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Sunday, September 28, 2008

मैं नास्तिक क्यों हूँ: भगत सिंह


(यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था जो भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है. इस लेख में उन्होंने ईश्वर के प्रति अपनी धारणा और तर्कों को सामने रखा है. यहाँ इस लेख का कुछ हिस्सा प्रकाशित किया जा रहा है.)
प्रत्येक मनुष्य को, जो विकास के लिए खड़ा है, रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उन पर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती देनी होगी. प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा. यदि काफ़ी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति प्रेरित होता है, तो उसके विश्वास का स्वागत है. उसका तर्क असत्य, भ्रमित या छलावा और कभी-कभी मिथ्या हो सकता है. लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन का दिशा-सूचक है. लेकिन निरा विश्वास और अंधविश्वास ख़तरनाक है. यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है. जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी. यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे. तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा, तमाम पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना. यह तो नकारात्मक पक्ष हुआ. इसके बाद सही कार्य शुरू होगा, जिसमें पुनर्निर्माण के लिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है. जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूँ.
एशियाई दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी पर ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर नहीं मिला. लेकिन जहाँ तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है, मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूँ. मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है.ॉहम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है. इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है. यही हमारा दर्शन है. जहाँ तक नकारात्मक पहलू की बात है, हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं-(i) यदि, जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं.कृपया, यह न कहें कि यही उसका नियम है. यदि वह किसी नियम में बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं. फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है. कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका शग़ल है. नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था. उसने चंद लोगों की हत्या की थी. उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए. और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं?
सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं. जालिम, निर्दयी, शैतान-जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं. एक चंगेज़ खाँ ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार ज़ानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं. तब फिर तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो को जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है, किस तरह न्यायोचित ठहराते हो? फिर तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे, जो हर पल चंगेज़ के दुष्कर्मों को भी मात दिए जा रहे हैं? मैं पूछता हूँ कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी-ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है? सर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी? इन सब बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है? तुम यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और ग़लती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है. ठीक है, ठीक है. तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा?
ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहाँ तक उचित था कि एक भूखे-खूँख्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी? इसलिए मैं पूछता हूँ, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया? आनंद लुटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’मुसलमानों और ईसाइयों। हिंदू-दर्शन के पास अभी और भी तर्क हो सकते हैं. मैं पूछता हूँ कि तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है?तुम तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते. तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का फल है. मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है. उसे आज ही बुलाओ, उसे पिछला इतिहास दिखाओ. उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो. फिर हम देखेंगे कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है- सब ठीक है.कारावास की काल-कोठरियों से लेकर, झोपड़ियों और बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों-लाख इंसानों के समुदाय से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित होकर देख रहे हैं.और उस मानव-शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा; और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक-जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है...
उसको यह सब देखने दो और फिर कहे-‘‘सबकुछ ठीक है.’’ क्यों और किसलिए? यही मेरा प्रश्न है. तुम चुप हो? ठीक है, तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ.और तुम हिंदुओ, तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं. ठीक है. तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं. मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे. उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है. लेकिन हमें यह विश्लेषण करना है कि ये बातें कहाँ तक टिकती हैं. न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़नेवाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है. वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार. आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है. भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है. केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है. इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है. लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है? तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है. तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो. मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं?अपने पुराणों से उदाहरण मत दो. मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है. और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है?
गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है. मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर-अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो. किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता. वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं. उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं. मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों-वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सज़ा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तो. ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं. ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं. जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो. वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा. धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं. मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है. उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया?
उसने अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव-समाज को पूँजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें. आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं. मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह इसे लागू करे. जहाँ तक जनसामान्य की भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं, पर वह इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं. चलो, आपका परमात्मा आए और वह हर चीज़ को सही तरीके से कर दें.अब घुमा-फिराकर तर्क करने का प्रयास न करें, वह बेकार की बातें हैं. मैं आपको यह बता दूँ कि अंग्रेज़ों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि इसलिए कि उनके पास ताक़त है और हम में उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं. वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं. यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध-एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्ण शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं.कहाँ है ईश्वर? वह क्या कर रहा है? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? वह नीरो है, चंगेज़ है, तो उसका नाश हो.क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति और मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बतलाता हूँ. चार्ल्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है. उसको पढ़ो. सोहन स्वामी की ‘सहज ज्ञान’ पढ़ो. तुम्हें इस सवाल का कुछ सीमा तक उत्तर मिल जाएगा. यह (विश्व-सृष्टि) एक प्राकृतिक घटना है. विभिन्न पदार्थों के, निहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी. कब? इतिहास देखो. इसी प्रकार की घटना का जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर के बाद मानव. डारविन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो. और तदुपरांत सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति से लगातार संघर्ष और उस पर विजय पाने की चेष्टा से हुआ.
यह इस घटना की संभवतः सबसे संक्षिप्त व्याख्या है.तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लँगड़ा पैदा होता है, यदि यह उसके पूर्वजन्म में किए कार्यों का फल नहीं है तो?जीवविज्ञान-वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाला है. उनके अनुसार इसका सारा दायित्व माता-पिता के कंधों पर है जो अपने उन कार्यों के प्रति लापरवाह अथवा अनभिज्ञ रहते हैं जो बच्चे के जन्म के पूर्व ही उसे विकलांग बना देते हैं.स्वभावतः तुम एक और प्रश्न पूछ सकते हो-यद्यपि यह निरा बचकाना है. वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा-जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे. अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित. कुछ उग्र परिवर्तनकारियों (रेडिकल्स) के विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे और उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे. यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोध नहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं. राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है. ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की. अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना एवं चित्रण किया गया. जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए. जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है.
इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था. विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है.समाज को इस ईश्वरीय विश्वास के विरूद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा तथा धर्म-संबंधी क्षुद्र विचारों के विरूद्ध लड़ना पड़ा था. इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियाँ उसे पलट सकती हैं. मेरी स्थिति आज यही है. यह मेरा अहंकार नहीं है. मेरे दोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है. मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज़-बरोज़ की प्रार्थना-जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ-मेरे लिए सहायक सिद्घ होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी. मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किए खड़ा रहना चाहता हूँ.देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूँ. मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा. जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे.’ मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा. ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी. स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा.’ पाठकों और दोस्तो, क्या यह अहंकार है? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ.
(यह लेख 80 के दशक में राजकमल प्रकाशन ने भी हिंदी में छापा. यहाँ प्रकाशन के इस संस्करण के संपादकों की अनुमति से यह हिस्सा इस्तेमाल किया गया है.)
-बी.बी.सी. हिंदी वेबसाइट से साभार

हमारी भूलने की आदत ....


२८ सितम्बर ..... शहीद ऐ आज़म भगत सिंह की आज जन्मतिथि है......नहीं मालूम कितने लोगों को पता है पर कल यश चोपडा का जन्मदिन था और अखबार-टीवी और पोर्टल अटे पड़े थे। आज लता मंगेशकर का जन्मदिन है आज भी यही हाल है ......या तो हम सो रहे हैं या हम सब बेहोशी में हैं पर यह जो भी है इसे दूर करना होगा।

भगत सिंह की पैदाइश २८ सितम्बर, १९०७ को आज के पाकिस्तान के लायलपुर जिले के बंगा में चक नंबर १०५ में हुआ जबकि उनका पुश्तैनी घर आज भी भारतीय पंजाब के नवाशहर के खट्टरकलां गाँवमें है। भगत सिंह ने क्या कुछ किया वह शायद हम सब जानते हैं पर शायद उनको याद करने की ज़हमत उठाना हम गवारा नहीं कर सकते हैं। उनकी जयंती के अवसर पर केव्स संचार उनको याद करते हुए उनकी कुछ स्मृतियाँ आपसे बांटेगा और यही नही ताज़ा हवा (http://www.taazahavaa.blogspot.com/) इस पूरे हफ्ते भगत सिंह के दुर्लभ पात्र और किस्से आपसे बांटेगा ............




भगत सिंह के हस्ताक्षर




आख़िरी पैगाम
यह वो आखिरी ख़त है जो भगत सिंह ने २२ मार्च १९३१ को यानि की फांसी के एक दिन पहले अपने साथियों को लिखा था ..........


22 मार्च,1931

साथियो,

स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ, कि मैं क़ैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता। मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है - इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज़ नहीं हो सकता। आज मेरी कमज़ोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वो ज़ाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक-चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए. लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरज़ू किया करेंगी और देश की आज़ादी के लिए कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी. हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थी, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका. अगर स्वतंत्र, ज़िंदा रह सकता तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता. इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया. मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे ख़ुद पर बहुत गर्व है. अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतज़ार है. कामना है कि यह और नज़दीक हो जाए.

आपका साथी,

भगत सिंह


फिर यही कहूँगा ........ अब सोचना शुरू कर दें !


Saturday, September 27, 2008

वक्त सड़क पर उतर आने का ....


देश के दिल दिल्ली अब दिल की मरीज़ हो चली है। आज दोपहर २:१५ से २:३० के बीच दिल्ली के पुराने और मशहूर इलाके महरौली में दो संदिग्ध विस्फोट हुए जिसमे अब तक प्राप्त सूचनाओं के अनुसार ४-५ लोगों की मौत हो चुकी है जबकि असली आंकडा अभी आना बाकी है। ज्ञात हो कि कुतुबमीनार के लिए मशहूर इलाके महरौली के फूल बाज़ार के इलाके में यह धमाका हुआ। यह धमाके इस मायने में खतरनाक संकेत देते हैं कि पुलिस और सरकार ने पिछली १३ सितम्बर को हुए धमाको के बाद बड़े बड़े दावे कर डाले थे। हाल ही में आतंकियों ने अनेक ई मेल भी की जिनमे तमाम तरह की धमकियां दी गई और पुलिस ने सतर्कता भी बढ़ा दी पर नतीजे सिफर ही रहे और आज फिर ये घटना हुई।

प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार स्कूटर सवार दो युवकों ने एक झोले में यह विस्फोटक फूल बाज़ार की सड़क पर फेंका और वहाँ से चले गए, उनको लोगों ने यह कह कर आवाज़ भी दी कि शायद उनका कोई सामान गिर गया हो पर जब तक लोग कुछ समझ पाते ...... चारों तरफ़ लाशें, घायल और खून बिखरा पड़ा था। बताया जाता है कि उस बैग को एक बच्चे ने उठाया और उसके साथ ही उस बैग में धमाका हो गया और उस बच्चे के चीथड़े उड़ गए। अभी तक ४ लोगों की मौत की ख़बर है जिसमे दो बच्चे हैं।

सवाल आतंकियों से है जो अपने आपको दहशतगर्द की जगह मुजाहिद्दीन कहते हैं ..... कि धर्म की लड़ाई में बेगुनाहों की जान लेने पर क्या कोई धर्म माफ़ करता है ?

सवाल सरकार से है जो शायद सुरक्षा से ज्यादा मुआवजा देने में तत्परता दिखाती है......कि आख़िर उसकी कोई जवाबदेही है या नहीं ?

सवाल हम सबसे है कि हम अपने समाज और अपने मुल्क को लेकर कितने संवेदनशील हैं ....... क्या अब हमें सड़कों पर नहीं उतर आना चाहिए ?


दुष्यंत कुमार ने जैसा कहा....

पक चुकी हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं

कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं


अब वक़्त आ गया है कि हम सोचना शुरू करें ...... नेताओं से उम्मीद ना करें, अपने अपने स्तर पर आतंक के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी रखें....सडकों पर तमाशबीन बनने की जगह सडको पर जुटना शुरू करें ...... ???

Sunday, September 21, 2008

मंच नहीं विचार हैं महत्वपूर्ण


आज की तारीख में अगर सबसे संवेदनशील कोई विषय है तो वह आतंकवाद है। ऐसे में जब उसके विरोध में सामने आने की बात हो तो मंच देखना कहीं से भी सही नहीं लगता। लेकिन दुःख की बात तो यह है की आज भी लोग यह विचार करते हैं कि हमारे विरोध करने का मंच क्या है?जिस तरह आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता वैसे ही उसका विरोध करने के लिए मंच नहीं हमारी भावनाएँ ज्यादा मायने रखती हैं।
हमलों के पीछे एक बार फ़िर से हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान का हाथ होने की बात पुष्ट हुई है। वहां की खुफिया एजेंसी आई एस आई लगातार ऐसी घटनाओं को अंजाम देने जुटी रहती है और अब उसने अपनी सफलता के प्रमाण इंडियन मुजाहिद्दीन और सिमी के विशाल नेटवर्क के रूप में खड़े कर लिए हैं। ऐसी दशा में आम इंसान को चेतने की और प्रखर विरोध करने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में मैं हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म "अ वेडनेसडे " इसी जज्बे को दिखाती हुई लगी। लोगों ने इसे सराहा भी खूब लेकिन जब इसे ज़मीन पर लाने की बात होती है तब हममे से कितने लोग खड़े होते हैं? जो क्जदे भी हैं उन्हें है कि कहीं उन पर बायस्ड होने का आरोप न लग जाए। समझ में नहीं आता कि हम दिन रात चिल्लाते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं है और फ़िर उसके विरुद्ध अभियान छेड़ते समय क्यूँ उसे धर्म विशेष से जोड़ देते हैं।

आतंक के ख़िलाफ़ ई मेल अभियान

माँ भारती के शूरसूत
लेने न पायें रिपु महि
राणा शिवा के वंशजों के
शौर्य मैं संशय नही
दुर्नाम संघ सिमी है
रण की बजता दुंदुभी
उसको पढ़ा दो पाठ ऐसा
भूल न पाये कभी
मैं अनुरोध करता हूँ केव्स के अपने सभी सुह्रदजनों से , यह एक राष्ट्रीय विपदा का समय है। हम सभी पत्रकार बान्धुओं को इस विपदा के ख़िलाफ़ एकजुट होकर इस आतंकवाद का मुकाबला करना होगा। हमारा मध्यम कुछ भी हो , हमें इस विपदा के खिलाफ एक बौधिक क्रांति को ललकार देनी ही होगी। हम अपने से जुड़े हुए जितने भी लोगों को इन्टरनेट के मध्यम से जानते हैं उन्हें कम से कम पाँच ईमेल आगे भेजने को कहेंगे जो ये संदेश देते हों आतंक हटाओ देश बचाओ।

हिन्दी दिवस के बाद भी ....

केव्स संचार पर हमने कुछ दिन बीते हिन्दी सप्ताह मनाया ........ हिन्दी के प्रति थोड़ा सा आभार जो हम व्यक्तकर पाए। मेरा और मयंक का हमेशा से आग्रह रहा है की केवल लिखने के लिए न लिखा जाए और न ही ब्लॉग पर कोई पोस्ट केवल अवसर की खानापूर्ति के लिए हो । जनादेश पोर्टल पर ( जिसका लिंक साइड बार में दिया है http://www.janadesh.in ) हिन्दी से सम्बंधित प्रभाष जी का एक आलेख मिला है जिसे जनादेश पोर्टल के सौजन्य से आपके लिए दे रहा हूँ। पोर्टल पर जायेंगे तो आपको और भी कई अच्छे आलेख मिलेंगे , लेकिन फिलहाल यही प्रस्तुत है ..........

हिन्दी दिवस और हिन्दी सप्ताह तो बीत गया है लेकिन फिर भी आपसे आग्रह है की इसे ज़रूर पढ़ें ...........

हिंदी पर गर्व है असली मुसीबत
प्रभाष जोशी
हिन्दी भाषा के रूप में मर कर गरीब से गरीब और पिछड़ों से पिछड़े लोगों की बोली होकर रह जाएगी ऐसा डर एक नहीं कई बोलने वालों ने बताया। मौका दिया जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदी का भविष्य और भविष्य की हिंदी पर दो दिन की गोष्ठी ने। उनका कहना था- ज्ञान आयोग ने पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाने की सिफारिश की है। चौथी-पांचवीं से सभी विषय अंग्रेजी में पढ़ाने की बात भी कही गई है। कई राज्यों ने प्राथमिक स्कूलों में ही अंग्रेजी पढ़ाना शुरू भी कर दिया है। महानगरों और नगरों में ही नहीं कस्बे-कस्बे और गांव-गांव में अंग्रेजी स्कूल खुल रहे हैं क्योंकि मां-बाप अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाना चाहते हैं। वही लोग अपने बच्चों को हिंदी स्कूल में पढ़ाते हैं जिनके पास उतना पैसा नहीं कि अंग्रेजी पढ़वा सकें।
यह सारे देश में मान लिया गया है। कि ज्ञान और बड़ी नौकरी और नए संसार की भाषा अंग्रेजी है। हमारे मित्र राजकिशोर ने अपने पचर्ें में कहा- इस तरह हिंदी पहली बार गरीब की जोरू बन (रही है) जिसके लहंगे के साथ कोई भी कभी भी खेल सकता है। शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी के इस बोलबाले के बाद प्रौद्योगिकी भी अंग्रेजी को बढ़ाने और फैलाने में लगी है। मोबाइल पर संदेश नई किस्म की अंग्रेजी में आते जाते हैं। इंटरनेट की भाषा अंग्रेजी है। अखबारों और विज्ञापनों का काम अब हिंदी से नहीं चलता। उनमें अंग्रेजी मिलाना अनिवार्य हो गया है। अध्यापक और आलोचक अजय तिवारी ने कहा-जिन नागरिकों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी शिक्षा और रोजगार में है उनका माध्यम अंग्रेजी बन चुकी है।
हिंदी उन्हीं का माध्यम है जिनकी पहली-दूसरी पीढ़ी शिक्षा तक पहुंची है। ऐसे अधिकतर लोग निम्न और निम्न-मध्यवर्ग से हैं। इनमें बड़ी संख्या दलितों, आदिवासियों पिछड़े वर्ग और स्त्रियों की है।यानी पढ़े-लिखे और खाते-पीते हिंदी वाले की भाषा अंग्रेजी हो चुकी है यह हो जाएगी। विकसित और महाबली भारत को हिंदी की कोई जरूरत नहीं होगी। इन लोगों के भाषण और पर्चे छोड़ दें और अपने आसपास अपनी ही नजर से देखें तो अंग्रेजी का जितना बोलबाला ओर हिंदी की जितनी अनदेखी आज हमारे सार्वजनिक, सामाजिक और निजी जीवन में हो रही है अंग्रेजों के जमाने में भी नहीं थी।
विकास मार्ग का निर्माण विहार के मेरे घर के पास मेट्रो स्टेशन बन रहा है। उस पर किसके लिए अंग्रेजी में-निर्माण विहार स्टेशन लिखा हुआ है मैं नहीं जानता। जो उसे बना रहे हैं सब हिंदी बोलते हैं। मेट्रो चलने पर जो उसका उपयोग करेंगे सब हिंदी बोलने वाले होंगे। फिर अंग्रेजी में निर्माण विहार स्टेशन किस के लिए और क्यों लिखा गया है? शान के लिए? प्रतिष्ठा के लिए? या हमारे मध्यवर्ग के लिए जो मानता है कि अंग्रेजी ही हमें विकसित और महाशक्ति बनाएगी?

दिल्ली को छोड़िए और बनारस को देखिए जहां इस बार मैं नाग पंचमी के दिन था। सेंट जोन्स की नर्सरी में पढ़ने वाले हमारे मित्र के पोते ने कहा-मेम ने बताया कि आज स्नेक एनवर्सरी है। सुन के हमारे मित्र का सिर लटक गया- जनता हूं कि यह शर्मनाक और अपसंस्कृति है। लेकिन वहां नहीं पढ़ाऊं तो लोग कहेंगे कि बच्चों को पिछड़ा छोड़ दिया। फिर उनने उत्तर प्रदेश के एक नामी नेता का किस्सा सुनाया जिनका बड़ा बेटा उन्हें इसलिए गाली बकता था कि उसे उनने हिंदी में पढ़वाया और अंग्रेजी में पढ़ा उनका छोटा बेटा बहुराष्ट्रीय कंपनी में मौज कर रहा है। वे उत्तर प्रदेश के बड़े स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और प्रख्यात हिंदी सेवी थे।
सरकारी और निजी दफ्तरों में ही नहीं कारखानों और बाजारों में भी अंग्रेजी का ऐसा ही दबदबा आप देख सकते हैं। जानकर कहते हैं कि महानगरों की नकल नगरों में ओर नगरों की नकल कस्बों और गांवों में होती है। जिस रास्ते पर महाजन जाते हैं वही सही रास्ता है। और भारत का महाजन यानी भद्रलोक यानी प्रभुवर्ग अंग्रेजी को ऐसे पकड़ रहा है जैसे वही उसे धनी और महाबली बनाएगी। इन्हीं के महानगरीय भारत को नया इंडिया कहा जा रहा है जो अगले दस-बीस बरस में विश्व की महाशक्ति हो जाएगा।
यह महाशक्तिमान भारत किस भाषा में बोलेगा? शक्ति की तो एक ही भाषा यह जानता है- अंग्रेजी। दक्षिण अफ्रीका में गांधी ने जब सत्याग्रह करना तय किया तो उन्हें बहुत खटका कि अपनी लड़ाई के लिए अपना शब्द भी नहीं है- इसे सिविल डिसओबिडियन्स- कहना पड़ेगा। तब उनने सदाग्रह और फिर सत्याग्रह निकाला। मौलिक काम करने वालों के पास अपना मौलिक शब्द होता है। महाशक्ति इंडिया के पास बोलने को क्या होगी- हिंगलिश! कोई मानेगा कि यह महाशक्ति और उसकी भाषा है?
अगर आप मनमोहन सिंह की नव उदार अर्थव्यवस्था के आने के पहले जन्में हैं तो निश्चत ही जानते हैं कि सन नब्बे के पहले ये हाल नहीं थे। हमारे इंडियन एक्प्रसप्रेस में मुलगावकर और जॉर्ज वर्गीज जैसे अंग्रेजी दां संपादक थे जो खुद होकर हमें आकर कहते थे- भविष्य तो आप हिंदी वालों का है।
राजकुमार केसवानी की यूनियन कारबाइड के कारखाने के बारूद के ढेर पर बैठे होने की जो खबर जनसत्ता में छपी थी और जिस पर उन्हें भगवानदास गोयनका पुरस्कार मिला था- उसका अंग्रेजी अनुवाद एक्सप्रेस में न छपने पर रामनाथ गोयनका ने परेड करवा दी थी। अखबार ही नहीं सत्ता के केंद्रों और प्रतिष्ठत संस्थानों में अंग्रेजी चलती थी। पर आम धारणा थी कि भविष्य तो हिंदी और भारतीय भाषाओं का है और लोग मेहनत करके हिंदी सीखते और प्रयत्न करके बोलते थे। माना जाता था कि भारत जब सही मानो में अपनी वाली पर आएगा यानी लोकतंत्र अपने को सचमुच प्रकट करेगा तो हिंदी के साथ दूसरी भारतीय भाषाएं भी चलेंगी। अंग्रेजी रहेगी एक भाषा के नाते लेकिन राज तो भारतीय भाषाओं का ही होगा।
फिर क्या हो क्या गया? भारत पर फिर से अंग्रेजों का साम्राज्य तो स्थापित नहीं हुआ? सन इकानवे में भाषाविद और संस्कृतिविज्ञ नरसिंह राव ने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया और भारत ने विश्व बैंक के उबाव में उसी के नुस्खों पर अपनी अर्थव्यवस्था को खोला। भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण नई अर्थसंहिता के मंत्र बने। भूमंडलीकरण के आंधी की भाषा अंग्रेजी थी क्योंकि यह अमेरिकी और यूरोपीय पूंजी का भूमंडलीकरण्ा था। इस उग्गत की पूंजी यानी सरप्लस केपिटल को भारत में चलाने की भाषा अंग्रेजी थी क्योंकि भूमंडलीकरण करवाने वाले विदेशी ओर करने वाले देसी दोनों की ही उसमें सुविधा थी।
यही नहीं, प्रधानमंत्री बनने के बाद मनमोहन सिंह ऑॅक्सफोर्ड में सम्मान लेने गए तो उनने कहा कि आपकी सिखाई अंग्रेजी हमें आती न होती तो आज सूचना क्रांति में हमारा यह स्थान नहीं होता। भूमंडलीकरण तो और भी देशों में हुआ है लेकिन उनने उसे अपनी भाषा में किया। भारत के नेताओं, नौकरशाहों और भद्रलोक ने पूंजी के इस भूमंडलीकरण के लिए अंग्रेजाी को ही चुना। भारत के वसुधैव कुटुंबकम और पूंजी के इस नए भूमंडलीकरण का फर्क न समझने वाले बेचारे भोले लोग भूल जाते हैं कि इस भूमंडलीकरण का भाषा, ज्ञान और संस्कृति से कोई संबंध नहीं है। पिछले सत्रह वर्षों मर्ें र्जो भी परिवर्तन आप भारत में देख रहे हैं वे अप्सरा पूंजी के भूमंडलीकरण के अवांछित परिणाम हैं।
पूंजी और मुनाफे को चूंकि नव उदार अर्थव्यवस्था ने ब्रह्म और मोक्ष का पर्याय बना दिया है इसलिए आध्यात्मक भारत भी माया के जबरदस्त फेर में पड़ गया है। अब वह भारत भी नहीं रहना चाहता है। समाज, संस्कृति और भाषा के जो पारंपरिक नियंत्रण और संतुलन जैविक ग्रामीण समाज में होते हैं वे महानगरों में टूट गए हैं। वे स्वच्छंद महाउपभोग के केंद्र हो गए हैं। और इसीलिए आप एक ऐसा इंडिया बनते देख रहे हैं जिसकी न अपनी कोई भाषा है न अपनी कोई संस्कृति। जिसमें किसी भी तरह कमाने और कितने ही और कैसे ही उपभोग की छूट हो वही इसकी संस्कृतिए भाषा और जीवन शैली बन सकती है।
भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण ने अमेरिकी जीवन स्तर को इस नए इंडिया का लक्ष्य बना दिया है। उसे समझ नहीं आता कि खुद अमेरिका में भी सबको एक समान जीवन स्तर प्राप्त नहीं है और वहां भी तेरह प्रतिशत गरीबी है। वहां दुनिया की छह फीसद आबादी विश्व के तीस प्रतिशत संसाधनों का उपभोग कर रही है। भारत का तो मध्यवर्ग ही अमेरिका से बड़ा है। भारत के सब लोगों को अमेरिका जीवन स्तर देने के संसाधन भारत में तो क्या दुनिया में भी नहीं हैं। इसीलिए भारत कुछ भी कर ले तथाकथित अमेरिका नहीं हो सकता। अमेरिकी सपना भारत के लिए असंभव है भले ही वह महान आर्थिक शक्ति हो जाए। लेकिन भारत में जो अंग्रेजीकरण होता हुआ आप देख रहे हैं वह पूंजी के भूमंडलीकरण से उपजे अमेरिकी सपने का ही नतीजा है। इस अंग्रेजीकरण में न अंग्रेजी की समझ है न यूरोपीय संस्कृति और ज्ञान की समझ। इसमें अमेरिका की स्वतंत्रचेता आत्मा के खुद के माने हुए बंधन भी नहीं हैं। कहते हैं नकल सिर्फ छिछली और भदेस चीजों की होती है। भारत में खासकर उसके मध्यवर्ग में वही हो रहा है।
जिस अंग्रेजी और जिस अमेरिकीकरण के कारण हिंदी और भारतीय जीवन पध्दति को आप ग्रहण में पड़ी देख रहे हैं वह अंग्रेजी भाषा, यूरोपीय संस्कृति और अमेरिकी जीवन पध्दति के कारण नहीं- अमेरिकी- यूरोपीय पूंजी के भूमंडलीकरण की वजह से है। अप्सरा पूंजी इस लवारे को अपने साथ लाई है। आप जानते ही हैं कि सत्रह साल पहले भारत में यह परिस्थिति नहीं थी। भारतीय भाषाओं का अपना स्थान और सम्मान था। भविष्य हिंदी का माना जा रहा था क्योंकि भारत को भारत की तरह का भारत बनना था। जो सपना एक सौ नब्बे साल के संघर्ष में से निकला था वह सिर्फ सत्रह साल के पूंजी के भूमंडलीकरण से समूल नष्ट हो सकता है?
इस भूमंडलीकरण से मालामाल हुए लोग आपको बार-बार कहेंगे कि इसका कोई विकल्प नहीं है और यह जो प्रक्रिया चल रही है उसे अब सुई के कांटों की तरह वापस नहीं घुमाया जा सकता। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि यह कोई पहला भूमंडलीकरण नहीं है जिसमें भारत पड़ा है। साम्रज्यवद भी एक भूमंडलीकरण ही था जिसके जरिए यूरोपीय देशों ने ऐशिया, अफ्रीका, अमेरिका आदि महाद्वीपों में अपने साम्रज्य कायम किए थे। भारत को सभ्य बनाने के लिए अंग्रेज हम पर राज करने आए ही थे और हमें उन्हें वापस इंग्लैंड भेजना पड़ा था। भूमंडलीकरण के दिन भी अब आ गए हैं। इन्हीं लोगों का कहना और भय है कि चीनी और भारतीय पूंजी अगले दस-बीस बरस में दुनिया पर छा जाएगी। तब भी क्या अमेरिकी पूंजी से बना अंग्रेजी का दबदबा भारत और भारतीय पूंजी अंग्रेजी में राज करेगी?

Saturday, September 20, 2008

किसी को कुर्बानी देनी होगी

केव्स के इस ब्लॉग में मेरी यह पहली कविता है .... इस हेतु क्षमा .... (इतना विलंब होने के कारण )

यह कविता मन की करुणा ने लिखी है आए दिन होते कत्ले आम बम विस्फोट से आख़िर ये लोग क्या हासिल करना चाहते है ये मेरी समझ से परे है ......

आज अपनों से ने रुला दिया है फिर मुझे ,

वह घाव जो भर रहा हा था हरा हो गया है फिर से

मै ख़ुद से पूछता हूँ ,क्यो आदमी स्वार्थी हो गया ?

मै दिल से आज रोता हूँ ,क्यो समाज ऐसा हो गया ?

मै गम का घूंट पिता हूँ, क्या इमान सबने बेच दिया ?

मै फ़िर आज मरता हूँ,क्यो इन्सान पराया हो गया ?

क्यों फ़िक्र नही किसी को देश की ?

क्यों याद नही किसी को देश की?

कहाँ चरम है इस स्वार्थ का ?

क्या लक्ष है इस इमान का ?

पर न चलेगा काम ऐसे ,इन्सान को अंगडाई लेना होगी

न बदलेगा मनुज ऐसे ,किसी को कुर्बानी देनी होगी

किसी को कुर्बानी देनी होगी ...................??????????

खुदकुशी की कतार में हैं लाखों किसान

अम्बरीष कुमार (http://www.virodh.blogspot.com )

सेवा ग्राम।।वर्धा।। गांधी की इस कर्म भूमि से किसान चल कर दो अक्टूबर को दिल्ली में मार्च करेंगे। सेवा ग्राम में महात्मा गांधी का आज भी वह चर्खा रखा हुआ है। जिसनें आजदी के आंदोलन को धार दी थी। उस चरखे के लिये कपास यहीं विदर्रभ के किसान देते थे। पर आज विदर्रभ के किसान केन्द्र और राज्य सरकार के किसान विरोधी नीतियों के चलते मौत को गले लगा रहे हैं। प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की कर्ज माफी की घोषणा के बाद पिछल्ले छह महीनों में अब तक पांच सौ चौवन किसान खुदकशी कर चुके हैं। औसतन तीन किसान रोज खुदकशी कर रहे हैं। पिछले वर्ष बारह सौ अड़तीस किसानों ने खुदकशी की थी। चौबीस घंटे पहले सत्तर दरा थाने के महाकाली नगर में कर्ज से डूबे एक किसान देवराम महादेवराव वैद्य ने खुदकुशी कर ली। मरने वाला किसान कर्ज में डूबा हुआ था। और उसकी आठ एकड़ जमीन कारगो हब में चली गयी थी। विदर्रभ में किसान दो तरफा लड़ाई लड़ रहे हैं। एक तरफ एस ईजेड के तहत किसानों की खेती की भूमि को अधिग्रहण करने की कोशिश हो रही है। तो उसके खिलाफ किसान कारबो सिलिंग अन्याय विरोधी समिति बनाकर बाबा दाबरे के नेतृत्व में लड़ाई लड़ रहा है तो दूसरी तरफ कपास किसानों को संगठित करने का बीणा किसान मंच और जनमोर्चा के नेता प्रताप गोस्वामी ने उठा रखा है। विदर्रभ के करीब दजर्न जिलों में किसानों को एक जुट करने का काम काफी समय से चल रहा है। यहीं के किसान आगामी दो अक्टूबर को दिल्ली में मार्च भी करेंगे। विदर्भ में किसानों को संगठित करने का प्रयास करीब डेढ़ साल पहले पूर्व प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के पुत्र अजय सिंह ने किया था। उन्होंने विदर्भ क्षेत्र में ललित रुंडवाल के जरिये खुदकुशी कर रहे किसानों के लिये वैकल्पिक उपायों पर गौर करना शुरू किया। दूसरी तरफ किसानों की मांगों को लेकर स्थानीय स्तर पर प्रतिरोध भी शुरू किया। यही वजह है कि आज यवकमाल, अकोला, वर्धा, अमरवती, बुलढाना, वासिंम, भंडारा, गोंडिया और नागपुर जसे जिलों में किसानों का प्रतिरोध रंग लाता नजर आ रहा है। आज दोपहर बाद घाटन जी तहसील के नगर पंरिषद हाल में बड़ी संख्या में किसान इक्ट्ठा हुये। जो दूर दराज के गांवों से आये थे। और किसान मंच को अपनी व्यथा बता रहे थे। किसानों को सम्बोधित करते हुये दादरी आंदोलन पर जुड़े रहे जनमोर्चा के राष्ट्रीय महासचिव विनोद सिंह ने कहा ह्लअब आपको लम्बी लड़ाई के लिये तैयार हो जना चाहिये। खुदकुशी करना किसी समस्या का समाधान नहीं है। हम इस मुद्दे को लेकर राज्य से लेकर केन्द्र सरकार के सामने किसानों का पक्ष पूरी ताकत से रखेंगे। दो अक्टूबर को अन्य किसानों के साथ विदर्रभ के किसान भी तीन मूर्ति से राजघाट तक मार्च करेंगे। आप सभी लोग इस कार्यक्रम में पूरी ताकत के साथ हिस्सा लेंग इस सभा में ज्यादा तर किसानों ने पत्र लिखकर सरकार से गुहार लगायी है कि कर्ज माफी के लिये ठोस कदम उठाये जयें। वरना किसानों की खुदकुशी का सिलािसला रूकने वाला नहीं है। इस बैठक में आई सीताबाई लक्ष्मनराला, ने कहा कपास लगाने में दो से ढाई हजर प्रति कुंतल लागत आती है। परकीमत मिलती है उन्नीस सौ से दो हजर रूपये कुंतल। अब क्या करें कपास लगाने वाला किसान कर्ज के बोङा में डूबा ज रहाहै। और खुदकुशी करने को मजबूर है दड़पापुर गांव के कपास किसान अमर नाथ विश्वनाथ नागराणो ने कहा ह्लकपास किसानों के लिये राहत का पैकेज और कर्ज माफी की घोषणा का कोई असर नहीं पड़ रहा है। राहत पैकेज गांव के किसानों तक पहुंचा ही नहीं है। और कर्ज माफी का फायदा बड़े और सम्पन्न किसान ले रहे हैं। कर्ज माफी का फायदा सांसद से लेकर विधायक तकउठा रहे हैं। पूर्व सांसद उत्तम राव पाटिल, विधायक संजय देशमुख, पूर्व मंत्री शिवाजीराम मोगे, पूर्व विधायक वामन राव कासावार और कांग्रेस नेता सुरेश लोनकर का नाम तो सार्वजनिक हो चुका है। दूसरी तरफ हमारे गांव का किसान कर्ज माफ न होने की वजह से आत्म हत्या कर रहा हैगौरतलब है कि आये दिन विदर्रभके ग्यारह जिलों में खुदकुशी की रोज खबरें आती रहती हैं। वर्धा से यवत माल की तरफ बढ़ते ही एक तरफ कपास के हरे भरे खेत दिखायी पड़ते हैं। तो दूसरी तरफ गरीब और बदहाल किसानों के गांव। जहां दो जून खाने को बड़ी मुश्किल से मिल पाता है। शिवनी गांव के दौलत सरदार राठौर ने कहा ह्लकर्ज माफी की घोषणा हवाहवाई है। कहने को सरकार ने कर्ज माफ कर दिया। पर उसका कोई फायदा किसानों को नहीं मिल रहा है। जो राहत पैकेज आयाहै। उसका फायदा नेता और सांसद लोग उठा रहे हैं। घाटन जी से आगे बढ़ने पर किनी गांव आता है वहां पर करीब कुछ दिन पहले ही एक किसान ने खुदकुशी कर ली थी। घर पर उसकी पत्नी मिलती है सावित्रा, दो बेटियां और एक बेटा है। सावित्री ने कहा हमारा आदमी कज्र लिये था। पच्चीस फीसदी महीने के ब्याज पर पंद्रह हजर रूपये कर्ज नहीं चुका पाया। इसलिये जहर खा लिया। हम भी कर्ज पर ही चल रहे हैंह्व यह कुछ घटनायें हैं जो विदर्रभ के किसानों की दयनीयदशा को दर्शाती हैं। दिल्ली में जो घोषणा की जती है वह विदर्रभ के गांवों तकतो नहीं पहुंचती। मनमोहन सिंह कर्ज माफी की घोषणा पर अपनी पीठ भले थपथपा दें। पर ये ध्यान रखना चाहिये कि उनकी घोषणा के बाद पांच सौ चौवन किसान खुदकुशी कर चुके हैं। और सैकड़ों किसान खुदकुशी की कतार में हैं।

Friday, September 19, 2008

मौसेरे भाई

एक कवि के घर आधी रात एक चोर घुसा
कवि जी जगे थे ,दर्द में पगे थे
यानि कविता करने में लगे थे।
अचानक उनके चेहरे पर आ गया
रौद्र रस का स्थायी भाव
आव देखा न ताव
कुछ समझा न सोचा
चोर को धर दबोचा।
बोले प्रिय भाई तुम ग़लत
जगह पर आ गए हो
लगता है धंधे में नए हो।
अरे अगर चुराना ही है
तो किसी नेता के घर चुराओ
देश की गरीबी मिटाओ।
चोर ने हंसकर दिया जवाब।
जनाब क्या कहते हैं आप
हरगिज़ नहीं करूंगा ऐसा पाप।
लोग बदल गए जमाना बदल गया
लेकिन फिर भी हम अपनी
पुराणी मान्यताओं को मानते हें
अपने मौसेरे भाइयों को
अच्छी तरह पहचानते हैं।
हम भूखों मर सकते हैं
मगर किसी नेता के घर
चोरी नही कर सकते हैं।

Thursday, September 18, 2008

सावधान आतंकवाद

भोपाल । १७ सितम्बर को माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ एक अनोखा आयोजन किया। पवित्र पितृपक्ष में सभी विद्यार्थियों ने मिलकर आतंकवादी घटनाओं में मारे गए भारतीयों की आत्मा की शान्ति के लिए सामूहिक तर्पण किया। शीतलदास की बगिया में आयोजित यह कार्यक्रम अपने आप में अनोखा था, साथ ही आतंकवाद को लेकर युवाओं की संवेदनशीलता को भी दिखाने वाला था। जिस तरह पूरे कार्यक्रम के दौरान ऊंचे स्वर में मंत्रोच्चार हो रहा था और श्रद्धापूर्वक पूजा एवं तर्पण का कार्यक्रम संपन्न हुआ ,वहाँ उपस्थित लोगों के लिए आकर्षण का केन्द्र बना रहा। सभी विद्यार्थी आगे भी इस तरह के कार्यक्रम जारी रखना चाहते हैं ताकि आतंकवाद को चुनौती मिल सके । आयोजन के दौरान भारत माता की जय और दहशतगर्दी बंद करो जैसे नारे उनके रोष को साफ़ साफ़ प्रर्दशित कर रहे थे।

Wednesday, September 17, 2008

इनको पहचान लें


दिल्ली पुलिस ने धमाकों के तीन दिन बाद कल शाम धमाकों के संदिग्ध अभियुक्तों के कंप्यूटर चित्र जारी कर दिए। पुलिस ने इन तीन लोगों के ५ स्केच जारी किए हैं। इनमें एक स्केच गफ़्फ़ार मार्केट के संदिग्ध का है जबकि दो स्केच बाराखंभा रोड पर बम धमाकों में शामिल आतंकवादियों के प्रत्यक्षदर्शियों की सूचना के आधार पर इनको तैयार किया गया है।
पुलिस का कहना है कि दिल्ली में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के बारे में अहम जानकारी हाथ लगी है. ख़बरें हैं कि पुलिस ने कुछ लोगों को हिरासत में लिया है और उनसे पूछताछ भी की जा रही है। लेकिन इन लोगों के बारे में अब तक कोई जानकारी नहीं दी गई है।
पुलिस ने इन लोगों के बारे में कोई भी सूचना मिलने पर तत्काल उपलब्ध कराने की अपील की है। आतंक के ख़िलाफ़ इस लड़ाई में केव्स संचार भी कमर कस चुका हैं और हम देश के सभी जिम्मेदार नागरिकों से अपील करते हैं की इस लड़ाई में हम धर्म और जाति के मसलों से ऊपर उठ कर एक साथ ये लड़ाई लड़ें।


आप सभी से अपील है कि इन संदिग्धों के बारे में कोई भी सूचना 1090 के टाल फ्री नंबर पर दे सकते हैं....


Monday, September 15, 2008

एक लुटी हुई बस्ती की कहानी

१३ सितम्बर को दिल्ली में जो कुछ हुआ, वो नया नही था पर हर बार की तरह सोचने पर मजबूर कर गया। फिर से लोग मर गए और लाशों पर राजनीति होने लगी पर एक सकरात्मक बात हुई कि इस बार हम शायद ज्यादा गंभीरता से आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए सोच रहे हैं। कुछ बड़े सवाल उठे हैं....

अभी अभी वो ई मेल पढ़ कर उठा हूँ जो इन मूढ़ आतंकवादियों ने सभी मीडिया को भेजी हैं। कई जगह पढ़ कर गुस्सा आया, कई जगह हँसी और फिर इन पर तरस आया कि ये शायद कुछ भी नहीं जानते और बिना मतलब अपनी कीमती ज़िन्दगी ऐसे ही बरबाद कर रहे हैं। कुछ जगह मैं इन इंडियन मुजाहिद्दीन नाम के डरपोकों से सहमत हूँ जहाँ इन्होने नेताओं को गालियाँ दी हैं और पुलिस का मजाक बनाया है.....पर इससे काम नहीं बनेगा ! मुझे बेहद हैरत होती है जब मैं देखता हूँ कि हम लोगों को इन सब से फर्क ही नहीं पड़ता है। लोगों को इतने के बाद तो सड़क पर उतर आना चाहिए था .... पर......

खैर जो कुछ हुआ उसके लिए निदा फाजली साहब कि कुछ पंक्तियाँ ही कह सकता हूँ,

एक लुटी हुई बस्ती की कहानी

बजी घंटियाँ

ऊँचे मीनार गूँजे

सुन्हेरी सदाओं ने

उजली हवाओं की

पेशानियों की
रहमत के बरकत के

पैग़ाम लिक्खे—वुजू करती

तुम्हें खुली कोहनियों तक

मुनव्वर हुईं—झिलमिलाए अँधेरे-

-भजन गाते आँचल ने

पूजा की थाली से बाँटे सवेरे

खुले द्वार !

बच्चों ने बस्ता उठाया

बुजुर्गों ने—पेड़ों को पानी पिलाया-

-नये हादिसों की खबर लेके

बस्ती की गलियों में

अख़बार आया

खुदा की हिफाज़त की ख़ातिर

पुलिस ने

पुजारी के मन्दिर में

मुल्ला की मस्जिद में

पहरा लगाया।

खुदा इन मकानों में लेकिन

कहाँ था

सुलगते मुहल्लों के

दीवारों दर में वही जल रहा था

जहाँ तक धुवाँ था

निदा फाजली


खाद्य समस्या

नेता जी चमचों से घिरे थे
तभी वे बुदबुदाये
अरे कोई तो उपाय सुझाये
गरीबी कैसे हटे ?
(कम से कम मौज के पाँच साल तो कटें)
चमचो ने सुझाव किया पेश
धनी हो सकता है अपना यह देश
अगर गरीबी हटानी ही है
तो इसके लिए जरुरी है
की बाज़ार से गेंहू गायब हो जाए
क्योंकि कंगाली मैं आटा होता है गीला
यही सबसे बड़ी मजबूरी है
सुनकर उनके चेहरे पर छाया उल्लास
आया मधुमास
पसंद आ गई चातुरी
न रहेगा बांस
न बजेगी बांसुरी
बोले एवमस्तु।
अगले ही दिन गेंहू बाजार से
लापता हो गए
ब्लैक के भावःबढ़ गए
और गरीबी हटाने की दिशा मैं वे
एक कदम और आगे बढ़ गए।

Sunday, September 14, 2008

zeenews.com का अभिनव प्रयास !

अभी हाल ही में हिमांशु ने एक लेख डाला था जिसमे हिन्दी के ढोंगी समर्थकों से सावधान रहने की बात थी। आज चर्चा करूँगा एक अभिनव प्रयास की जिससे ये साबित हो जाएगा कि हिन्दी के अभियान के लिए किसी तरह के कट्टरपंथ की आवश्यकता नहीं है बल्कि अपने अपने स्तर पर अपने अपने तरीके से हिन्दी के लिए अपना योगदान दिया जा सकता है। यह प्रयास किया है जी न्यूज़ की वेबसाइट जी न्यूज़ डॉट कॉम ने। जी न्यूज़ के अंग्रेज़ी पोर्टल ने आज हिन्दी दिवस के अवसर पर विशेष पृष्ठ जारी किया है।

यह प्रयास अभिनव इस मामले में है कि यह वेबसाइट पूरी तरह से अंग्रेज़ी में है और इसके लिए काम करने वाले सभी पत्रकार भी अंग्रेज़ी के ही पत्रकार हैं। ऐसे में जब हमारा तथाकथित अंग्रेजीदा वर्ग हिन्दी बोलने वालों का उपहास करने के बहाने ढूंढता और उन्हें हीन भावना से देखता है, ये अनुकरणीय प्रयास है। इस पूरे विशेषांक की खासियत यह है कि इसमे लिखे गए सभी लेखों की भाषा अंग्रेज़ी है पर ये सभी लेख हिन्दी को महिमामंडित करते हैं और उसके स्तर - महानता को बताते हैं।

निश्चित रूप से इसके लिए जी न्यूज़ की वेबसाइट के सभी सदस्य बधाई के पात्र हैं। सबसे पहले बधाई दूँगा वेबसाइट की प्रमुख आकृता रेयार को, उसके बाद बधाई दूँगा उनकी टीम की सदस्य और अपनी मित्र देविका छिब्बर को और उनके सभी साथियों को। मैं इन लोगो का आभारी भी हूँ कि इन्होने मुझे अपने इस प्रयास में शामिल होने का सुनहरा मौका दिया जिससे मैं हिन्दी की कुछ अनोखे ढंग से सेवा कर पाया......

आप सब भी इस विशेषांक को ज़रूर पढ़ें .... पसंद आएगा !

http://www.zeenews.com/articles.asp?aid=468876&archisec=ARC पर भी जा सकते हैं ....

राष्ट्रभाषा समाधान गांधी-दर्शन में

हाल ही में एक दिन इन्टरनेट पर कुछ खोज करते वक़्त एक लेख मिला जो हिन्दी और राष्ट्रभाषा के विचार और उस पर होने वाले तमाम तरह के विवादों के बारे में बात करता है और कुछ अच्छे विचार पेश करता है। हिदी दिवस के अवसर पर मातृभाषा को नमन करते हुए यह लेख सादर समर्पित है। प्रस्तुत लेख के लेखक डॉ किरीट कुमार जोशी हैं, उनको धन्यवाद !


वर्तमान युग का यक्ष प्रश्न - राष्ट्रभाषा समाधान गांधी-दर्शन में


डॉ किरीट कुमार जोशी


मु. राणावाव, वाडीप्लोट सागर समाज के पास,
कुतियाणा, जि। पोरबंदरा, गुजरात


भारतवर्ष में एकता के अभाव के कारण और राजनीतिक दृष्टि से कई सौ वर्षो की गुलामी के कारण भारतवासियों में शासन की बागडोर अपने हाथों में लेने की असमर्थता का भाव घर कर गया था (हालांकि अंग्रेजों के विरूद्ध आंदोलन भी चलाया जा रहा था), फलस्वरूप उन्होंने अंग्रेजी शासन को स्वीकार किया और अंग्रेजी-भाषा को भी। किन्तु जैसे-जैसे जन-मानस में स्वतंत्रता की भावना प्रबल होने लगी, भारतीय जनता यह चाहने लगी कि हमारा राष्ट्र स्वतंत्र हो और हमारा अपना, खुद का शासन हो। तब उसके साथ-साथ अपनी भाषा को उचित स्थान देने के लिए भी वह जागृत होने लगी। उसे यह विदित होने लगा कि शारीरिक दासता की अपेक्षा मानसिक गुलामी अधिक भयंकर एवं घातक होती है। इस अनुभूति के कारण ही आधुनिक काल में अहिन्दी-भाषियों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित करने में अपना जीवन स्वाहाकर दिया। क्या इस बात का कोई महत्त्व नहीं है कि बह्म समाज के नेता बंगला-भाषी केशवचंद्र सेन से लेकर गुजराती भाषा-भाषी स्वामी दयानंद सरस्वती ने जनता के बीच जाने के लिए 'जन-भाषा', 'लोक- भाषा' हिन्दी सीखने का आग्रह किया और गुजराती भाषा-भाषी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने मराठी-भाषा-भाषी चाचा कालेलकर जी को सारे भारत में घूम-घूमकर हिन्दी का प्रचार-प्रसार करने का आदेश दिया। सुभाषचंद्र बोस की 'आजाद हिन्द फौज' की राष्ट्रभाषा हिन्दी ही थी। श्री अरविंद घोष हिन्दी-प्रचार को स्वाधीनता-संग्राम का एक अंग मानते थे। नागरी लिपि के प्रबल समर्थक न्यायमूर्ति श्री शारदाचरण मित्र ने तो ई. सन् 1910 में यहां तक कहा था - यद्यपि मैं बंगाली हूं तथापि इस वृद्धावस्था में मेरे लिए वह गौरव का दिन होगा जिस दिन मैं सारे भारतवासियों के साथ, 'साधु हिन्दी' में वार्तालाप करूंगा। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय और ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने भी हिन्दी का समर्थन किया था। इन अहिन्दी-भाषी-मनीषियों में राष्ट्रभाषा के एक सच्चे एवं सबल समर्थक हमारे पोरबंदर के निवासी साबरमती के संत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी थे।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को इस बात का अत्यधिक सदमा था कि भारत जैसे बड़े और महान राष्ट्र की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। प्रत्येक राष्ट्र के लिए उस राष्ट्र की राष्ट्रभाषा उनका प्राण एवं पूंजी होती है, उनके सार्वभौमत्व, एकता, अखंडितता के गौरव की प्रतीक होती है। यदि भिन्न भिन्न प्रदेशों में अपनी भिन्न-भिन्न प्रादेशिक भाषाएं हैं, यदि उन प्रदेशों को वैचारिक स्तर पर जोड़ने वाली अंग्रेजी जैसी विदेशी-भाषा है तो सब भारतीयों के लिए वह बात शरमजनक एवं दु:खपूर्ण है, राष्ट्र के लिए अपमान है। यदि हम हमारे राष्ट्र की एकता का दावा करते हैं तो उसमें बहुत सारी बातें एक समान होनी चाहिए। अत: राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने विखंडित पड़े संपूर्ण भारत को एकसूत्र में बांधने के लिए, उसे संगठित करने के लिए एक राष्ट्रभाषा की आवश्यकता का अहसास करते हुए कहा था - 'राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।' उन्होंने भारत वर्ष के इस गूंगेपन को दूर करने के लिए भारत के अधिकतम राज्यों में बोली एवं समझी जाने वाली हिन्दी भाषा को उपयुक्त पाकर संपूर्ण भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित, स्थापित किया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के समान बंगाल के चिंतक आचार्य श्री केशवचंद्र सेन ने भी 'सुलभ-समाचार' पत्रिका में लिखा था - 'अगर हिन्दी को भारतवर्ष की एकमात्र भाषा स्वीकार कर लिया जाय तो सहज में ही यह एकता सम्पन्न हो सकती है।' अर्थात् हिन्दी ही खंड़ित भारत को अखंड़ित बना सकती है।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी विखंडित भारत राष्ट्र को अखंडित एवं एकसूत्र बनाने के लिए राष्ट्रभाषा के सच्चे एवं प्रबल समर्थक तो थे लेकिन पराधीनता के समय में, अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार के युग में उनके दिमाग में राष्ट्रभाषा की संकल्पना निश्चित थी। उन्होंने अकारण ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में उपयुक्त नहीं समझा था। वे संपूर्ण भारतीय भाषाओं में एकमात्र हिन्दी में ही राष्ट्रभाषा होने का सामर्थ्य देखते थे। अपने इसी दर्शन के कारण ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने गुजरात-शिक्षा-सम्मेलन के अध्यक्षीय-पद से राष्ट्रभाषा के प्रसंग में प्रवचन देते हुए राष्ट्रभाषा की व्याख्या स्पष्ट की थी। दूसरे शब्दों में कहें तो राष्ट्रभाषा का लक्षण स्पष्ट किया था। राष्ट्रपिता गांधीजी के शब्दों में देखिए - 'राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जो सरकारी कर्मचारियों के लिए सहज और सुगम हो। जो धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में माध्यम भाषा बनने की शक्ति रखती हो। जिसको बोलने वाला बहुसंख्यक समाज हो, जो पूरे देश के लिए सहज रूप से उपलब्ध हो॥अंग्रेजी किसी तरह से इस कसौटी पर खरी नहीं उतर पाती।' इस प्रकार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने तत्कालीन अंग्रेजी-शासनकाल की अंग्रेजी-भाषा की तुलना में एकमात्र हिन्दी-भाषा में ही राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा (लिंक लेंगवेज) एवं राजभाषा होने के सामर्थ्य का दर्शन किया था।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा के इस सामर्थ्य - राष्ट्र के जन-जन को एक करने की शक्ति, बहुजन समाज की 'जनभाषा' होने के कारण ही दक्षिण अफ्रिका के प्रवास दौरान ही राष्ट्रभाषा-समस्या पर व्यवस्थित रूप से सोच लिया था और उन्होंने घोषणा भी कर दी थी -
स्वराज करोड़ों भूखे मरने वालों का, करोड़ों निरक्षरों का, निरक्षर बहनों और दलितों और अन्त्यजों का हो और उनके लिए तो हिन्दी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा हो सकती है.... करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली थी वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी।
इस प्रकार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अनुसार राष्ट्रभाषा राष्ट्र की अखंडितता की तो नींव है लेकिन वे उसे स्वतंत्रता प्राप्ति का माध्यम भी समझते थे। मैकाले ने ही अंग्रेजी-शिक्षा के प्रचार के द्वारा भारतीयों को मानसिक स्तर पर परतंत्र बनाने का श्री गणेश किया था। भारतीयों को इस वैचारिक परतंत्रता में से बाहर निकालने के लिए हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ई. सनॅ 1918 में हिन्दी साहित्य-सम्मेलन के अध्यक्ष बनकर ही अहिन्दी-भाषी प्रदेशों में हिन्दी-भाषा के प्रचार-प्रसार की एक विस्तृत आयोजना की। जिसके कार्यान्वय की शुरुआत उन्होंने अपने घर से करते हुए बेटे देवदास को ई.सन् 1918 में शिक्षकों के एक दल के साथ दक्षिण भारत भेजा था। पोरबंदर के इस राष्ट्रपिता, संत महात्मा गांधी ने स्वयं दक्षिण-भारत का प्रवास करके, वहां के लोगों में राष्ट्रभाषा के प्रति जागृति लाने के अनेक प्रयत्न किये थे। दूसरे शब्दों में कहें तो संपूर्ण दक्षिण-भारत प्रदेश में राष्ट्रभाषा-आंदोलन चलाया था। इस राष्ट्रभाषा-आंदोलन में सफलता की कम संभावना देखते हुए उन्होंने खुद अपने प्रचारक को ढाढ़स बंधाते हुए एक पत्र में लिखा था - 'जब तक तमिल प्रदेश के प्रतिनिधि सचमुच हिन्दी के बारे में सख्त नहीं बनेंगे, तब तक महासभा में से अंग्रेजी का बहिष्कार नहीं होगा। मैं देखता हूं कि हिन्दी के बारे में करीब-करीब खादी के जैसा हो रहा है। वहां जितना संभव हो, आंदोलन किया करो। आखिर में तो हम लोगों की तपश्चर्या और भगवान् की जैसी मरजी होगी वैसा ही होगा।' इस प्रकार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का दक्षिण भारत के राज्यों में राष्ट्रभाषा के आंदोलन में सफलता की कम संभावना रहने पर वे निरुत्साहित नहीं हुए। लेकिन उन्होंने बड़े उत्साह, आदर और गौरव से ई। सन्. 1920 में 'गुजरात विद्यापीठ' की स्थापना अहमदाबाद में की थी।इस राष्ट्रीय संस्था द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित करने के लिए अनेक रचनात्मक कार्य किये गये थे। संपूर्ण भारत में स्नातक-स्तर पर अनिवार्य विषय हिन्दी का प्रारंभ इस राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से हुआ था। आज भी यह विश्वविद्यालय हिन्दी की विभिन्न परीक्षाएं, बी.ए., एम.ए., बी.एड., एम.फील., पीएच.डी. के शोधकार्य के द्वारा गुजरात जैसे अहिन्दी भाषी प्रदेश में हिन्दी का प्रचार-प्रसार कर रहा है। इतना ही नहीं, यहां डॉ. अम्बाशंकर नागरजी की अध्यक्षता में हिन्दी के साथ-साथ अन्य भारतीय-भाषाओं के विषय में अध्ययन-अध्यापन-शोध-कार्य हो रहा है। लगता है कि अकेली राष्ट्रभाषा सभी भारतीय भाषाओं को यहां खींचकर लायी है। इस प्रकार कह सकते हैं कि गुजरात विद्यापीठ के स्थापक के रूप में एवं उसमें वर्तमान में हो रहे राष्ट्रभाषा के कार्य को लेकर कुलपति महात्मा गांधीजी आज भी हमारे मध्य विद्यमान, प्रस्तुत हैं।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने पराधीन भारत में हिन्दू-मुस्लिम में भाषा-भेद (हिन्दी-उर्दू) मिटाकर ऐक्य स्थापित करने के लिए 'राष्ट्रभाषा' के लिए 'हिन्दुस्तानी' शब्द का प्रयोग किया था। आपका 'हिन्दुस्तानी' शब्द-प्रयोग से अभिप्राय हिन्दुस्तान के जन-जन को जोड़ने वाली भाषा से ही था। इस 'हिन्दुस्तानी' के द्वारा ही उन्होंने जातिगत समन्वय का, हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य का जबरदस्त प्रयत्न किया था। इस प्रकार राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार में, राष्ट्रभाषा की राष्ट्रीय समस्या के समाधान में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का अपूर्व योगदान रहा है। वे हमेशा राष्ट्रभाषा को राष्ट्रीय-गौरव, सांस्कृतिक समन्वय, राष्ट्रीय-अखंडितता की परिचायक मानते थे।
वर्तमान युग के राष्ट्रीय जनजीवन के व्यावहारिक एवं शैक्षिक स्तर के संदर्भ में सोचा जाय कि - क्या हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है? इस प्रश् के उत्तर के रूप में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा दिये गये राष्ट्रभाषा के लक्षण के संदर्भ में कह सकता हूं कि इसे बोलने वाले लोग भारत के एक तिहाई हिस्से में बसते हैं। लेकिन हर प्रदेश के लोग अपनी प्रादेशिक-भाषा में व्यवहार करते हैं। हिन्दी राष्ट्रभाषा के स्थान पर उसी समय आसीन होगी जब जनता के स्तर पर वह सम्पर्क, व्यावहारिक भाषा बन जाय। अर्थात् एक प्रदेश का निवासी दूसरे प्रदेश से मिले तो वह अंग्रेजी आदि का प्रयोग न कर हिन्दी का प्रयोग करे। तामिल-भाषी बंगाली से मिलने पर या पंजाबी मलयाली से मिलने पर या मराठी गुजराती से मिलने पर आपसी व्यवहार, विचार-विनिमय हिन्दी में करे। इस प्रकार राष्ट्रीय जीवन में हिन्दी व्यावहारिक-संपर्क की महत्त्वपूर्ण कड़ी बनने पर ही राष्ट्रभाषा बन सकती है और इससे ही राष्ट्रपिता को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित हो सकती है।
इसके अतिरिक्त वर्तमान अधुनातन युग में विदेशी-शिक्षा के अनुकरण स्वरूप भारत में अंग्रेजी-माध्यम की शाला-महाशालाओं का प्राचुर्य बढ़ता जा रहा है। बच्चे अपनी मातृभाषा को छोड़कर प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर की शिक्षा अंग्रेजी-भाषा के माध्यम से प्राप्त करते हैं। वहां राष्ट्रपिता के विचारों की हत्या हो जाती हैं। क्यों कि उनका अंग्रेजी-भाषा से नहीं बल्कि अंग्रेजी माध्यम से विरोध था। वे खुद भी अंग्रेजी के जानकार थे और राष्ट्रपिता तथा विवेकानंद ने अंग्रेजी के द्वारा ही भारतीय संस्कृति को विदेशों में रोशन किया था। इस प्रकार वर्तमान युग में भारतीय माता-पिता अपने बच्चों को अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा दिलवा कर गांधी-विचारधारा का खंडन कर देते हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रिका के प्रवास के दौरान ही समझ लिया था कि हिन्दी ही भारतवर्ष की सम्पर्क-भाषा (लिंक लेंगवेज) हो सकती है। क्योंकि वहां रहने वाले सभी भारतीय - तेलुगु, तमिल, मराठी, गुजराती बिना किसी के कहे हिन्दी में बात करते थे। अत: राष्ट्रपिता ने राष्ट्रभाषा की व्याख्या करते समय यहीं उसमें संपर्क भाषा का दर्शन किया था। यह सच्चाई भी है कि हिन्दी हमारे देश की राष्ट्रभाषाओं में से एक है, अधिकांश लोग उसे जानते समझते हैं और यहां तक कि सुदूर दक्षिण में भी, जहां द्रविड़ भाषाएं बोली जाती हैं, सैकड़ों वर्षो से वहां के लोगों के साथ उत्तर भारतीय यात्रियों एवं व्यापारियों का जो संपर्क होता आ रहा है, जिससे वहां की जनता हिन्दी को अच्छी तरह समझती है। अत: अन्य प्रदेशों के लोगों का हिन्दी के माध्यम से दक्षिण की जनता के साथ संपर्क स्थापित हो जाता है। इतना ही नहीं भारतीय भारत के किसी भी कोने में हिन्दी के द्वारा संपर्क स्थापित करके अपना व्यावहारिक-कार्य पूर्णकर सकता है। दूसरी ओर वर्तमान समय में दूरदर्शन ने हिन्दी-भाषा को भारत एवं विदेशों में पहुंचा दिया है जिससे कोई भारतीय हिन्दी से अपरिचित ही नहीं रहा है। इस प्रकार हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा राष्ट्रभाषा में संपर्क भाषा का किया गया दर्शन वर्तमान भारत में प्रस्तुत है। राष्ट्रपिता की राष्ट्रभाषा भारत के जन-जन के बीच संपर्क-सूत्र स्थापित करती होने के कारण अद्यावधि राष्ट्रपिता दर्शनिक के रूप में हमारे बीच विद्यमान हैं।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा में ही राजभाषा की संभावना देखते हुए कहा था - 'राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जो सरकारी कर्मचारियों के लिए सहज और सुगम हो।' आपकी इस विचारधारा के फलस्वरूप ही भारत स्वतंत्र होते ही डॉ. राजेन्द्रप्रसाद की अध्यक्षता में 14 सितम्बर, 1949 के दिन हिन्दी को भारतवर्ष की राजभाषा के रूप में स्वीकृत किया गया। भारतीय संविधान में राजभाषा हिन्दी के संबंध में धारा-343 (1) के अनुसार संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। तदुपरांत इसी धारा की उपधारा (2) के प्रावधानानुसार 26 जनवरी, 1965 तक संघ सरकार के कार्यो के लिए अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा। तथापि राष्ट्रपति किन्हीं सरकारी प्रयोजनों के लिए हिन्दी भाषा का भी प्रयोग प्राधिकृत कर सकते हैं। संविधान के इस प्रावधान से केन्द्रिय सरकार के संविधान-निर्माता किसी न किसी रूप में अंग्रेजी के पक्षधर रहे थे। जिसके परिणामस्वरूप केन्द्रिय सरकार के कार्यालयों में हिन्दी महत्त्वपूर्ण दस्तावेज की अनुवाद-भाषा मात्र रह चुकी है। वहां हिन्दी का स्थान मात्र नामपट्ट, मुहर, कक्ष के सूत्र हिन्दी दिन, सप्ताह, पखवाड़ा मनाने तक ही सीमित रह गया है। यहां तक कि केन्द्रिय-सेवा-आयोग की परीक्षाओं में प्रधानता अंग्रेजी की ही है। इन सबको देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्रभाषा में राजभाषा के राष्ट्रपिता के दर्शन शेष रह गये हैं जिस पर समूह चिंतन करने का यह सु-अवसर है।
उपयुक्त संपूर्ण आलेखन से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के मन में हिन्दी के तीनों रूप राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा और राजभाषा बिलकुल निश्चित थे। लेकिन उन्होंने राष्ट्रभाषा को जिस राष्ट्रीय गौरव, अखंडितता, सांस्कृतिक अस्मिता के नजरिये से देखा था वह भावना वर्तमान राष्ट्रीय जनजीवन में मृतप्राय हो चुकी है।
यह भी सच्चाई है कि राष्ट्रभाषा वर्तमान युग के केन्द्रिय सरकार के कार्यालयों की राजभाषा बनने में असफल रही है। सरकारी कर्मचारियों को भारतीयता के गौरव को पहचान कर कार्यालयों में राजभाषा का कार्यान्वय करने से ही राजभाषा को राजभाषा की गरिमा एवं ऊचाई प्राप्त हो सकती है और इससे ही राष्ट्रपिता की राष्ट्रभाषा से राजभाषा तक ही दार्शनिक-यात्रा सफल, साकार हो सकती है।


Saturday, September 13, 2008

हिन्दी दिवस का वालपेपर .....

प्रिय पाठकों, हिन्दी सप्ताह की इस श्रृंखला में मैंने सोचा की चलिए क्यों ना आप सबके लिए कुछ सहेजने लायक भी किया जाए ..... मतलब प्रतीकात्मक रूप में तो मित्रों मैंने हिन्दी दिवस पर माँ हिन्दी को स्तुत्य करने के प्रयास में एक वालपेपर चित्रित करने का एक सूक्ष्म सा प्रयास किया है। मैं नहीं जानता किये कोई बहुत सृजनात्मक कार्य है अथवा नहीं पर अपनी ओर से नमन का प्रयास है।


इस वालपेपर में हिन्दी को स्वरुप देने वाले कुछ महापुरुषों का चित्र है और वर्णमाला है ...... इसे उतारने के लिए नीचे दिए चित्र पर क्लिक करें और फिर इसे सेव कर लें ...... सुविधा के लिए मैंने बड़े आकार की फाइल बनाई है।


Friday, September 12, 2008

हिन्दी सप्ताह पर दंभ त्यागें ........

केव्स संचार पर हम हिन्दी सप्ताह मना रहे हैं । मेरे ख्याल से इस हिन्दी सप्ताह में मेरे जैसे जितने भी लोग हिन्दी की उन्नति चाहते हैं, उन लोगों से हिन्दी से प्रेम करने की अपेक्षा करते हैं, जो हिन्दी का महत्व नही समझते । हम इस पूरे सप्ताह उन लोगों को हिन्दी की गौरव शाली परम्परा और महत्त्व सक्म्झाते हैं.....करना भी चाहिए ।


लेकिन मुझे लगता है की हिन्दी के प्रति अज्ञानी और हिकारत का भाव रखने वालों के साथ इस सप्ताह में एक प्रकार के लोग और हैं , जिनकी काउंसलिंग करनी चाहिए ।


वो लोग हैं हिन्दी को लेकर अँधा प्रेम रखने वाले प्रेम । शायद आप सही समझ रहे हैं , मैं ऐसे लोगों की बात कर रहा हूँ जो हिन्दी से इतना प्रेम करते हैं की वो और कोई भाषा सीखना और बोलना ही नही चाहते । अंग्रेज़ी से तो उनकी जैसे खूनी लड़ाई है ।
उनकी हिन्दी प्रेम की कुछ बानगी मैं आपको देता हूँ ....

उनके हिसाब से मेडिकल से लेकर इंजीनियरिंग तक सब किताबें हिन्दी में होनी चाहिए ।

उनके जो दोस्त उनसे अच्छी अंग्रेज़ी बोलते हैं उनके अनुसार वो सभी अंग्रेजों की नाजायज़ औलादें हैं ।

अंग्रेज़ी बोलने वाले देश प्रेमी नही होते ।

हम अंग्रेज़ी नही बोलेंगे क्यूंकि हम हिन्दुस्तानी है।

अंग्रेज़ी का प्रसार अंग्रेजिअत का प्रचार है ।

(कुछ और नमूने और तर्क अगर आप जानते हो या आप के पास का कोई और हिन्दी प्रेमी देता हो तो भेजें )

वास्तव में ये प्रेम नही है , ये हिन्दी को लेकर पला गया एक झूठा दंभ है , जो की अंग्रेज़ी न बोल पाने की कुंठा से उपजा है , हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी न बोल पाना कोई गंभीर समस्या नही है , पर उसे सीखने की कोशिश भी न करना ये एक बहुत बड़ी समस्या है। गमभीर उनके बहाने हैं । कथित हिन्दी प्रेमी अपनी कुंठा और निकम्मापन छुपाने के लिए राष्ट्रीयता, संस्कृति, गुलामी की दुहाई देते नही थकते , जबकि हकीकत ये है की इनमे से ज्यादा तर लोग हिन्दी भी सही नही बोल पाते ।

मेरा हिन्दी सप्ताह में उन सभी कथित हिंदी प्रेमियों से विनम्र अनुरोध है की अपने इस प्रकार के दंभ को छोड़े। क्यूंकि हिन्दी को सबसे ज्यादा कष्ट तभी होता है जब कोई अयोग्य व्यक्ति अपनी कमी छुपाने के लिए हिन्दी की महान परम्परा को गिरवी रखता है ।

अंग्रेज़ी सीखने की ज़रूरत है या नही ये अलग विषय है , मेरा आग्रह सिर्फ़ इतना है की अगर आपको अंग्रेज़ी या कोई भी दूसरी भाषा नही आती, तो परिश्रम के साथ उसे सीखे और सामने वाले से कहें की मैं अभी सीखने की प्रक्रिया में हूँ । मनुष्य उम्र भर सीखता है , इसलिए आप ये उत्तर देने में सकुचें नही ,और अगर आप में ये हिम्मत नही है तो कृपया अपनी कायरता और अवगुण का ठीकरा हिन्दी के सर न पटके । इससे हिन्दी की ही नही आपकी उन्नति भी रूकती है .


आपका हिन्दी प्रेम लोग तभी पहचानेगे जब अंग्रेज़ी आने के बावजूद आप हिन्दी में बात करना पसंद करेंगे, जब आपको केवल हिन्दी ही आती होगी और आप हिन्दी में बात करेंगे तब चाहें आप कितने ही बड़े हिन्दी प्रेमी हों, कितने ही गर्व से हिन्दी बोल रहे हों , हिन्दी की परम्परा से लोगों को अवगत करा रहे हों , लोग समझेंगे की हिन्दी में बात करना इसकी मजबूरी है, इसका हिन्दी प्रेम एक दंभ है .............

झूठा दंभ त्यागें और सच्चा प्रेम करें !

आत्माभिव्यक्ति

नही मानती कलम हमारी लिख देती है नाम तुम्हारा
जहाँ जहाँ तक दृष्टि पहुँचती नामहीन है जगह न कोई
अंगडाई लेने लगती है अन्तर मैं पीडाएं सोयी
कण -कण मैं आभासित होता है प्रतिबिम्ब ललाम तुम्हारा
नही मानती कलम हमारी लिख देती है नाम तुम्हारा
बन जाते हैं नयन सरोवर डूब रही काजल की कश्ती
गीत रूठ जाते अधरों पर गालों पर उदास है मस्ती
तन से दूर-दूर रहकर भी मन मैं सदा मुकाम तुम्हारा
नही मानती कलम हमारी लिख देती है नाम तुम्हारा
जैसे कोई टहनी टूटे लदे हुए हों मीठे फल से
ख़ुद को भरमाये रहता हूँ यादों को समेट आँचल से
चिंता यही लगी रहती है नाम न हों बदनाम तुम्हारा
नही मानती कलम हमारी लिख देती है नाम तुम्हारा।

शीर्षक !

हिन्दी सप्ताह की एक अन्य रचना आई है सुधीर सक्सेना ' सुधि' जी की ओर से। सुधीर जी जयपुर में रहते हैं और गाहे बगाहे इनकी रचनायें ब्लॉग जगत में देखने को मिल जाती हैं। इस बार ये हमारा सौभाग्य है कि इन्होने केव्स संचार के लिए अपनी रचना हमें भेजी है। आप ख़ुद ही पढ़ें और आनंद लें इस कटाक्ष का,


शीर्षक !

मेरी कविता का शीर्षक

जो गुम हो गया था,

शब्दों की भीड़ में,

कल शाम अचानक

मिल गया सड़क पर

एक वृद्ध भिखारी की

लाठी से लिपटा हुआ.

हम एक दूसरे को देखकर

बहुत रोये.

मैने उससे कहा- चलो

कविता तुम्हारी प्रतीक्षा

कर रही है.

उसने कहा- नहीं,

मैं नहीं जा सकता

तुम्हारी वो कविता

सिर्फ़ कल्पना है

पर यहाँ मैं

हकीकत में जी रहा हूँ!


-सुधीर सक्सेना 'सुधि'


75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-३०२०२०


sudhirsaxenasudhi@yahoo.com



एक चर्चा हिन्दी सप्ताह पर

हिन्दी सप्ताह के अवसर पर अक्सर हिन्दी के कलम घिस्सुओं के द्वारा ये चखचख उठाई जाती है की हमे मातृभाषा में ही कार्य करना है हम इस बात का प्राण ठान लेते हैं की मर जायेंगे पर काम हिन्दी में ही करेंगे। पर हर एक हिन्दी सप्ताह ऐसे गुजरता जाता है जैसे बिन ब्याही लड़की की जवानी। बेचारी अपनी व्यथा को किसी से कह भी नही सकती। शाम को जब पिता घर लौटकर आता है तो माँ पूछती है किया जवाब मिला तो उस वक्त यदि उस पिता को कोई गोली मार दे तो शायद उसे अफ़सोस कम होता की आज भी में तेरे लिए लड़के को समाज के इस बाज़ार से खरीद नही सका बेटी !मुझे माफ़ कर दे मैं एक पिता नही बन सका। ठीक यही दशा हमारी हिन्दी माता की है वो बेटों वाली विधवा की तरह अपने ही घर में निर्वासित की तरह रह रही है। भारतेन्दुबाबु जैसे कुछ सपूतों ने हिन्दी माता की अस्मत को ढकने के प्रयत्न किए और वो उसमे सफल भी हुए। अब ये जिम्मेवारी हमारे ऊपर है हमें बचाना है हिन्दी की इज्जत और प्रतिष्ठा को हम किसी पड़ोसी को मौका क्यों दें की वो हमसे कहे की अपनी माता का ख्याल रखा करो। वो कल बहुत दुखी दिख रही थी। हमें दिखा देना है दुनिया और इस विश्व परिद्र्स्य को हिन्दी के सपूत अभी जीवित हैं और जिस वक्त एक सौ चालीस करोड़ भारतीय जनमानस की गूंज पूरीदुनिया में गूंजेगी तो दुनिया के सामने उसी तरह भागने का कोई भी रास्ता नही होगा जैसे मार्तंड के उदित होने पर रजनीश के पास भाग जाने के सिवाय कोई रास्ता नही होता।
जय भारत जय भारती जय हिन्दी

Thursday, September 11, 2008

साहित्य की महादेवी

आज ११ सितम्बर है , आप लोगों को याद होगा अमेरिका पर आतंक के हमले के लिए । मुझे याद है हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल की मीरा महादेवी वर्मा की पुण्य तिथि होने के कारण । आज ही के दिन १९८७ में वो दुनिया को छोड़ गयीं थीं । आज मैं उनको याद करते हुए , उन्ही की एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ , जो मेरी व्यक्तिगत पसंद भी है ......

मैं बनी मधुमास आली!

आज मधुर विषाद की घिर करुण आई यामिनी,

बरस सुधि के इन्दु से छिटकी पुलक की चाँदनी

उमड़ आई री, दृगों में सजनि, कालिन्दी निराली!


रजत स्वप्नों में उदित अपलक विरल तारावली,

जाग सुक-पिक ने अचानक मदिर पंचम तान लीं;

बह चली निश्वास की मृदु वात मलय-निकुंज-वाली!

सजल रोमों में बिछे है पाँवड़े मधुस्नात से,

आज जीवन के निमिष भी दूत है अज्ञात से;

क्या न अब प्रिय की बजेगी मुरलिका मधुराग वाली?

मैं बनी मधुमास आली!

गूगल बाबा का वरदान - हिन्दी टंकण औजार

काफ़ी दिनों से हमारे कुछ पाठकों और साथियों की इच्छा थी की ब्लॉग के मुख्या पृष्ठ पर एक यूनिकोड हिन्दी टंकण का औजार ( टूल ) उपलब्ध कराया जाए तो हमने सोचा की इसके लिए हिन्दी सप्ताह से बेहतर मौका क्या होगा ...... हिमांशु कई बार फरमाइश कर चुका है सो प्रस्तुत है गूगल बाबा का हिन्दी टंकण औजार ......


इसमे आप सीधे रोमन में टंकित करके उसे हिन्दी में परिवर्तित कर सकते हैं, ये उन पाठको के लिए बहुत काम का है जो अपनी टिप्पणियाँ अभी रोमन में देते हैं ..... इस औजार के लिए हिंद युग्म के शम्भू जी का भी हार्दिक आभार !


इसका प्रयोग करने के लिए ब्लॉग के पृष्ठ के सबसे नीचे जायें और रफ़्तार के सर्च टूल के ऊपर इसे खोजें, उसके बाद इसमें टंकित करें ऐसे .....

शृंगार है हिन्दी ( हिन्दी सप्ताह श्रृंखला )

सबसे पहले तो आशु प्रज्ञ और हिमांशु को बहुत साधुवाद, इन दोनों ने लगातार हिन्दी सप्ताह को जीवंत बनाए रखा। इन दो दिनों की अस्वस्थता के कारण लगा कि पता नहीं हिन्दी सप्ताह का प्राण पूरा होगा कि नहीं पर इन लोगों ने प्रयास को सफल किया। फिलहाल आज थोडा ठीक हूँ तो फिर से वापस हूँ और आज आप लोगों के सामने प्रस्तुत करूंगा एक ऐसी कविता जो हिन्दी के बारे में है।


इस कविता के रचयिता कवि हैं रामेश्वर काम्बोज ' हिमांशु '। इनका जन्म १९ मार्च १९४९ को ग्राम हरिपुर, तहसील बेहट, जिला सहारनपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनकी प्रमुख कृतियाँ माटी, पानी और हवा, अँजुरी भर आसीस, कुकड़ूकूँ, हुआ सवेरा, असभ्य नगर(लघुकथा संग्रह), खूँटी पर टँगी आत्मा(व्यंग्य -संग्रह) हैं। वर्तमान में काम्बोज जी केन्द्रीय विद्यालय आयुध उपस्कर निर्माणी, हज़रतपुर, जिला फ़िरोज़ाबाद, उत्तर प्रदेश में प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।


श्रृंगार है हिन्दी

खुसरो के हृदय का उदगार है हिन्दी ।
कबीर के दोहों का संसार है हिन्दी ।।
मीरा के मन की पीर बनकर गूँजती घर-घर ।
सूर के सागर- सा विस्तार है हिन्दी ।।


जन-जन के मानस में, बस गई जो गहरे तक ।
तुलसी के 'मानस' का विस्तार है हिन्दी ।।
दादू और रैदास ने गाया है झूमकर ।
छू गई है मन के सभी तार है हिन्दी ।।

'सत्यार्थप्रकाश' बन अँधेरा मिटा दिया ।
टंकारा के दयानन्द की टंकार है हिन्दी ।।
गाँधी की वाणी बन भारत जगा दिया ।
आज़ादी के गीतों की ललकार है हिन्दी ।।

'कामायनी' का 'उर्वशी’ का रूप है इसमें ।
'आँसू' की करुण, सहज जलधार है हिन्दी ।।
प्रसाद ने हिमाद्रि से ऊँचा उठा दिया।
निराला की वीणा वादिनी झंकार है हिन्दी।।

पीड़ित की पीर घुलकर यह 'गोदान' बन गई ।
भारत का है गौरव, शृंगार है हिन्दी ।।
'मधुशाला' की मधुरता है इसमें घुली हुई ।
दिनकर के 'द्वापर' की हुंकार है हिन्दी ।।

भारत को समझना है तो जानिए इसको ।
दुनिया भर में पा रही विस्तार है हिन्दी ।।
सबके दिलों को जोड़ने का काम कर रही ।
देश का स्वाभिमान है, आधार है हिन्दी ।।


रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

साभार : कविता कोष (http://www.kavitakosh.org/)

पन्द्रह अगस्त

हमने नेता जी से कहा ,
आज तो पन्द्रह अगस्त है
वे बोले तभी तो हम मस्त है
हमने कहा आज क्या कार्यक्रम है
वे बोले गरमा गरम है
सुबह झंडा फहराने जाना है
उसके बाद प्रभात फेरी मैं जाना है
फिर दोपहर मैं नॉन वेजिटेरियन लंच भी निपटाना है
हमने कहा उसके बाद कहीं
वे बोले कुछ ख़ास नही
हाँ आज हमने पूरा दिन देश की याद
मैं बिताने की कसम खायी है
शाम को अंग्रेजी की जगह देशी मंगवाई है
शौक रखते हो तो आईयेगा
मैंने कहा वाह नेता जी तुमने यहाँ
भी हमे बना दिया
जब तक अच्छी वाली मंगवाई तब तक
पूछा भी नही
और देसी मंगवाई तो दावत पर बुलवा लिया
नेता जी तुम जियो बरसो बरस जियो
तुमने देश भी अकेले पिया है
देसी भी अकेले पियो

Wednesday, September 10, 2008

अंदाज़ ऐ बयाँ

मेरी बातों को हलके में लेने की गुस्ताखी मत कीजियेगा हुजुर हमने आसमानों को सीने में दफ़न कर रखा है

पुलिया कमजोर है

सडकों के किनारे
अक्सर यह सूक्ति वाक्यलिखा मिलता है
पढ़कर कलेजा हिलता है
पुलिया कमजोर है कृपया धीरे चलें
ऐसी उलटी बात वोह भी सरेराह
सड़क विभाग को है मेरी एक सलाह
कृपया बोर्ड टाँगे
पुलिया कमजोर है
जल्दी भागें

Tuesday, September 9, 2008

हिन्दी सप्ताह और हिन्दी की बात ......

"हिंद के निवासी और भारत के वासी हम ,
इसका हमें तो अभिमान होना चाहिए ।
काहे भागते हैं अंग्रेजिअत के पीछे हम ,
अपनी गरिमा का हमें ध्यान होना चाहिए ।
बाहरी दिखावा और झूठा बहकावा ये,
इसका न हमको गुमान होना चाहिए ।
दूसरे की भाषा तो है बाद वाली बात,
अरे पहले हिन्दी का पूरा ज्ञान होना चाहिए !" -कवि हिम

हिन्दी सप्ताह

अ ने बी से कहा
आओ हिंदी मैं काम करे
बी ने सी से कहा
आओ हिन्दी मैं काम करे
सारे ऑफिस मैं था
हिन्दी -हिन्दी का शोर
हर एक कर्मचारी अधिकारी
हिन्दी प्रेम से सराबोर
हमने कहा आप सभी का हिन्दी के प्रति
ये प्रेम मन को लुभाने वाला है
वे बोले क्या करे मजबूरी है हिन्दी दिवस
जो आने वाला है

लालटेन कवि

जैसे कवि को कविता सुनाना एक रोग है
वैसे ही मंच के कवियों पर हमारा यह नया प्रयोग है
यानि की यह कविता है प्रयोगवादी
कवियों के गले मैं फूल मालाओं के स्थान पर
जलती हुई लालटेने लटका दी
श्रोता कवि को हूट करने का नया फार्मूला छोड़ता
लालटेन को गुलेल मारकरजरूर फोड़ता
इसी से प्रेरणा लेकर कुछ कवियों ने
अपने घर से अपनी नेम प्लेट तक हटा दी
और नेम प्लेट की जगह एक लालटेन लटका दी
इसी से प्रेरणा लेकर हमने भी एक लालटेन
अपने दरवाजे पर लटका दी
लटका कर जला दी जलते ही पता नही
किस मनहूस ने आकर बुझा दी
साथ मैंएक पर्ची और चिपका दी
रे कवि प्रयोग वादी तेरा यह लाल्तेनी प्रयोग हमे
बेहद पसंद आया है
सच पूछो तो आज हफ्तों के बाद भी
मिटटी का तेल नही मिल पाया है
ये बात मैं किसी और को नही बताऊँगा
आज का काम तो हो गया
कल फिर आऊँगा

Monday, September 8, 2008

हिन्दी सप्ताह की पहली रचना .... सुखद आश्चर्य

हिन्दी सप्ताह के लिए मांगी गई रचनाओं की पहली रचना आ चुकी है, और रचना वाकई में एक सुखद आश्चर्य की तरह आई है। हिन्दी सप्ताह के आयोजन की पहली रचना भेजी है देविका छिब्बर ने और यह सुखद आश्चर्य इसलिए है की हमारे ज़्यादातर साथियों ने देविका से हिन्दी रचना की उम्मीद नहीं की होगी। दरअसल देविका छिब्बर हमारे विश्वविद्यालय के उन छात्रों में से रहीं जिन्हें अंग्रेज़ी का अच्छा लेखक माना जाता रहा। देविका ने इरादा भी अंग्रेज़ी पत्रकारिता का ही किया और इस समय जी न्यूज़ के ऑनलाइन विभाग में अंग्रेज़ी कॉपी राइटर के तौर पर कार्यरत हैं। जो देविका को जानते हैं आज उनके कई भ्रम टूट जायेंगे की वे अंग्रेज़ी पत्रकार हैं बल्कि वे मानेंगे की वे हिन्दी की अच्छी लेखिका भी हैं.....इतनी शानदार रचना के बाद भी उनका निवेदन था की अच्छी हो तो ही प्रकाशित करना। देविका की ये रचना उन छद्म आवरण में बसने वालों के लिए एक सीख है कि माँ और मुल्क कभी बदले नहीं जाते .......
प्रस्तुत रचना देविका की पहली हिन्दी रचना है जो कहीं भी प्रकाशित हो रही है।
प्रस्तुत रचना में लेखिका का प्रयास रहा है कि उन के बीते हुए छात्र जीवन में हिन्दी ने किस तरह उन्हें लोगो से जोड़े रखा और जीवन के कुछ सबसे स्मरणीय क्षणों को और सुन्दरता प्रदान की। बाकी आप स्वयं पढ़ें.....

हिन्दी तुम मेरी साथी हो !
सुबह की सुर्ख लाली और शाम का चमकता सितारा
खुशियों का मौसम और बागों का महकता ठिकाना
दोस्त की वो मीठी बात और
हँसते हुए वो कॉलेज ना जाने का बहाना
कभी किसी पे हसना कभी ख़ुद मजाक का हिस्सा बनना
वो होठों की हँसी और शोर शराबे में क्लास में न पढ़ना

मौजों की लहर मतवाली
चाय की दुकान पर वो मीठी प्याली
कभी गलती पर डांट पड़ना
कभी मुस्कुरा के सारी बातें अनसुना करना
सत्र ख़तम होते होते वो भविष्य के इरादे
वो साथ रहने के वायदे

वो हम-तुम करने की शरारत
हर बात पे खीजना हर बात पे झल्लाना
पर फिर मुस्कुरा के दोस्ती की कसमें खाना
हर कसम पे नसीहत हर
नसीहत पे गुस्सा
हर गुस्से पे मुस्कराहट
हर मुस्कराहट का किस्सा
वो सारा आलम
आज भी मेरी यादों का हिस्सा

हर खुशी आपस में बांटना
हर दुःख में किसी का साथी होना
हर पल को खुशियों से तोलना
आखिरकार ज़िन्दगी को अपनी शर्तों पे जीना

ये सब इतना आसान नही होता
अगर तू मेरे पास नही होती
तूने मेरी ज़िन्दगी को आसान ही नही बनाया है
बल्कि मेरे जीवन में जोश का जज्बा भी जगाया है
शायद मैं संवेदनाहीन होती
अगर मुझे तेरा साथ नही होता मिला
तू मेरी भाषा ही नही मेरी आत्मा है
मेरा विश्वास मेरा हौंसला
पूरी की तूने जीवन की कमियाँ
तू है मेरी मां

देविका ने अंत में कुछ शब्द अपने उदगारों के रूप में भेजे हैं इन्हे बिना सम्पादन के प्रकाशित कर रहा हूँ
"इसलिए मैं तेरा शुक्रिया करती हूँ और इस अवसर पर मैं तुझे शत शत प्रणाम करती हूँ इस हिन्दी ने हमें सब कुछ दिया
पर
हम आज उसे ही भूलते जा रहे हैं
क्या ये आज की ज़रूरत नहीं
एक तरफ़ हम जहाँ अपनी सभ्यता और परम्परा को बचने की बात करते है
वही प्रतिस्पर्धा के नाम पे अपनी मात्रभाषा को भूलते जा रहे हैं
चलो आज अपनी आवाजों को एक कर कर अपनी भाषा का वैसा ही ख्याल रखने का प्राण करे जैसे हम अपने मां बाप का रखते हैं "

देविका छिब्बर
ऑनलाइन
जी न्यूज़ लिमिटेड
FC-19, सेक्टर १६A
नॉएडा, उत्तर प्रदेश -२०१३०१
ई मेल : devikachhibber@gmail.com

शुभारम्भ .... हिन्दी सप्ताह

मित्रो, साथियों और कामरेडों ( वामपंथी अर्थों में नहीं ), आज से हम CAVS संचार पर हिन्दी सप्ताह का प्रारंभ कर रहे हैं। इस वेब आयोजन का उद्देश्य यह नहीं है कि हम इसके बाद हिन्दी को भूल जायेंगे और न ही यह कि हम अंग्रेज़ी सहित अन्य भाषाओं का विरोध या बहिष्कार कर रहे हैं बल्कि बात सिर्फ़ इतनी है कि दुनिया के साथ कदम मिलाने के लिए मां को छोड़ नहीं दिया जाता। बिल्कुल हिन्दी हमारी माँ है...... हिन्दी वह भाषा है जिसने पूरे देश को एक सूत्र में जोड़ा, कैसे जोड़ा वह हम सप्ताह भर बात करेंगे। हिन्दी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में महती भूमिका निभाई तो मित्रो हम इस सप्ताह बात करेंगे कि किस तरह इसे और प्रचलित और सहज बनाया जाए। हिन्दी किसी भाषा का विरोध नहीं करती पर यदि कोई हिन्दी बोलने वालों को हीन दृष्टि से देखता है तो वह अपने माता पिता और पूर्वजो पर भी शर्म महसूस करता है।

हिन्दी हमारी पहचान है ...... हमारे अतीत के गौरव का शिलालेख है ...... भविष्य के निर्माण की नींव है.......तरक्की के महान शिल्प कभी मांगे हुए औजारों से नही गढे जाते......

तरक्की करनी है तो बाहर का मुंह मत ताकें अपनी भाषा में ही तरक्की मिलेगी और बड़ी मिलेगी ...

आज पहले परिशिष्ट में भाषा और उन्नति के सम्बन्ध की बात जो कही थी हिन्दी के पितामह भारतेंदु ने,


निज भाषा उन्नति अहै


निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय ।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।

सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।


भारतेंदु हरिश्चन्द्र

Sunday, September 7, 2008

एक साथी और ........

मैं भी आ गया हूँ केव्स संचार पर अपने सीनियर्स का साथ देने । सबसे पहले सीनियर्स को मेरा प्रणाम और शुक्रिया की उन्होंने मुझे ये मंच दिया । मैं उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक नगर बनारस का निवासी हूँ। राजनीति में रूचि रखता हूँ। माखन लाल विश्व विद्यालय में केव्स प्रथम सेम का छात्र हूँ। सीनियर्स से गुजारिश है की मेरे पोस्ट पर अपने कमेंट्स दे कर मुझे प्रोत्साहित करें।

आशुतोष चतुर्वेदी

एनएसजी से मंजूरी के बाद आगे का रास्ता


साभार : बी बी सी हिन्दी

अनुपम श्रीवास्तव जोर्जिया विश्वविद्यालय में एशिया कार्यक्रम के निदेशक


एनएसजी की मोहर लगने के बाद यह लाभ हुआ है कि अब अमरीका भारत के असामरिक परमाणु कार्यक्रम में सहयोग कर सकता है.
अब अमरीका के राष्ट्रपति की ओर से भारत-अमरीका परमाणु क़रार की स्वीकृति बची हुई है. इसके लिए अमरीका सरकार की ओर से एक प्रतिनिधिमंडल भारत आकर इस बात की जाँच-पड़ताल करेगा कि भारत ने समझौते में जिन बातों का पालन करने का वादा किया है, उसे किस तरह से लागू किया जाएगा.
इस दिशा में कुछ काम हो भी रहा है और स्टेट डिपार्टमेंट जल्द ही इस बारे में अपनी रिपोर्ट तैयार करके अमरीकी राष्ट्रपति को सौंप देगा जिसके बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति की औपचारिकता का रास्ता खुल जाएगा.
राष्ट्रपति की ओर से इस रिपोर्ट के आधार पर प्रस्ताव अमरीकी संसद के समक्ष रखा जाएगा. इसपर विचार विमर्श के लिए 30 दिन का समय दिया जाएगा और फिर संसद में इसपर मतदान होगा.
ख़ास बात यह है कि संसद के दोनों सदनों में इस प्रस्ताव पर बहस हो सकती है, विवाद हो सकता है लेकिन इसमें संशोधन की कोई गुंजाइश नहीं होगी. सांसदों को या तो इसके पक्ष में मत देना होगा या विरोध में, पर संशोधन नहीं किए जाएंगे.
अमरीकी सरकार की कोशिश रहेगी कि यह प्रक्रिया 26 सितंबर तक पूरी कर ली जाए. अगर ऐसा नहीं किया जा सका तो राष्ट्रपति चुनाव के बाद संसद के लेम-डक सत्र में राष्ट्रपति इसे फिर से प्रस्तावित करके पारित करवा सकते हैं.

"इस बात की पूरी संभावना है कि अमरीकी संसद के इसी सत्र में इसे पारित कर दिया जाए क्योंकि रिपब्लिकन पूरी तरह से इसके साथ हैं और डेमोक्रेट भी भारत के साथ इस समझौते को तोड़ना नहीं चाहेंगे"


परमाणु बाज़ार खुला
एनएसजी की हरी झंडी के बाद सबसे बड़ी बात यह हुई है कि भारत अब किसी भी सदस्य देश से परमाणु ईधन ले सकता है.
यह कतई ज़रूरी नहीं है कि भारत अमरीका से ही इसकी शुरुआत करे या अमरीका ने अगर नहीं दिया तो भारत को परमाणु ईधन नहीं मिलेगा.
पर भारत को कोशिश यही है कि वो पहल अमरीका के साथ ही करे.
हालांकि रूस और फ्रांस के साथ भारत 123 एग्रीमेंट पर पहले ही पहल कर चुका है. फ्रांस के राष्ट्रपति ने इस बारे में ही भारतीय प्रधानमंत्री से 30 सितंबर का समय मांगा है.
यानी साफ़ तौर पर भारत एनएसजी के किसी भी सदस्य देश के साथ स्वतंत्र रूप से समझौता कर सकता है.
इस बात की पूरी संभावना है कि अमरीकी संसद के इसी सत्र में इसे पारित कर दिया जाए क्योंकि रिपब्लिकन पूरी तरह से इसके साथ हैं और डेमोक्रेट भी भारत के साथ इस समझौते को तोड़ना नहीं चाहेंगे.
अगर डेमोक्रेट रोकने की कोशिश भी करेंगे तो उन्हें अपने ही उद्योग जगत के दबाव का सामना करना पड़ेगा.
उद्योग जगत का तर्क होगा कि भारत के लिए परमाणु ईधन का रास्ता साफ़ तो करवाया अमरीका ने पर इसका लाभ रूस और फ्रांस जैसे देशों को मिल रहा है, अमरीका को नहीं.
ऐसे में अमरीका की सरकार पर अपने बाज़ार के हित को ध्यान में रखने का ख़ासा दबाव बनेगा.

Saturday, September 6, 2008

निज भाषा उन्नति अहे ....

आदरणीय पाठकों एवं CAVS के प्रिय साथियों आपको सूचित करने में हमें हर्ष हो रहा है की हमने ८ सितम्बर से १४ सितम्बर तक CAVS संचार पर हिन्दी सप्ताह मनाने का निर्णय लिया है। इस अवसर पर हम चाहते हैं कि आप पाठक हमें cavssanchar@gmail.com अथवा mailmayanksaxena@gmail.com पर अपने लेख एवं रचनाएँ मेल करें जबकि हमारे सदस्य सीधे ब्लॉग पर पोस्ट कर सकते हैं। सर्वश्रेष्ठ रचनायों को हिन्दी दिवस यानी कि १४ सितम्बर को प्रकाशित किया जाएगा बाकी की रचनायों को पूरे सप्ताह विभिन्न ब्लॉग पर प्रकाशित किया जाएगा।

हम आभारी हैं उन पाठको और सहयोगियों के जो लगातार हमें प्रशंसा और प्रोत्साहन देते रहे हैं ..... हम चाहते हैं कि मातृभाषा के इस आन्दोलन में आप हमारे साथ शामिल हो।

इस अभियान में हमारे साथी हैं,

शंभू चौधरी

हिंद युग्म (http://www.hinyugm.com/)

ई पत्रिका ' कथा व्यथा ' (http://www.kathavyatha.blogspot.com/)

मेरे कवि मित्र (http://www.merekavimitra.blogspot.com/)

कवि मंच ( http://www.kavimanch.blogspot.com/ )

हिमांशु बाजपेयी

अमां यार (http://www.kavihim.blogspot.com/)

मयंक सक्सेना

ताज़ा हवा (http://www.taazahavaa.blogspot.com/)

तन्जीर अंसार

अल फतह (http://www.tanzir-ansar.blogspot.com/)

स्वप्रेम तिवारी

खबरचीलाल (http://www.khabarchilal.blogspot.com/)

निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल

Friday, September 5, 2008

शिक्षक दिवस विशेष

राधाकृष्णन, कबीर, तुम्हारे या फिर अपने बहाने ...?

(कुछ व्यक्तिगत कारणों से इधर व्यस्त या कहूं की अस्त - व्यस्त रहा इस कारण शिक्षक दिवस पर ज़्यादा तैयारी से ब्लॉग पर नही आ पाया उसके लिए क्षमायाचना के साथ)

A teacher affects eternity; he can never tell where his influence stops ( एक शिक्षक आने वाले युगों तक प्रभाव डालता है.....कितना और कितने समय तक यह उसे ख़ुद को भी नहीं मालूम होता !)

हेनरी ब्रुक एडम्स की यह उक्ति वाकई कितनी सटीक है। कल जब मैं पहली बार इतनी परेशानी में था की मुझे याद ही न रहा कि आज शिक्षक दिवस है, तभी मुझे एक ई मेल मिली जिसमे यह उक्ति थी ..... कुछ समय के लिए अपनी सारी परेशानी भूल कर स्कूल के दिनों में चला गया।

राम-नाम कै पटंतरै, देबे कौं कछु नाहिं ।

क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥

सुबह सुबह अपनी साइकिल उठा कर सबसे पहले फूलों की दूकान पर जाकर मास्टर जी/सर/गुरूजी के लिए फूल खरीदना......

"५ रुपये का है बेटा .... "

"चचा यार घर से ३ ही रुपये मिले हैं आज मास्टर साब को फूल देना ज़रूरी है....टीचर्स डे है ना आज !"

"ऊ तो मालोमै है हमको, अमा बरखुरदार ये बताओ ..... साल भर तो उनको तिगनी का नाच नचाये रहते हो, ससुर ऊ दिन उनकी गाड़ी की हवा भी तुम्ही निकाले थे ना ? आज कौन सा गज़ब हो गया कि अमां फूल पाती चढ़ा रहे हो ??"

" अमां चचा ऐसा है कहानी ना समझाओ हमको, आज देश के दूसरे राष्ट्रपति डाक्टर राधाकृष्णन की सालगिरह है .... वो भी टीचर थे ..... बस उन्ही की याद में शिक्षक दिवस मनाते हैं "

" अच्छा जैसे १५ अगस्त - २६ जनवरी मानते हैं ?"

" हाँ ऐसे ही समझ लीजिये .... ख़ुद तो चले गए ...हम को फंसा गए ये सब मनाने को !!"

We expect teachers to handle teenage pregnancy, substance abuse, and the failings of the family। Then we expect them to educate our children - John Sculley

मैं सोचता हूँ हम में से ज़्यादातर को ये याद होगा ...... उसके बाद स्कूल में मास्टर साहब से दरवाज़े का फीता कटवाना और फिर उनको पूरी कक्षा की ओर से एक तोहफा ...... और फिर होड़ लग जाती उनको अपना अपना गुलाब देने की, कभी कभी कुछ बड़े घरों के बच्चे जब अध्यापकों के लिए महंगे तोहफे ले आते तब थोड़ा बुरा भी लगता पर खैर ...... अगले दिन से फिर वही ....

" होम वर्क किया ?"

" नहीं सर !"

" जाओ पीछे जा कर दोनों हाथ ऊपर कर के खड़े हो जाओ !"

" सर, आइन्दा से ऐसा नहीं होगा !"

" जितना कहा उतना सुनो ... पीछे !!"

(और फिर तमाम तरह के बुरे चेहरे बनाते हुए पीछे जाकर खड़े हो जाते थे, दिमाग चलता रहता था कि अब इनको कैसे परेशान करना है ....)

गुरु कुम्हार सिख कुम्भ है, गढ़ी गढ़ी काढ़े खोट
अन्तर हाथ सहार दे, बाहर बाहे चोट

ये सब याद आया और फिर याद आया स्कूल का आखिरी दिन और उस दिन की बाद से हर रोज़ स्कूल को, स्कूल के टीचरों को और स्कूल के दोस्तों को याद करना ..... वो सारे टीचर जिनको सताया उनकी भी याद आती है .....जिन सहपाठियों से एक एक साल बात नहीं की उनको रोज़ ऑरकुट पर ढूंढता हूँ ......
आज सोचता हूँ तो पाता हूँ कि आज जो कुछ हूँ उसमे उनका कितना बड़ा योगदान है ...... अंग्रेज़ी की क्लास में मार न खाता तो आज फर्राटे से बोल नहीं पाता, गणित की कक्षा में पीछे ना खडा होता तो आज जीवन के सवाल क्या हल कर पाता ? भूगोल की जिन कक्षाओं से गोल रहा वो आज तक गोल गोल घुमा रही हैं ......

गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागू पाय
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय

आज जो कुछ हूँ उसमें उनका योगदान अपरिमेय है......
उसका धन्यवाद नहीं कर सकता

तेरा तुझको सौंप दूँ, क्या लागत है मोर
मेरा मुझ में कुछ नाही, जो होवत सो तोर

पर आज ये बताना चाहता हूँ कि जो कुछ हूँ ...... आपकी वजह से, जहाँ तक पहुँच पाया आपकी वजह से ......जहाँ तक जाऊँगा, वह रास्ता आपका दिखाया हुआ है और चलने का हौसला भी आपने ही दिया है !
अगर कभी वो पा पाया जो सोच रखा है तो ...... वो मेरा नहीं आपका प्राप्य होगा, मेरी उपलब्धियां हमेशा आपकी मोहताज होंगी .....

गुरु ब्रह्म गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वरा
गुरु साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवै नमः

आप सब जो बचपन से अब तक चलना ही नहीं .... बदलना भी सिखाते रहे ......... कल अगर दुनिया बदली तो सबसे पहला श्रेय आपको मिलेगा ......
हम सब ये स्वीकार करते हैं कि आप हमारे बचपन की यादों से वर्तमान के वक्त में शामिल हैं ..... आप की वजह से हम हैं इसलिए हम आप से अलग नहीं हो सकते

आपकी शिक्षा से हमारा ज्ञान है
आपकी दीक्षा से हमारा व्यवहार है
आपके प्रेक्षण से हमारा चरित्र
आपकी प्रेरणा से हमारी प्रगति
आपके ध्यान से हमारी शुचिता है
अगर
आज भी हम इतना नहीं पथ भ्रष्ट हुए जितना दुनिया ने प्रयास किया तो उसकी वजह भी आप हैं ......
आपकी मति आज हमारी गति बन गई है

और अधिक लिखना अब मूर्खता है ..... कबीर का अब यह आख़िरी दोहा बचा है,

सब धरती कागद करूं, लेखनी सब बनराय
सात समुद्र की मसि करूं, गुरु गुन लिखा ना जाए
( सारी धरती को कागज़ कर लूँ, सारे जंगलों के पेडो की कलम बना दूँ, सातों सागरों की स्याही कर लूँ पर गुरु के गुन लिखना सम्भव नहीं )

Thursday, September 4, 2008

क्रन्तिकारी कवि

देश में नक्सलवादी आन्दोलन ने कई तरह के प्रभाव पैदा किए ..... कुछ अच्छे - कुछ बुरे और कुछ समझ से परे !

इस दौरान इस हवा ने कई क्रांतिकारी कवि पैदा किए, उन्ही में से एक और सबसे अलग कवि हुए वेणुगोपाल ....जिस दौर में नक्सल आन्दोलन उपजा और तब से अब तक वेणुगोपाल ने कम लिखा पर जो लिखा उसे पढ़ना किसी भी विद्रोही कवि या व्यक्ति के लिए ज़रूरी है

कवि वेणुगोपाल का सोमवार देर रात निधन हो गया। वह 65 वर्ष के थे और कैंसर से पीडित थे। 22 अक्टूबर 1942 को आंध्र प्रदेश के करीमनगर में जन्मे वेणुगोपाल का मूल नाम नंद किशोर शर्मा था और वह देश में नक्सलवादी आंदोलन से उभरे हिंदी के प्रमुख क्रांतिकारी कवियों में से थे।

उनके बारे में ज़्यादा कहने से बेहतर होगा की आपको उनकी रचना पढ़वा दूँ ..... पढे और सोचें ...

देखना भी चाहूँ

देखना भी चाहूं
तो क्या देखूं !
कि प्रसन्नता नहीं है प्रसन्न
उदासी नहीं है उदास
और दुख भी नहीं है दुखी
क्या यही देखूं ? -
कि हरे में नहीं है हरापन
न लाल में लालपन
न हो तो न सही
कोई तो 'पन' हो
जो भी जो है
वही 'वह' नहीं है
बस , देखने को यही है
और कुछ नहीं है
हां, यह सही है
कि जगह बदलूं
तो देख सकूंगा
भूख का भूखपन
प्यास का प्यासपन
चीख का चीखपन
और चुप्पी का चुप्पीपन
वहीं से
देख पाऊंगा
दुख को दुखी
सुख को सुखी
उदासी को उदास
और
प्रसन्नता को प्रसन्न
और
अगर जरा सा
परे झांक लूं
उनके
तो
हरे में लबालब हरापन
लालपन भरपूर लाल में
जो भी जो है ,
वह बिल्कुल वही है
देखे एक बार
तो देखते ही रह जाओ!
जो भी हो सकता है
कहीं भी
वह सब का सब
वही है
इस जगह से नहीं
उस जगह से दिखता है
देखना चाहता हूं
तो
पहले मुझे
जगह बदलनी होगी।

मयंक सक्सेना

Tuesday, September 2, 2008

रमजान मुबारक ....


कल न्यू मार्केट में भटक रहा था । छोले-भठूरे खाने के लिए । अचानक पास वाली मस्जिद में अजान सुनाई दी । और फ़िर पता नही कहाँ से कानों को एक रूहानी आवाज़ मिली "रमजान की इब्तेदा हो गई"





इस्लामिक केलेंडर के इस नौवें महीने का धार्मिक महत्त्व जितना है , उससे सांस्कृतिक महत्त्व भी उससे कम नही है। इसे महसूस करने के लिए आपका मुस्लिम होना भी ज़रूरी नही । फलक पर चाँद की दीद होने का इंतज़ार करते किसी मुसलमां की रूह को चाँद दिखाई देने पर जितना करार आता होगा , आप उससे गले लग कर "रमजान मुबारक" के अल्फाज़ कह कर देखें - उतना ही चैन न सिर्फ़ आपकी बल्कि हिंदुस्तान की रूह को भी मिलेगा ।



इस मुक़द्दस महीने को याद करूँ तो आंखों के सामने एक बच्चों की टोली भी आती है । कुछ प्रेमचंद की कहानी ईदगाह पढने के कारन और कुछ लखनऊ की जाफरानी गलियों में रहने के कारन । रमजान शुरू होता है और शुरू होते हैं बच्चे भी । अम्मी की दिया सामान हाथ में लेकर निकल पड़ते हैं मस्जिद की ओर । जैसे नागपंचमी पर मैं गुडिया पीटने निकलता था ।



रिवायती शहरों की सड़कें भी इस महीने खूब रौशन रहती हैं । खजूर, लच्छे, टोपी वगैरह । लखनऊ में मौलवीगंज और नक्खास में तो ये रौनक मैंने खूब देखि है । इस पूरे महीने आपको खजूर की जितनी किस्म मिलेंगी उतनी पूरे साल नही मिलेंगी । मक्के वाला , ईरान वाला , । खजूर से रोजा तोड़ने पर सबाव मिलता है , ऐसा माना भी जाता है ।



तावारीह , सहरी , इफ्तारी , ईदी, इन्हे भले ही कुछ तंग नज़र वाले एक खास तबके तक सीमित कर दें , लेकिन हकीकी मायनों में ये सब उस श्रृद्धा या अकीदत के रंग हैं जो दुनिया के हर इन्सां में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में है। कहीं रमजान , तो कहीं नवरात्र , कहीं चौमासा, तो कहीं नौरोज़ ।



"अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बन्दे

एक नूर ते सब जग उपजा , कोण भले को मंदे"



आप सभी को केव्स संचार की ओर से रमजान उल मुबारक की बधाई ।।




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