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Monday, August 10, 2009

बिस्मिल की एक कविता

आज़ादी की 62 साला श्रृंखला में आज आपके लिए लाए हैं अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की एक कवित...या इसे गीत भी कह सकते हैं....क्योंकि इनको गा गा कर ही वे मतवाले देश के लिए मौत के गले लग गए थे.......

न चाहूं मान दुनिया में, न चाहूं स्वर्ग को जाना ।
मुझे वर दे यही माता रहूं भारत पे दीवाना ।

करुं मैं कौम की सेवा पडे चाहे करोडों दुख ।
अगर फ़िर जन्म लूं आकर तो भारत में ही हो आना ।
लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूं हिन्दी लिखूं हिन्दी ।
चलन हिन्दी चलूं, हिन्दी पहरना, ओढना खाना ।

भवन में रोशनी मेरे रहे हिन्दी चिरागों की ।
स्वदेशी ही रहे बाजा, बजाना, राग का गाना ।

लगें इस देश के ही अर्थ मेरे धर्म, विद्या, धन ।
करुं में प्राण तक अर्पण यही प्रण सत्य है ठाना ।

नहीं कुछ गैर-मुमकिन है जो चाहो दिल से "बिस्मिल" तुम
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना ।।

राम प्रसाद बिस्मिल (1897 से 1927)

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