प्रस्तुत रचना देविका की पहली हिन्दी रचना है जो कहीं भी प्रकाशित हो रही है।
प्रस्तुत रचना में लेखिका का प्रयास रहा है कि उन के बीते हुए छात्र जीवन में हिन्दी ने किस तरह उन्हें लोगो से जोड़े रखा और जीवन के कुछ सबसे स्मरणीय क्षणों को और सुन्दरता प्रदान की। बाकी आप स्वयं पढ़ें.....
हिन्दी तुम मेरी साथी हो !
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सुबह की सुर्ख लाली और शाम का चमकता सितारा
खुशियों का मौसम और बागों का महकता ठिकाना
दोस्त की वो मीठी बात और
हँसते हुए वो कॉलेज ना जाने का बहाना
कभी किसी पे हसना कभी ख़ुद मजाक का हिस्सा बनना
वो होठों की हँसी और शोर शराबे में क्लास में न पढ़ना
मौजों की लहर मतवाली
चाय की दुकान पर वो मीठी प्याली
कभी गलती पर डांट पड़ना
कभी मुस्कुरा के सारी बातें अनसुना करना
सत्र ख़तम होते होते वो भविष्य के इरादे
वो साथ रहने के वायदे
वो हम-तुम करने की शरारत
हर बात पे खीजना हर बात पे झल्लाना
पर फिर मुस्कुरा के दोस्ती की कसमें खाना
हर कसम पे नसीहत हर
नसीहत पे गुस्सा
हर गुस्से पे मुस्कराहट
हर मुस्कराहट का किस्सा
वो सारा आलम
आज भी मेरी यादों का हिस्सा
हर खुशी आपस में बांटना
हर दुःख में किसी का साथी होना
हर पल को खुशियों से तोलना
आखिरकार ज़िन्दगी को अपनी शर्तों पे जीना
ये सब इतना आसान नही होता
अगर तू मेरे पास नही होती
तूने मेरी ज़िन्दगी को आसान ही नही बनाया है
बल्कि मेरे जीवन में जोश का जज्बा भी जगाया है
शायद मैं संवेदनाहीन होती
अगर मुझे तेरा साथ नही होता मिला
तू मेरी भाषा ही नही मेरी आत्मा है
मेरा विश्वास मेरा हौंसला
पूरी की तूने जीवन की कमियाँ
तू है मेरी मां
देविका ने अंत में कुछ शब्द अपने उदगारों के रूप में भेजे हैं इन्हे बिना सम्पादन के प्रकाशित कर रहा हूँ
"इसलिए मैं तेरा शुक्रिया करती हूँ और इस अवसर पर मैं तुझे शत शत प्रणाम करती हूँ इस हिन्दी ने हमें सब कुछ दिया
पर
हम आज उसे ही भूलते जा रहे हैं
क्या ये आज की ज़रूरत नहीं
एक तरफ़ हम जहाँ अपनी सभ्यता और परम्परा को बचने की बात करते है
वही प्रतिस्पर्धा के नाम पे अपनी मात्रभाषा को भूलते जा रहे हैं
चलो आज अपनी आवाजों को एक कर कर अपनी भाषा का वैसा ही ख्याल रखने का प्राण करे जैसे हम अपने मां बाप का रखते हैं "
देविका छिब्बर
ऑनलाइन
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ई मेल : devikachhibber@gmail.com
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