
कभी गौर से देखियेगा इस इस समाज सुधारक भीड़ में ज़्यादातर लोगों की शक्लें.....वे ज़्यादातर आवारा और फालतू लोगों की होती हैं, और जो इसे संस्कृति से जोड़ते है उन्हें यह जान लेना चाहिए कि बिना किसी अपराध के किसी का अपमान या शारीरिक प्रताड़ना ना तो सभ्यता है और ना ही संस्कृति। यहाँ संस्कृति के ठेकेदारों के उल्लेख करना चाहूंगा कि कुछ शताब्दियों पहले तक हमारी ही संस्कृति में यही समय बसंतोत्सव या मदनोत्सव के तौर पर मनाया जाता था, जिसे प्रेम और मदन (कामदेव) का त्यौहार माना जाता था.....यकीन नहीं हो तो थोडी और पढ़ाई करें और फिर प्रेम से ज्यादा दिक्कत हो खजुराहो के मंदिरों में आग लगा दें.....उन्हें क्यूँ कला और संस्कृति का प्रतीक मानते हैं.....खैर सच कहूँ तो नफरत है उन दोगले लोगों से है जो कल ख़ुद अपने साथ एक कन्या घुमा रहे थे पर आज उसी भीड़ में शामिल है............
कल वो भी शायद वहीं मिलें....
तुम हो आज़ादी के शौकीन
सकते घरों में बंद नहीं
पर घर में रह जाओ आज
उनको यह पसंद नहीं
या तो हो तैयार कि
जो चाहोगे करोगे
या यह सोचो बच निकलो
जो उनसे डरोगे
हाथों में लो हाथ
निकल जाओ तुम घर से
या इक दिन छुप जाओ
घर में उनके डर से
तुम कहते हो इश्क इसे
वो कहते नंगई
तुम ठहरे सीधे सादे
वो पक्के दंगई
तुम कह दोगे दिल की
ठेकेदार समाज के चिढ़ जाएंगे
लेकर लाठी डंडा सड़क पे
तुमसे भिड़ जाएंगे
अगले दिन मिल लेना
वो इससे बेहतर है
प्यार कभी भी कर सकते हो
इसमें क्या चक्कर है
अगले दिन भी हो सकता है
वो मिल जाएं
साथ की सीट पर बैठे
सिनेमा हॉल में आएं
पर अगले दिन
तुमसे कुछ न कह पाएंगे
साथ में अपनी प्रेयसी
जो लेकर आएंगे
जीवन की अवस्थाओं.....बचपन, यौवन और बुढापे में हर मानव की प्रवृत्ति एक ही सी होती है.....युवा प्रेम ही करेगा....जो उसे रोकते हैं वे झूठे हैं और जो युवा प्रेम ना करने का ढोंग करते हैं वे धोखा ख़ुद को देते हैं......किसी चीज़ का विरोध नाजायज़ नहीं है पर विरोध का तरीका नाजायज़ हो सकता है.....इन तरीकों से बचें.....आप स्वतंत्र हैं पर जहाँ दूसरे की आज़ादी शुरू होती है आपकी आज़ादी ख़त्म हो जाती है !
जैसा मेरा अनुज हिमांशु लिखता है,
जीवन में हर एक मनुज,
अलग तरह से पलता है ।
लेकिन हर मानव में जीवन,
एक तरह से ढलता है ।
हमें तो कम से कम आपसे सहमत होना ही पड़ेगा। हा हा। बिल्कुल उचित कहा जी आपने।
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