भोपाल सहर मैं पत्रकारिता की पाठशाला मैं अध्धयन के दौरान मुझे कई तरह के अनुभव की बातें करते हर एक पत्रकार दिख जाता
है, क्या कर रहे हैं भाई साहब
आज, कुछ नही आज कोई ख़ास ख़बर तो मिली नही सब सन्नाटा है बस कल वो पीपल्स मैं ख़बर छापी थी न दो नम्बर पेज
पर। कब के ? सत्रह
के एक बच्ची थी जिसको थैलेसिमिया है उसके पिता ने किडनी बेचने की मांग की है ताकि बच्चे का इलाज़ करवा
सके। अच्छा है आप भी कर
लो। झमाझम विजुअल्स हैं बच्चे के खिलौने से खिलते हुए माँ के रोते
हुए, अरे पन्द्रह मिनट करीब की स्टोरी है आप कैमरामैन भेज देना टोचन ले
लेगा। अच्छा सुना है सहारा से कई को निकला गया
है। हाँ क्या करेंगे मंदी इतनी है नौकरी बचाना मुहाल है बस संघर्ष कर रहे
हैं। इस संवाद के दौरान कई जगह माँ और बहन को संबोधित
गालियाँ भी थी जिसे बहुत प्रयाश करने पर भी मेरी उंगलियां टाइप नही कर पा रही
हैं। ये रोज़ का
वाक्या है और यही हमारा संघर्ष है की कैसे हम रोज़ एक पैकेज देकर प्रयास करते हैं की हम अपनी नौकरी बचा सकें क्या यही वो पत्रकारिता है जिसकी दुहाई हर पत्रकार देना चाहता है और देता फिरता
है। क्या कर रहे हो संघर्ष अपनी नौकरी कर रहे हैं अपने काम को एक ईमान दार तरीके से पूरा करने का अधूरा प्रयास जिसे बहुत चाहने पर भी हम नही कर पा रहे हैं सारा संघर्ष सिर्फ़ रोज़ संवेदनाओं को किनारे करके एक नई ख़बर भेजने तक ही सीमित है और यही हमारा रोज़ रोज़ का संघर्ष है जिसे हर एक पत्रकार बहुत ही महान ता के साथ अपने नाम से जोड़ लेता है। क्या अगर कोई ऐसा चैनल हो जो पैसे कम देता हो लेकिन पत्रकारों को पूरी आजादी देता हो तो शायद उसे लात मरने वाला भी पहला banda कोई संघर्षशील पत्रकार ही होगा सवाल ये तब तक क्या करें जवाब आसान है बस संघर्ष करेंआशु प्रज्ञा मिश्रा
माखन लाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल
Sangharsh hi jeevan ki nishaanee hai.
ReplyDeleteThink Scientific Act Scientific
आशु,तुमने जो मुद्दा उठाया है वो एक जीवंत मुद्दा है और आज इस स्थिति पे आज हर एक पत्रकार को सोचने की जरुरत है.जिस स्थिति
ReplyDeleteकी तरफ तुमने ध्यान दिलाया है,उसे हम ही बदल सकते है,और कोई नहीं बदल सकता है,जरुरत है,अपने अपने जगह रहते हुए इस स्थिति को बदलने का प्रयास करते रहना होगा,तभी हम आने वाले पीढी को कुछ नया दे पाएंगे.मेरी तरफ इस विषय पे लिखने के लिए बधाई.