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Wednesday, December 16, 2009
मफ़लर-रवीश कुमार का एक पुराना लेख
आज सुबह सुबह घर से निकलना पड़ा तो भाई बोला कि मफलर ले लो कान पर बांध लेना....अचानक करीब दो साल पहले पढ़े एक लेख की याद ताज़ा हो आई जो रवीश भाई ने लिखा था....रवीश जी तो किसी परिचय के मोहताज हैं नहीं.....तब अपन नए नए ब्लॉगर थे और रवीश जी का वो लेख बड़ा पसंद आया था....आज उस याद को आप सब से फिर साझा कर रहा हूं....रवीश जी की मौन अनुमति तो हमेशा रहती ही है....लेख पढ़े मज़ा न आए तो पैसे वापस....
मफ़लर
सर्दी के तमाम कपड़ों में मफ़लर देहाती और शहरी पहचान की मध्यबिंदु की तरह गले में लटकता रहता है। एक सज्जन ने कहा आप भी मफ़लर पहनते हैं। देहाती की तरह। एक पूर्व देहाती को यह बात पसंद नहीं आई। आखिर मुझे और मेरे मफ़लर में कोई फ़र्क नहीं है। मफ़लर एक पुल की तरह वो पट्टी है जो फैशन भी है और पुरातन भी।कैसे? बस आप मफ़लर को सर के पीछे से घुमाते हुए दोनों कान के ऊपर से ले आईये और फिर ठुड्डी के नीचे बांध कर कालर में खोंस दीजिए। आप देहाती की तरह लगते हैं। मफ़लर तब फ़ैशन नहीं रह जाता। नेसेसिटी की तरह सर्दी से बचने का अनिवार्य ढाल बन जाता है। बिहार, उत्तर प्रदेश के ठीक ठाक लोगों से लेकर रिक्शेवाले, चायवाले तक इसी अंदाज़ में मफ़लर की इस शैली को ज़माने से अपनाते रहे हैं।
मफ़लर पर किसी ने शोध नहीं किया है। शायद ब्रितानी चीज़ होगी। लेकिन हम मफ़लर से पहले शाल को भी इसी अंदाज़ में कॉलर के ऊपर गांठ बांध कर ओढ़ते रहे हैं। हिमालय से नीचे उतर कर आने वाली सर्द हवाओं से बचने के लिए। लालू जैसे नेता तो कपार के ऊपर घूमा घूमा कर बांध देते हैं। मफ़लर का एक रूप यह भी है।लेकिन मफ़लर का एक अंदाज़ खांटी देहाती होने के बाद भी शहरी रूप में बचा रहा है। जिसे आप अपने कोट के दोनों साइड के बीच लटका देते हैं। यहां मफ़लर का कुछ हिस्सा कोट के पीछे रहता है और कुछ कोट के बाहर। यह मफ़लर का शहरी रूप है। इस रूप में आप स्मार्ट कहे जाते हैं।मफ़लर नेसेसिटी से फ़ैशन हो जाता है।
देहात और शहर के बीच का एक मध्यबिंदु मफ़लर में ही वो ताकत है जो पल में देहाती और पल में शहरी हो सकता है। वो मेरे जैसा है। पूर्व देहाती और मौजूदा शहरी। कृपया मफ़लर को गया गुज़रा न समझें। इससे मेरी आत्मा आहत होती है।
रवीश कुमार वरिष्ठ पत्रकार
रवीश कुमार वरिष्ठ पत्रकार है, सम्प्रति एनडीटीवी इंडिया के आउटपुट हेड हैं और कस्बा इनका ब्लॉग है....
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लेकिन हम मफ़लर से पहले शाल को भी इसी अंदाज़ में कॉलर के ऊपर गांठ बांध कर ओढ़ते रहे हैं।
ReplyDeleteवाह रवीश जी। गांती की याद दिला दी।
मफलर पढ़कर एक भावनात्मक राहत मिली है।