जैसे-जैसे समय गुजरता गया, धर्म नमक प्रतीक इंसानी फितरत पर हावी होने लगा। इसकी आक्रामकता इतनी बढ़ गई है की मनुष्य इससे इतर सोच ही नही पाता। अगर अमुक धर्म की जंजीरे ज्यादा जकड़ने लगे तो दूसरे धर्म की ओर रुख़ करो। ये तो फिर से गड्ढे में गिराने वाली बात हुई। हालत तो जस की तस् रहती है। न पहला धर्म अपने नियमो में सुधर लायेगा और न दूसरा धर्म इज्ज़त बख्शेगा. यह तो मन का भ्रम है कि उस डाल पर ज़्यादा सुकून मिल जाएगा. सभी धर्म एक ही बातें कहते हैं. बात तो यह है की सभी धर्मो के कुछ-कुछ नियम कैंसरग्रस्त हो गए हैं, इन्हे काट डालना ही बेहतर उपाय है. जो इन्सान के हक में न हो उसे माना ही क्यों जाए? जब मानव के पैर धरती पर पड़े तो क्या कोई धर्म था? जवाब है नही. वैदिक काल में कर्म के आधार पर जाति का निर्धारण होता था . ये विभाजन भी समाज निर्माण के लिए ही किया गया था. लेकिन उत्तर वैदिक (१००० इ पू ) में जाति जन्म आधारित हो गई. यही से हैवानियत के तांडव का भी का जन्म हो जाता है . ७०० इ तक लगभग ईसाई ,बौद्ध, जैन इस्लाम आदि धर्मों का जन्म हो हो चुका था. मूल बातें तो सबकी एक ही है. फर्क तो सिर्फ थोड़े बहुत नियम कानून का है. वैसे तो सभी धर्मो में जाति विभाजन है, लेकिन हिंदू धर्म में इसका भयावह रूप देखने को मिलाता है. बात चाहे प्राचीन कल की हो या मध्यकालीन या फिर आधुनिक कल, अगडों ने पिछडो पर बड़ा अत्याचार बरपाया है. उदहारण तो ऐसे-ऐसे है की देखकर ,सुनकर और पढ़कर रोया जाए. उस वक्त छोटी जाति की दशा ऐसी थी जैसे इंसानी जान की कोई कीमत नही है सड़क पे पड़ा निरीह प्राणी हो, जिस पर जितना जी चाहे आत्याचार कर लो कोई फर्क नही पड़ता . इन सब रूढियों से ही उबकर बौद्ध धर्म अपनाने लगे. अगर कहे कि हो रहे जुल्मों पर यह करारा थप्पड़ था तो ग़लत न होगा. ७१२ इसवी में जब इस्लाम आया तो लोग कुछ जबरदस्ती तो कुछ ख़ुद से इस्लाम अपनाने लिए. १४९८ में वास्कोडिगामा जी जब भारत आए तो लोगों ने ईसाई धर्म की ओर रुख़ किया. इनके पाले में भी निचली जातियो को सुकून नही मिला अब अब इस्लाम को ही ले लिया जाए- इसमे भी दो श्रेणियां है एक अशरफ (अगडों का समूह) दूसरा अज्लाफ जिसका मतलब ही- कमीना,अभागा,नीच होता है. इसमे दर्जी, जुलाहा, फकीर आते हैं. अब ईसाइयत भी पीछे नही हैं. उसमे भी उच्च तबको के लिए चर्च पूजा का समय अलग था और प्रवेश के रस्ते भी. हाँ, लेकिन, इस को नज़रंदाज़ नही किया जा सकता की इन धर्मो ने थोडी बहुत धर्मान्तरित लोगो को सुविधाए तो दी ही हैं. बात तो असली यह है की उनके स्टार में कोई फर्क नही आया . जो थे वाही रह गए. कहते हैं इतिहास का सबसे बड़ा धर्मान्न्तरण -१९५६ विजयादशमी के दिन हुआ. जब डॉ. भीमराव अम्बेडकर अपने लाख-सवा लाख दलितों को लेकर बौद्ध धर्म ग्रहण किया था. जब अम्बेडकर के मन में परिवर्तन का कीडा अपने पर (पंख ) मार रहा था, तो हैदराबाद के निजाम ने उन्हें इस्लाम अपनाने का प्रस्ताव भेजा साथ में ४ करोड़ रु भी. आंबेडकर ने इसे ठुकरा दिया, कहा कि जिस धर्म में स्त्रियों को आज़ादी नही, हम उधर देख भी नही सकते. उन्होंने बौद्ध भिक्षुयो के वर्चस्व पर भी आंसू बहाए हैं. बात करे हाल-फिलहाल कंधमाल की जहाँ धार्मिक तांडव का नंगा नाच खेला गया. पादरी ग्राहम स्टेन्स और वीएचपी नेता लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या ने, लोगो के बीच दो धारी तलवार खींच दी. न जाने कितनी जाने चली गई, खून, की नदिया तक बह गई. लेकिन धर्म के नियमो में परिवर्तन आया, बेशक नही. धर्म के अलमबरदार अपनी वर्चस्वता कैसे खो सकते हैं? उनका भौंडापन जो सामने आ जाएगा. अरे ये सोचना चाहिए कि वो बेचारे छोटी जाति और भोले इसाई जिनका दिमाग सिर्फ दो जून की रोटी जुटाने में लगा रहता है वो हत्या कैसे कर सकते हैं? काम तो बड़े लोग करते है लेकिन पिसते है,बेचारे ये मासूम. ये इसी भी कभी हिंदू या मुसलमान था. प्रश्न यह है कि क्या सिर्फ प्रतीक (आस्था) बदल लेने से इंसानी भाव बदल जाते है. ऐसे प्रतीक को माने ही क्यों जो इंसानी नज़रो में हैवानियत का सैलाब भर देता हो. इश्वर,खुदा, यीशु ने तो प्रेम,सौहार्द, एक का संदेश ही सुनाया था. हम सबसे आगे, हमारा धर्म सबसे ऊपर के चक्कर में मानव वो मूल ही खोता जा रहा है .
नेहा गुप्ता ,भोपाल.
प्रिय नेहा शुभकामनायें।।।।। मैंने इतनी बैलेंस टिप्पणी ज़िंदगी में पहली बार पढ़ी है।...धर्म जो बेहद संजीदा और गंभीर मामला होता है इस पर टिप्पणी करना तलवार की धार पे चलने के बराबर है..लेकिन आपने बड़ी चतुराई से बात को कह भी दिया और समझा भी दिया मैं आपके इस प्रयास का तहेदिल से शुक्रिया करता हूँ..क्योंकि अक्सर जो भी धर्म की बात करते है..वो सारी बुराइयां सिर्फ हिंदू में ही पाते हैं। बिना बाप का धर्म कहे या कई बापों का धर्म जो भी कारण हो बहरहाल है खतरनाक। लेकिन आपकी टिप्पणी में जो तत्परता देखने को मिली वो शायद मिलना मुश्किल है....खैर आपको एक स्वस्थ लेख और शोधपूर्ण विचाराभिव्यक्ति के लिए साधुवाद....आपका शुभेच्छू....
ReplyDeleteप्रिय नेहा शुभकामनायें।।।।। मैंने इतनी बैलेंस टिप्पणी ज़िंदगी में पहली बार पढ़ी है।...धर्म जो बेहद संजीदा और गंभीर मामला होता है इस पर टिप्पणी करना तलवार की धार पे चलने के बराबर है..लेकिन आपने बड़ी चतुराई से बात को कह भी दिया और समझा भी दिया मैं आपके इस प्रयास का तहेदिल से शुक्रिया करता हूँ..क्योंकि अक्सर जो भी धर्म की बात करते है..वो सारी बुराइयां सिर्फ हिंदू में ही पाते हैं। बिना बाप का धर्म कहे या कई बापों का धर्म जो भी कारण हो बहरहाल है खतरनाक। लेकिन आपकी टिप्पणी में जो तत्परता देखने को मिली वो शायद मिलना मुश्किल है....खैर आपको एक स्वस्थ लेख और शोधपूर्ण विचाराभिव्यक्ति के लिए साधुवाद....आपका शुभेच्छू....
ReplyDeletebahut badhia likha hai. isi tarah likhte raho
ReplyDeleteकाफी संतुलित और गहराई समेटे हुआ विचार..
ReplyDeleteप्रशंसनीय