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Saturday, August 27, 2011

संसद एक बाजार

भैया संसद बाजार में दुकानें लग गई, एतिहासिक बाजार था। पूरे देश की टकटकी लगी थी। तो कौन है जो अपना माल कम बेचने पर राजी हो। हो गए शुरू इकतरफा। सुषमा ने बेचा अपना अनुभव, भाषाई प्रभावोत्पादकता, सबको ऑबलाइज कर पार्टी हाई कमान और संघ को संदेश कि वह पीएम के लिए आडवाणी से ज्यादा परफैक्ट है। संदीप ने दिखाई अपनी साफगोई। साथ यह संदेश कि जितना मिलना था, कांग्रेस में रहकर वो मम्मी शीला दीक्षित को मिल चुका है, अब कांग्रेस परिवार के नाम पर सोनिया के अलावा किसी को बर्दाश्त नहीं करती। आंध्रा का उदाहरण है सामने, तो संदीप ने बेचा अपना सुर कांग्रेस की खोल से भाजपा की बातों का। यह सब तो थे राष्ट्रीय ब्रांड जो बाजार को बेच रहे थे, अपने उत्पाद। लेकिन वहां बाजार में स्ट्रीट वेंडर्स भी शामिल थे। आ गए बहुजन समाज के उन्होंने जो बेचा वो तो और भी हास्यास्पद था। कहा कि सामाजिक विषमता की बात नहीं करता जन लोकपाल। सही है, उसे पहले भारतीय राजनीति की बेसिक शर्तें मसलन सेकुलरिज्म, जय पिछड़े कभी न हों पाएं अगड़े, जय दलितम कभी न होना अगलम। पांच लोगों की सिविल सोसाइटी में दो मुस्लिम एक क्रिश्चियन, एक बुद्ध और सिख होना जरूरी है, बाकी अन्य धर्म के लोग हों। का भी तो ख्याल रखना था। अब आए एक और लोक उत्पाद के विक्रेता शरद यादव। वो इनसे आगे के सामान बेच गए, मंच सजा देख, जुबान पैनी करली। टीवी को डिब्बा और अन्ना के समर्थकों को कुत्ता घुमाने आने वाले इवनिंग मॉर्निंग वॉकर्स कहा। बहुत खूब सजी महफिल ए संसद बाजार।
अरे सबसे अच्छी बात तो यह रही कि कर्ता धर्ता जान गए, समझ गए, जनता का गुस्सा संसद पर मोड़ो, वरना कांग्रेस पर फूट रहा है। मोडक़र चुपके से निकल पड़े वार्ता सैर पर। करेंगे। बाबा अन्ना मर गया तो हल्ला बच गया तो अपनी बला से। लेकिन कहीं संसद में कुछ ऐसी बात न होने लगे कि सचमुच का लोकपाल बिल लाना ही पड़ेगा, तो स्थिति संभालने पहुंच गए। सबको पीछे किया कौन श्री-श्री, भय्यू आदि।
अभी जारी है, किस्सा ए अन्ना और लोकपाल की लोक गाथा। देखते हैं, क्या होना है।
संसद के बाजार में किसका माल किसके मुकाबले कितना बिका यह ट्रेंड्स आने बाकी हैं। हाल में मिले झुकावों के मुताबिक बहुराष्ट्रीय कंपनियों (कांग्रेस-भाजपा) के उत्पादों को अच्छी टक्कर दे रहे हैं, नकली, लोकल, मिलावट खोर कंपनियों के उत्पाद (जदयू, बसपा)-
देख तमाशा दुनिया का।
- सखाजी

Thursday, August 25, 2011

सुनो देश पर काबिज लोगों...

मैं भारत की युवा बोला रहा हूं। मेरे जैसे इस देश में सबसे ज्यादा हैं। लेकिन मेरा नेता 74 साल का अन्ना है। मैं अब तक अपना नेता नकली नेता को मानता रहा। विधायक, सांसद को मानता रहा। मगर यह सब तो एक थोथली व्यवस्था के अंग निकले। अन्ना लड़े, लड़ते रहे। मर गए। मर गए। मर गए।
अब क्या करूं। मैं। मैंने तो देख लिया गांधी के अहिंसा मार्ग को भी। मैं तो चल भी पड़ा अन्ना के साथ भी। मगर क्या बदला। क्या हुआ बड़ा काम। उल्टा सरकारी सुर और घातक हुए। कुछ नहीं होता यार ताकत उनके ही पास रहती है। अब झुके भी तो क्या अब मान भी जाएं तो क्या। नाम की संसद विधायक हैं। भैया वे सब मूल रूप से भेडिय़े हैं। सकारात्मक ऊर्जा से लबरेज मैं युवा सालों से अच्छा सोचता रहा। मगर अब तक मुझे अच्छा मिला नहीं। अब मैं आपक अहिंसा मार्ग त्याग दूं तो मुझे पथभ्रष्ट न कहना। अन्ना की एक-एक सांस मेरी रगों में तैर रही है। अहिंसा की इज्जत कर रहा हूं। मगर अब कुछ हो जाए तो मत कहना। बसों को जलाकर मैं कोई रैली. तूफान नहीं लाना चाहता। मैं जंगलों में घुसकर कोई लाल गाल नहीं करना चाहता। मैं इस व्यवस्था में रहकर इसके ही खिलाफ कुछ करना चाहता हूं। हां अगर कुछ यानी अच्छा करने में दिक्कत हुई, तो मुझे जंगलों में जाकर बम बरसाने में भी बुराई नहीं लगेगी। मैं कहता हूं बार-बार। अगर हो जिम्मेदार। सरकार।
तो अभी भी वक्त है, अपना तथाकथित इगो छोड़ दो नेताओं। वरना देश में आग लग जाएगी। आज नहीं सही कल लग जाएगी। कल नहीं सही परसो मैं खून खराबा कर दिखाऊंगा। किसी मंत्री को निकाल लाल बत्ती से बीच रास्ते पर गोलियों से भून दूंगा। किसी अरुंधति, अरुणा का पकडक़र चित्रशाला की सियासत तोड़ डालूंगा। मैं इस जंग में किसी अन्ना से भी फिर इत्तेफाक नहीं रखूंगा। क्या मुझ युवा की मनशक्ति को इस दिशा में जाने से रोकने वाला कोई है।
( यह मनोवेग अब युवाओं और अन्ना समर्थकों के मन में आए हैं अगर आप सच्चे हैं, तो जरूर कुछ इतना ही क्रोध महसूस कर रहे होंगे। और हां आप अगर गलत हैं जरूर ही इन पंक्तियों से आप डर कर खारिज करने कुछ सोच रहे होंगे। और अगर आप कुछ भी कर ना चाहें तो बंदूक ही एक रास्ता आपको लग रहा होगा। - भारत का युवा)

Saturday, August 13, 2011

जनक्रांति या भ्रांति?????

अन्ना आंदोलन को पूरा देश टकटकी लगा कर देख रहा है। ऐसा लग रहा है, मानो लोकपाल बिल पारित होते ही, संपूर्ण संसार में सतयुग आ जाएगा। देश का हरेक व्यवस्था का बंदा बेईमान है। हर अधिकारी, नेता, चापलूस मालामाल हैं। कुछ-कुछ फ्रांस की क्रांति से माहौल हैं। फेसबुक में लेट्स सपोर्ट अन्ना, एंटी गवर्नमेंट माहौल देखा जा रहा है। देश के विभिन्न प्रांतों में टीवियों के माध्यम से क्रांति सुगबुगा रही है। ऐसा लगता है, कि अब तो बस अन्ना अनशन करेगा और सरकार मान जाएगी।
कुल मिलाकर सरकार बन गई विलैन और अन्ना बन गए हीरो। वाकई अन्ना हीरो हैं, वे अच्छे काम के लिए अच्छे प्रयास कर रहे हैं, बाबा की तरह ओवर रिएक्टिव सेना नहीं बना रहे। उनकी इन भावनाओं की कद्र की जानी चाहिए। मगर अफसो है, कि इस जनक्रांति में एक भ्रांति सतत चल रही है। अन्ना के इस आंदोलन को उन लोगों का सपोर्ट है, जो थिंक वोट हैं, न कि ईवीएम बटन दबाने जैसे छोटे काम करने वाले लोग। इस क्रांति में ड्रॉइंग रूप के प्लानर्स हैं। जमीन पर जमीन के लिए जमीन से काम करने वाले लोग इस पर अपना साफ सुथरा मत जाहिर नहीं कर पा रहे हैं, या फिर नहीं कर रहे हैं। सीधी सी बात है, अन्ना के इस आंदोलन को कुचलने के लिए कांग्रेस जो भी कर सकती है, करेगी और कर रही है। अभी क्या है, हो सकता है कोई ऐसा मुद्दा सामने आए जो इस पूरे आंदोलन से मीडिया का ध्यान हटाए और सूरत पूरी बदल जाए। कुछ भी हो सकता है। बहरहाल अन्ना के इस आंदोलन को नीचे बिंदुओं से होकर देखना चाहिए।-
क्यों सही है आंदोलन: अन्ना का आंदोलन मुख्य रूप से भ्रष्टाचार की बात करते हुए, वास्तव में व्यवस्थी की पोल सी खोलता है। लोकतंत्र की आड़ में पल रहे दुनिया के इकलौते 10 जनपथ के राजतंत्र की बात कहता है। आम आदमी की तमाम मिनी रिश्वतों से सजी जिंदगी की कहानी है, अन्ना की भाषा और केजरीवाल का विज्ञान और प्रशांत, शांति का कानून भूषण। आम आदमी महंगाई, भ्रष्टाचार, बेईमानी और लाल बत्तियों के भीतर के भेडियों से कम सिविल सर्वेंट्स की सिंगापोर, यूएस, टूर से ज्यादा त्रस्त है। वहीं बाबुओं की टेबल टेनिस से भी परेशान है, जहां बिना पैसे के कोई फाइल एक टेबल से दूसरे टेबल का सफर ही तय नहीं कर पाती। इसलिए इस आंदोलन को जन समर्थन मिल रहा है।
क्या होगा नतीजा: यह अहम प्रश्न है, कि नतीजा क्या होगा। केजरीवाल गीताई भाषा में कहते हैं, जन समर्थन मिला तो मानेंगे लोग साथ में हैं, नहीं तो हम जो कर रहे थे, वही करने लगेंगे। इस बात में एटीट्यूड है, घमंड और जनता पर अहसान है। लेकिन सब स्वीकार्य है, क्योंकि जनता परेशान है। नतीजे अच्छे होंगे। आंदोलन तेजी से ऊंचाई पर जाएगा। पूरे देश में जनाक्रोश बढ़ेगा। सियासी उल्लुओं काठों पर बैठ रजनी दर्शन करेंगे। जागते हुए, स्वप्न में जीने वाले मृग सी मारीच बढ़ेंगे। सब कुछ अन्ना के फेवर में ही होगा। सरकार हिल जाएगी, लेकिन कहां???
फेसबुक पर सरकारें औंधे मुंह गिर पड़ेंगी। अखबारों में नेताओं के बयान और नजरिए रंगे होंगे, टीवी पर अन्ना शादी का बन्ना होंगे। मगर...
क्या करेगी कांगे्रस: यूपीए की खाल में बैठी असली दागदार पार्टी कांग्रेस क्या करेगी। निश्चित रूप से सिब्बलिया सब्बल नहीं चलाएगी। शीलाई शिलाएं नहीं फेंकेगी, चिदंबरमिया भ्रम नहीं फैलाएगी। न अन्ना को मनाएगी, न अन्ना की मानेगी। बस चुप रहेगी। 2 दिनों बाद दबाव बढ़ेगा, तो कसाब को आर्थर से तिहाड़ शिफ्ट करेगी और वह बीच में भाग निकलेगा, या फिर अफजल पर सोनिया कुछ ऐसा बोलेंगी, जो कभी नहीं बोलीं, मनमोनह को इस इल्जाम के साथ हटा दिया जाएगा और राहुल जैसा का तैसा लोकपाल लाकर अन्ना के लोकपाल को लोकप्रियता का लोकपाल बनाकर पीएम बन जाएंगे, कोई विमान हाई जैक हो जाएगा, कहीं बॉम ब्लास्ट हो जाएगा, गस्से से तमातमाते हुए, सोनिया दो या तीन मंत्रियों की बली ले लेंगी, विदर्भ के किसानों, पुणे के किसान भट्टा परसौल के किसान एक होकर चिल्लाते हुए पीएमओ की सुरक्षा में सेंध लगाएंगे या फिर कोई दिज्विजय कहेगा हिंदुओं में है दम मुस्लिमों ने किया नाक में दम... और विपरीत होगी मीडिया की हवा, खत्म हो जाएगा अन्ना का धरना। रह जाएगा महज कुछ मुद्दों में बेदिशा उलझा मीडिया।
अगर सफल नहीं हुआ यूपीए तो क्या: कहीं किसी हाल में कोई चाल नहीं ठीक बैठी तो, राहुल भैया का पीएम बनना कांग्रेसियों का रुदनालाप, और बेचारे 8 सालों के सीधे, कठपुतली, विचारात्मक पुरुष की बली चढ़ जाएगी। संकल्प लेंगे राहुल, मैं बनवाऊंगा लोकपाल। सख्त लोकपाल ही देश की सच्ची आवाज है। और बात हो जाएगी आई-गई। मीडिया में जी न्यूज दिखाएगा बतौर पीएम राहुल के संकल्प, तो एनडीटीवी दिखाएगा गो ग्रीन कंट्री थू्र यंगर पीएम, वहीं इंडिया टीवी पर होगा राहुल बाबा का झाड़ फूंक मंत्र, स्टार न्यूज कराएगा पहली बार न्यूज रूम में पीएम। और इन सबके बाद भी नहीं बनेगा लोकपाल फिर क्या???
खेल खतम पैस हजम: थिंकवोटर टीवी देख-देख सरकारों को गालियां देगें, तो कहेंगे फेसबुक में हमने उखाडऩे की कोशिश तो की सरकार को लेकिन देश की जनता ही मूर्ख है। हां यह सब अपने पीसी, लैपटॉप या कैफे में बैठकर करेंगे। लेकिन ईवीएम वाले बूथ, कैफै में नहीं जाएंगे। वे सभी चित्रशाला में बैठकर मनाएंगे शोक।
फिर जीत जाएगा यूपीए: अन्ना के सच्चे शागिर्द थिंक वोटर्स हल्ला मचाएंगे, सडक़ों पर नहीं, सोशल साइटों पर। चिल्लाएंगे, मंचों पर नहीं अपने ड्रॉइंग रूम से। चीखेंगे चेंज। मगर मजाल कि वे वोट डालने जाएं। जिन थिंक वोटर्स के दम पर अन्ना बन्ना बने हैं, वह उनके साथ जिस्मानी तौर पर नहीं जेहनी तौर पर है। और ईवीएम में जिस्म की ही एक उंगली लगती है, दबाने के लिए।
-सखाजी

Thursday, August 4, 2011

सच कड़वा क्यों होता है...?

इस बात को बचपन से ही सुनते चले आ रहे हैं, कि सच एक दम कड़वा होता है। इसका कोई पुख्ता इतिहास नहीं कि सच कड़वा क्यों होता है? एक स्वघोषित अच्छी व्यंज्यकार मुहतरमा की व्यंज्य श्रंृखला पढ़ते हुए, एक शब्द दिमाग में कूद पड़ा, कि सच थोड़ा अटपटा होता है। मुझे समझ में दो चीजें नहीं आई, कि सच अटपटा क्यों होता ? और दूसरी चीज कि अटपटा क्या होता है ? बस इन दोनों के उत्तर खोजते हुए ब्लॉग पे आया। शायद इनका उत्तर यहां मिले। सच तो सच है, और यह भी सच है कि जीत अंत में इसी की होनी है। फिर यह अटपटा या कड़वा या कठिन या ढिमका, फलां क्यों होता है। प्रश्नों ने क्रिया की और प्रतिक्रिया में कई प्रश्न जवाब की तलाश में शादी सम्मेलन में दूल्हा बनकर खड़े हो गए। सबसे पहले इन तमाम प्रश्नों के अम्मा पिताजी से बात करता हूं, शायद वे कुछ कहें। तो भैया प्रश्न पिताजी अटपटा क्या होता है, बताइए तो सही। अटपटा यूं तो जो चटपटा न हो या खटपटा न हो या फिर जो बिल्कुल भी किसी स्थान से हटा न हो को कह सकते हैं। लेकिन इससे भी प्रश्न पिताजी शांत नहीं हुए। अटपटा शायद वो जो कम होता हो, अटपटा शायद वो जो होता ही न हो या फिर अटपटा वो जो कुछ होकर भी कुछ न हो। क्या है अटपटा????
तो अटपटा मोहनजोदड़ो की खुदाई का कोई नगीना या फिर बर्तन है, क्या? या फिर समुद्रगुप्त की जीत का जरिया। या फिर शक, हूड़ों की संतान है, या फिर पृथ्वी और गजनवी की जंग। या फिर यह अकबर है, या तुलसीदास। अंग्रेजों का कोलकाता है, या फिर औरंगजेब का अंत। अटपटा कोई बहादुर शाह की सल्तनत है, या झांसी की रानी का बिगुल। यह लॉर्ड कर्जन का बंग भंग है, या फिर विलियम वेटिंज्स के सुधार, यहा नेहरू की चपड़ चुपड़ी अंग्रेजी है, या फिर गांधी का सीधापन, यह सुभाष की टोपी है, या फिर हिटलर की मख्खमूंछें, यह है राजेंद्र प्रसाद की प्रेसीडेंसी है, या लाल बहादुर की ईमान लाली। इंदिरा का मर्दाना है, या फिर चौधरी का अवसरवाद, बीपी की शरारत है, या राजीव की बोफोर्स। नरसिम्ह का इनसाइडर है, या सीताराम की बेआबरू विदाई, देवगोड़ा की किस्मत है, या गुजराल की विदेश यात्राएं, अटल का 13 दिनी 13 महीनी है, या प्रमोद का शाइनिंग इंडिया। अटपटा यह सबकुछ है। तब आप समझ तो गए ही हैं, कि अटपटा क्या है। मैं भी समझ गया। क्या है अटपटा। चलो कम से कम अब नए प्रश्न नहीं हो पाएंगे, क्यंोंकि प्रश्न पिता को मैंने खत्म कर दिया।
अब प्रश्न माता के रूप में सच अटपटा क्यों है मुंह बाए खड़ा हो गया। अगर वो सबकुछ जो कभी कभी हो वह अटपटा है, तो सच अटपटा क्यों है, यह ब्रह्मांड का सत्य है। सीता का सतित्व है, राम की प्रतिज्ञा, कृष्ण का संकल्प है, तो पांडवों की साफगोई। मनु का तप है, सतरूपा का समर्पण। सिंधु घाटी का विकसित आर्य नगर है, तो गीता का पर्व है, कुरान की आयत है, तो बाइबिल की लाइने है। सच चाणक्य सा गुरु है, तो अशोक सा विरक्त अनुराग है, राजा भोज का न्याय है तो, बास्कोडिगामा की इकलौती अव्यापारिक यात्रा है, सूरदास की कृष्ण भक्ति, है तो मीरा का पागलपन, एओ ह्यूम है, तो रविंद्र सा संगीत सच है। असहयोग आंदोलन है, तो भारत छोड़ो है। कश्मीर की अधूरी ख्वाहिश है, तो लडख़ड़ाता भारत का पहला प्रधानमंत्री है, गुलजारी सी घरेलू नौकरियत है, तो जेपी सी दूब है, सच जनता पार्टी है, तो मनमोहन का उदारवाद है, देश का टीवी मीडिया है, तो स्टिंग ऑपरेशन है। सच औंधे मुंह गिरी शाइनिंग इंडिया की चमक है, तो सच आखिर संसद का नोट कांड है। तो समझ में आया किस तरह से कम ही तो है, सच। तो अटपटा तो होगा ही।
लेकिन यह सच भी तो नहीं है, न इसे सच कहा जाए।
दरअसल इंसानी दिमाग में सच को लेकर बड़े भ्रम है, अध्यात्म कहता है, दुनिया झूठी है। तो फिर सच्ची बातें खुद ब खुद अटपटी सी हो गईं। भौतिक कहता है, जिंदगी को सुखद बनाओ खुशियां यही हैं, तो फिर सच अटपटा हो गया, चूंकि जिंदगी भौतिक में कहा सुखद होती है। व्यवहारिक बात कहती है, जिंदगी में सच का अनुसरण करो, तो यह होता कहां है, अब बताओ एक बार फिर सच अटपटा हुआ कि नहीं।
आध्यात्मिक नजरिए में वास्तव में सच वो है, जो नहीं है। और झूठ वो है, जो है। यानी संसार निरा झूठा है, तो सच अपने आप अटपटा तो होगा ही। और जब अटपटा कोई जबरन कानों में डलेगा, तो यह आप से आप ही कड़वा भी हो जाएगा। लेकिन यह भी सच है कि हम झूठ के इतने आदी हो चुके हैं, कि सच अटपटा लगता है।
अत: सच वास्तव में अटपटा और कड़वा होता है।
लेकिन प्रश्न पिता की अवैध संतान के रूप में फिर कई प्रश्न दिमाग की भ्रम संपत्ति पर अपना दावा ठोकने आत्मा के सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाने पहुंच गए हैं। आखिरी समाचार मिलने तक सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर सुनवाई की तारीख मुकर्रर कर दी थी।
- सखाजी

Tuesday, August 2, 2011

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मेरे अतिप्रिय मित्र प्रसून पुरोहित के पिता का एक दुर्घटना में देहांत हो गया। मैं स्व. जुगल किशोर पुरोहित अंकल समेत इस दुर्घटना के शिकार सभी लोगों की आत्मा की शांति के लिए कामना करता हूं। इस विषद दुर्घटना से आहत लोगों और रिश्तेदारों को ईश्वर साहस दे। यह दुर्घटना भोपाल से जबलपुर राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक-12 जयपुर-जबलपुर पर पडऩे वाले बारना नदी के पुल पर हुई। यह पुल 60 सालों से कई लोगों को निगलते आ रहा है। लेकिन रायसेन जिले के पैदाइशी तमाम नेताओं और प्रबुद्ध लोगों के सिर में जूं भी नहीं रेंगता। देखें इस जिले से किनका ताल्लुक कैसा रहा है:
- अटल बिहारी बाजपेयी, पूर्व प्रधानमंत्री, 1989 में विदीशा से सांसद (पहले यह क्षेत्र विदीशा लोकसभा में आता था)
- स्व. डॉ. शंकर दयाल शर्मा, पूर्व राष्ट्रपति, इसी क्षेत्र की पैदाइश हैं, बाद में बेगम बिया के कहने पर भोपाल शिफ्ट हो गए।
- रामपाल सिंह, पूर्व सांसद, विधायक, मंत्री भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष (शिवराज सिंह के दांए हाथ)
- शिवराज सिंह चौहान, मुख्यमंत्री एवं पूर्व सांसद विदीशा
- जसवंत सिंह, पूर्व मंत्री, दिज्विजय सिंह के पहले कार्यकाल में मुख्यमंत्री के बेहद करीबी।
- डॉ. गौरीशंकर शेजवार, मंत्री, उमाभारती के बेहद करीबी, आडवाणी के नजदीकी।
- आशुतोष राणा, फिल्म कलाकार, (इसी जिले में इनकी पुस्तैनी जमीन है, हालांकि 7 साल की उम्र में गांव छोड़ा।
- आचार्य रजनीश, ओशो के नाम से मशहूर शख्शियत की जन्मस्थान इसी जिल में आता है।
- देश दुनिया में ऐसे कई और लोग हैं, जो यहां से ताल्लुक रखते हैं।
लेकिन मुझे अफसोस है, कि इस छोटी सी पुलिया को बनवाने की किसी में भी पुरुषता नहीं है। इन लोगों को लानत है।
-सखाजी

गूगल बाबा का वरदान - हिन्दी टंकण औजार

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