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Friday, September 12, 2008

एक चर्चा हिन्दी सप्ताह पर

हिन्दी सप्ताह के अवसर पर अक्सर हिन्दी के कलम घिस्सुओं के द्वारा ये चखचख उठाई जाती है की हमे मातृभाषा में ही कार्य करना है हम इस बात का प्राण ठान लेते हैं की मर जायेंगे पर काम हिन्दी में ही करेंगे। पर हर एक हिन्दी सप्ताह ऐसे गुजरता जाता है जैसे बिन ब्याही लड़की की जवानी। बेचारी अपनी व्यथा को किसी से कह भी नही सकती। शाम को जब पिता घर लौटकर आता है तो माँ पूछती है किया जवाब मिला तो उस वक्त यदि उस पिता को कोई गोली मार दे तो शायद उसे अफ़सोस कम होता की आज भी में तेरे लिए लड़के को समाज के इस बाज़ार से खरीद नही सका बेटी !मुझे माफ़ कर दे मैं एक पिता नही बन सका। ठीक यही दशा हमारी हिन्दी माता की है वो बेटों वाली विधवा की तरह अपने ही घर में निर्वासित की तरह रह रही है। भारतेन्दुबाबु जैसे कुछ सपूतों ने हिन्दी माता की अस्मत को ढकने के प्रयत्न किए और वो उसमे सफल भी हुए। अब ये जिम्मेवारी हमारे ऊपर है हमें बचाना है हिन्दी की इज्जत और प्रतिष्ठा को हम किसी पड़ोसी को मौका क्यों दें की वो हमसे कहे की अपनी माता का ख्याल रखा करो। वो कल बहुत दुखी दिख रही थी। हमें दिखा देना है दुनिया और इस विश्व परिद्र्स्य को हिन्दी के सपूत अभी जीवित हैं और जिस वक्त एक सौ चालीस करोड़ भारतीय जनमानस की गूंज पूरीदुनिया में गूंजेगी तो दुनिया के सामने उसी तरह भागने का कोई भी रास्ता नही होगा जैसे मार्तंड के उदित होने पर रजनीश के पास भाग जाने के सिवाय कोई रास्ता नही होता।
जय भारत जय भारती जय हिन्दी

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