१५वी लोकसभा चुनाव की रणभेरी गूंजने लगी है। राजनितिक पार्टियों की तैयारियां पुरे शबाब पर है। कोई किसी पार्टी में सेंध मरने की जुगत में है तो तीसरा भी चोथे पर ललचाई नज़रों से देख रहा है। देश को दिशा देने वाली स्थली लोकसभा , खैर अब खरीद-फ़रोख्त की दुकान बनती जा रही है, को सबसे ज्यादा शौर्यवीर रूपी सांसद उत्तेर्प्रदेश से मिलते है। भाई वहा अभी मायावती की टूटी बोल रही है। उनकी नज़र भी देश के सिंहासन पर गाड़ी हुई है। इस दंगल को जितने के लिए अपना अचूक तीर सोशल इंजीनियरिंग से लड़ना चाहती है। अब इससे कितना फायदा होगा हाल-फिलहाल हुए ६ राज्य विधानसभाओ के परिणाम गवाह हैं। वैसे तो उनका यह तीर यूपी चुनाव २००७ में अपना रंग जमा चुका है। लेकिन एक बात जो खटकती है वो ये है कि मायावती दलित नेता हैं बात करती है दलितों को मुख्या धारा में लाने की। उनके इस कदम से दलित बिरादरी को कितना फायदा हुआ है? उनके आलावा किस दलित नेता का नाम राजनीती की लहर में है? महासचिव भी सतीश मिश्रा है, सवर्ण हैं। बात ये नही है कि उनकी पार्टी में ब्राम्हण, राजपूत भूमिहार, दलित सभी शामिल हैं। मुद्दा तो यह है कि दलित बेचारे अभी भी जूझ रहे हैं। टिकट सवर्णों को बाटे जा रहे है, धन-बल पर वो जीत भी रहे हैं। स्वर्गीय कांशीराम ने जब १९८४ में बहुजन समाज पार्टी की नीव राखी तो उसके कुछ उद्देश्य भी बनाये, ये सवर्ण नेता क्या उन उद्देश्यों को मन रहे है? या सम्मान करते हैं? वो तो सरेआम सवर्ण होने के नाम पर दबंगई करते देखे जा सकते हैं। औरैया के विधायक शेखर तिवारी को ही देख लिया जाए। मायावती की बात में दम तब दीखता जब आरक्षित क्षेत्र से बसपा उम्मीदवार को जितवा दे, साथ ही गैरदलित क्षेत्र में भी दलितों का परचम लहरा देती। जो चल आज मायावती चल रही है वो बरसों पहले कांग्रेस और भाजपा/जनसंघ चल चुकी हैं। तभी दलित मसीहा डॉक्टर भिम्राओ आंबेडकर इन्ही समीकरणों के कर्ण १९४५-४६, और १९५२ का लोकसभा चुनाव हार गए थे। इसी कर्ण आंबेडकर ने आरक्षण ख़त्म करने की बात तक कह ढली थी। वो दलितों को दूसरी पार्टी की बैसाखी नही वरन ख़ुद का गौरव और मजबूती दिलाना चाहते थे। शायद आंबेडकर की आत्मा, मायावती के इतने बड़े नेता banne के bawjud भी दलित utthan के लिए tadap रही होगी।
neha gupta ,भोपाल
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