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Thursday, September 30, 2010

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है...भाग-2


भाग एक से आगे....

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति बनते ही प्रो. बीके कुठियाला ने अंधों की तर्ज पर अपनों में रेवड़ियां बांटनी शुरु की, कुठियाला ने सबसे पहले अपने अधीन पीएचडी करने वाले छात्र सौरभ मालवीय को विवि में 12000 रुपए मानदेय पर रख लिया। यह नियुक्ति विधिवत प्रक्रिया के तहत नहीं की गई। और अब सौरभ मालवीय विश्वविद्यालय में जूनियर कुलपति की तरह घूमते और आदेश देते दिखते हैं।

पर ये पहला वाकया नहीं था, इससे पहले प्रो. कुठियाला ने कुरुक्षेत्र विवि और गुरु जंबेश्वर यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी हिसार में अपने कई मुंहलगों को पीएचडी भी करवा डाली थी। 4 अप्रैल 2010 को हुई एलुमनी मीट में भी विवि के एक पूर्व छात्र को पुस्तक के संपादन के लिए 20,000 रुपए दे दिए गए, इस पर भी सवाल उठते रहे। कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र विवि में भी प्रो. कुठियाला ने रीडर और डायरेक्टर का पद गलत तरीके हासिल किया।

इसकी शिकायत सितम्बर 2009 में राष्ट्रपति से भी की गई। इसी शिकायत के आधार पर 10 मार्च 2010 को मानव संसाधन मन्त्रालय के अन्तर्गत उच्च शिक्षा विजिलेंस सचिव केएस महाजन ने अपने पत्र क्रमांक 36012/31/ पीएस/2010- पीजी में लिखा कि एक माह के अन्दर इस सिलसिले में जो भी कार्रवाई की जाए उससे शिकायतकर्ता को सूचित किया जाए। लेकिन समय अवधि गुजरने के बाद भी जांच का पता नहीं चला। और जब तक कुछ हो पाता कुठियाला साहब भोपाल चले आए....

कुठियाला साहब ने आते ही पुराने छात्रों को एक छत के नीचे मिलाने के लिए 4 अप्रैल को एलुमनी मीट करवाई। पूर्व छात्रों के अनुभव का संग्रहण एक पुस्तक के रूप में किया गया। इसे मीट में बिक्री के लिए उपलब्ध कराया गया। एक हजार पुस्तकें प्रकाशित की गई। इनमें से सौ पुस्तकें भी नहीं बिक पाई। पुस्तक का संपादन विवि के एक पूर्व छात्र ने किया। उन्हें इस काम के लिए बीस हजार रुपए का भुगतान किया गया। एक बात और बताते चलें कि पूर्व छात्रों के अनुभव के नाम पर इन महोदय ने ज़्यादातर केवल अपने जानने वाले पूर्व छात्रों के अनुभव संग्रहित किए जबकि कई पूर्व छात्र तमाम बड़े संस्थानों में शीर्षतम पदों पर हैं, उनका कहीं नाम भी नहीं है।

विवि में पीएचडी के लिए रजिस्टर्ड सौरभ मालवीय विवि में ही नौकरी करने लगे। सौरभ को यह नौकरी पाने के लिए किसी प्रतियोगी परीक्षा या साक्षात्कार का सामना नहीं करना पड़ा। सौरभ जिनके अधीन पीएचडी कर रहे हैं, वे विवि के कुलपति हैं और इसीलिए सौरभ पूरे विश्वविद्यालय में जूनियर कुलपति के तौर पर टहलते और नसीहतें देते नज़र आ सकते हैं। जिनको यकीन न हो वो एक बार परिसर में जाकर देख आएं।

एक और शिष्य है इनके, कुरुक्षेत्र में प्रो. कुठियाला ने डायरेक्टर पद पर रहते हुए राजवीर सिंह को रीडर पद शिक्षण के अनुभव को देखते हुए रखा। उन्होंने अपने शिक्षण अनुभव में कुरुक्षेत्र विवि व गुरू जंबेश्वर विवि हिसार का अनुभव दिखाया, जबकि राजवीर हरियाणा जनसंपर्क विभाग में डिस्ट्रिक पब्लिक रिलेशन ऑफिसर पद पर कार्यरत थे। रीडर पद के इस भर्ती की स्क्रूटनी और सलेक्शन कमेटी दोनों में प्रो. कुठियाला सदस्य थे। कुठियाला ने इस तथ्य को जानबूझकर नज़रअन्दाज किया, क्योंकि कुठियाला पिछले 1 वर्षों से इन दोनों विवि में विभागाध्यक्ष के तौर पर जुड़े रहे हैं। इन दोनों विवि में राजवीर नाम का कोई नियमित अध्यापक नहीं है। इसके खिलाफ कुरुक्षेत्र न्यायालय में मामला विचारधीन है। इसके अलावा कुरुक्षेत्र विवि में राजवीर सिंह के प्रोफेसर पद के नियुक्ति के खिलाफ न्यायालय में डॉ. प्रमोद कुमार जेना ने याचिका दायर कर रखी है।

प्रो. कुठियाला पर कुरुक्षेत्र विवि में अपने चहेतों को 2006 में पीएचडी कराने के भी आरोप लगे हैं। पीएचडी में अपनों को कम योग्यता पर रखने के लिए उमीदवार नीरज नैन और रविप्रकाश शर्मा ने कुरुक्षेत्र के अदालत में याचिका दायर की। विभागाध्यक्ष होने के नाते प्रवेश प्रक्रिया में गड़बड़ी के लिए प्रो. कुठियाला को कई बार पेशी में जाना पड़ा। अदालत में याचिका से चिढ़कर कुठियाला ने नीरज नैन को एमफिल में भी प्रवेश नहीं दिया। नीरज ने एमफिल में प्रवेश के लिए हाईकोर्ट में याचिका दायर कर कोर्ट डायरेक्शन लेकर दाखिला लिया। प्रो. कुठियाला ने अपने डायरेक्टर पद के कार्यकाल में अपने ही पीएचडी छात्र देवव्रत सिंह को रीडर बनाया। इसके खिलाफ भी पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में केस नंबर 210/2008 के तहत पिछले दो वर्षों से केस चल रहा है। जिसकी अगली सुनवाई 20 अगस्त है।

प्रो. कुठियाला ने मैसूर यूनिवर्सिटी में पीएचडी के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया, लेकिन समय सीमा के अन्दर पूर्ण नहीं कर पाए और तो और प्रो. कुठियाला ने पंजाब यूनिवर्सिटी से एमएससी एन्थ्रोपोलॉजी और मेरठ यूनिवर्सिटी से एमए सोशियोलॉजी की उपाधि हासिल की है, लेकिन पत्रकारिता एवं संचार की कोई उपाधि नहीं है। इसके बावजूद उन्हें कुरुक्षेत्र विवि में रीडर बना दिया गया। 1993 में रीडर बने कुठियाला 1996 में ही गुरु जंबेश्वर विवि में प्रोफेसर बन गए। बाद में कुठियाला कुरुक्षेत्र विवि में प्रोफेसर तौर पर आ गए।

पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग को बन्द कर इन्हें मास कम्‍युनिकेशन इंस्टीट्यूट में डायरेक्टर बना दिया गया। आरोप है कि विभाग को इंस्टीट्यूट की शक्ल देने में इनके डायरेक्टर पद की महत्वाकांक्षा छुपी थी। कुरुक्षेत्र विवि के मास कम्युनिकेशन विभाग में रीडर बनने के लिए प्रो. कुठियाला ने 3 फरवरी, 1994 को आवेदन किया। फॉर्म में उनके हस्ताक्षर नहीं थे। दस्तावेज भी संलग्न नहीं थे।

रीडर पद के लिए कुरुक्षेत्र विवि में आवेदन के समय प्रो. कुठियाला ने खुद को अधिक अनुभवी बताया। प्रो. कुठियाला आईआईएमसी, दिल्ली में मार्च 1983 से दिसम्बर 1993 तक रहे, लेकिन उन्होंने बॉयोडाटा में खुद को 28 मार्च 1982 से कार्य करना बताया है अर्थात एक वर्ष का अधिक अनुभव बताकर लेक्चरर से रीडर बने। इस बात का खुलासा सूचना के अधिकार में प्राप्त उनके बायोडाटा से हुआ। प्रो. कुठियाला के कुरुक्षेत्र विवि इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन एण्ड मीडिया टेक्नोलॉजी के डायरेक्टर पद के फार्म पर भी खुद के हस्ताक्षर नहीं है, फिर भी यूनिवर्सिटी और कमेटी ने उन्हें डायरेक्टर पद पर नियुक्ति दे दी।

भोपाल आते ही कुलपति जी को जैसे मुक्ताकाश मिल गया, क्योंकि एक बड़े नेता का वरदहस्त सर पर जो था। तो आते ही तुगलकी फरमानों की झड़ी लगा दी, सौरभ मालवीय के अलावा भी कई ऊल जुलूल नियुक्तियां की, एक प्रभावशाली खास व्यक्ति की पत्नी कि परिसर में असिस्टेंट प्लेसमेंट अधिकारी के तौर पर नियुक्ति करवा दी, हालांकि उसके लिए प्रवेश परीक्षा हुई पर वो महिला उस परीक्षा के पहले ही विश्वविद्यालय ज्वाइन कर चुकी थी। इसके अलावा एक और बेहूदा फैसला ले डाला कि विश्वविद्यालय में बिना प्रवेश परीक्षा और साक्षात्कार के प्रवेश लिए जाएंगे। ज़रा सोचिए कि पत्रकार बनने की लालसा लिए छात्रों के लेखन और ज्ञान का स्तर भी नहीं देखा जाएगा.....बेटा बीएससी में फर्स्ट डिवीज़न हो, आओ बेटा पत्रकार बन जाओ......

इसके बाद तो एक एक कर के अनुशासन और न जाने किस किस चीज़ के नाम पर कुलपति हद से आगे बढ़ते चले गए। पुस्तकालय के अखबार तक सेंसर हो कर, ख़बरें काट कर छात्रों के पास पहुंचने लगे, किसी तरह के सामूहिक आयोजन के खिलाफ़ अघोषित फ़तवा जारी हो गया और तो और लड़कों से कुलपति महोदय परिसर में संघ की शाखा तक लगवाने की बात करने लगे....कम्प्यूटर लैब शाम पांच बजे बंद होने लगी....और पुराने कर्मचारियों के हितों के खिलाफ़ अजीबोगरीब निर्णय होने लगे। जो कुलपति अनुशासन और नीतियों कि बात करता है वो सरकारी खर्चे पर अमेरिका घूम आया और अपने लिए महंगा मकान किराए पर ले लिया....ज़ाहिर है कोई भी विद्रोही हो जाएगा फिर ये तो पत्रकारिता के छात्र ठहरे....शिक्षक भी विरोध में उतर आए तो रोज़ नए हथकंडे।

मैं नहीं जानता कि पी.पी. सर दोषी हैं या नहीं, पर उनको जिस वक्त पद से हटाया गया उसकी मंशा को लेकर संशय होना स्वाभाविक है। कुठियाला जी के अब तक के रिकॉर्ड को देखते हुए इसमें कोई शक़ नहीं रह जाता है। पर एक और ख़बर कि विश्वविद्यालय में जो नोटिस पत्रकारिता विभाग के मुखिया को भेजा गया है, वही नोटिस अब कुलपति और प्रशासन को भी भेज दिया गया है तो क्या इसी लीक पर चलते हुए कुलपति को भी इस्तीफा देकर जांच पूरी होने का इंतज़ार करना चाहिए? अपने सभी न्यायप्रिय मित्रों से इस सवाल का जवाब चाहूंगा....

तीसरी बात ये कि जिस तरह की अभद्रता पत्रकारिता विभाग के छात्रों ने संजय द्विवेदी जी के साथ की उसकी जितनी निंदा हो कम है, हालांकि अब चूंकि छात्रों ने सार्वजनिक माफ़ी मांगी है तो उनको क्षमा कर देना चाहिए। पर एक बात हमें समझनी होगी कि ये सारा घटनाक्रम इसीलिए पैदा किया गया कि छात्रों और शिक्षकों में फूट पड़े और ये आंदोलन राह से भटक जाए। इसलिए सभी से एक अपील करना चाहूंगा कि कम से कम इस आंदोलन को अपने उद्देश्य से न भटकने दें और इसे इसके अंजाम तक पहुंचाएं। कुठियाला जैसे लोग किसी भी शिक्षण संस्था में नहीं होने चाहिए और इसके लिए जो कुछ भी किया जाना चाहिए किया जाए।

भोपाल से कुछ ही घंटे की दूरी पर वर्धा में एक और आतंकवादी कुलपति विश्वविद्यालय को अपनी बपौती माने बैठा है और उसी का एक और तालिबानी भाई भोपाल में आ गया है। कुलपति कुठियाला आप ज़ाहिर तौर पर बेहद शातिर हैं पर याद रखें कि हम भी बेवकूफ नहीं हैं। जब जनता जागती है तो सिंहासन हिलते ही हैं। भोपाल और विश्वविद्यालय हमारे लिए घर है, और यहां के शिक्षक हमारे अभिभावक, किसी भी कीमत पर हमारे बीच के झगड़ों का फ़ायदा कोई बाहरी नहीं उठा पाएगा.....फूट डाल कर राज करना पुरानी नीति हो गई है.....अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कोई नहीं रोक सकता.....हम चीखेंगे...चिल्लाएंगे....शोर मचाएंगे....विश्वविद्यालय किसी की निजी संपत्ति नहीं है....ये आपको समझाएंगे.....हंगामा अभी तो शुरू हुआ है....ताबूत की आखिरी कील जड़ी जानी अभी बाकी है.....

जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,

जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,

जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे

तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।


जनता?हां,लंबी -बड़ी जीभ की वही कसम,

"जनता,सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है।"

"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?"

'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"


मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,

जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;

अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के

जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।


लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,

जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

(रामधारी सिंह दिनकर)

-मयंक सक्सेना

Tuesday, September 28, 2010

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है...भाग-1


भोपाल से आ रही आवाज़ें यहां दिल्ली से लेकर देहरादून, कोलकाता से कानपुर और रांची से रायपुर तक हम सभी पूर्व छात्रों के कानों में पिघलते लोहे सी भर रही हैं। इस बात से हममें से कम लोग ही असहमत होंगे कि हम सब पूर्व छात्रों के लिए भोपाल दूसरी मातृभूमि और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय दूसरे घर सरीखा है। एक परिवार में हमने जीवन का आरम्भ किया।

एक इंसान बनने के गुण पाए। भोपाल के इस विश्वविद्यालय के परिवार में हम न केवल एक पत्रकार बल्कि एक इंसान के तौर पर और बेहतर हुए। ज़ाहिर है हम सबके बीच तमाम झगड़े और मतभेद रहते थे, जैसे कि हर परिवार में होते हैं। केव्स के तमाम छात्रों के लिए पी.पी. सर एक खलनायक सरीखे थे तो एमजे के लिए डॉ. श्रीकांत सिंह लेकिन परिवार तो एक ही होता है और हमेशा रहा। लेकिन अब कुछ बाहरी तत्व परिवार में आ गए हैं, जो पूरे परिवार की एकता, इसकी सामाजिक प्रतिष्ठा और इसकी ताकत में सेंध लगाने की कोशिश में हैं। कुठियाला जी हम सब आपके इरादे जानते हैं।

सम्भवतः एशिया का पहला विश्वविद्यालय, जो पत्रकारिता के प्रशिक्षण के लिए शुरू किया गया था। देश के सबसे प्रतिष्ठित, जुझारू और महान पत्रकार-साहित्यकार और स्वाधीनता सेनानी पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की स्मृति में इसको समर्पित किया गया। लेकिन भोपाल में जो कुछ हो रहा है वो शायद इससे पहले नहीं हुआ है। विश्वविद्यालय में कुलपति महोदय की तानाशाही चरम पर है और कुछ ही महीने में भोपाल भी वर्धा बनने की राह पर है। बल्कि कुठियाला जी विभूति नारायण राय से भी आगे निकलने के मूड में दिखते हैं।

कुठियाला जी के समर्थकों से एक अनुरोध करना चाहूंगा कि कम से कम वो लोग उनकी हिमायत न करें जो माखनलाल में न तो कभी पढ़े हैं और न ही उन्होंने वहां पढ़ाया है। एक और अनुरोध है इन सब से कि कम से कम शिक्षा के संस्थानों को किसी राजनैतिक विचारधारा की लॉबीइंग का अड्डा न बनने दें। हम पत्रकार बनने आए हैं, हमें खुद समझने दें कि हमें कैसा विश्वविद्यालय चाहिए और कैसे शिक्षक।

देश के सबसे बड़े पत्रकारिता विवि के नए कुलपति पर उनकी चयन प्रक्रिया से ही अंगुलियां उठती रही हैं। लेकिन फिर भी राज्य सरकार ने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति का ताज प्रो. बीके कुठियाला के सिर पहना दिया। माना जाता है है कि इस मामले में राज्य सरकार पर संघ का दबाव था, क्योंकि कुठियाला की संघ से नज़दीकियां जगज़ाहिर हैं। उनके आते ही विवि के कामकाज से माहौल तक तमाम घालमेल शुरु हो गए और बात निकली तो दूर तलक आ गई। खैर अभी तो बात केवल कुठियाला के कुकर्मों की....

कुठियाला के कुरुक्षेत्र में रीडर से लेकर भोपाल कुलपति के सफर के अलग-अलग पड़ावों का फॉलोअप कई गंभीर तथ्य सामने लाता है। प्रो. कुठियाला के अकादमिक करियर और छवि पर दर्जनों बार गम्भीर आरोप लग चुके हैं। यही नहीं, प्रो. कुठियाला के खिलाफ कुरुक्षेत्र न्यायालय में आईपीसी की धारा 417, 420, 423, 465, 468 और 471 का मामला भी विचाराधीन है। आरटीआई में प्राप्त दस्तावेज में इस बात का खुलासा भी हुआ कि उन्होंने कुरुक्षेत्र विवि में रीडर बनने के लिए खुद को एक साल अधिक अनुभवी बताया और डायरेक्टर पद के आवेदन में अपने हस्ताक्षर ही नहीं किए।

हैरानी है कि इस धोखाधड़ी के ही दम पर आज वे पत्रकारिता एवं संचार विवि के कुलपति बन गए जबकि उनके पास पत्रकारिता के नाम पर पुणे एफटीआईआई से सिर्फ एक महीने का एक प्रमाणपत्र है। पर कुलपति महोदय इसे अपने खिलाफ़ साज़िश बताते हैं। ज़रा सोचिए जिस आदमी के पास पत्रकारिता की डिग्री नहीं और न ही वो कोई बड़ा पत्रकार है, सबसे बड़े पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलपति बना बैठा है।

(जारी है....)
मयंक सक्सेना

Tuesday, September 21, 2010

No peace zone

Do not keep peace around you because it makes a noise and noise creates irritation and should it be used the energy whichever emits while irritation than man can change the universe. kindly comment me to pace this discussion.
Barun K Sakhajee, +919009986179

Tuesday, September 14, 2010

हिंदी को आज़ादी चाहिए...


(हिन्दी फिल्मो के मशहूर लेखक और गीतकार हैं प्रसून जोशी। प्रसून जी कभी पेशे से एड गुरु हुआ करते थे पर मन से हमेशा थे साहित्यकार तो आखिरकार सब्र नहीं कर पाये और कूद ही गए सक्रिय लेखन में। प्रसून शानदार कवि हैं और इसका दर्शन हमें उनके फिल्मी गीतों में भी हो जाता है। आँधियों से झगड़ रही है लौ मेरी ...अब मशालों सी बढ़ रही है लौ मेरी ! जैसी पंक्तियाँ लिखने वाले प्रसून जोशी ने कोई 2 साल पहले दैनिक भास्कर के लिए हिन्दी पर एक आलेख लिखा जो आज हिन्दी दिवस के अवसर पर आपके लिए साभार प्रस्तुत है, )

भाषा कोई भी हो, वह अपनी जमीन से उपजती और पनपती है, इसलिए कोई लाख चाहे भी तो उसका रिश्ता उस जमीन से तोड़ नहीं सकता। भाषा को लेकर आज तक जितने भी विवाद हुए हैं, उसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं रहा है। कुछ स्वार्थी तत्वों का हित-साधन उससे जरूर हो जाता है। भाषा का उससे न कुछ बनता है, न बिगड़ता है। जहां तक हिंदी की बात है, वह खुद इतनी सक्षम और सशक्त है कि अपना पालन-पोषण जीवंत तरीके से कर रही है। हर भाषा समय के साथ अपना रूप-रंग बदलती रहती है। इसका मतलब यह नहीं कि वह अपने मूल रूप से च्युत हो रही है। दरअसल उसकी आत्मा नहीं बदलती है। हिंदी को खुद खिलने और खेलने की आजादी मिलनी चाहिए।

हिंदी तो सतत प्रवाहित धारा है। धारा जरूरी नहीं कि सीधी ही चले, आड़ी-तिरछी भी चलेगी। उसे उसी रूप में बहने नहीं दिया गया, तो उसके साथ अन्याय होगा। हिंदी का विकास कभी नहीं रुका, सिर्फ जगह-जगह रूप बदल रहा है। जब मैं उत्तर भारत में था तो मुझे लगता था कि जो हिंदी वहां बोली जा रही है, वही सही हिंदी है। जब मैं मुंबई आया तो पाया कि हिंदी तो यहां भी है, मगर उसमें कुछ टपोरीपन और मस्ती मिली हुई है। उसे ही हर कोई सुनता और बोलता है। किसी को कोई परेशानी भी नहीं होती। इसका मतलब यह नहीं कि हिंदी विकृत हो गई। हां, यह जरूर लगा कि व्याकरण यहां मजबूर हो गया है। भाषा-शुध्दि की आवश्यकता है। मगर यह शुध्दिकरण अभियान कहां-कहां चलाएंगे? इसलिए भाषा को अपनी राह पर चलते रहने की आजादी चाहिए, जो अंतत: समृध्दि ही देगी।

हमें अंग्रेजी से कुछ सीखने की जरूरत है। उसकी समृध्दि का राज सभी जानते हैं कि वह जहां गई है, वहीं की हो गई। भारत, स्पेन, रूस, ऑस्ट्रेलिया में अंग्रेजी को अलग-अलग ढंग से बोला जाता है, क्योंकि वहां की स्थानीय बोलियां उसमें शामिल हो जाती हैं। आंचलिक भाषाओं ने अंग्रेजी को इतना कुछ दे दिया है कि अंग्रेजी ऋणी हो गई है। भारत में भी लगभग सारी भाषाओं के शब्द अंग्रेजी में घुल-मिल रहे हैं। इस मामले में हिंदी पिछड़ रही है। हिंदी के तथाकथित अलमबरदारों ने इसे अपनी ही सीमा में देखने और रखने का मानो संकल्प ले लिया है, लेकिन क्या किसी के रोके हिंदी का विकास रुक रहा है? अगर रुकना होता तो हिंदी के इतने सारे टीवी चैनल नहीं आए होते! और भी दर्जनों चैनल आने वाले हैं। हिंदी के अखबारों के संस्करणों में लगातार वृध्दि हो रही है। पाठकों की संख्या का अनुमान लगाना मुश्किल हो गया है।

टीवी सीरियल्स और हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता और मांग में इजाफा ही हो रहा है। आज के जितने सफल विज्ञापन हिट हैं, वे सारे के सारे लगभग हिंदी में ही हैं। विज्ञापनों में 'कैच लाइन' का बहुत महत्व है, हिंदी में ज्यादा चर्चित हैं। वह चाहे 'ठंडा मतलब...', 'सबका ठंडा एक...', 'दोबारा मत पूछना...', 'पीयो सर उठा के...' हो या फिर 'ज्यादा सफेदी...' हो- हिंदी के सारे कैच लाइन मुहावरे की तरह प्रचलित हो रहे हैं। हिंदीभाषियों को और भी उदार होने की जरूरत है। हृदय विशाल हो जाए तो सीमा-रेखा अपने आप मिट जाएगी। सभी भाषाओं और बोलियों का सहयोग लेना चाहिए। अंग्रेजी के साथ भी जीने की आदत डालनी चाहिए, इसलिए मेरा मानना है कि भाषा के कपाट को कभी बंद नहीं रखना चाहिए। उसका खुला रहना सुखकर और समृध्दिकर है।

कोई कैसे बोलेगा और कोई कैसे- इसे समस्या नहीं समझना चाहिए। हिंदी बोलने की आदत अगर कोई डाल रहा है तो यह अच्छी बात है। गैर-हिंदीभाषी ही क्यों, हिंदीभाषी भी अशुध्द बोलते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि वे हिंदी को बिगाड़ रहे हैं। इसे इस तरह कहना चाहिए कि वे बोलकर भाषा को सीखने और शुध्द करने का प्रयास कर रहे हैं। यह उनकी मुख्यधारा(हिंदी) में शामिल होने की इच्छा है। गाना सबका स्वभाव होता है। कोई अच्छा गाता है और कोई बुरा। बुरा गाने वालों का लगाव गीतों से उतना ही है, जितना अच्छा गाने वालों का। फर्क इतना ही है कि किसी का सुर अच्छा लगता है और किसी का बुरा। गानों की तरह भाषा पर सबकी पकड़ एक जैसी हो, संभव नहीं है।

हिंदी के हितैषी पता नहीं क्यों, इसे लेकर इतना बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं! हम यह क्यों नहीं मानते कि सबका बौध्दिक स्तर एक जैसा नहीं होता? कोई भाषा और व्याकरण के मामले में कमजोर होता है और कोई परिष्कृत शब्दों का इस्तेमाल करता है। इसके बावजूद दोनों में संवाद होना चाहिए। इससे दोनों में समृध्दि आएगी। जिम्मेदारी भी महसूस होगी। हां, यह बात सही है कि आजकल फिल्मों की स्क्रिप्ट रोमन लिपि में लिखी जाती है, मगर इससे क्या फर्क पड़ता है। अंतत: पर्दे पर तो वह हिंदी ही बनकर आती है। इसे अंग्रेजीदां की जिद नहीं कह सकते। संभव है उन्हें अच्छी हिंदी बोलनी आती हो, मगर पढ़नी नहीं। सीधे हिंदी पढ़ने के बाद जो भाव आता है, संभव है वह रोमन से नहीं आता हो, मगर यह काम निर्देशक का है कि संवाद के अनुसार एक्सप्रेशन या इमोशन कैसे लाया जाए! जहां तक फिल्म, टीवी, एड मीडिया में अंग्रेजी स्कूलों से पढ़े लोगों के आने की बात है, इसमें हिंदी को खुश होना चाहिए कि उन्हें हिंदी ही आश्रय दे रही है। वे अंग्रेजी में भले योजना बनाते हों, स्क्रिप्ट भी अंग्रेजी में मांगते हों, सेट पर पूरा माहौल अंग्रेजीनुमा हो, मगर कलाकारों को जब डायलॉग बोलने की बारी आएगी तो क्या बोलेंगे?

वैश्वीकरण के बाद हिंदी का भी विस्तार हो रहा है। हिंदी फिल्में विदेशों में भी धूम मचा रही हैं। इसे सिर्फ भारतीय या भारत के गैर-हिंदीभाषी ही नहीं देखते हैं, बल्कि विदेशी भी देखते हैं और समझने की कोशिश करते हैं। अगर आज की भाषा में कहूं तो हिंदी एक बड़ा बाजार बन गया है। विदेशी भी हिंदी में काम करना चाह रहे हैं। भले उनके डायलॉग डब किए जाएं, मगर हिंदी की सत्ता को वे स्वीकार तो कर ही रहे हैं। हिंदी की अपनी भाव-भूमि है। उसके अपने शब्दों में क्षेत्र, जमीन, मौसम, संवेदना और भावना का असर होता है। 'तारे जमीं पर' में 'मां...' वाला गाना भारतीय जमीन और मानसिकता का प्रतिबिंब है। उसका अनुवाद अगर विदेशी भाषा में होगा तो वह असर नहीं पैदा होगा, क्योंकि वहां की संस्कृति में 'मां' का क्या स्थान है, ठीक-ठीक पता नहीं है। यह निश्चित है कि मां का जो दर्जा यहां है, वैसा कहीं नहीं है। इसलिए मैं मानता हूं कि हिंदी की भाषा जितनी समृध्द है, उतने ही विचार भी परिपक्व हैं। हिंदी को रोकना संभव नहीं है, मगर हमारी जिम्मेदारी है कि हम हिंदी को खिलने की आजादी दें।

प्रसून जोशी
(लेखक फिल्मों के लिए गीत लिखते हैं और ऐड गुरु हैं।)

Dabang is not Dabang....

There is a lot crowd, pushing each others, pulling shirts, abusing to be violating the queue, beating to the protester of uncontrolled queue men. I am talking about the ticket waiters of the Salman's film Dabang. This type of scenes can be seen at any cinema hall of the city, although multiplex maintains their expensiveness. I also visited to the multiplex to watch it after getting information about crowd gathering at single screens and house full at multiplex. Dabang is the film of violence, corruption supporting, with out any cause murdering, innocents killing, and very light acting of Dimpal, Vinod, Arwaz, simultaneously story, script, dialogs, scenes and sequences are weakening as film goes to climax. This film collects 48 crore with in four days, its marvelous. When i watched it, i could not understand what actually in the file, therefor i wrote it, if you having some words regarding it kindly comment and write for the people. What is in the film, that making it so much good responding film.

गूगल बाबा का वरदान - हिन्दी टंकण औजार

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