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Tuesday, September 2, 2008

रमजान मुबारक ....


कल न्यू मार्केट में भटक रहा था । छोले-भठूरे खाने के लिए । अचानक पास वाली मस्जिद में अजान सुनाई दी । और फ़िर पता नही कहाँ से कानों को एक रूहानी आवाज़ मिली "रमजान की इब्तेदा हो गई"





इस्लामिक केलेंडर के इस नौवें महीने का धार्मिक महत्त्व जितना है , उससे सांस्कृतिक महत्त्व भी उससे कम नही है। इसे महसूस करने के लिए आपका मुस्लिम होना भी ज़रूरी नही । फलक पर चाँद की दीद होने का इंतज़ार करते किसी मुसलमां की रूह को चाँद दिखाई देने पर जितना करार आता होगा , आप उससे गले लग कर "रमजान मुबारक" के अल्फाज़ कह कर देखें - उतना ही चैन न सिर्फ़ आपकी बल्कि हिंदुस्तान की रूह को भी मिलेगा ।



इस मुक़द्दस महीने को याद करूँ तो आंखों के सामने एक बच्चों की टोली भी आती है । कुछ प्रेमचंद की कहानी ईदगाह पढने के कारन और कुछ लखनऊ की जाफरानी गलियों में रहने के कारन । रमजान शुरू होता है और शुरू होते हैं बच्चे भी । अम्मी की दिया सामान हाथ में लेकर निकल पड़ते हैं मस्जिद की ओर । जैसे नागपंचमी पर मैं गुडिया पीटने निकलता था ।



रिवायती शहरों की सड़कें भी इस महीने खूब रौशन रहती हैं । खजूर, लच्छे, टोपी वगैरह । लखनऊ में मौलवीगंज और नक्खास में तो ये रौनक मैंने खूब देखि है । इस पूरे महीने आपको खजूर की जितनी किस्म मिलेंगी उतनी पूरे साल नही मिलेंगी । मक्के वाला , ईरान वाला , । खजूर से रोजा तोड़ने पर सबाव मिलता है , ऐसा माना भी जाता है ।



तावारीह , सहरी , इफ्तारी , ईदी, इन्हे भले ही कुछ तंग नज़र वाले एक खास तबके तक सीमित कर दें , लेकिन हकीकी मायनों में ये सब उस श्रृद्धा या अकीदत के रंग हैं जो दुनिया के हर इन्सां में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में है। कहीं रमजान , तो कहीं नवरात्र , कहीं चौमासा, तो कहीं नौरोज़ ।



"अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बन्दे

एक नूर ते सब जग उपजा , कोण भले को मंदे"



आप सभी को केव्स संचार की ओर से रमजान उल मुबारक की बधाई ।।




1 comment:

  1. गली के मुहाने पर छोड दिया यार आपने.. खैर बढिया याद दिलाया.. बिहार की बाढ और कश्मीर के हल्ले में भूले ही हुए थे कि यह पाक मुकद्दस माह शुरू हो गया है.. रमजान मुबारक मियां!!

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