१३ सितम्बर को दिल्ली में जो कुछ हुआ, वो नया नही था पर हर बार की तरह सोचने पर मजबूर कर गया। फिर से लोग मर गए और लाशों पर राजनीति होने लगी पर एक सकरात्मक बात हुई कि इस बार हम शायद ज्यादा गंभीरता से आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए सोच रहे हैं। कुछ बड़े सवाल उठे हैं....
अभी अभी वो ई मेल पढ़ कर उठा हूँ जो इन मूढ़ आतंकवादियों ने सभी मीडिया को भेजी हैं। कई जगह पढ़ कर गुस्सा आया, कई जगह हँसी और फिर इन पर तरस आया कि ये शायद कुछ भी नहीं जानते और बिना मतलब अपनी कीमती ज़िन्दगी ऐसे ही बरबाद कर रहे हैं। कुछ जगह मैं इन इंडियन मुजाहिद्दीन नाम के डरपोकों से सहमत हूँ जहाँ इन्होने नेताओं को गालियाँ दी हैं और पुलिस का मजाक बनाया है.....पर इससे काम नहीं बनेगा ! मुझे बेहद हैरत होती है जब मैं देखता हूँ कि हम लोगों को इन सब से फर्क ही नहीं पड़ता है। लोगों को इतने के बाद तो सड़क पर उतर आना चाहिए था .... पर......
खैर जो कुछ हुआ उसके लिए निदा फाजली साहब कि कुछ पंक्तियाँ ही कह सकता हूँ,
एक लुटी हुई बस्ती की कहानी
बजी घंटियाँ
ऊँचे मीनार गूँजे
सुन्हेरी सदाओं ने
उजली हवाओं की
पेशानियों की
रहमत के बरकत के
पैग़ाम लिक्खे—वुजू करती
तुम्हें खुली कोहनियों तक
मुनव्वर हुईं—झिलमिलाए अँधेरे-
-भजन गाते आँचल ने
पूजा की थाली से बाँटे सवेरे
खुले द्वार !
बच्चों ने बस्ता उठाया
बुजुर्गों ने—पेड़ों को पानी पिलाया-
-नये हादिसों की खबर लेके
बस्ती की गलियों में
अख़बार आया
खुदा की हिफाज़त की ख़ातिर
पुलिस ने
पुजारी के मन्दिर में
मुल्ला की मस्जिद में
पहरा लगाया।
खुदा इन मकानों में लेकिन
कहाँ था
सुलगते मुहल्लों के
दीवारों दर में वही जल रहा था
जहाँ तक धुवाँ था
निदा फाजली
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