खैर बात करते हैं मोहब्बत की तो कई जोड़े तो कल सुरक्षित तरीके से प्रेम दिवस मना कर अपने अपने घर लौट लिए पर कई ने मोहब्बत के लिए बड़ी कुर्बानियां दी। कुर्बानियां ऐसी ऐसी कि आप के दिल, हिल जायेंगे......एक की तो गधे से शादी करा दी गई, बेचारा गिड़गिडाता रहा कि कम से कम गधी ही ले आओ पर एक ना सुनी गई और दोनों के मंगलमय दाम्पत्य जीवन के आशीर्वादों के साथ उन्हें विदा किया गया। एक और तरीका निकाला गया कि प्रेमी युवक को प्रेमिका से ही राखी बंधा दी गई मतलब जो डोली लेने आया था अब डोली देने जायेगा......ये लो आए थे हरी भजन को ओटन लगे कपास !
अच्छा एक और बढ़िया चीज़ हुई कि एक वानरसेना ने ऐलान किया कि जो भी कल के दिन घूमता हुआ पाया गया (मतलब जोड़े में नर-मादा) उसका वहीं विवाह करा देंगे, तो कई गरीबी रेखा के नीचे के और भाग के शादी करने में कतरा रहे युगल दिन भर उनको ढूंढते रहे पर वो मिले नहीं तो निराशा हाथ लगी ..... ऐसे युगलों का मानना था कि मुतालिक के चेले मिल जाते तो उनके हाथ पीले और चेहरे लाल हो जाते और यह सच्ची समाज सेवा भी होती। खैर विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि वानरसेना अपने एक अग्रज का अनुकरण करते हुए बसंत मनाने के लिए गोवा गई हुई है।
अब इतनी फालतू बातें कर ली हैं काम की बात तो कल प्रेम का प्रतीक दिवस था (वैसे तो वसंत का पूरा महीना ही प्रेम का है) हालांकि मैं मानता हूँ कि यह इतना चर्चित नहीं होता यदि इसका विरोध ना होता, तो आर्चीज़ वालों को इन वानारसेनाओं को अनुबंधित कर लेना चाहिए। हाँ अनुबंध में काम करेंगे तो ज्यादा संगठित तरीके से गैंग चला पायेंगे सेनाओं वाले और दोनों को फायदा रहेगा। चलते चलते प्रेम और प्रेम के वास्तविक रूप को कहती अज्ञेय की एक कविता जो मुझे कक्षा ग्यारह से ही अति प्रिय रही है,
आहुति
कब कहता हूं जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूं जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?
कांटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूं वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?
मैं कब कहता हूं मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?
मैं कब कहता हूं प्यार करूं तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?
मैं कब कहता हूं प्यार करूं तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?
मैं कब कहता हूं विजय करूं मेरा ऊंचा प्रासाद बने ?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?
पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?
मैं प्रस्तुत हूं चाहे मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !
अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है
मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !
मैं कहता हूं, मैं बढ़ता हूं, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूं
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूं
मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !
भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने
हीरानंद सच्चिदानंद वात्सायन अज्ञेय
तो बोलो वैलेंटाइन नाम की, जय बोलो श्री राम की
जय श्रीरामसेना की, जय हो उनके काम की
......यार श्री राम तो सीता माता को लाने के लिए रावण से लड़ गए थे, लंका पर चढ़ गए थे.....तुम डरपोक घर से ही नहीं निकले.......धत्त तेरे की
bahut achche.......
ReplyDeletebehad umda....
ReplyDeletemaza aa gaya pad ke
ReplyDeleteneha