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Thursday, December 17, 2009

पा...

कल रात भोपाल के ज्योति सिनेप्लेक्स में पा देखी। बच्चन साहब परदे पर आये और पहले सीन में ही रुला दिया। (औरो-२ की आवाज़ के बीच अवार्ड लेकर झूमने का शॉट याद करें।) मुझे जानने वाले ये बात कह सकते हैं फिल्में देखते वक़्त मैं आदतन रोता हूँ इसलिए मेरे रोने से पा फिल्म महान नहीं हो जाती। लेकिन सिर्फ मैं ही नहीं रोया। ज्योति में कल ज्यादातर की आँखें नाम थीं। यकीन मानिए भोपाल में बीई के जिन स्टूडेंट्स को आतंक का पर्यार और कुख्यात माना जाता है, उनमे से भी ज्यदातर की आँखें नाम थीं .एक बेचारा तो मेरे साथ ही बैठा था। स्पाई-कट बाल, डोले-शोले और हाथों में झहुआ भर ब्रेसलेट पहने ये लड़का ऐसे रो रहा था जैसे की चाचा चौधरी की कॉमिक्स में पात्र रोते हैं-बू-हू-हू । अमिताभ कहीं से भी अमिताभ नहीं लगे। ७० साल का बूढा, हर जगह १२ साल का बच्चा ही लगा। छोटी-छोटी बालसुलभ मनोवृत्तियाँ जिस तरह से अमिताभ ने परदे पर उकेरीं यकीन मानिए बच्चे के सिवाय उनको कोई दूसरा नहीं उकेर सकता, या कहें बच्चे के सिवा। छोटा बच्चा कितना स्मार्ट हो सकता है। अपनी जिद से मां बाप के बीच की दीवार भी गिरा सकता है। और ग्लोब को सफ़ेद रंग कर मुल्कों के बीच की दीवार भी। आखिरी संवादों में से एक संवाद छोटी लड़की का था जो कहती है "गलती करने वाला गलती सहने वाले से ज्यादा हर्ट होता है।" होता ऐसा ही है। या लापतागंज के कचुआचाचा के अंदाज़ में कहें तो कभी-कभी नहीं भी होता है। फिल्म जब ख़त्म हुई और लोग बाहर निकल रहे थे तो यकीन मानिए मैंने ज़िन्दगी में पहली बार ऐसा मंज़र देखा। लोग सीढिया उतर रहे थे आहिस्ता-आहिस्ता ,लेकिन कोई किसी से बात नहीं कर रहा था। ये वही ज्योति है जिसमे आमतौर पर लोग फिल्म छूटने के बाद ऐसे भागते है जैसे स्कूल से छुट्टी होने के बाद बच्चे घर भागते हैं...इन्ही बाहर आने वालों में से मैं भी था। बाहर आया तो बाहर लगे अमिताभ उर्फ़ औरो के पोस्टर को सलाम किया। और तबसे अब तक ज़ेहन में सिर्फ औरो अटका है।

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