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Friday, February 27, 2009

जुटने लगे प्रवासी पक्षी....

कुछ ऐसा मौसम आ गया है विश्वविद्यालय के परिसर में कि तमाम प्रवासी पंछी परिसर में जुटना शुरू हो गए हैं। इनमे से कई तो कई साल बाद भोपाल आए हैं और कई पुरानी यादें लिए आए हैं......और ये मौका दिया है दीक्षांत समारोह के आयोजन ने। आज २७ तारीख है और कल दीक्षांत समारोह है.....विश्वविद्यालय परिसर ज़बरदस्त चहल पहल का केन्द्र बन चला है क्यूंकि कि वर्ष २००४ से लेकर के अब तक यानी २००८ तक के उतीर्ण छात्र जो देश और दुनिया में तमाम जगहों पर पत्रकारिता के झंडे बुलंद कर रहे हैं धीरे धीरे इकठ्ठा होने लगे हैं.....
ये पंछी अपने कई पुराने साथियों से मिल कर गले लग चहक रहे हैं, तो कई का इंतज़ार कर रहे हैं.....जो नहीं आ पा रहे हैं उन्हें याद कर रहे हैं। कई जगह लोग उछल कर गले मिलते देखे गए तो कई आंखों से खुशी के आंसू भी निकलते देखे गए.....अबे तुम तो मोटे हो गए हो !, क्या यार शादी कर ली बुलाया भी नहीं......कहाँ हो यार कुछ ख़बर ही नहीं, जायका की कचौडी याद है .....और पोहा ? इस तरह के तमाम जुमले उछल रहे हैं।
जिन की क्लास बंक की जाती थी आज उनके पास घंटो बैठ कर बतियाया जा रहा है......और कईयों ने तो कक्षा में जा कर अपनी पुरानी सीट पर अपने लिखे नाम भी ढूंढ लिए......जूनियर भी उत्साहित हैं...सुपर जूनियर आश्चर्य के साथ आनंदित.....
आज रात कई जगह महफिलें जमेंगी, पुरानी यादें ताज़ा होंगी, पुराने जुमले दोहराए जायेंगे, पुराने चुटकुले सुनाये जायेंगे, पुराने किस्से कहे जायेंगे, पुराने नाम फिर रखे जायेंगे.....क्यूंकि वक़्त भले ही नया हो, इंसान वही रहता है और यादें वक़्त के बदलने और इंसान के ना बदलने की गवाह................
निदा साहब कहते हैं.....

जाने वालों से राब्ता रखना
दोस्तो रस्म-ए-फातिहा रखना

घर की तामीर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की कुछ जगह रखना

मस्जिदें हैं नमाजियों के लिए
अपने घर में कहीं खुदा रखना

जिस्म में फैलने लगा है शहर
अपनी तन्हाईयाँ बचा रखना

उमर करने को है पचास को पार
कौन है किस जगह पता रखना


अंत में आपको आमंत्रण पत्र का मजमून दिए दे रहका हूँ प्रिंट निकाल कर ले आइयेगा तो ज्यादा दिक्कत नहीं होगी

INVITATION FOR CONVOCATION
Dear Students,
The Makhanlal Chaturvedi Rashtriya Patrakarita Evam Sanchar Vishwavidhyalay is holding its second Convocation for 2006, 2007 & 2008 batches on 28th February 2009 at Samanvay Bhavan (Apex Bank) New Market Bhopal. You are cordially invited on the occasion.
The students are requested to occupy their seats by 4.30 PM.
Dr. Avinash Bajpai
Placement Officer
MCRPVV, Bhopal
Mob:- 9425392448
Off.:- 0755- 4265337

Wednesday, February 25, 2009

बांग्लादेश राइफल्स का विद्रोह

ढाका में आज सुबह शहर के बीचोबीच ज़ोरदार गोलीबारी की आवाजें सुनाई देने लगी, सकते में पड़े लोग जब तक कुछ समझ पाते तब तक शहर में फौज और अर्द्धसैनिक बलों की टुकडियां छा गई। कुछ देर बाद स्थिति जब स्पष्ट हुई तो चारों तरफ़ अफरातफरी मच गई क्यूंकि बांग्लादेश की सीमाओं की निगाहबानी करने वाली बांग्लादेश राइफल्स के जवानो ने बगावत कर दी थी और अपने ही अफसरों पर निशाना साध दिया था। सुबह शुरू हुई गोलीबारी और मुठभेड़ अब तक जारी है और माना जा रहा है कि इसमे भारी संख्या में आम नागरिक भी हताहत हुए हैं।
दरअसल माना जाता है कि बांग्लादेश में जब भी अवामी लीग की सरकार बनती है, सेना बहुत खुश नहीं रहती है। इसके कई कारण बताये जाते हैं पर सबसे ज्यादा समझा गया कारण समझा जाता है अवामी लीग की भारत से नजदीकियां। अवामी लीग भारत से अच्छे सम्बन्ध रखने की पक्षधर रहती है इसलिए फौज और सुरक्षाबलों में अक्सर ही इस रवैये को लेकर असंतोष रहता है। हालांकि इस बगावत का कारण सुरक्षाबलों द्बारा अधिकारियों के रवैये से नाराज़ होना बताया रहा है लेकिन भारतीय सीमाओं पर फिर भी सतर्कता बढ़ा दी गई है।
अभी एक दिन पहले ही प्रधानमन्त्री शेख हसीना ने इस कार्यालय में आकर कई जवानों को मैडल दे कर सम्मानित किया था और आज ही ये घटना हो गई है। ढाका की हालत ये है कि विद्रोही किसी भी तरह से सेना के काबू में ही नहीं आ रहे हैं और मुख्यालय पर उनका कब्ज़ा है। शहर में सारी दुकानें और सभी प्रतिष्ठान बंद करा दिए गए हैं और लोगों को घर से ना निकलने की हिदायत दी गई है। ज्ञात हो कि बांग्लादेश राइफल्स ही बांग्लादेश और भारत की सीमा पर तैनात है और इससे निश्चित तौर पर भारत की चिंताएं बढ़ी हैं। कई लोगों को याद भी होगा कि इसी सुरक्षा बल ने भारतीय सुरक्षाबलों की हत्या कर के उनके क्षत विक्षत शव वापस भेजे थे। ज़ाहिर सी बात है कि भारत और चीन के अलावा दक्षिण एशिया की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है और ये सब घटनाएं चिंता बढ़ाने वाली हैं।

Tuesday, February 24, 2009

ब्लॉगर होशियार (सौजन्य: खबरी अड्डा)

(खबरी अड्डा पर एक ख़बर मिली लगा कि आप सब को पढ़ा दूँ)
अब तक ब्ल़ॉग को ऐसा माध्यम माना जाता था , जहां विचारों पर कोई बंदिश या पाबंदी नहीं थी । लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है कि ब्लॉग का कंटेट भी कानून के दायरे में है और अगर ब्लॉगर किसी की अवमानना या गाली - गलौज करते हैं तो उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है । इसलिए ब्लॉगर भाइयो सावधान ...किसी पर कीचड़ उछालने या फिर किसी के बारे में असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करने से पहले सोच लीजिएगा , आपको जुर्माना भी हो सकता है और सजा भी । अब पहले की तरह वो बात नहीं रही कि एक सुबह उठे । गूगल पर एकाउंट खोला । एक अच्छा सा नाम सोचकर ब्लॉग शुरू कर दिया और लगे विचारों का गोला दागने। इस गोलेबाजी में किसी की ऐसी तैसी होती है तो हो....कोई परवाह नहीं । आपके कमेंट बॉक्स में कोई किसी की मां - बहन करते हुए गालियां पोस्ट कर दे तो भी कोई बात नहीं । अब आप लोग सतर्क हो जाइए ।सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक अब ये डिसक्लेमर लगाने से काम नहीं चलने वाला कि ब्लॉग पर जो भी विचार हैं वो लेखक के निजी विचार हैं ।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के जी बालाकृष्णन और जस्टिस पी सदाशिवम ने केरल के एक ब्लॉगर के खिलाफ दर्ज मामले की सुनवाई करते हुए साफ कर दिया है कि कानून से ऊपर नहीं है ब्लॉगर । केरल के कंप्यूटर साइंस छात्र अजीत डी ने एक सोशल नेटवर्किंग साइट शुरू करके शिवसेना के खिलाफ मुहिम चलाई थी । उनके ब्लॉग पर बहुत से लोगों ने खुलकर अपने विचार रखे थे और शिवसेना पर देश को बांटने की साजिश रचने के इल्जाम लगाए थे । अजीत के ब्लॉग पर कई अनाम पोस्ट भी डाले गए थे , जिसमें शिवसेना की ऐसी तैसी की गई थी ।शिवसेना के यूथ विंग के राज्य सचिव ने थाणे में अगस्त 2008 में ब्लॉगर जनता की भावनाओं को भड़काने का इल्जाम लगाते हुए एक आपराधिक मामला दर्ज करा दिया ।
केरल हाईकोर्ट में ब्लॉगर ने अंतरिम जमानत तो ले ली लेकिन सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी दाखिल करके पूरे मामले को खारिज करने की मांग की । ब्लॉगर की दलील थी कि उसे महाराष्ट्र हाईकोर्ट में हाजिर होने से मुक्त किया जाए क्योंकि वहां उसकी जान को खतरा है । सुप्रीम कोर्ट ने ब्लॉगर को फटकार लगाते हुए मामले को खारिज करने से इंकार कर दिया और ब्लॉगर को अगली सुनवाई के लिए संबंधित अदालत में हाजिर होने का आदेश दिया । सुप्रीम कोर्ट ने ये कहा कि किसी ब्लॉगर के खिलाफ अगर कोई आदमी कंटेंट पर एतराज करते हुए आपराधिक मामला दर्ज कराता है तो उसे कानूनी प्रक्रिया से गुजरना ही होगा । सुप्रीम कोर्ट का मानना था कि इंटरनेट को बहुत से लोग देखते हैं और इस पर पोस्ट होने वाले पर किसी संबंधित पार्टी को एतराज करने का हक है ।
अब तक ब्लॉग को अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा माध्यम मानने वाले लोगों को अब सचेत रहने की जरूरत है । माना जाता है कि ब्लॉग किसी का निजी विचार है , जिसे व्यक्त करना उसका हक है लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट का ये आदेश ब्लॉगिंग जगत के लिए दिशा निर्देश की तरह है ।

(सौजन्य : खबरी अड्डा www.khabriadda.blogspot.com)

Monday, February 23, 2009

स्माइल पिंकी की कुछ झलकियाँ ....

हालांकि ऑस्कर पुरस्कारों में भारत के नाम पर चारों ओर स्लम डॉग मिलिनिअर की धूम रही पर इन सबके बीच भारत से जुड़ी एक और फ़िल्म ने इस प्रतिष्ठित पुरस्कार को जीता। स्माइल पिंकी ने इस वर्ष सर्वश्रेष्ठ संक्षिप्त डॉक्युमेंटरी के लिए ऑस्कर जीता। अमरीकी निर्देशक मैग्लिन माइलेन की यह फ़िल्म उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर की एक बच्ची की सच्ची कहानी है। एक बच्ची पिंकी जो बचपन से ही विदलित अधर (Cleft Lips) की समस्या से पीड़ित थी। कहानी है कि कैसे कुछ लोगों के निस्वार्थ प्रयासों से कई गरीब बच्चों की ज़िन्दगी और उनके चेहरे दोनों खूबसूरत हो रहे हैं। जैसा कि फ़िल्म ख़ुद कहती है कि यह एक सच्ची परीकथा है। फिलहाल और ज्यादा ना कहते हुए दिखा देते हैं आपको इसकी कुछ झलकियाँ, बोले तो ट्रेलर ...................

८ ऑस्कर .....जय हो..........

१० नामांकन में ८ ऑस्कर मिले स्लमडॉग को
सर्वश्रेष्ठ निर्देशन एवं फ़िल्म
सर्वश्रेष्ठ पटकथा
सर्वश्रेष्ठ ध्वनि सम्पादन
सर्वश्रेष्ठ संगीत एवं सर्वश्रेष्ठ गीत
सर्वश्रेष्ठ छायांकन
पूरी यूनिट मौके पर मौजूद थी

आखिर असली कमाल तो बच्चों का ही था

जय हो.................

Sunday, February 22, 2009

दुआ है कि जय हो....

आज रात हॉलिवुड के कोडक थियेटर में एक लाल कालीन बिछेगा जिस पर चलते तमाम कदमों के मन में केवल एक ही मूर्ति बसी होगी....मूर्ति ऑस्कर की। दरअसल यह एक मौसम है, मौसम फ़िल्म पुरस्कारों का.....और इस मौसम में इससे पहले गोल्डन ग्लोब, क्रिटिक और बाफ्टा पुरस्कारों का आयोजन हुआ है और अब दुनिया भर के फिल्मकारों और कलाकारों को इंतज़ार है कि उनकी कड़ी मेहनत का सुखद परिणाम उनको मिले।
हालांकि इससे पहले भी कई भारतीय फिल्में इन पुरस्कारों के लिए नामांकित हुई हैं पर हमेशा विदेशी भाषा श्रेणी में लेकिन इस बार ८१वे अकादमी पुरस्कारों की प्रतीक्षा भारत में भी बेसब्री से हो रही है क्यूंकि इस बार इसमे मुंबई की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म स्लमडॉग मिलिअनियर कई श्रेणियों में नामांकित है। इस फ़िल्म की कहानी एक भारतीय राजनयिक के उपन्यास पर आधारित है, इसके लिए संगीतकार ऐ आर रहमान और ध्वनि सम्पादन के लिए रसूल पोकुट्टी नामांकित हैं। ऑस्कर के लिए इस बार सबसे ज्यादा नामांकन मिले हैं ब्रेड पिट की फ़िल्म द क्यूरियस केस ऑफ़ बेंजमिन बटन को जिसे १२ श्रेणियों में नामांकित किया है, स्लम डॉग मिलिअनियर को १० श्रेणियों में नामांकन मिला है तो डार्क नाइट और मिल्क को आठ-आठ नामांकन दिए गए हैं।
हालांकि स्लमडॉग को लेकर तमाम तरह के विवाद खड़े ज़रूर हुए पर फिर भी यह माना जा रहा है कि यह फ़िल्म सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म से लेकर सभी श्रेणियों में पुरस्कार की तगडी दावेदार है। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म की श्रेणी में इसका मुकाबला द रीडर, द क्यूरीयस केस ऑफ़ बेंजमिन बटन, मिल्क और फ्रॉस्ट निक्सन से होगा। जबकि सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए मिकी रुरक फ़िल्म रेस्लर के लिए, ब्रैड पिट द क्यूरीयस केस ऑफ़ बेंजमिन बटन के लिए, फ़िल्म मिल्क के लिए शॉन पेन और फ़्रॉस्ट निक्सन के लिए फ़्रैक लंगेला में तगड़ा मुकाबला है।
दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि फ़िल्म कुछ लोगों की बेसिरपैर की निंदा का शिकार हुई। यह स्थिति केवल अखबारों और टीवी में रहती तो ठीक था पर ब्लॉग के लोगों ने भी काफ़ी संकीर्णता का परिचय दिया पर ऐसे लोग कम ही हैं। भारत की ओर से गुलज़ार, रहमान और पोकुट्टी का नामांकन भले ही कुछ लोगों की निंदा का शिकार हुआ हो पर इतना ज़रूर है कि ये नामांकन उम्मीद जगाते हैं.....ठीक फ़िल्म की कहानी की तरह। बेहतर होता कि एक अच्छी कृति की मूर्खतापूर्ण निंदा करने की जगह हम अच्छे काम से प्रेरणा लेकर कुछ और बढ़िया करने का प्रयास करते। खैर इस बारे में बात आगे पर अभी के लिए जय हो.....



Wednesday, February 18, 2009

गाजा की चीत्कार

पश्चिम एशिया के पश्चिमी मुहाने पर बसे इजराइल और फिलिस्तीन ने अपने-अपने तोपों के मुंह फिलहाल बंद कर दिए है। युद्ध इसलिए नही बंद हुआ कि गोले ख़त्म हो गए है या vijayashree किसी के मस्तक पर जगमगाने लगी। तलवारे म्यान में इसलिए रख दी गई क्यूकि विजयश्री ही कराहने लगी। उसे हमास के मस्तक का ताज नही बनना, न ही इजराइल का अहम। वो तो तड़पते, बिलखते, मासूम बेसहारा, आज़ादी की राह ताकने वालो का गर्व बनना चाहती है। खैर ये तो अभी ख्वाब है.रणभेरी गूंजने की वजह १९ दिसम्बर ०८ को संघर्ष विराम का ख़त्म होना रहा। ये तो संग्राम छेड़ने का बहाना मात्र था। असली वजह तो इतिहास के पन्नो में लाल स्याही से लिखे हुए है। उस मिटटी ने हर मंज़र देखा है। जिस देश की नींव (१४ मई १९४८ ) के peechhe खून की नदियाँ बहीं हो, उसको सुकून कहाँ नसीब होगा। जन्म से लेकर आज तक उस धरा के लोग सहमी हुई ज़िन्दगी जी रहे हैं। गोलियों की गडगडाहट में उनका दम घुटता है। पीढी दर पीढी यही सिलसिला चलता रहता है। लेकिन शान्ति का कोई नामलेवा नही है। द्वितीय विश्व युद्ध का दौर था जब यहूदी समुदाय के लोगों को माकूल जगह नही मिली थी। उन्होंने इस क्षेत्र को ही अपना घर बना लिया। ये क्षेत्र मुस्लिम बहुल था । दो धरी तलवारे यही से खीच गई। १९४७ में संयक्त राष्ट्र संघ ने इजराइल,फिलिस्तीन और कुछ स्वतंत्र क्षेत्र घोषित किया। १९४८ से ही इजराइल,मिस्त्र, सीरिया और जार्डन लड़े गाजा, गोलन pahadiyan , pashchimi क्षेत्र के लिए शुरू से ही chuhe- billee का khel होता रहा। ये khel कुछ netao, गाजा के लोगो का rahnuma kahne wale हमास,hijbulla के bich खेला jata है। लेकिन bemaut मारे jane वाली आम janta है। उनकी आवाज़ goliyo की गडगडाहट में कही गम हो गई। पेट में अन्न का दाना नही है, aakhon के aasu सुख चुके हैं। दिल से sirph एक ही पुकार निकलती है "हमें भी jeene का haq " है।

neha gupta भोपाल

Tuesday, February 17, 2009

शाहरुख की ज़िद है... “बिल्लु”

शोहरत का चरम आदमी से बचकानी हरकतें कराता है...जहां गुणवत्ता पर ज़िद हावी होने लगती है। शाहरुख की ताज़ा फिल्म उनकी इसी ज़िद का नतीज़ा है..जिसमे उन्होंने अपने दरबारी लेखकों से अपना खूब गुणगान कराया। शायद वे भूल गये..कि आदमी का स्वार्थ उसके अपने मनोरंजन से होता है...शाहरूख लीला देखने मे उसकी कोई दिलचस्पी नहीं।
शाहरुख आप बेहद उम्दा अदाकार है पर फिल्म निर्माण मे अपना दिमाग क्युं ठूसते हैं...खुद के गुणगान और अन्य सह कलाकारों पर फब्तियां कसने से महानता का जन्म नही होता..अपने उद्देश्य महान बनाने होंगे।
दरअसल, आप लोगो की ज़िद हादसों को जन्म देती है...नतीज़न दर्शकों को विशुद्ध मनोरंजन नहीं मिल पाता...सितारों की इस बचकानी होड़ के कारण दर्शकों को ‘सिंह इज़ किंग’ ‘चांदनी चौक...’ और ‘बिल्लु’ जैसे हादसे झेलना होता है। वो बेचारा इन सितारों पर विश्वास करके सिनेमा जाता है पर उसके हाथ निराशा लगती है। दुख इस बात का भी है..कि शाहरुख की इस गंदी नाली के प्रवाह ने अभिनय की पाठशाला ‘इरफान’ को भी बहा लिया। जो ‘नेमसेक’ ‘मकबूल’ जैसी सशक्त फिल्मो के लिए जाने जाते है। फिर भी इरफान ने अपने काम से न्याय किया और फिल्म के अंत मे शाहरुख के साथ वाले इकलौते सीन मे वे सुपरस्टार से फीके नज़र नहीं आए।
बहरहाल, फिल्म की सिनेमेटोग्राफी बढ़िया है..अंतिम दृष्यों मे शाहरुख ने भी प्रभावित किया है...रोने-धोने वाले दृष्यों मे उन्हें महारत हासिल है। पर कई जगह खुद के प्रदर्शन मे अतिरेक नज़र आया है।
शाहरुख, हम आपसे स्वदेश, चकदे, वीरज़ारा..जैसी फिल्मों की ही उम्मीद करते है...युं हादसों को जन्म न दो।

Sunday, February 15, 2009

वैलेंटाइन नाम की, जय बोलो श्री राम की

कल का दिन कुछ प्रेमियों पर भारी गुजरा तो कुछ के लिए खुशियों से भरा पर दोनों ही के लिए यादगार रहा। मतलब जो खुलेआम घूमे उनके लिए भी यादगार की प्यार झुकता नहीं और जिनको प्रभु के नाम पर बनी वानरसेनाओं ने पीट दिया उनके लिए इस लिए यादगार कि प्यार किया तो डरना क्या। अच्छा ख़बर उडी है कि वानरसेनाओं के कई वानर और उनकी स्त्रीलिंग आज विभिन्न स्थानों पर जोड़े में घूमते देखे गए हैं, कई पबों में भी गए पर आज पहचान में नहीं आए क्यूंकि आज मज़हबी झंडे हाथों में और नारे ज़ुबानों पर नहीं थे.......
खैर बात करते हैं मोहब्बत की तो कई जोड़े तो कल सुरक्षित तरीके से प्रेम दिवस मना कर अपने अपने घर लौट लिए पर कई ने मोहब्बत के लिए बड़ी कुर्बानियां दी। कुर्बानियां ऐसी ऐसी कि आप के दिल, हिल जायेंगे......एक की तो गधे से शादी करा दी गई, बेचारा गिड़गिडाता रहा कि कम से कम गधी ही ले आओ पर एक ना सुनी गई और दोनों के मंगलमय दाम्पत्य जीवन के आशीर्वादों के साथ उन्हें विदा किया गया। एक और तरीका निकाला गया कि प्रेमी युवक को प्रेमिका से ही राखी बंधा दी गई मतलब जो डोली लेने आया था अब डोली देने जायेगा......ये लो आए थे हरी भजन को ओटन लगे कपास !
अच्छा एक और बढ़िया चीज़ हुई कि एक वानरसेना ने ऐलान किया कि जो भी कल के दिन घूमता हुआ पाया गया (मतलब जोड़े में नर-मादा) उसका वहीं विवाह करा देंगे, तो कई गरीबी रेखा के नीचे के और भाग के शादी करने में कतरा रहे युगल दिन भर उनको ढूंढते रहे पर वो मिले नहीं तो निराशा हाथ लगी ..... ऐसे युगलों का मानना था कि मुतालिक के चेले मिल जाते तो उनके हाथ पीले और चेहरे लाल हो जाते और यह सच्ची समाज सेवा भी होती। खैर विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि वानरसेना अपने एक अग्रज का अनुकरण करते हुए बसंत मनाने के लिए गोवा गई हुई है।
अब इतनी फालतू बातें कर ली हैं काम की बात तो कल प्रेम का प्रतीक दिवस था (वैसे तो वसंत का पूरा महीना ही प्रेम का है) हालांकि मैं मानता हूँ कि यह इतना चर्चित नहीं होता यदि इसका विरोध ना होता, तो आर्चीज़ वालों को इन वानारसेनाओं को अनुबंधित कर लेना चाहिए। हाँ अनुबंध में काम करेंगे तो ज्यादा संगठित तरीके से गैंग चला पायेंगे सेनाओं वाले और दोनों को फायदा रहेगा। चलते चलते प्रेम और प्रेम के वास्तविक रूप को कहती अज्ञेय की एक कविता जो मुझे कक्षा ग्यारह से ही अति प्रिय रही है,

आहुति

कब कहता हूं जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूं जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?
कांटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूं वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

मैं कब कहता हूं मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?
मैं कब कहता हूं प्यार करूं तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?
मैं कब कहता हूं विजय करूं मेरा ऊंचा प्रासाद बने ?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?
मैं प्रस्तुत हूं चाहे मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !
मैं कहता हूं, मैं बढ़ता हूं, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूं
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूं

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !
भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

हीरानंद सच्चिदानंद वात्सायन अज्ञेय

तो बोलो वैलेंटाइन नाम की, जय बोलो श्री राम की
जय श्रीरामसेना की, जय हो उनके काम की
......यार श्री राम तो सीता माता को लाने के लिए रावण से लड़ गए थे, लंका पर चढ़ गए थे.....तुम डरपोक घर से ही नहीं निकले.......धत्त तेरे की

Saturday, February 14, 2009

कल वो भी शायद वहीं मिलें....

आज फिर एक और बवाली दिन है तमाम उन दिनों की तरह जब हमारे मुल्क में धर्म के नौटंकी बाज सडकों पर उतर कर पुलिस का काम अपने हाथ में ले लेते हैं और पुलिस वर्दी में सिविलियन बनी रह जाती है। ये बवाली लोग दो तरह के हैं एक जो कुंठित हैं दूसरे वो जिनको किसी भी तरह प्रसिद्धि चाहिए। ये वही लोग हैं जो ज़िन्दगी भर एक चींटी भी नहीं मार पाते और ऐसे मौके पर निहत्थे लोगों को समूह बना कर पीट कर उनका अपमान कर बड़े खुश होते हैं और अपनी पुरानी कुंठाएं दूर कर लेते हैं। दरअसल सच ये है कि इस दिन के अलावा सारे दिनों में ये वही कर रहे होते हैं जो वैलेंटाइन दिवस के दिन कुछ बेवकूफ जोड़े करते हैं। मेरा मतलब यह कि बेवकूफी किसी एक दिन प्रेम को मनाना है क्यूंकि यह तो हमेशा ही है.....पर मैं इसके सख्त ख़िलाफ़ हूँ कि कोई किसी को यह सिखाये कि उसे क्या करना है वो भी वे लोग जिन्होंने ख़ुद ज़िन्दगी में कुछ नहीं किया।
कभी गौर से देखियेगा इस इस समाज सुधारक भीड़ में ज़्यादातर लोगों की शक्लें.....वे ज़्यादातर आवारा और फालतू लोगों की होती हैं, और जो इसे संस्कृति से जोड़ते है उन्हें यह जान लेना चाहिए कि बिना किसी अपराध के किसी का अपमान या शारीरिक प्रताड़ना ना तो सभ्यता है और ना ही संस्कृति। यहाँ संस्कृति के ठेकेदारों के उल्लेख करना चाहूंगा कि कुछ शताब्दियों पहले तक हमारी ही संस्कृति में यही समय बसंतोत्सव या मदनोत्सव के तौर पर मनाया जाता था, जिसे प्रेम और मदन (कामदेव) का त्यौहार माना जाता था.....यकीन नहीं हो तो थोडी और पढ़ाई करें और फिर प्रेम से ज्यादा दिक्कत हो खजुराहो के मंदिरों में आग लगा दें.....उन्हें क्यूँ कला और संस्कृति का प्रतीक मानते हैं.....खैर सच कहूँ तो नफरत है उन दोगले लोगों से है जो कल ख़ुद अपने साथ एक कन्या घुमा रहे थे पर आज उसी भीड़ में शामिल है............

कल वो भी शायद वहीं मिलें....
तुम हो आज़ादी के शौकीन
सकते घरों में बंद नहीं
पर घर में रह जाओ आज
उनको यह पसंद नहीं

या तो हो तैयार कि
जो चाहोगे करोगे
या यह सोचो बच निकलो
जो उनसे डरोगे

हाथों में लो हाथ
निकल जाओ तुम घर से
या इक दिन छुप जाओ
घर में उनके डर से

तुम कहते हो इश्क इसे
वो कहते नंगई
तुम ठहरे सीधे सादे
वो पक्के दंगई

तुम कह दोगे दिल की
ठेकेदार समाज के चिढ़ जाएंगे
लेकर लाठी डंडा सड़क पे
तुमसे भिड़ जाएंगे

अगले दिन मिल लेना
वो इससे बेहतर है
प्यार कभी भी कर सकते हो
इसमें क्या चक्कर है

अगले दिन भी हो सकता है
वो मिल जाएं
साथ की सीट पर बैठे
सिनेमा हॉल में आएं

पर अगले दिन
तुमसे कुछ न कह पाएंगे
साथ में अपनी प्रेयसी
जो लेकर आएंगे

जीवन की अवस्थाओं.....बचपन, यौवन और बुढापे में हर मानव की प्रवृत्ति एक ही सी होती है.....युवा प्रेम ही करेगा....जो उसे रोकते हैं वे झूठे हैं और जो युवा प्रेम ना करने का ढोंग करते हैं वे धोखा ख़ुद को देते हैं......किसी चीज़ का विरोध नाजायज़ नहीं है पर विरोध का तरीका नाजायज़ हो सकता है.....इन तरीकों से बचें.....आप स्वतंत्र हैं पर जहाँ दूसरे की आज़ादी शुरू होती है आपकी आज़ादी ख़त्म हो जाती है !
जैसा मेरा अनुज हिमांशु लिखता है,
जीवन में हर एक मनुज,
अलग तरह से पलता है ।
लेकिन हर मानव में जीवन,
एक तरह से ढलता है ।

Thursday, February 12, 2009

सत्यम का सच हुआ बेपर्दा

लंबे अरसे के बाद आखिरकार सूरज दूंध को चीरता हुआ दस्तक दे ही दिया। कब तक घने कुहरे सच को छुपाकर रख सकते थे, जिसमे हजारों लोगो की दर्द भरी आह छुपी हुई थी। सत्यम के जन्मदाता बी रामलिंगा राजू धोखेबाजी और फरेबी का चोल ७ जनवरी २००९ को उतार दिया। सेबी के सामने चिट्ठी द्वारा घोटाले की सडांध को उजागर किया। इस प्रकरण का खुलासा उन्होंने इसलिए नही किया कि वो इमानदार हो गए हैं, बल्कि इसलिए ताकि अमेरिका के सख्त कानून से बच सके। एनरान को सीइओ जेफरी के शिलिग़ को २४ साल तक जेल कि सलाखे नसीब हो गई। भारत में राजू को १० साल से आधिक कि सज़ा नही हो पायेगी। वो यहाँ जुगाड़ भी लगा सकते हैं। एक बात जो दिमाग में खटकती है वो ये है कि जब १९९९-२००१ में केतन पारेख मामला सामने आया तो उसमे सत्यम के हाथ भी घोटाले में डूबे थे। लेकिन सेबी ने उसे क्लीन चित दे दी थी। हाल- फिलहाल विश्व बैंक ने भी सत्यम पर व्तापरिक प्रतिबन्ध लगाया ही है। २०००-२००५ के बीच सत्यम का पीई १५ से २० के बीच रहा, वही इन्फोसिस का ३० गुना आधिक था। तब भी इसने २००८ में कार्पोरेट गोवेर्नांस में उत्कृष्टता के लिए गोल्डन पीकम ग्लोब पुरस्कार हासिल किया। हद तब हो गई जब बैलेंशीत में गडबडी होते हुए भी आपने बेतीं की मेटस इन्फ्रास्त्क्चर और मेटस प्रापर्टी की आधिग्रहं की कोसिस कि। यह काम वह कंपनी कानून कि धारा ३७२-अ का उलंघन करके करने जा रही थे । इसके लिए निवेशको ने हल्ला मचाया और बाज़ार के सुस्त पड़ जाने, खासकर रियल इस्टेट के लकवाग्रस्त हो जाने के कारन राम्लिंगाराजू का दिमागी षडयंत्र बाहर फुट पड़ा। वो सालों के तीनो तिमाही में झूट बोलते रहे कि कम्पनी के पास नकदी,राजस्व,बैंक बैलेंस, जो उधारी मिलाने वाली है वो इतनी------है। कम्पनी को बल्कि उधारी चुकानी थी। समझने वाली एक बात है कि इतना बड़ा और इतने दिनों से चल रहे फर्जीवाडे का पर्दाफाश कैसे नही हुआ? आदित करने वाली संस्था आडिटर, प्रिसवाटरहाउसकूपर्स कैसे काम करते रहे? सेबी और उद्धोग मंत्रालय क्यूँ कुम्भ्करनी नीद सोते रहे? प्रश्न यह है कि राम लिंग राजू इतने मैनेजमेंट गुरुओ के होते हुए खेल खेलते रहे। फिलहाल तो देखने वाली बात ये होगी कि बेपर्दा हुए झूठ को कितनी सज़ा मयस्सर होगी? कौन-से प्रावधान लाये जायेगे जिससे कोई दूसरा राम लिंग राजू इस तरह के खेल खेलने की हिमाकत भी न कर सके।

नेहा गुप्ता भोपाल.

मीडिया कर्मी ने मांगी मौत....

कुलदीप द्वारा मौत मांगने के एक साल मार्च महीने में पूरे होंगे। उन्हें अब तक न तो 'मौत' मिली और न जीने लायक छोड़ा गया। भारतीय लोकतंत्र के स्तंभों-खंभों ने उन्हें कोमा-सी स्थिति में रख छोड़ा है। कुलदीप मीडियाकर्मी हैं। इंदौर में हैं। 'नई दुनिया' से जुड़े रहे हैं। प्रबंधन ने कुलदीप से इस्तीफा देने को कहा था। उन्होंने नई नौकरी न ढूंढ पाने की मजबूरी बताई थी। प्रबंधन ने उनका तबादला कर दिया। बीमार पिता को छोड़ दूसरे शहर में नौकरी करने जाने में असमर्थ रहे कुलदीप। सो, कुलदीप ने रहम की गुहार लगाई।
प्रबंधन को किसी गुहार या बीमार से क्या मतलब! थक हार कर कुलदीप ने 30 मार्च 2008 को राष्ट्रपति को पत्र लिखा। सपरिवार इच्छा मृत्यु की अनुमति मांगी। जाहिर है, पत्र लिखने से पहले कुलदीप ने कई महीने ऐसे हालात झेले जिससे उन्हें मृत्यु वरण करने के लिए मंजूरी मांगने को मजबूर होना पड़ा। ये हालात पैदा किए 'नई दुनिया' प्रबंधन ने। राष्ट्रपति को चिट्ठी भेजने से बस इतना हुआ कि एक पुलिस वाला आया और 'क्यों मरना चाहते हो' सवाल का जवाब कुलदीप के मुंह से सुनकर बयान दर्ज कर ले गया। कुलदीप मामले को लेबर कोर्ट में ले गए तो वहां जाने किसके इशारे पर सिर्फ सुनवाई की तारीख दर तारीख तय हो रही है, हो कुछ नहीं रहा है।
कुलदीप ने जिन दिनों राष्ट्रपति को पत्र लिखा, उनके पिता गंभीर रूप से बीमार हुआ करते थे। आर्थिक तंगी से परेशान कुलदीप पिता के इलाज के लिए दर-दर भटके। एक-एक रुपये इकट्ठा किया। बेहतर इलाज कराने की कोशिश की। पर पिता को बचा न सके। पिता गुजर गए। पिता रेवेन्यू डिपार्टमेंट में पटवारी थे। उनकी पेंशन अब कुलदीप की मां को मिलने लगी है। कुलदीप का इकलौता बेटा 12वीं में है। मां को मिलने वाली पेंशन की रकम से कुलदीप समेत चार जनों का खाना-खर्चा चल रहा है। नून-तेल-साबुन खरीदा जा रहा है। बच्चे की फीस भरी जा रही है।
बरस बीत गए पर दुख-दर्द जस के तस हैं। सिस्टम न्याय करने का भरपूर 'प्रयास' करता दिख रहा है पर हो नहीं पा रहा है। न्याय होगा कब, यह नहीं पता। प्रबंधन से जुड़े लोग दिन दूना रात चौगुना तरीके से फल-फूल रहे हैं। भांति-भांति के बहानों से जगह-जगह सम्मानित-सुशोभित हो रहे हैं। पर कुलदीप को कौन पूछे? कुलदीप को न तो लटके-झटके आते हैं और न दांव-पेंच। कुलदीप न तो दंदफंदी हैं और न धंधेबाज। कुलदीप न तो बेईमान बन पाए हैं और न रीढ़ निकाल पाए हैं। कुलदीप में वो सारी खामियां हैं जो इन दिनों के सिस्टम को मंजूर नहीं। सिस्टम केवल एक सिद्धांत जानता है- तुम मुझे लाभ दो, मैं तुम्हें फायदा दूंगा।
कुलदीप पहले दैनिक भास्कर, इंदौर में थे। नई दुनिया ने उनके आवेदन पर उन्हें अपने यहां प्रूफ रीडर रखा। छह माह में संपादकीय विभाग का हिस्सा बनाने का वादा किया। कुलदीप के मुताबिक, वो छह माह दस साल बाद भी नहीं आया। प्रूफ रीडर पद जब अखबारों में खत्म किए जाने लगे तो नई दुनिया प्रबंधन को भी कुलदीप अतिरिक्त खर्चे की तरह खटकने लगे। लाभ कमाने में यकीन रखने वाले मीडिया हाउसों का प्रबंधन घाटे का सौदा भला कितनी देर तक बर्दाश्त करता। कुलदीप से पहले तो सीधे कहा गया- इस्तीफा दो। कुलदीप ने मना किया तो तबादला कर दिया। फिर शुरू हुआ कुलदीप के मुश्किलों का दौर जिसे जीते-भोगते लगभग दो वर्ष गुजार चुके हैं।
कुलदीप अभी मरे नहीं हैं, यह भौतिक सच है पर अंदर से कुलदीप ने खुद को मरते-जीत कितनी बार देख-समझ लिया है, ये वे खुद जानते हैं। हर दो महीने बाद आने वाले तीज-त्योहार में खुद को गुम-सुम और बेबस पाने वाले कुलदीप को इन दिनों किसी से शिकायत नहीं है। शायद, गरीब के लिए दुखों-शिकायतों-पीड़ाओं की अति ही इनसे मुक्ति है। इसी मुक्ति के सुबकते अवसादी मनोभाव में कुलदीप ने राष्ट्रपति को जो कुछ लिखकर चिट्ठी के रूप में भेजा, उसे हम यहां हू-ब-हू प्रकाशित कर रहे हैं, इस अनुरोध के साथ- कृपया पढ़ने के बाद थोड़ी देर दुखी होकर फिर अपने-अपने काम में लग जाएं क्योंकि मंदी काल में ऐसे ढेरों कुलदीप-सुलदीप-प्रदीप मिलेंगे जिनके घर-परिवार का दीया बड़ी मुश्किल से जल रहा है। आखिर किस-किस को राहत देंगे आप। वैसे भी, राहत आजकल वो पाने को उत्सुक हैं जिनके पेट भरे-फूले हैं। गरीब को राहत देना लोक कल्याणकारी राज्य और इसकी लाडली कंपनियों का फर्ज नहीं रहा। लोक कल्याण का काम भी बाजार के हवाले है। बाजार तो बाजार है। इसे सिर्फ रोबोट चाहिए, नोट कमवाने वाले कुशल, पेशेवर और दक्ष रोबोट चाहिए। किसी संवेदनशील, ईमानदार और विचारवान मनुष्य की कतई जरूरत नहीं!

कुलदीप का महामहिम राष्ट्रपति को लिखा गया पत्र
सेवा में,
महामहिम राष्ट्रपति
श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल महोदया,
राष्ट्रपति भवन,
नई दिल्ली
विषय : सपरिवार इच्छा मृत्यु की अनुमति
महामहिम महोदया,
प्रार्थी कुलदीप शर्मा मध्य प्रदेश के भाषाई समाचार पत्र 'नई दुनिया' में वर्ष 1996 से कार्यरत है। नई दुनिया प्रबंधन ने दुर्भावना से प्रेरित होकर (यह जानते-बूझते कि मैं पारिवारिक कारणों से इंदौर से बाहर जाकर काम नहीं कर सकता हूं), मेरा स्थानांतरण 7 नवंबर 05 को भोपाल कर दिया। स्थानांतरण से संबंधित मेरा प्रकरण श्रम न्यायालय में गत वर्ष (प्रकरण क्रमांक 57/07 दिनांक 9/10/07 को) जवाब दावा देकर समाचार पत्र कर्मचारी यूनियन इंदौर ने प्रस्तुत कर दिया लेकिन मुझे मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के उद्देश्य से नई दुनिया प्रबंधन द्वारा अभी तक श्रम न्यायालय में इसका जवाब ही पेश नहीं किया गया है।
लोकतंत्र का चैथा स्तंभ होने का नाजायज फायदा
नईदुनिया प्रबंधन द्वारा अनेक प्रकार से लोकतंत्र का चैथा स्तंभ होने का नाजायज फायदा गलतबयानी को आधार बनाकर लिया जा रहा है। प्रबंधन द्वारा गलतबयानी को अपना हथियार बनाने की पहली मिसाल मेरे द्वारा सहायक श्रमायुक्त को 31 अगस्त 2006 को की गई शिकायत पर नई दुनिया प्रबंधन द्वारा दिया गया जवाब है। इसमें ( प्रबंधन द्वारा दिए गए जवाबी पत्र के) शुरुआती पैरा में लिखा गया है कि इनका कार्य संतोषजनक नहीं रहा। इनके काम के बारे में ढेरों गलतियां/ शिकायतें आने लगीं...आदि।
सहायत श्रमायुक्त को संबोधित 2 अक्टूबर 06 के इसी पत्र के दूसरे पेज के अंत में (कंडिका 7 का जवाब देते हुए) प्रबंधन द्वारा लिखा गया है- जिनका नाम प्रार्थी ने लिखा है उनकी योग्यता व क्षमता शिकायतकर्ता की योग्यता व क्षमता के आगे नगण्य है। यह है नई दुनिया की गलतबयानी की पहली मिसाल जिसके अनुसार पिछले 40-45 वर्षों से यहां काम करने वालों की योग्यता व क्षमता मेरे मुकाबले नगण्य है। कहने का सीधा और आसान मतलब यह है कि मुझसे पहले के सभी कर्मी अयोग्य हैं (प्रति संलग्न है)।
गलतबयानी की दूसरी मिसाल
नई दुनिया प्रबंधन द्वारा गलतबयानी की दूसरी मिसाल है क्षेत्रीय भविष्यनिधि आयुक्त के समक्ष दिया गया यह कथन कि मुझे 15/02/96 को बतौर अप्रेंटिस रखा गया था। क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त (ईआर) द्वारा प्रबंधन को जब अप्रेंटिस एक्ट 1961 के तहत स्टेंडिंग आर्डर की प्रति देने को कहा गया तो प्रबंधन द्वारा इसकी प्रति प्रेषित नहीं की गई (भविष्यनिधि आयुक्त के फैसले की प्रति संलग्न)।
मौके-बेमौके नई दुनिया प्रबंधन की इस तरह गलतबयानी से जाहिर है कि उसने परेशान, प्रताड़ित और रोजी-रोटी से मोहताज करने के लिए जान-बूझकर मुझे ही स्थानांतरण के लिए इसलिए चुना ताकि अपने पारिवारिक कारणों से मैं इंदौर शहर से बाहर नहीं जा सकूं और प्रबंधन की मंशानुरूप स्वेच्छा से त्यागपत्र दे दूं। नई दुनिया प्रबंधन पिछले लंबे समय से मुझ पर त्यागपत्र देने के लिए दबाव बनाए हुए था। 26 नवंबर 03 से 28 दिसंबर 03 की अवधि के दौरान भी मुझे जबरन काम करने से रोका गया था।
प्रबंधन ने कानून की जानकारी का फायदा उठाया
सारे प्रयासों के बावजूद मेरे त्यागपत्र नहीं देने पर नई दुनिया प्रबंधन ने कानून की इस जानकारी के आधार पर कि न्यायालय में स्थानांतरण का केस यूनियन के माध्यम से ही लड़ा जा सकता है, मुझे स्थानांतरण के लिए इसलिए भी चुन लिया क्योंकि मैं किसी यूनियन का सदस्य नहीं रहा था। यूनियन का सदस्य नहीं होने के कारण ही नवंबर 05 में स्थानांतरण होने के करीब 10 माह बाद (31 अगस्त 06 को) मैंने अपनी ओर से सहायक श्रमायुक्त कार्यालय में पहली औपचारिक शिकायत की थी।
पनपने नहीं दी यूनियन
नई दुनिया प्रबंधन ने लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होन का इस्तेमाल कर पिछले 60 वर्षों में इतनी बड़ी संस्था में लोगों के कार्यरत होने के बावजूद संस्था में किसी यूनियन को इसलिए नहीं पनपने दिया ताकि वह अपनी मर्जी से 'किसे नौकरी पर रखना है और किसे बाहर करना है' का तानाशाहीपूर्ण रुख अख्तियार करना जारी रख सके।
आपसे सपरिवार इच्छा मृत्यु चाहने का कारण
मेरी उम्र 46 वर्ष से अधिक हो जाने के कारण अब किसी अन्य संस्था द्वारा नौकरी दिया जाना संभव नहीं। उम्र के इस पड़ाव पर आकर कोई और या नई तरह की नौकरी अथवा धंधा कर पाना मुमकिन नहीं। इस कारण मैं नवंबर 05 से अभी तक मार्च 2008 (करीब 28 माह) तक बेरोजगार हूं।
इकलौते बेटे के बेरोजगार होने के सदमें से पिताजी सितंबर 06 से बिस्तर पर चले गए हैं। वे चलना-फिरना तो दूर, उठने-बैठने से भी मोहताज हैं।
बिस्तर पर लगातार एक ही मुद्रा में लेटे रहने से उनकी पीठ, कूल्हे और पांव में शैयावृण (बेडसोर) हो गए हैं।
पुत्र होने के नाते मेरा दायित्व है कि मैं उन्हें इस तकलीफ से छुटकारा दिलाऊं (हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में यह व्यवस्था दी है कि माता-पिता की सेवा पुत्र का दायित्व है) लेकिन अंशदान जमा नहीं होने से राज्य बीमा चिकित्सा सुविधा मिलना बंद है।
आय का अन्य कोई स्रोत नहीं होने और पिछले 18 माह से पिताजी के इलाज में पैसा खर्च होने से सारी जमापूंजी समाप्त हो गई है।
एक तरफ नई दुनिया जैसी बड़ी संस्था और उसके आर्थिक रूप से सुदृढ़ होने से वह अपनी पहुंच और पैसे के दम पर मुकदमे को लंबे समय तक खींच सकने में सक्षम है। इसका उदाहरण पिछले करीब 6 माह से श्रम न्यायालय में पेश जवाबदावे का जवाब ही नहीं दिया जाना है तो दूसरी तरफ महंगाई के लगातार बढ़ते जाने के साथ मौजूदा हालत में परिवार का गुजारा अहम प्रश्न है।
परिवार को रोज तिल-तिलकर मारने से बेहतर है मृत्यु का वरण करना।
इन सब हालात के चलते मैं अपने पूरे होशो-हवास में आपसे सपरिवार इच्छा मृत्यु की अनुमति देने की प्रार्थना करता हूं।
महामहिम महोदया, आपसे निवेदन है कि शीघ्र ही इस प्रार्थना को स्वीकार कर हमें इच्छा मृत्यु की अनुमति देने की कृपा करें।
धन्यवाद
प्रार्थी
कुलदीप शर्मा

साभार : www.bhadas4media.com (भड़ास ४ मीडिया )

Tuesday, February 10, 2009

धर्म,धर्मान्तरण और हकीक़त

जैसे-जैसे समय गुजरता गया, धर्म नमक प्रतीक इंसानी फितरत पर हावी होने लगा। इसकी आक्रामकता इतनी बढ़ गई है की मनुष्य इससे इतर सोच ही नही पाता। अगर अमुक धर्म की जंजीरे ज्यादा जकड़ने लगे तो दूसरे धर्म की ओर रुख़ करो। ये तो फिर से गड्ढे में गिराने वाली बात हुई। हालत तो जस की तस् रहती है। न पहला धर्म अपने नियमो में सुधर लायेगा और न दूसरा धर्म इज्ज़त बख्शेगा. यह तो मन का भ्रम है कि उस डाल पर ज़्यादा सुकून मिल जाएगा. सभी धर्म एक ही बातें कहते हैं. बात तो यह है की सभी धर्मो के कुछ-कुछ नियम कैंसरग्रस्त हो गए हैं, इन्हे काट डालना ही बेहतर उपाय है. जो इन्सान के हक में न हो उसे माना ही क्यों जाए? जब मानव के पैर धरती पर पड़े तो क्या कोई धर्म था? जवाब है नही. वैदिक काल में कर्म के आधार पर जाति का निर्धारण होता था . ये विभाजन भी समाज निर्माण के लिए ही किया गया था. लेकिन उत्तर वैदिक (१००० इ पू ) में जाति जन्म आधारित हो गई. यही से हैवानियत के तांडव का भी का जन्म हो जाता है . ७०० इ तक लगभग ईसाई ,बौद्ध, जैन इस्लाम आदि धर्मों का जन्म हो हो चुका था. मूल बातें तो सबकी एक ही है. फर्क तो सिर्फ थोड़े बहुत नियम कानून का है. वैसे तो सभी धर्मो में जाति विभाजन है, लेकिन हिंदू धर्म में इसका भयावह रूप देखने को मिलाता है. बात चाहे प्राचीन कल की हो या मध्यकालीन या फिर आधुनिक कल, अगडों ने पिछडो पर बड़ा अत्याचार बरपाया है. उदहारण तो ऐसे-ऐसे है की देखकर ,सुनकर और पढ़कर रोया जाए. उस वक्त छोटी जाति की दशा ऐसी थी जैसे इंसानी जान की कोई कीमत नही है सड़क पे पड़ा निरीह प्राणी हो, जिस पर जितना जी चाहे आत्याचार कर लो कोई फर्क नही पड़ता . इन सब रूढियों से ही उबकर बौद्ध धर्म अपनाने लगे. अगर कहे कि हो रहे जुल्मों पर यह करारा थप्पड़ था तो ग़लत न होगा. ७१२ इसवी में जब इस्लाम आया तो लोग कुछ जबरदस्ती तो कुछ ख़ुद से इस्लाम अपनाने लिए. १४९८ में वास्कोडिगामा जी जब भारत आए तो लोगों ने ईसाई धर्म की ओर रुख़ किया. इनके पाले में भी निचली जातियो को सुकून नही मिला अब अब इस्लाम को ही ले लिया जाए- इसमे भी दो श्रेणियां है एक अशरफ (अगडों का समूह) दूसरा अज्लाफ जिसका मतलब ही- कमीना,अभागा,नीच होता है. इसमे दर्जी, जुलाहा, फकीर आते हैं. अब ईसाइयत भी पीछे नही हैं. उसमे भी उच्च तबको के लिए चर्च पूजा का समय अलग था और प्रवेश के रस्ते भी. हाँ, लेकिन, इस को नज़रंदाज़ नही किया जा सकता की इन धर्मो ने थोडी बहुत धर्मान्तरित लोगो को सुविधाए तो दी ही हैं. बात तो असली यह है की उनके स्टार में कोई फर्क नही आया . जो थे वाही रह गए. कहते हैं इतिहास का सबसे बड़ा धर्मान्न्तरण -१९५६ विजयादशमी के दिन हुआ. जब डॉ. भीमराव अम्बेडकर अपने लाख-सवा लाख दलितों को लेकर बौद्ध धर्म ग्रहण किया था. जब अम्बेडकर के मन में परिवर्तन का कीडा अपने पर (पंख ) मार रहा था, तो हैदराबाद के निजाम ने उन्हें इस्लाम अपनाने का प्रस्ताव भेजा साथ में ४ करोड़ रु भी. आंबेडकर ने इसे ठुकरा दिया, कहा कि जिस धर्म में स्त्रियों को आज़ादी नही, हम उधर देख भी नही सकते. उन्होंने बौद्ध भिक्षुयो के वर्चस्व पर भी आंसू बहाए हैं. बात करे हाल-फिलहाल कंधमाल की जहाँ धार्मिक तांडव का नंगा नाच खेला गया. पादरी ग्राहम स्टेन्स और वीएचपी नेता लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या ने, लोगो के बीच दो धारी तलवार खींच दी. न जाने कितनी जाने चली गई, खून, की नदिया तक बह गई. लेकिन धर्म के नियमो में परिवर्तन आया, बेशक नही. धर्म के अलमबरदार अपनी वर्चस्वता कैसे खो सकते हैं? उनका भौंडापन जो सामने आ जाएगा. अरे ये सोचना चाहिए कि वो बेचारे छोटी जाति और भोले इसाई जिनका दिमाग सिर्फ दो जून की रोटी जुटाने में लगा रहता है वो हत्या कैसे कर सकते हैं? काम तो बड़े लोग करते है लेकिन पिसते है,बेचारे ये मासूम. ये इसी भी कभी हिंदू या मुसलमान था. प्रश्न यह है कि क्या सिर्फ प्रतीक (आस्था) बदल लेने से इंसानी भाव बदल जाते है. ऐसे प्रतीक को माने ही क्यों जो इंसानी नज़रो में हैवानियत का सैलाब भर देता हो. इश्वर,खुदा, यीशु ने तो प्रेम,सौहार्द, एक का संदेश ही सुनाया था. हम सबसे आगे, हमारा धर्म सबसे ऊपर के चक्कर में मानव वो मूल ही खोता जा रहा है .
नेहा गुप्ता ,भोपाल.

यह "विधान ?" सभा है ......

उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य लगता है अपनी पुरानी बदनामी के धब्बों को धोने के लिए बिल्कुल संजीदा नहीं हैं .....आज बजट सत्र का पहला दिन था और जिस तरह का हंगामा यहाँ देखने को मिला वह जनता को यह बताने के लिए काफ़ी था की उनके चुने हुए प्रतिनिधि कितने सभ्य और शालीन हैं। विधान सभा में इतना ज्यादा हंगामा हुआ की राज्यपाल को अपना भाषण पूरा किए बिना ही वापिस जाना पड़ा।
सख्त सुरक्षा बंदोबस्तों के बावजूद समाजवादी पार्टी के विधायक बड़े बड़े बैनर विधानसभा के अन्दर ले जाने में सफल रहे और राज्यपाल के सदन में आते ही अपनी सीटों पर खड़े होकर विरोध जताने लगे। उधर नेता विपक्ष मुलायम सिंह यादव ने राज्यपाल पर माया सरकार का साथ देने के आरोप लगाने शुरू कर दिए जिससे उनके विधायकों का मनोबल आसमान छूने लगा और उन्होंने एजेंडे आदि के कागजातों को उठा कर उनके गोले बना कर राज्यपाल पर फेंकना शुरू कर दिया। इस हंगामे और दुर्व्यवहार से परेशान राज्यपाल टीवी राजेश्वर तुंरत ही सदन छोड़कर बाहर निकल गए। इस दौरान लगातार विपक्ष के सपा विधायक सीटों पर खड़े रहे और ज़ोर ज़ोर से मुख्यमंत्री पर चन्दा वसूली, भ्रष्टाचार और विरोधियों के उत्पीडन के आरोप लगाते रहे।
दरअसल मामला कुल मिलाकर यह है की प्रदेश सरकार इस सत्र में वित्त बजट लेकर आ रही है जिसे लोकसभा चुनाव को देखते हुए काफ़ी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। ऐसी अटकलें हैं कि इस बजट में सरकार कई लोकलुभावन घोषणाएं कर सकती है जो लोकसभा चुनाव में वोट बैंक को बढ़ाने में मददगार हों और इसी संभावना के चलते विपक्ष में बैठी समाजवादी पार्टी ने पहले ही तय कर लिया था कि सदन में क्या करना है।
दुर्भाग्य यह है कि सत्ता और विपक्ष दोनों ही असहज कर देने वाले तरीके अपना रहे हैं। एक ओर मुख्यमंत्री अपने विरोधियों को परेशान करने के लिए नैतिक - अनैतिक सभी तरीके अपना रही हैं और केवल सत्ता के लोभ में तमाम दागियों को अपने साथ लेती चली जा रही हैं तो दूसरी ओर विपक्ष में बैठी सपा भी रोज़ नए नाटक खेलती दिखती है। उनके पास वैसे भी चाणक्य की एक आधुनिक प्रति मौजूद है जो कहीं भी और कुछ भी बोल देने के लिए मशहूर है और आज ये नया नाटक। यही मुलायम सिंह जो आज कई दागियों के बसपा में आने पर इसे गुंडों की पार्टी बता रहे हैं, ख़ुद अपनी सरकार उन्ही कॉमन फैक्टरों के दम पर चला रहे थे।
हालांकि उत्तर प्रदेश राजनीति के सबसे गंदे खेलों का मैदान रहा है पर आज जो कुछ विधानसभा में हुआ वह वाकई शर्मिंदा करने वाला है। यह समझना वाकई मुश्किल है कि अगर सपा की नाराज़गी मुख्यमंत्री से थी तो राज्यपाल को इस तरह अपमानित क्यों किया गया? क्या इनमे इतनी हिम्मत थी कि मुख्यमंत्री आवास के सामने जा कर प्रदर्शन कर पाते। दरअसल सत्ता और विपक्ष दोनों ही ग़लत हैं और एक दूसरे को ग़लत ठहराने में सारी हदें पार करते जा रहे हैं।
इसके लिए सपा के धरतीपुत्र मुलायम ने पत्रकारों को सफाई दे डाली पर क्या यह काफ़ी है। क्या पूर्व रक्षामंत्री को संसदीय गरिमा के बारे में कुछ नहीं पता है ? क्या वे नहीं जानते की राज्यपाल राज्य में राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होता है और इस तरह का अमर्यादित आचरण क़ानून के विरुद्ध है .....? क्या वे नहीं जानते कि विधानसभा लोकतंत्र का मन्दिर है और संविधान ऐसे किसी भी कृत्य को गैर कानूनी ठहराता है ? और अगर वे नहीं जानते तो ये सवाल जनता पर छोड़ता हूँ कि क्या ऐसे किसी भी शख्स को सदन का सदस्य रहने का अधिकार है .....?

Monday, February 9, 2009

एक सुंदर तस्वीर.....





Sunday, February 8, 2009

प्यार की कहानी चाहिए .....नीरज जी का जन्मदिवस


आज है फरवरी और है बच्चन जी की गीत कवियों की परम्परा के अकेले जीवित महाकवि गोपाल दास नीरज की सालगिरह। नीरज जी का महत्त्व इसलिए भी साहित्य में है क्यूंकि जब इनका एक कवि के रूप में प्रादुर्भाव हुआ तो इनके समकालीन प्रयोगवादी या अतुकांत कविता का दौर चल रहा था। उस दौर के मठाधीशों ने (जिनका नाम ना ही लेना उचित होगा) नीरज को मंचीय कवि कह कर खारिज कर दिया पर जनता ने जिसको दिल से स्वीकार किया हो उसे कोई क्या अस्वीकार करेगा ......नीरज ने कारवाँ गुजर गया, फूलों के रंग से और ऐ भाई ज़रा देख के चलो जैसे सिनेमा के मील के पत्थर भी रच डाले.....उस कवि को आज के दिन बधाई और नमन ......
प्रस्तुत है नीरज जी का एक गीत जिसकी फरमाइश की थी लातिकेश जी ने ताज़ा हवा पर....पर यहाँ पढ़वा रहा हूँ ....
प्यार की कहानी चाहिए
आदमी को आदमी बनाने के लिए
जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
और कहने के लिए कहानी प्यार की
स्याही नहीं, आँखों वाला पानी चाहिए।
जो भी कुछ लुटा रहे हो तुम यहाँ
वो ही बस तुम्हारे साथ जाएगा,
जो छुपाके रखा है तिजोरी में
वो तो धन न कोई काम आएगा,
सोने का ये रंग छूट जाना है
हर किसी का संग छूट जाना है
आखिरी सफर के इंतजाम के लिए
जेब भी कफन में इक लगानी चाहिए।
आदमी को आदमी बनाने के लिए
जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
रागिनी है एक प्यार की
जिंदगी कि जिसका नाम है
गाके गर कटे तो है सुबह
रोके गर कटे तो शाम है
शब्द और ज्ञान व्यर्थ है
पूजा-पाठ ध्यान व्यर्थ है
आँसुओं को गीतों में बदलने के लिए,
लौ किसी यार से लगानी चाहिए
आदमी को आदमी बनाने के लिए
जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
जो दु:खों में मुस्कुरा दिया
वो तो इक गुलाब बन गया
दूसरों के हक में जो मिटा
प्यार की किताब बन गया,
आग और अँगारा भूल जा
तेग और दुधारा भूल जा
दर्द को मशाल में बदलने के लिए
अपनी सब जवानी खुद जलानी चाहिए।
आदमी को आदमी बनाने के लिए
जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
दर्द गर किसी का तेरे पास है
वो खुदा तेरे बहुत करीब है
प्यार का जो रस नहीं है आँखों में
कैसा हो अमीर तू गरीब है
खाता और बही तो रे बहाना है
चैक और सही तो रे बहाना है
सच्ची साख मंडी में कमाने के लिए
दिल की कोई हुंडी भी भुनानी चाहिए।
आदमी को आदमी बनाने के लिए
जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए

Saturday, February 7, 2009

अपमान

आज भवानी प्रसाद मिश्रा, जिन्हें हम स्नेहवश भवानी भाई के नाम से ज्यादा जानते हैं.......उनकी एक कविता जो मुझे व्यक्तिगत तौर पर बेहद पसंद है। ये कविता बात करती है उन अवसरों की जब हम अपनी अंतरात्मा से अधिक इस बात की फ़िक्र करते हैं कि यह विश्व क्या कहेगा .......
अपमान

अपमान का
इतना असर
मत होने दो अपने ऊपर

सदा ही
और सबके आगे
कौन सम्मानित रहा है भू पर

मन से ज्यादा
तुम्हें कोई और नहीं जानता

उसी से पूछकर जानते रहो
उचित-अनुचित
क्या-कुछ
हो जाता है तुमसे

हाथ का काम छोड़कर
बैठ मत जाओ
ऐसे गुम-सुम से

भवानी प्रसाद मिश्रा

Thursday, February 5, 2009

ऑस्कर की ओर बदते "स्लम डॉग" के कदम ...... .... .. .

ऑस्कर की ओर बदते "स्लम डॉग" के कदम .... ........
रहमान के "गोल्डन ग्लोब" जीतने के बाद विश्व भर में "स्लमडॉग मिलेनियर" खासी सुर्खियों में आ गई है..... एक साथ ४ गोल्डन ग्लोब जीतना किसी भी फ़िल्म निर्माता के लिए एक बड़ी उपलब्धि है...इसको सही से साकार किया है " डैनी बोयल " ने... डैनी एक विदेशी फ़िल्म निर्देशक है.... उनकी स्लम डॉग अब भारत में भी रिलीज़ हो गई है... रहमान के गोल्डन ग्लोब जीतने के बाद से ही हमारे देश में जश्न का माहौल बन गया था ...यही कारण था वह भारत में फ़िल्म के रिलीज़ होने की प्रतीक्षा करते रहे... यह उत्साह उस समय दुगना हो गया जब स्लम डॉग को ऑस्कर के लिए १० नामांकन मिल गए...मीडिया रहमान का गुणगान करने में लग गया .... डैनी का भी देश विदेशों में जोर शोर से नाम गूजा.... अभी डैनी की सफलता में एक अध्याय उस समय जुड़ गया जब अमेरिका में एक और अवार्ड बीते दिनों उनकी झोली में चले गया...जहाँ तक फ़िल्म की कहानी की बात है तो इस फ़िल्म का कथानक "विकास स्वरूप " के भारतीय उपन्यास "क्यू एंड ए" पर आधारित है विकास ने २००३ में यह उपन्यास लिखा था जिसका ३५ भाषाओ में अनुवाद हो चुका है इस उपन्यास ने विकास को बहुत चर्चित बना दिया है विकास भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी है जिनकी इस कृति को अफ्रीका में " बोआयाकी " सम्मान से भी नवाजा जा चुका है... अब स्लम डॉग की धूम के बाद उनके इस उपन्यास की बिक्री मार्केट में तेजी से बढ गई है स्लम डॉग सच्चे भारत की तस्वीर को बयां करती है लेकिन भारत के एक बड़े वर्ग को चमचमाते भारत की यह बुलंद तस्वीर रास नही आ रही है इस कारण से यह फ़िल्म विवादों में घिरती जा रही हैकुछ लोगो का मानना है कि इस फ़िल्म में भारत की गरीबी ओर झोपडियो का जीवन मसालेदार अंदाज में फिल्माया है जिस कारण पश्चिम में इसके चाहने वालो की संख्या बढ रही हैवैसे तो यह फ़िल्म विकास के उपन्यास पर आधारित है लेकिन इसकी कहानी उससे हूबहू मेल नही खाती विकास के उपन्यास का नायक जहाँ " राम थॉमस है वही डैनी का नायक "जमाल" है इसी तरह से राम की प्रेमिका उपन्यास में जहाँ नीता है , फ़िल्म में यह "लतिका " है उपन्यास की कहानी कुछ और ही बयां करती है उसमे दिखाया गया है किस प्रकार से धारावी में पला राम नाम का युवक शो शुरू होने के कुछ हफ्ते पहले ही एक अरब की मोटी रकम जीत जाता है लेकिन यहाँ पर एक नई समस्या शो के आयोजकों के सामने आजाती है जब उनके पास राम को देने के लिए रकम नही होती हैअतः वह राम को जालसाज साबित करने में लग जाते है इस दरमियान एक महिला वकील उसकी मदद करने को आगे आती है यह सब फ़िल्म में नही है जो भी हो इस फ़िल्म को देखने के बाद बुलंद भारत की असली तस्वीर देखीजा सकती है आज भी भारत की एक बड़ी आबादी स्लम में रहती है उनका गुजर बसर किस तरह से होता है यह सब हम इस फ़िल्म में देख सकते है गरीबी को लेकर चाहे कुछ भी कहा जा रहा हो लेकिन यह भारत की एक सच्चाई है हम इसको नकार नही सकते आज भी देश की बड़ी आबादी भूख और बेगारी से जूझ रही है उसे दो जून की रोटी भी सही से नसीब नही होती.... इसको पाने के लिए हाड मांस एक करना पड़ता हैफ़िल्म की कहानी "जमाल " और " सलीम" नमक दो युवको के इर्द गिर्द घूमती है स्लम डॉग दोनों की बचपन से जवानी तक के सफर की असली हकीकत को बयां करती हैफ़िल्म में दिखाया गया है एक अदना सा दिखने वाला युवक "जमाल" किस तरह से २ करोड़ जीत जाता हैदोनों के बचपन की दास्ताँ दर्द भरी है बचपन में दंगो की आग में इनकी माँ का कत्ल हो गया जिसके चलते अलग राह पकड़ने को मजबूर होना पड़ा दंगो के बाद दोनों युवक अंडरवर्ल्ड के शिकंजे में फस जाते है जिसमे उनकी सखी लतिका भी शामिलहो जाती है दोनों इसके चंगुल से छूट जाते है लेकिन लतिका वही की वही फस जाती है देश में बच्चो के अपहरण करने वालो का गिरोह किस कदर सक्रिय है यह फ़िल्म में दिखाया गया है वह बच्चो से अपने मुताबिक काम कराने से कोई गुरेज नही करता वहां से भागने के बाद जमाल की राह तो अलग हो जाती है लेकिन सलीम फिर से गिरोह वालो के चंगुल में फस जाता है जहाँ पर लतिका भी उसके साथ है बाद में जमाल केबीसी के शो में भाग लेता है जहाँ पर सभी सवालों के जवाब देकर वह "मिलेनियर " बन जाता है लेकिन लोग इस बात को नही पचा पाते की कैसे स्लम से आने वाला एक युवक सही जवाब दे देता है ? लेकिन "जमाल" अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर सवालो के जवाब दे देता है अन्तिम सवाल पूछने से पहले पुलिस उसको प्रताडित करने से बाज नही आती लेकिन जमाल का आत्मविश्वास देखते ही बनता है उसकी माने तो "मुझे जवाब आता है" पुलिस उसको पकड़कर इस पहेली का हल खोजने की कोशिस करती है लेकिन उसको सफलता नही मिल पाती "जमाल" के भाग्य में करोड़पति बनना लिखा होता है वह बनकर रहता हैजहाँ फ़िल्म में छोटे जमाल की भूमिका में आयुस उतरे है वही देव पटेल ने बड़े जमाल की भूमिका निभाई है छोटे जमाल के द्वारा किया गया एक शोट ध्यान खीचता है जिसमे जमाल अपने प्रिय अभिनेता " बिग बी " के दर्शनों को पाने के लिए इस कदर बेताब रहता है की वह "गटर" में छलांग लगाकर भीड़ में अपने अंकल के ऑटो ग्राप के लिए हेलीकाप्टर के पास दोड़ता है इरफान खान, अनिल कपूर, फ्रीदा पिंटो का अभिनय भी फ़िल्म में लाजावाब है गुलजार के गाने झूमने को मजबूर कर देते है साथ ही अपने "रहमान " का तो क्या कहना .... जय हो जय हो .... हाथी घोड़ा पालकी जय बोलो रहमान की .....रहमान के संगीत की प्रशंसा में शब्द नही है .... इस बार ऑस्कर पाने की उनसे आशाए है सभी को ... अब २२ फरवरी का इंतजार है .... दिल थामकर बैठिये... सब्र का फल मीठा होता है .....अगर उनको यह मिल जात है तो वह पहले भारतीय होंगे जिसने किसी विदेशी की फ़िल्म में काम कर इसको पाया १० नामांकनों पर सबकी नजरें लगी है भारत में जो लोग स्लम डॉग की आलोचना कर रहे है उनको यह सोचना चाहिए सच्चाई से आप अपने को अलग नही कर सकते ... असली हिंदुस्तान फुटपाथ पर आबाद है सबसे दुःख की बात तो यह है स्लम डॉग भारत का उपन्यास है और इस पर फ़िल्म विदेशी बना रहा है एक सवाल जो हमको बार बार कचोट रहा है वह यह है हमारे " होलीवूड " वाले कब तक "प्यार के फंडो" पर बन रही फिल्मो से इतर सोचना शुरू करेंगे ? इस लीक से हटकर सोचने का माद्दा हमारे यहाँ ले देकर एक व्यक्ति ने निभाया है उसका नाम सत्यजीत ... सत्यजीत ने इस नब्ज को अपनी फिल्मो में सही से पकड़ा लेकिन इसके चलते उनको भी आलोचना का शिकार होना पड़ा था नरगिस के द्वारा पहले भी सत्य जीत राय की फिल्मो की आलोचना की जाती रही है उनका मानना था भारत की गरीबी को सत्य जीत विदेशों में बेच कर आते .... खैर जो भी हो हाल के कुछ वर्षो में भारत का नाम ऊँचा हुआ है॥ अपने "अरविन्द ओडीगा " व्हाइट टायगर " पर पुरस्कार जीतकर भारत का झंडा बुलंद कर चुके ... अब बारी विकास के उपन्यास की है .... क्या हुआ ऑस्कर अगर स्लम डॉग को ही मिले उसकी कहानी तो स्वरूप की ही .......

पत्रिकाओं के विशेषांक

लगभग हर तीसरे महीने
हिन्दी की नामी पत्रिकाएँ
"सेक्स सर्वे विशेषांक"
छप जाती हैं
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सेक्स सर्वे: उचित या अनुचित ?
ये मेरा विषय नही
लेकिन कभी-कभी
इन पत्रिकाओं को देख कर
कुछ बातें हैं जो अखरती हैं
यूँ लगता ये पत्रिकाएँ
'सेक्स सर्वे' नही करती
'सेक्स सर्व' करती हैं

Wednesday, February 4, 2009

माया की मायाजाल समझ न आए

१५वी लोकसभा चुनाव की रणभेरी गूंजने लगी है। राजनितिक पार्टियों की तैयारियां पुरे शबाब पर है। कोई किसी पार्टी में सेंध मरने की जुगत में है तो तीसरा भी चोथे पर ललचाई नज़रों से देख रहा है। देश को दिशा देने वाली स्थली लोकसभा , खैर अब खरीद-फ़रोख्त की दुकान बनती जा रही है, को सबसे ज्यादा शौर्यवीर रूपी सांसद उत्तेर्प्रदेश से मिलते है। भाई वहा अभी मायावती की टूटी बोल रही है। उनकी नज़र भी देश के सिंहासन पर गाड़ी हुई है। इस दंगल को जितने के लिए अपना अचूक तीर सोशल इंजीनियरिंग से लड़ना चाहती है। अब इससे कितना फायदा होगा हाल-फिलहाल हुए ६ राज्य विधानसभाओ के परिणाम गवाह हैं। वैसे तो उनका यह तीर यूपी चुनाव २००७ में अपना रंग जमा चुका है। लेकिन एक बात जो खटकती है वो ये है कि मायावती दलित नेता हैं बात करती है दलितों को मुख्या धारा में लाने की। उनके इस कदम से दलित बिरादरी को कितना फायदा हुआ है? उनके आलावा किस दलित नेता का नाम राजनीती की लहर में है? महासचिव भी सतीश मिश्रा है, सवर्ण हैं। बात ये नही है कि उनकी पार्टी में ब्राम्हण, राजपूत भूमिहार, दलित सभी शामिल हैं। मुद्दा तो यह है कि दलित बेचारे अभी भी जूझ रहे हैं। टिकट सवर्णों को बाटे जा रहे है, धन-बल पर वो जीत भी रहे हैं। स्वर्गीय कांशीराम ने जब १९८४ में बहुजन समाज पार्टी की नीव राखी तो उसके कुछ उद्देश्य भी बनाये, ये सवर्ण नेता क्या उन उद्देश्यों को मन रहे है? या सम्मान करते हैं? वो तो सरेआम सवर्ण होने के नाम पर दबंगई करते देखे जा सकते हैं। औरैया के विधायक शेखर तिवारी को ही देख लिया जाए। मायावती की बात में दम तब दीखता जब आरक्षित क्षेत्र से बसपा उम्मीदवार को जितवा दे, साथ ही गैरदलित क्षेत्र में भी दलितों का परचम लहरा देती। जो चल आज मायावती चल रही है वो बरसों पहले कांग्रेस और भाजपा/जनसंघ चल चुकी हैं। तभी दलित मसीहा डॉक्टर भिम्राओ आंबेडकर इन्ही समीकरणों के कर्ण १९४५-४६, और १९५२ का लोकसभा चुनाव हार गए थे। इसी कर्ण आंबेडकर ने आरक्षण ख़त्म करने की बात तक कह ढली थी। वो दलितों को दूसरी पार्टी की बैसाखी नही वरन ख़ुद का गौरव और मजबूती दिलाना चाहते थे। शायद आंबेडकर की आत्मा, मायावती के इतने बड़े नेता banne के bawjud भी दलित utthan के लिए tadap रही होगी।

neha gupta ,भोपाल

Monday, February 2, 2009

गांधी की टी आर पी

मेरा यह लेख हाल ही में गांधी जी की पुण्यतिथि पर मीडिया की कमज़ोर याददाश्त को लेकर लिखा गया; (देखें http://www.taazahavaa.blogspot.com/ और फिर मीडिया का मोतियाबिंद श्रृंखला में इसे जनसत्ता लखनऊ के अम्बरीश जी ने अपने ब्लॉग विरोध पर प्रकाशित किया ; देखें http://virodh.blogspot.com/2009/01/blog-post_31.html ..)...

मीडिया के अंतर्विरोधों और दोहरे मानदंडो को लेकर विरोध पर लगातार बहस हो रही है ।इसे प्रिंट और टीवी के खेमो में नही बाँटना चाहिए क्योकि प्रिंट में भी कम प्रतिभाशाली लोग नही है .संपादको की परिक्रमा करने वाला तबका अनादी काल से सक्रिय है.इसी कड़ी में एक और लेख.

अंग्रजो से जीते पर टीआरपी से हार गए गाँधी
आज गांधी जी की पुण्यतिथि थी ....अब आप कहेंगे की हम जानते हैं ....तो कैसे मान लें की आप जानते थे ? आपने ना तो उस पर ब्लॉग लिखा...न ही टिप्पणी की और ना ही कुछ और ...फिर क्या सबूत है की आप जानते थे ? अच्छा अच्छा आप जानते थे पर आप भूल गए थे। बहुत बढ़िया फिर मुंबई हमले के बाद से अभी तक नेताओं को क्यों गरिया रहे हो ? कोई हक है क्या ?
खैर आपसे बहस नहीं करनी है और यह बहस का मुद्दा होना भी नहीं चाहिए क्यूंकि जिस भी मुद्दे पर हमारे देश में एक बार बहस शुरू हो जाती है वो फिर बहस में ही जिंदा रह जाता है बाकी ख़त्म हो जाता है। हाँ तो बात कर रहा था मैं बापू की पुण्य तिथि की, आज सुबह से प्रतीक्षा में था की वो मीडिया जिसका मैं हिस्सा हूँ और जो आज का सबसे बड़ा बहस का मुद्दा है; क्या करता है आज के दिन। सुबह अखबार उठाया तो हिन्दुस्तान जो देश का अलमबरदार बनने के दम भरता है उसके पहले पन्ने पर गांधी की एक तस्वीर तक के दर्शन नहीं हुए.....पहला झटका ......बापू का स्कोर ....शून्य पर एक .....दिल निराशा से भर गया, दूसरे पन्ने पर एक सरकारी विज्ञापन था सो मतलब की बापू अगर बिकते हैं तो हैं नहीं तो नहीं......
खैर जैसे तैसे हिम्मत कर के रिमोट उठाया, दूरदर्शन नहीं लगाया .....मालूम था की वो याद रखेगा। सारे चैनल पलट डाले पर कहीं भी कुछ नहीं। इस समय रात हो चली है और अभी तक किसी भी टीवी चैनल ने बापू को याद करने की ज़हमत नहीं उठाई है। हमारे चैनल ने भी नहीं हाँ रात दस बजे के कार्यक्रम की शुरुआत करने के लिए उनको ज़रूर शामिल किया गया । कल ही इंडिया टीवी टी आर पी में सबसे ऊपर पहुँचा है और उनके एक शीर्ष पुरूष जो अब शिखर पुरूष होने के भ्रम में हैं, उन्होंने कहा की यह खबरों की जीत है।
अब मैं भ्रम में हूँ की क्या वाकई गांधी ख़बर नहीं रहे.....या ख़बर अब ख़बर नहीं रही.....क्या पंकज श्रीवास्तव जी मुझसे सहमत हैं....उन्होंने अभी एक लेख लिखा है, और संजीव पालीवाल जी जिन्होंने अभी इलेक्ट्रोनिक मीडिया की ज़िम्मेदारी के ढोल पीटे थे ब्लोगिया बहस में वे क्या बताएंगे कि उनके चैनल ने क्या किया ? .....शायद मैं यह ब्लॉग इसलिए लिख रहा हूँ की मैं चैनल में बहुत छोटे पद पर हूँ और नीति निर्माता नहीं हूँ पर गांधी तो राष्ट्र निर्माता थे उनको भुला दिया......भूल गए कह देने से क्या काम चलेगा ....क्या हम अपनी जिम्मेदारियों को याद रखने का ढोंग करके ख़ुद ही को तो नहीं धोखा देते हैं.....क्या पत्रकारिता केवल बिकाऊ ख़बर है ? फिर ये समाज सेवा का ढोंग क्यूँ ?
यही सवाल अखबार वालों से भी है की क्या अगर आज विज्ञापन नहीं मिलते तो अखबार में गांधी भी नहीं दीखते .........? मैं परेशान हूँ, दुखी भी और कुंठित भी.....मौका मिला तो इसे बदलना चाहूँगा पर क्या मेरे जैसे कथित आदर्शवादी को कोई मौका देगा ? हो सकता है कि मेरे इन विचारों को पढ़ने के बाद मेरे लिए कई चैनलों में नौकरी पाना भी मुश्किल हो जाए।
* आज विभिन्न चैनलों द्बारा प्रसारित कार्यक्रम.....
चांद और फिजा की प्रेम कहानी का सच
आज तक
सुष्मिता बनेंगी झांसी की रानी जी न्यूज़
फिरौती का आयडिया
मामा-भांजे की करतूत
एन डी टीवी इंडिया
बदल गई महब्बत की फिजा आई बी एन सेवेन
राजू श्रीवास्तव को धमकी इंडिया टीवी

अब आप समझ गए होंगे की क्या है गाँधी की टी आर पी
उत्तर की प्रतीक्षा में
(कुछ चैनलों ने गाँधी जी को औपचारिकता निभाने के लिए याद ज़रूर किया पर वह औपचारिकता ही रही १० सेकेण्ड के आस पास.......क्या चाँद मोहम्मद अगर दिन भर के स्लोट के अधिकारी थे तो राष्ट्रपिता आधे घंटे के भी नहीं ? मैं यह जानता हूं कि मेरे कई वरिष्ठ साथियों को यह शायद पसंद न आए पर यह सच है और मुझे लगता है कि अपनी ग़लतियां मानने और कमियां पहचानने को साहस एक सच्चे पत्रकार में ही हो सकता है)

मयंक सक्सेना
लेखक जी न्यूज़ से जुड़े है .

Sunday, February 1, 2009

पिछले २४ घंटे ....भारतीय टेनिस और क्रिकेट के नाम ....

हालांकि क्रिकेट और टेनिस को अन्य खेलों पर तरजीह दिए जाने को लेकर तमाम विवाद हैं, पर पिछले २४ घंटे तो भारत और इन खेलों में भारतीय झंडों के ही नाम रहे। मैं इस बात का हिमायती हूँ की क्रिकेट और टेनिस की वजह से बाकी खेलों की उपेक्षा हो रही है और यह सही नहीं पर मैं आज भी क्रिकेट खेलने और देखने का बेहद शौकीन हूँ......खैर व्यक्तिगत पसंद अलग बात है पर पिछले २४ घंटे में भारत ने क्रिकेट और टेनिस दोनों में ही अपनी कीर्ति फहरा दी, सो देखें कुछ तसवीरें इन शानदार २४ घंटों की
यूकी ऑस्ट्रेलियन ओपन के जूनियर चैंपियन
भारत के यूकी भांबरी ने शनिवार को ऑस्ट्रेलियन ओपन का लड़कों का ख़िताब जीत लिया. ऑस्ट्रेलियन ओपन में ये खिताब जीतने वाले यूकी पहले भारतीय हैं.

महेंद्र सिंह धोनी बने नंबर वन
महेंद्र सिंह धोनी एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद की रैंकिंग में शीर्ष पर


भूपति सानिया मिश्रित युगल चैम्पियन
महेश भूपति और सानिया मिर्ज़ा की जोड़ी ने ऑस्ट्रेलियन ओपन का मिश्रित युगल ख़िताब जीत लिया


कोलम्बो वन डे में भारत ने लंका को फिर पीटा
युवराज सिंह की बल्लेबाज़ी और ईशांत शर्मा की गेंदबाज़ी की बदौलत भारत ने कोलंबो में 15 रनों से जीत हासिल की

आप सब को इन उपलब्धियों की बधाई .....

गूगल बाबा का वरदान - हिन्दी टंकण औजार

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