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Saturday, August 29, 2009

क्या होगा भाजपा का?????

आजकल देश में एक बड़ा सवाल सभी के मन में रहा है ...|सवाल यह है क्या भाजपा टूट जायेगी या पार्टी को नए रूप में संघढालेगा? अभी कुछ भी कह पाना मुश्किल दिखाई दे रहा है ....भाजपा के साथ एक बात यह है वह अपने को दूसरो से अलगबताती रहती है ....| कहा जाता है यह पार्टी देश की सबसेअनुशाषित पार्टी है पर जिस अनुशासन की दुहाई भाजपा देती रही हैआज वही अनुशासन पार्टी को अन्दर से कमजोर कर रहा है.....|
पार्टी की राह किस और है यह समझ से परे है... आडवानी कुर्सीछोड़ना नही चाहते है......| जसवंत के धमाके के बाद अब शौरी केधमाके ने आडवानी की राह को मुश्किल बना दिया है...| हर दिनभाजपा समाचार पत्रों की सुर्खी बन रही है......| शौरी के बयानों कीआग अभी ठंडी होती है तो राजस्थान में वसुंधरा और उत्तराखंड केपूर्व सी ऍम खंडूरी राजनाथ को चिट्टी लिखकर पार्टी की भावसीसंभावनाओ पर पलीता लगा रहे है...| एक के बाद एक विवाद पार्टीकी इमेज को ख़राब कर रहे है...|

देश सूखे से कराह रहा है.....| महंगाई चरम पर है.....| अनाज कीभारी किल्लत हो रही है .....| पर हमारे विपक्षी दल को अपने झगडेनिपटाने से ही फुर्सत नही मिल रही है.....| आडवानी अभिमन्यु कीतरह चक्रव्यूह में फस गए है......|

महाभारत में अभिमन्यु चक्रव्यूह में फसकर वीरगति को प्राप्त होजाता है.......| चारो और सेना का जमावडा लगता है...| भाजपा कीमहाभारत भी आज उसी वेदव्यास द्वारा रची महाभारत का एक भागहै.....| लगता है आडवानी की भाजपा अब वीरगति की तरफ़ जारही है....| आडवानी अपनी पार्टी के नेताओ के चक्रव्यूह में घिरकररह गए है..........संघ अपनी चुप्पी साधे है.....| अभी बड़ाज्वालामुखी फटने का इन्तजार सभी को है.............देखते हैकहानी कब खत्म होती है....?????

Rajneesh\Harsh Pandey
msc em\ mabj

Friday, August 28, 2009

साए मैं लोकतंत्र

हमारे देश मैं लोकतंत्र शब्द को प्रेस ने सबसे ज्यादा बार छापा होगा जितना जन संपर्क के विज्ञापन से भी ज्यादा यानि की एंकर का गला भी सबसे ज्यादा बार इसी शब्द को चिल्ला कर ख़राब हुआ होगा। नेता भी सुबह उठकर सबसे पहले आँखे इसी शब्द पर मलते हैं। सवाल बड़ा है की क्या विश्व के सबसे बड़े लिखित संविधान के होते हुए और लोकतंत्र के इतनी बड़ी पैरोकार मीडिया और नेतागणों के होते हुए भी हमारे देश मैं बहस का हॉटमुद्दा रहा है यानि बहस कभी भी ठंडी नही पड़ी चाहें वो चाय की दूकान पर हो या फ़िर पान का खोखा लोकतंत्र गली मुहल्लों मैं चर्चा का मुद्दा है। फ़िर भी हमारे देश मैं लोकतंत्र की मजबूती के लिए तलवारें चलती हैं बूथ कप्चारिंग होती है
एक कहानी पढ़ी थी ना जाने कहाँ पर पढ़ी जरूर थी की एक नेता जी ने कह दिया की मैंने आत्मा की आवाज़ पर अपनी पार्टी से इस्तीफा दे दिया है। अब आत्मा पगली बहुत खुस हुई की मेरी आवाज़ पर भी काम होते हैं, एक दूसरी आत्मा जो पहले किसी और नेता की आत्मा थी उसने कहा पगली पहले बोलकर तो दिखा तेरी अव्वाज़ है कहाँ नेता की आत्मा चीखी पर आवाज़ ही नही निकली वो गूंगी हो चुकी थी।
हम रोज़ दीवारों पर सर दे मारते हैं की हमारा लोकतंत्र डूब रहा है बचा लो इसे। पर बचने क्यों कोई आएगा आप पत्रकार है अपने इसे आपातकाल के सुनामी से बचाया है, भागलपुर और गुजरात के दंगों से बचाया है फ़िर आप इसे क्यों नही बचाते हैं हम बेबस हैं भाई क्योंकि हम पत्रकार हैं हमारा काम लिखना है चुनाव लड़ना नही हम कलम से बखिया उधेड़ सकते हैं या फ़िर राज्य सभा से जाकर राजीव शुक्ला हो सकते हैं हम ख़ुद कुछ नही कर सकते
चलो बहुत बात हुई अस्सिग्न्मेंट से फ़ोन आया था की भोपाल मैं एक मुर्गी ने आदमी के बच्चे को जन्म दिया है पैकेज देना है

फ़िर मिलेंगे तब लोकतंत्र पर चर्चा करेंगे
आशु प्रज्ञा मिश्रा
माखन लाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय

Thursday, August 27, 2009

यह कैसा जनतंत्र ?

हाल ही में हिंदी की एक वेबसाइट ने एक दुस्साहस किया...दुस्साहस में भी चूंकि साहस जुड़ा होता है सो इसे ये भी नहीं कहा जा सकता है...दरअसल ये धृष्टता और बेशर्मी का एक मिश्रण सा है....जनतंत्र नाम से चलने वाले इस पोर्टल ने हिंदी पत्रकारिता के आदर्श पुरुष प्रभाष जोशी के खिलाफ एक अजीबोगरीब और बेहूदा अभियान सा शुरु किया, जिसे लेकर बवाल मचा हुआ है....पोर्टल पर प्रकाशित तमाम लेखों में न केवल प्रभाष जी की नीयत पर सवाल उठाया गया बल्कि उन पर तमाम शर्मनाक आरोप लगाए.....हम चाहते हैं कि इस मुद्दे पर खुली बहस हो...और जनतंत्र का असली मतलब सामने आए न कि ऐसा वैसा.....सो आज से हम इस पूरे मुद्दे पर खुली बहस छेड़ते हैं....आप भी हमें अपना पक्ष भेज सकते हैं....हमारा मेल पता इस पहले लेख के नीचे है.....आज प्रस्तुत है इसी मुद्दे पर प्रभाष जी के शिष्य रहे वरिष्ठ पत्रकार आलोक तोमर का लेख......
जो अनपढ़ है वे अनपढ़ ही रहेंगे

भारत के सबसे सिद्व और प्रसिद्व संपादक और उससे भी आगे शास्त्रीय संगीत से ले कर क्रिकेट तक हुनर जानने वाले प्रभाष जोशी के पीछे आज कल कुछ लफंगों की जमात पड़ गई है। खास तौर पर इंटरनेट पर जहां प्रभाष जी जाते नहीं, और नेट को समाज मानने से भी इंकार करते हैं, कई अज्ञात कुलशील वेबसाइटें और ब्लॉग भरे पड़े हैं जो प्रभाष जी को ब्राह्मणवादी, सामंती और सती प्रथा का समर्थक बता रहे हैं। कहानी रविवार डॉट कॉम में हमारे मित्र आलोक प्रकाश पुतुल द्वारा प्रभाष जी के इंटरव्यू से शुरू हुई थी। वेबसाइट के आठ पन्नों में यह इंटरव्यू छपा है और इसके कुछ हिस्सों को ले कर भाई लोग प्रभाष जी को निपटाने की कोशिश कर रहे हैं। जिसे इंदिरा गांधी नहीं निपटा पाईं, जिसे राजीव गांधी नहीं निपटा पाए, जिस लाल कृष्ण आडवाणी नहीं निपटा पाए उसे निपटाने में लगे हैं भाई लोग और जैसे अमिताभ बच्चन का इंटरव्यू दिखाने से टीवी चैनलों की टीआरपी बढ़ जाती हैं वैसे ही ये ब्लॉग प्रभाष जी की वजह से लोकप्रिय और हिट हो रहे हैं।
मगर लोकप्रिय की बात करें तो यह लोग कौन सा हैं? प्रभाष जी पर इल्जाम है कि वे जातिवादी हैं और ब्राह्मणों को हमेशा उन्होंने आगे बढ़ाया। दूर नहीं जाना है। मेरा उदाहरण लीजिए। मैं ब्राह्मण नहीं हूं और अपने कुलीन राजपूत होने पर मुझे दर्प नहीं तो शर्म भी नहीं है। पंडित प्रभाष जोशी ने मुझ जैसे गांव के लड़के को छह साल में सात प्रमोशन दिए और जब वाछावत वेतन आयोग आया था तो इन्हीं पदोन्नतियों की वजह से देश में सबसे ज्यादा एरियर पाने वाला पत्रकार मैं था जिससे मैंने कार खरीदी थी। प्रभाष जी ने जनसत्ता के दिल्ली संस्करण का संपादक बनवारी को बनाया जो ब्राह्मण नहीं हैं लेकिन ज्ञान और ध्यान में कई ब्राह्मणों से भारी पड़ेंगे। प्रभाष जी ने सुशील कुमार सिंह को चीफ रिपोर्टर बनाया। सुशील ब्राह्मण नहीं है। प्रभाष जी ने कुमार आनंद को चीफ रिपोर्टर बनाया, वे भी ब्राह्मण नहीं है। प्रभाष जी ने अगर मुझे नौकरी से निकाला तो पंडित हरिशंकर ब्यास को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया।
सिलिकॉन वैली में अगर ब्राह्मण छाए हुए हैं तो यह तथ्य है और किसी तथ्य को तर्क में इस्तेमाल करने में संविधान में कोई प्रतिबंध नहीं लगा हुआ है। प्रभाष जी तो इसी आनुवांशिक परंपरा के हिसाब से मुसलमानों को क्रिकेट में सबसे कौशलवादी कॉम मानते हैं और अगर कहते हैं कि इनको हुनर आता था और चूंकि हिंदू धर्म में इन्हें सम्मान नहीं मिला इसलिए उनके पुरखे मुसलमान बन गए थे। अगर जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, नरसिंह राव और राजीव गांधी ब्राह्मण हैं तो इसमें प्रभाष जी का क्या कसूर हैं? इतिहास बदलना उनके वश का नहीं है। प्रभाष जी ने इंटरव्यू में कहा है कि सुनील गावस्कर ब्राह्मण और सचिन तेंदूलकर ब्राह्मण लेकिन इसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि अजहरुद्दीन और मोहम्मद कैफ भारतीय क्रिकेट के गौरव रहे हैं।
एक और बात उछाली जा रही है और वह है सती होने की बात। एक जमाने में देवराला सती कांड हुआ था तो बनवारी जी ने शास्त्रों का हवाला दे कर एक संपादकीय लिखा था जिसमें कहा गया था कि सती होना भारतीय परंपरा का हिस्सा है। वे तथ्य बता रहे थे। सती होने की वकालत नहीं कर रहे थे। इस पर बवाल मचना था सो मचा और प्रभाष जी ने हालांकि वह संपादकीय नहीं लिखा था, मगर टीम के नायक होने के नाते उसकी जिम्मेदारी स्वीकार की। रविवार के इंटरव्यू में प्रभाष जी कहते हैं कि सती अपनी परंपरा में सत्य से जुड़ी हुई चीज है। मेरा सत्य और मेरा निजत्व जो है उसका पालन करना ही सती होना है। उन्होंने कहा है कि सीता और सावित्रि ने अपने पति का साथ दिया इसीलिए सबसे बड़ी सती हिंदू समाज में वे ही मानी जाती है।
अरे भाई इंटरव्यू पढ़िए तो। फालतू में प्रभाष जी को जसवंत सिंह बनाने पर तूले हुए हैं। प्रभाष जी अगर ये कहते हैं कि भारत में अगर आदिवासियों का राज होता तो महुआ शेैंपियन की तरह महान शराब मानी जाती लेकिन हम तो आदिवासियों को हिकारत की नजर से देखते है इसलिए महुआ को भी हिकारत से देखते हैे। मनमोहन सिंह को खेती के पतन और उद्योग के उत्थान के लिए प्रभाष जी ने आंकड़े दे कर समझाया है और अंबानी और कलावती की तुलना की है, हे अनपढ़ मित्रों, आपकी समझ में ये नहीं आता।
आपको पता था क्या कि शक संभवत उन शक हमलावरों ने चलाया था जिन्हें विक्रमादित्य ने हराया था लेकिन शक संभवत मौजूद है और विक्रमी संभवत भी मौजूद है। यह प्रभाष जी ने बताया है। प्रभाष जी सारी विचारधाराओं को सोच समझ कर धारण करते हैं और इसीलिए संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक राष्ट्रवाद कहते है। इसके बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी से ले कर भैरो सिंह शेखावत तक से उनका उठना बैठना रहा है। विनाबा के भूदान आंदोलन में वे पैदल घूमे, जय प्रकाश नारायण के साथ आंदोलन में खड़े रहे और अड़े रहे। चंबल के डाकुओं के दो बार आत्म समर्पण में सूत्रधार बने और यह सिर्फ प्रभाष जी कर सकते हैं कि रामनाथ गोयनका ने दूसरे संपादकों के बराबर करने के लिए उनका वेतन बढ़ाया तो उन्होंने विरोध का पत्र लिख दिया। उन्होंने लिखा था कि मेरा काम जितने में चल जाता है मुझे उतना ही पैसा चाहिए। ये ब्लॉगिए और नेट पर बैठा अनपढ़ों का लालची गिरोह प्रभाष जी को कैसे समझेगा?
ये वे लोग हैं जो लगभग बेरोजगार हैं और ब्लॉग और नेट पर अपनी कुंठा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते रहते हैं। नाम लेने का फायदा नहीं हैं क्योंकि अपने नेट के समाज में निरक्षरों और अर्ध साक्षरों की संख्या बहुत है। मैं बहुत विनम्र हो कर कह रहा हूं कि आप प्रभाष जी की पूजा मत करिए। मैं करूंगा क्योंकि वे मेरे गुरु हैं। आप प्रभाष जी से असहमत होने के लिए आजाद हैं और मैं भी कई बार असहमत हुआ हूं। जिस समय हमारा एक्सप्रेस समूह विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सारे घोड़े खोल चुका था और प्रधानमंत्री वे बन भी गए थे तो ठीक पंद्रह अगस्त को जिस दिन उन्होंने लाल किले से देश को संबोधित करना था, जनसत्ता के संपादकीय पन्ने पर मैंने उन्हें जोकर लिखा था और वह लेख छपा था। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लगभग विलखते हुए फोन किया था तो प्रभाष जी ने उन्में मेरा नंबर दे दिया था कि आलोक से बात करो।
यह कलेजा प्रभाष जी जैसे संपादक का ही हो सकता है कि एक बार रामनाथ गोयनका ने सीधे मुझे किसी खबर पर सफाई देने के लिए संदेश भेज दिया तो जवाब प्रभाष जी ने दिया और जवाब यह था कि जब तक मैं संपादक हूं तब तक अपने साथियों से जवाब लेना होगा तो मैं लूंगा। यह आर एन जी का बड़प्पन था कि अगली बार उन्होंने संदेश को भेजा मगर प्रभाष जी के जरिए भेजा कि आलोक तोमर को बंबई भेज दो, बात करनी है।
आपने पंद्रह सोलह हजार का कंप्यूटर खरीद लिया, आपको हिंदी टाइपिंग आती है, आपने पांच सात हजार रुपए खर्च कर के एक वेबसाइट भी बना ली मगर इससे आपको यह हक नहीं मिल जाता कि भारतीय पत्रकारिता के सबसे बड़े जीवित गौरव प्रभाष जी पर सवाल उठाए और इतनी पतित भाषा में उठाए। क्योंकि अगर गालियों की भाषा मैंने या मेरे जैसे प्रभाष जी के प्रशंसकों ने लिखनी शुरू कर दी तो भाई साहब आपकी बोलती बंद हो जाएगी और आपका कंप्यूटर जाम हो जाएगा। भाईयो बात करो मगर औकात में रह कर बात करो। बात करने के लिए जरूरी मुद्दे बहुत हैं।

आलोक तोमर
(आलोक तोमर वरिष्ठ पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के सम्पादक हैं, सम्प्रति सीएनईबी समाचार चैनल में सलाहकार संपादक के तौर पर सेवाएं दे रहे हैं)

Friday, August 21, 2009

हम संघर्ष कर रहे हैं.......

भोपाल सहर मैं पत्रकारिता की पाठशाला मैं अध्धयन के दौरान मुझे कई तरह के अनुभव की बातें करते हर एक पत्रकार दिख जाता है, क्या कर रहे हैं भाई साहब आज, कुछ नही आज कोई ख़ास ख़बर तो मिली नही सब सन्नाटा है बस कल वो पीपल्स मैं ख़बर छापी थी न दो नम्बर पेज पर। कब के ? सत्रह के एक बच्ची थी जिसको थैलेसिमिया है उसके पिता ने किडनी बेचने की मांग की है ताकि बच्चे का इलाज़ करवा सके। अच्छा है आप भी कर लो। झमाझम विजुअल्स हैं बच्चे के खिलौने से खिलते हुए माँ के रोते हुए, अरे पन्द्रह मिनट करीब की स्टोरी है आप कैमरामैन भेज देना टोचन ले लेगा। अच्छा सुना है सहारा से कई को निकला गया है। हाँ क्या करेंगे मंदी इतनी है नौकरी बचाना मुहाल है बस संघर्ष कर रहे हैं। इस संवाद के दौरान कई जगह माँ और बहन को संबोधित गालियाँ भी थी जिसे बहुत प्रयाश करने पर भी मेरी उंगलियां टाइप नही कर पा रही हैं। ये रोज़ का वाक्या है और यही हमारा संघर्ष है की कैसे हम रोज़ एक पैकेज देकर प्रयास करते हैं की हम अपनी नौकरी बचा सकें क्या यही वो पत्रकारिता है जिसकी दुहाई हर पत्रकार देना चाहता है और देता फिरता है।





क्या कर रहे हो संघर्ष अपनी नौकरी कर रहे हैं अपने काम को एक ईमान दार तरीके से पूरा करने का अधूरा प्रयास जिसे बहुत चाहने पर भी हम नही कर पा रहे हैं सारा संघर्ष सिर्फ़ रोज़ संवेदनाओं को किनारे करके एक नई ख़बर भेजने तक ही सीमित है और यही हमारा रोज़ रोज़ का संघर्ष है जिसे हर एक पत्रकार बहुत ही महान ता के साथ अपने नाम से जोड़ लेता है। क्या अगर कोई ऐसा चैनल हो जो पैसे कम देता हो लेकिन पत्रकारों को पूरी आजादी देता हो तो शायद उसे लात मरने वाला भी पहला banda कोई संघर्षशील पत्रकार ही होगा





सवाल ये तब तक क्या करें जवाब आसान है बस संघर्ष करें

आशु प्रज्ञा मिश्रा
माखन लाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल

राहुल छत्तीसी

राहुल गांधी 20-21 दो दिनी छत्तीसगढ़ की यात्रा पर हैं....जगदलपुर में देरी से पहुंचे राहुल बाबा को एक बार फिर अंतिम पंक्ति का आदमी याद आया औऱ चुपके से राहुल निकल गये रायपुर के नज़दीक एक बीहड़ गांव में जानने उनके हाल.....ना मीडिया को ख़बर ना प्रशासन को बस बाबा को निकलना था तो चले गये आदिवासी का जानने सच्चे हाल वैसे तो एक और बाबा हैं...जिन्हे लोग चांउर वाले बाबा कहते हैं..लेकिन ये चांउर बाबा कभी ऐंसे स्टंट नहीं करते....शायद उन्हे इस बात का भी बखूबी अहसास है कि वे अब दो बार आ ही चुके हैं तीसरी बार वैसे भी आना नहीं तो ऐंसा कुछ क्या करना जो गांव ग़रीब से सीधा जुड़ा हो....राहुल में सचमुच बहुत संभावना हैं ये कोई आम आदमी का सोकॉल्ड सिपाही नहीं बल्कि सच्चा आखिरी आदमी का सिपाही है.....वॉह वॉह राहुल ...मैं राहुल के इस काम की खुले गले से तारीफ़ करता हूं।।।।

Wednesday, August 19, 2009

वाडाखिलाफी का सबब....

आजकल बीसीसीआई और आईसीसी के बीच वाडा एक बड़ी दुविधा बनी हुई है......... वैसे इस बार आईसीसी ने बीसीसीआई की ना के बाद इस विषय पर कड़ा रुख अख्तियार कर लिया है .... दरअसल जिस वाडा को आईसीसी ने स्वीकार कर लिया है उसको स्वीकार करने से बीसीसीआई कतरा रहा है... इसी कारण दोनों के बीच तलवारे खिच गई है.... वाडा ( विश्व डोपिंग निरोधक एजेन्सी ) है जो खेलो को डोपिंग से बचाने के नए नियमो पर अपनाकाम कर रही है... वाडा की स्थापना ९० के दशक में की गई ... अब २००९ से उसके द्बारा नए नियम बना दिए गएहै ... वाडा के नए नियमो के अनुसार अब खिलाड़ी डोपिंग परीक्षणों से नही बच सकते... इसके नियमो के अनुसार खिलाड़ी कही भी खेल रहे हो जब जांच के लिए कहा जाएगा उनको हर हाल में उपलब्ध होना पड़ेगा.... खिलाडियों की जांच उस समय भी की जायेगी जब वह नही भी खेल रहे हो..... इस मसले पर भारतीयखिलाडियों के साथ बीसीसीआई को भी ऐतराज है ... बीसीसीआई की माने तो वाडा को यह कोई अधिकार नही हैजब खेल प्रतिस्पर्धा नही हो रही हो तो वह जबरन खिलाडियों की तलाशी ले...बीसीसीआई को इस पर ऐतराज है .........यह तो कोई बात नही हुई ............खिलाड़ी कब कहा है इसकी सूचना वाडा को उपलब्ध कराये...वाडा के नए नियम बीसीसीआई को नागवार गुजर रहे है..... वैसे पहले इस मसले पर विश्व के कई खिलाड़ी अपना विरोध प्रदर्शन कर रहे थे पर अब उन्होंने इस नए नियमो को स्वीकारने में ही अपनी भलाई समझी है॥ यहाँ यह बताते चले माईकल फेलप्स ,नडाल जैसे दिग्गज खिलाड़ी भी कभी वाडा के नएनियमो के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराने में पीछे नही थे लेकिन अब जब सभी खेलो को वाडा के नए नियमो के दायरे में लाया जा रहा है तो विश्व के कई बड़े खिलाड़ी भी वाडा के नए नियमो पर अपनी हामी भरते नजर आ रहेहै... पर अपना बीसीसीआई देखिये वह इन नियमो को स्वीकारने से न जाने क्यों हिचक रहा है...?बीसीसीआई की यह ना सही नही है.... शायद वह अपनी पैसो की हेकडी के चलते वाडा के नियमो को मानने से मना कर रहा है .... बीसीसीआई की माने तो वाडा के नए नियम सही नही है ... उसकी माने तो खेलो केदौरान अगर जांच की जाए तो यह बात सही है लेकिन जब खेल ही न हो रहा हो तो जबरन जांच कहा तक जायज है? वाडा के नए नियम इतने कड़े है अगर कोई खिलाड़ी साल में डोपिंग से ना नुकर करता है तो उस पर प्रतिबंध भी लग सकता है ... यह सही है वर्तमान समय में लोग पदक पाने के लिए तरह तरह की उत्तेजक दवाईयों काप्रयोग करते रहते है ....पर अब वाडा के नए नियमो के तहत जब सभी खेलो को एक नजर से देखा जा रहा है तो बीसीसीआई को इस पर क्यों आपत्ति हो रही है? अब बीसीसीआई की यह बात किसी के गले नही उतर रही है इस जांच के जरिये आप सभी की निजी लाइफ में झाँक रहे है.....यह नियम तो सभी के लिए समान होंगे .... अबऐसा तो नही है की किसी धावक के लिए यह बताना कम्पलसरी है की वह कहा है ? क्या कर रहा है? ऐसा सभीखिलाडियों पर लागू हो रहा है .... यह वाडा का व्हर अबाउट क्लॉज़ है जो हर किसी पर लागू हो रहा है .... इसमेकिसी खिलाड़ी को नही छोड़ा जा रहा है ..... जब सभी को एक कानून द्बारा एक दायरे में लाया जा रहा है तो हमारेबीसीसीआई को न जाने इस पर क्यों आपत्ति हो रही है?असल में बात यह है हमारे क्रिकेट के खिलाड़ी अपने को वी आई पी से भी बढकर मानने लगे है ... उनकी असली दिक्कत यह है अगर आउट ऑफ़ सीजन वह डोपिंग में फस जायेंगे तो उनकी सारी प्रतिष्ठा मटियामेट हो जायेगी..... दरअसल हमारे यह क्रिकेट सितारे अपने को बहुत बड़ा आइकन मानने लगे है ...भारत में इनको भले ही देवता जैसा पूजा जाता रहा हो पर इन क्रिकेटरों को विदेशो में उतना मान नही मिल पाता है जितना हमारे यहाँ मिलता है ..... यह भी भ्रम है सचिन , सहवाग, धोनी कमाई के मामले में विश्व में सबसे धनी है .... सच्चाई यह है इनसे कई गुना कमाई विश्व में टेनिस , सूकर खेलने वाले खिलाडियों की है ....बहरहाल जो भी हो हमारा तो इतना कहना है जब सभी के लिए नियम समान है तो यह क्रिकेटर कोईभगवान् है जो वाडा के नियमो को मानने से इनकार कर रहे है.... कायदे कानून तो सभी के लिए समान ही होते हैचाहे आप हो या हम........................ अब पैसो की हेकडी के चलते बीसीसीआई ने आईसीसी के वाडा वाले फरमानको मानने से साफ़ इनकार कर दिया है .... इसके लिए ५ सदस्यीय कमेटी बना दी गई है .... उसका फैसला आनाअभी बाकी है ... समिति में अनिल कुंबले , बिंद्रा जैसे लोग शामिल है जो किसी निष्कर्ष पर पहुचेंगे.......देखते हैक्या इस बार आईसीसी बीसीसीआई के आगे झुकती है या नही ? वैसे अभी तक वह बीसीसीआई के इशारो परनाचती रही है। क्युकी बीसीसीआई धनी बोर्ड है पूरे विश्व का .... देखते है वाडा पर इस बार कैसा रवैया अपनाया जाता है ???

Saturday, August 15, 2009

क्यो जाते हो अमेरिका ?

आज शाहरुख़ खान के सिक्यूरिटी चेक के बाद इतना हंगामा क्यो मच गया , ये मेरी समझ में नही रहा है . इसमे ग़लत क्या है की अगर कोई देश जिसके ऊपर आतंवादी खतरा मंडरा रहा हो वो अपनी सुरकचा के लिए इतना संवेदनशील है ये तो अच्छा ही है।

शाहरुख़ ने आपनी जाँच के लिए जिस तरह हंगामा मचाया वो उनकी इस मनसा को दिखता है की वो आपने की कितना विशिष्ट समझते है। जो आपनी जाँच को किसी देश के नियमो से ऊपर समझते है। एक तरफ़ तो कलाम साहब का उदाहरण है जो पूर्व रास्ट्रपति होने के बाद भी अपनी जाच को , जो की प्रोटोकाल का उल्लंघन था, को सामान्य बात मानते है दूसरी तरफ़ इन साहब का उदाहरण है। अगर इनको जाँच से इतना परहेज है तो ये लोग को अमेरिका जाते ही क्यो है। कौन बुला रहा है इन्हे वहा ? एक टीवी चॅनल के फोनों में शाहरुख़ ने कहा की अगर कोई फिर मजबूर करेगा तो फिर से वे वहा जायेंगे। क्या इन्हे बराक ओबामा या हेलरी क्लिंटन ने इन्हे वहा आने के लिए मजबूर किया था ? ये लोग ख़ुद ही अमेरिका में जाते है और फिर भारत की तरह वहा भी अपना रुतबा कायम करना कहते है. ऐसा होने पर इस तरह की नौटंकी करते है और बिना बात के सिर्फ़ नियमो के पालन को भारतीय अस्मिता से जोड़ देते है.
अमेरिका या किसी भी देश के नियम अगर उसके नागरिक पालन करते है तो कोई विदेशी जिसका उस देश के विकास में किसी तरह का योगदान नही है तो उस देश के ऑफिसर क्यो नही उससे नियमो का पालन करवाएंगे।
क्या आप इस बात को कुबूल करेंगे की किसी दुसरे देश का अदना सा ऐक्टर जिसको आप जानते भी नही वो आप के देश में आए और देश की सुरकचा के लिए बने महेश सिंह एत्व न्यूज़ मना कर दे। क्या आप इस बात को सहेंगे।
मेरे ख्याल से नही, तो फिर हमें इस तरह की बातो को नजर अंदाज कर देना चाहिए ...नेताओ को भी साथ ही मीडिया को भी ...
mahesh singh
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