आज की तारीख में अगर सबसे संवेदनशील कोई विषय है तो वह आतंकवाद है। ऐसे में जब उसके विरोध में सामने आने की बात हो तो मंच देखना कहीं से भी सही नहीं लगता। लेकिन दुःख की बात तो यह है की आज भी लोग यह विचार करते हैं कि हमारे विरोध करने का मंच क्या है?जिस तरह आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता वैसे ही उसका विरोध करने के लिए मंच नहीं हमारी भावनाएँ ज्यादा मायने रखती हैं।
हमलों के पीछे एक बार फ़िर से हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान का हाथ होने की बात पुष्ट हुई है। वहां की खुफिया एजेंसी आई एस आई लगातार ऐसी घटनाओं को अंजाम देने जुटी रहती है और अब उसने अपनी सफलता के प्रमाण इंडियन मुजाहिद्दीन और सिमी के विशाल नेटवर्क के रूप में खड़े कर लिए हैं। ऐसी दशा में आम इंसान को चेतने की और प्रखर विरोध करने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में मैं हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म "अ वेडनेसडे " इसी जज्बे को दिखाती हुई लगी। लोगों ने इसे सराहा भी खूब लेकिन जब इसे ज़मीन पर लाने की बात होती है तब हममे से कितने लोग खड़े होते हैं? जो क्जदे भी हैं उन्हें है कि कहीं उन पर बायस्ड होने का आरोप न लग जाए। समझ में नहीं आता कि हम दिन रात चिल्लाते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं है और फ़िर उसके विरुद्ध अभियान छेड़ते समय क्यूँ उसे धर्म विशेष से जोड़ देते हैं।
जब इसे ज़मीन पर लाने की बात होती है तब हममे से कितने लोग खड़े होते हैं? जो क्जदे भी हैं उन्हें है कि कहीं उन पर बायस्ड होने का आरोप न लग जाए। .....बिल्कqल सही कहना है आपका।
ReplyDeleteकहीं किसी हद तक मैं पूर्णतया आपकी बातों से सहमत हूँ की आतंक वाद के खिलाफ ज़ंग मैं विचार ही महत्वपूर्ण हैं मंच नहीं.
ReplyDeleteप्रतीति जी , विचार महत्वपूर्ण है इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन विचार अग्रगामी है या प्रतिगामी इस पर तो सवाल किया ही जा सकता है. दरअसल आतंकवाद को किसी धर्म से जोड़ना ही सबसे बड़ा आतंकवाद है.
ReplyDelete