शोहरत का चरम आदमी से बचकानी हरकतें कराता है...जहां गुणवत्ता पर ज़िद हावी होने लगती है। शाहरुख की ताज़ा फिल्म उनकी इसी ज़िद का नतीज़ा है..जिसमे उन्होंने अपने दरबारी लेखकों से अपना खूब गुणगान कराया। शायद वे भूल गये..कि आदमी का स्वार्थ उसके अपने मनोरंजन से होता है...शाहरूख लीला देखने मे उसकी कोई दिलचस्पी नहीं।
शाहरुख आप बेहद उम्दा अदाकार है पर फिल्म निर्माण मे अपना दिमाग क्युं ठूसते हैं...खुद के गुणगान और अन्य सह कलाकारों पर फब्तियां कसने से महानता का जन्म नही होता..अपने उद्देश्य महान बनाने होंगे।
दरअसल, आप लोगो की ज़िद हादसों को जन्म देती है...नतीज़न दर्शकों को विशुद्ध मनोरंजन नहीं मिल पाता...सितारों की इस बचकानी होड़ के कारण दर्शकों को ‘सिंह इज़ किंग’ ‘चांदनी चौक...’ और ‘बिल्लु’ जैसे हादसे झेलना होता है। वो बेचारा इन सितारों पर विश्वास करके सिनेमा जाता है पर उसके हाथ निराशा लगती है। दुख इस बात का भी है..कि शाहरुख की इस गंदी नाली के प्रवाह ने अभिनय की पाठशाला ‘इरफान’ को भी बहा लिया। जो ‘नेमसेक’ ‘मकबूल’ जैसी सशक्त फिल्मो के लिए जाने जाते है। फिर भी इरफान ने अपने काम से न्याय किया और फिल्म के अंत मे शाहरुख के साथ वाले इकलौते सीन मे वे सुपरस्टार से फीके नज़र नहीं आए।
बहरहाल, फिल्म की सिनेमेटोग्राफी बढ़िया है..अंतिम दृष्यों मे शाहरुख ने भी प्रभावित किया है...रोने-धोने वाले दृष्यों मे उन्हें महारत हासिल है। पर कई जगह खुद के प्रदर्शन मे अतिरेक नज़र आया है।
शाहरुख, हम आपसे स्वदेश, चकदे, वीरज़ारा..जैसी फिल्मों की ही उम्मीद करते है...युं हादसों को जन्म न दो।
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