आज १ सितम्बर है । दुष्यंत कुमार का जन्मदिन । भोपाल आने से पहले दुष्यंत के नाम से तो वाकिफ था पर दुष्यंत के मायने नही जानता था । भोपाल आया तो दुष्यंत को सही से जाना । फ़िर पता चला की दुष्यंत को न जानना कितनी बड़ी लापरवाही थी ।
दुष्यंत का मतलब लोगों के लिए हिन्दी ग़ज़ल हो सकता है ... कुछ सीमा तक मेरे लिए भी है लेकिन इसके निहितार्थ गहरे हैं।
ग़ज़ल की विधा उर्दू में जितनी लोकप्रिय थी उतनी ही शिद्दत से हिन्दी में भी अपनाई गई । जब साहित्य में अलग अलग भाषाई विधाओं का इख्तेलात होता है , तब फायदा किसी उर्दू या हिन्दी को नही होता समूचे अदब को होता है । ग़ज़ल अगर आम जन तक पहुची विशेष कर हिन्दी प्रेमियों में, तो इसके पीछे दुष्यंत का आसमान में सुराख कर देने वाला जज्बा रहा । वरना साहित्य के कथित ठेकेदार हिन्दी और उर्दू दोनों में ही, न उस वक्त कम थे और न आज कम हैं ।
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
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