बैठाया जाता है .यहाँ के बाब उनके राज्यसभा तक पहुचने के रस्ते खुलते हैं पत्रकारिता कोटे ते तहत . काम के नाम पर ये संसथान बेकार हो गए हैं . इनके रहने नहीं रहने से कोई फर्क नहीं पद रहा है . स्वनियमन-स्वनियमन चिल्लाने वाले ये  मीडिया समूह कभी अपने ऊपर स्वनियमन कर नहीं पाएंगे क्योंकि जैसा बाज़ार उन्होंने तैयार कर दिया है उसे देखकर यह सम्भव नहीं है .
 सबको खबर देने वाले मीडिया और सबकी खबर लेने वाली मीडिया को आज पहले खुद की खबर लेने की ज़रूरत है .मीडिया की ऐसी हालत देखकर मुझे अंग्रेजी की एक कहावत याद आ गई ." डॉक्टर साहब पहले अपना तो इलाज़ कर लीजिये " कहने का अर्थ यह है की अपने को पत्रकारिता का शूरमा कहने वाले जाने-माने पत्रकारों और संपादकों ,मनाजिंग एडिटरों को अपनी बिमारी पर ध्यान देने की ज़रूरत है तभी दूसरों की देखभाल ठीक से कर पाएंगे .



                                                                                                                ओम प्रकाश
                       
                                                                                                                        

Monday, December 14, 2009

जीना यहां मरना यहां.....

शोमैन राज कपूर अगर आज भारतीय सिनेमा के शिखर पर काबिज़ हैं तो इसका राज़ उनकी ज़िन्दगी के शुरूआती दौर के इर्द-गिर्द घूमता है। 14 दिसंबर 1924 को पेशावर में जन्मे रणबीर राजकपूर से बचपन में उनके पिता पृथ्वीराज कपूर ने कहा था की राजू बेटा नीचे से शुरू करोगे तो बहुत ऊपर जाओगे। राजकपूर ने ये बात जैसे उसी वक़्त से गाँठ बाँध ली थी। वे तैयार थे नीचे से शुरू करने के लिए भी और बहुत ऊपर जाने के लिए भी।
राजकपूर ने रणजीत मूवीटोन के लिए अपरेंटिस का काम किया जो ज़रूरत पड़ने पर वजन भी उठा सकता था और झाडू-पोछा भी लगा सकता था। उन्होंने केदार शर्मा के लिए क्लैपर पकड़ा। बाद में यही केदार का यही क्लैपर बॉय राजू 1947 में उनकी फिल्म नीलकमल का नायक बन गया। इसके बीच में वे पहले ही इंकलाब (1935)और हमारी बात (1943), गौरी (1943) के ज़रिये ये दिखा चुके थे की कैमरे के सामने परदे पर भी वे बुरे नहीं लगते। राजकपूर के बहुत ऊपर जाने का सफ़र अब रफ़्तार पकड़ने लगा था।
1948 में वे पहली बार कैमरे के सामने से कैमरे के पीछे गए। सिर्फ चौबीस साल की उम्र में उन्होंने आरके स्टूडियो के नाम से अपना स्टूडियो शुरू किया और हिंदी सिनेमा के सबसे युवा फिल्म-निर्देशक बन गए। इसके बाद तो वे बारहा कैमरे के आगे-पीछे आते जाते रहे। राजकपूर अपने आप में एक पूरा फिल्म संस्थान थे। एक उम्दा निर्देशक जो एक बेहतरीन अभिनेता था, निर्माता था, साथ ही साथ गीत-संगीत और तकनीक जैसे न जाने कितने पहलुओं का ज्ञाता था। मुकेश, शंकर-जयकिशन, नर्गिस, मन्ना डे और शैलेन्द्र जैसे बेहतरीन लोग उनकी टीम में थे।
अपने हालात और समाज से भी वे हमेशा जुड़े रहे। यही वजह है की उनकी फिल्में प्रगतिशील आन्दोलन की मजबूत धुरी बनीं। आवारा की सफलता की कहानियां तो न जाने हमारी कितनी पीढियां सुनेंगी। राजकपूर एक ऐसा संग्रहालय हैं जिसके संग्रह में आग,आवारा, बूट-पोलिश,बरसात,जागते रहो,जिस देश में गंगा बहती है श्री-420, संगम, मेरा नाम जोकर, प्रेम-रोग, और बॉबी जैसी नायब फिल्में हैं। उनकी फिल्में युवाओं में नर्म दिल के नाज़ुक जज़्बात में हलचल पैदा करती हैं तो समाज के निष्ठुर कलेजे पर तीखी चोट भी करती हैं। उनकी फिल्मों का सन्देश फिजाओं में तैरता है तो उनकी फिल्मों के गीत लोगों की जुबां पर पीढी-दर-पीढी चढ़ते हैं।
आज के दौर में आमिर खान को मिस्टर परफेक्शनिस्ट का खिताब दिया जाता है लेकिन भारतीय फिल्मों के संपूर्ण गौरव-ग्रन्थ को पढ़ा जाय तो इस खिताब के सही और एकमात्र हकदार राजकपूर ही हैं। कपूर खानदान ने बेशक इंडस्ट्री को एक से एक नायाब सितारे दिए हैं लेकिन इनमें राजकपूर का चमक दैवीय है।ये एक अरसे से फ़िल्मी फलक को रौशन कर रही है और आगे भी अनंतकाल तक करती रहेगी। 2 जून 1988 को राजकपूर भले ही इस फानी दुनिया से रुखसत हो गए हों लेकिन उनकी फिल्में और उनका काम आज भी कह रहा है की जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ ....
हिमांशु बाजपेयी
(लेखक वर्तमान में भास्कर डॉट कॉम में कार्यरत हैं और राजकपूर के जयंती पर उनका ये विशेष आलेख भास्कर में प्रकाशित हुआ है....हिमांशु से आप him_12_1987@yahoo.co.in पर सम्पर्क कर सकते हैं।)

Friday, December 11, 2009

TRP का छलावा...TAM का गोरखधंधा ....

यह कहानी करोड़ों रुपए की उस ठगी के बारे में है जिसे बाकी सबको तो छोड़िए, अपने आपको बहुत चतुर मानने वाला मीडिया भी बहुत इज्जत देता है। इस ठगी का नाम टीआरपी है। टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स। ये टीआरपी ही तय करती है कि कौन-सा टीवी चैनल सबसे लोकप्रिय है। अगर टीआरपी की वजह से चैनलों को मिलने वाले धंधे की गिनती कर ली जाए तो यह घपला अरबों रुपए तक पहुंचेगा। टीआरपी की तथाकथित मेरिट लिस्ट कैसे बनाई जाती है? एक संस्था है टैम यानी टेलीविजन ऑडियंस मिजरमेंट और दूसरी है इनटैम। पहली वाली संस्था में इंडिया का इन लगा दिया गया है। दोनों के पास टीवी से जोड़ कर रखने वाले पीपुल मीटर नाम के बक्से हैं जो यह दर्ज करते रहते हैं कि किस टीवी पर कौन-सा चैनल कितनी देर तक देखा गया और टीआरपी तय हो जाती है। ऐसा नहीं कि टीवी चैनलों के धुरंधर मालिकों और विज्ञापन एजेंसियों के चंट संचालकों को इस धोखाधड़ी का पता न हो कि टीआरपी असल में देश का असली सच नहीं बताती है। आम धारणा है कि टीआरपी देश के सभी टीवी वाले घरों का प्रतिनिधित्व करती है पर यह सच नहीं है।

पांच साल पहले तक देश के सिर्फ पांच महानगरों में गिनती के पीपुल मीटर लगे मीटर लगे थे जो अब तीस शहरों में हैं। टैम के पास आज की तारीख में 4405 और इनटैम के पास 3454 पीपुल मीटर हैं। सबसे ज्यादा यह मीटर मुंबई में लगे हैं और लगभग दो करोड़ की आबादी वाली मुंबई में 600 घरों में यह मीटर तय करते हैं कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम कौन सा है और सबसे ज्यादा कौन सा टीवी चैनल देखा जाता है। पता नहीं क्यों ठगी और धोखाधड़ी का मामला इन फर्जी आंकड़े देने वालों के खिलाफ दर्ज कर के इन्हें जेल में नहीं डाला जाता।

कुछ बड़े शहरों में 120 मीटर लगे हैं। पूरे उत्तर प्रदेश में 300 मीटर लगे हैं। बिहार में सिर्फ 40 मीटर लगे हैं और हर सप्ताह टैम के कर्णधार जो रिपोर्ट चैनलों से लाखों रुपए ले कर जारी करते हैं उसमें उनका फतवा होता हैं कि कभी आज तक ऊपर तो कभी स्टार न्यूज आगे तो कभी इंडिया टीवी फतह कर रहा होता है। इन आंकड़ों पर विश्वास करने के पहले एक चीज जान लीजिए। अपनी तमाम बाधाओ और सीमाओं के बावजूद दूरदर्शन भारत में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला चैनल है। क्रिकेट मैच होते हैं तो लोग सारा दिन दूरदर्शन पर अटके रहते हैं। इसके अलावा लोकसभा चैनल जिसकी यह टैम वाले गिनती तक नहीं करते, सोमवार और मंगलवार को लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पर झगड़े के दौरान सबसे ज्यादा पूरे दिन देखा गया। दूरदर्शन और लोकसभा चैनल की कोई टीआरपी नहीं है। आप कितना विश्वास करेंगे इन आंकड़ों पर।

इसके अलावा पीपुल मीटर को गौर से देखें तो एक बच्चा भी उसका एक बटन दबा कर उसमें दर्ज सारे आंकड़ों को तितर-बितर कर सकता है। फिर भी उस डिब्बे की रिपोर्ट पर सप्ताह की टीआरपी जारी कर दी जाएगी। टीवी चैनल स्थापित करना और चलाना महंगा काम जरूर है लेकिन अब वह इतना महंगा नहीं रह गया है। पांच करोड़ में आप चैनल स्थापित भी कर सकते हैं और कम से कम साल भर चला भी सकते हैं। मगर दस अच्छे पत्रकारों को जितना वेतन मिलता है उतना टैम वाले इन चैनलों से वसूल लेते हैं। चैनल वाले बाजार में रहने के लिए अच्छी खबर हो या न हो, टैम की सदस्य बनना ज्यादा जरूरी मानते हैं। हर सप्ताह टैम के लोग चैनलों के ऊपर नीचे होने का फतवा जारी करते रहते हैं और दुनिया की खबर लेने वाले और दुनिया को खबर देने वाले चैनल इसे प्रसाद की तरह ग्रहण करते हैं।

टैम एक बहुत बड़ा धोखा हैं और टीआरपी एक धूर्त और नाटकीय आंकड़ा है। जब सारे चैनलों को लाइसेंस भारत सरकार देती हैं तो वह चैनलों से ही पैसा लेकर उनकी लोकप्रियता की निगरानी क्यों नहीं कर सकती? पीपुल मीटर हजार रुपए से भी कम का आता हैं और सरकार का जो तंत्र हैं वह हर जिले में कम से कम हजार पीपुल मीटर लगा सकता है जिसके आंकड़ों की समीक्षा प्रमाणिक जानकारी रखने वाले विशेषज्ञ करें और हर सप्ताह प्रामाणिक टीआरपी जारी करें। जब अखबारों और पत्रिकाओं के मामले में ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन के प्रमाण पत्र को विज्ञापन से ले कर बाकी सरकारी काम काज में मान्यता दी जाती हैं तो यूपी के एक शहर में बैठे कुछ चालाक कारोबारी डेढ़ अरब की आबादी वाले देश की रुचियों और टीवी देखने की प्राथमिकताओं के प्रवक्ता क्यों बने?

इसके अलावा भारत भले ही गांवों में बसता हो मगर टीआरपी दर्ज करने वाले मीटर शहरों में लगे हैं। जाहिर है कि टीआरपी इंडिया पर तो नहीं ही कटती, असली भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करती। इसलिए टैम और इनटैम के आंकड़े अक्सर अलग होते हैं। ये दोनों टीआरपी दुकानें चैनलों से पांच लाख रुपए से ले कर पचास लाख रुपए तक सलाना लेती हैं और चैनल चूंकि इन्हीं आंकड़ों को आधार बना कर विज्ञापन वसूल करते हैं इसलिए उन्हें चाहे स्टाफ की छंटनी करनी पड़े, वे टीआरपी के दुकानदारों को नियमित पैसा देते हैं। अब तो भारत में इंडियन ब्राडकास्टिंग फाउंडेशन और नेशनल ब्राडकास्टिंग एसोसिएशन जैसी संस्थाएं भी हैं जो आसानी से आंकड़ों की निगरानी कर सकती हैं। एनबीए के सदस्य तो लगभग सारे टीवी चैनल हैं और वे मिल कर आसानी से यह निगरानी तंत्र चला सकते हैं मगर सच में आखिर किसकी दिलचस्पी हैं? कौन चाहेगा कि दूरदर्शन पचास का आंकड़ा पार कर जाए और बाकी पांच से लेकर पंद्रह तक में टिके रहें? इसीलिए टीआरपी नामक फ्राड लगातार चल रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार टीआरपी नामक मुहावरे के आधार पर जो हजारों करोड़ का कारोबार चल रहा है उसमें धोखा देने वाले भी शरीक हैं और जानबूझ कर इस धोखे को प्रोत्साहन देने वाले चैनल भी उतने ही दोषी है।

एक और गलतफहमी की ओर ध्यान से देखना होगा। अगर टीआरपी के आंकड़ों पर विश्वास करें तो भारत में प्रिंट मीडिया खत्म हो जाना चाहिए। मगर दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, अमर उजाला, पंजाब केसरी, नव भारत टाइम्स और दूसरी भाषाओं के अखबारों के प्रसार लगातार बढ़ते जा रहे हैं और कई चमकदार क्षेत्रीय अखबार हाल में प्रकाशित होने शुरू हुए हैं और फायदे की ओर बढ़ रहे हैं। दैनिक हिंदस्तान में तो जैसे अपना फिर से अविष्कार किया है। सच यह है कि टीवी पर खबर देखने के बाद लोग सबेरे अखबारों से उसकी पुष्टि करते हैं और एक टीवी चैनल में काम करने के कारण मुझे यह भी पता है कि अखबारों में छपी खबरों का विस्तार ही आम तौर पर टीवी चैनलों में पूरे दिन किया जाता है।


लेखक आलोक तोमर देश के जाने-माने पत्रकार हैं.

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