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Sunday, September 14, 2008

राष्ट्रभाषा समाधान गांधी-दर्शन में

हाल ही में एक दिन इन्टरनेट पर कुछ खोज करते वक़्त एक लेख मिला जो हिन्दी और राष्ट्रभाषा के विचार और उस पर होने वाले तमाम तरह के विवादों के बारे में बात करता है और कुछ अच्छे विचार पेश करता है। हिदी दिवस के अवसर पर मातृभाषा को नमन करते हुए यह लेख सादर समर्पित है। प्रस्तुत लेख के लेखक डॉ किरीट कुमार जोशी हैं, उनको धन्यवाद !


वर्तमान युग का यक्ष प्रश्न - राष्ट्रभाषा समाधान गांधी-दर्शन में


डॉ किरीट कुमार जोशी


मु. राणावाव, वाडीप्लोट सागर समाज के पास,
कुतियाणा, जि। पोरबंदरा, गुजरात


भारतवर्ष में एकता के अभाव के कारण और राजनीतिक दृष्टि से कई सौ वर्षो की गुलामी के कारण भारतवासियों में शासन की बागडोर अपने हाथों में लेने की असमर्थता का भाव घर कर गया था (हालांकि अंग्रेजों के विरूद्ध आंदोलन भी चलाया जा रहा था), फलस्वरूप उन्होंने अंग्रेजी शासन को स्वीकार किया और अंग्रेजी-भाषा को भी। किन्तु जैसे-जैसे जन-मानस में स्वतंत्रता की भावना प्रबल होने लगी, भारतीय जनता यह चाहने लगी कि हमारा राष्ट्र स्वतंत्र हो और हमारा अपना, खुद का शासन हो। तब उसके साथ-साथ अपनी भाषा को उचित स्थान देने के लिए भी वह जागृत होने लगी। उसे यह विदित होने लगा कि शारीरिक दासता की अपेक्षा मानसिक गुलामी अधिक भयंकर एवं घातक होती है। इस अनुभूति के कारण ही आधुनिक काल में अहिन्दी-भाषियों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित करने में अपना जीवन स्वाहाकर दिया। क्या इस बात का कोई महत्त्व नहीं है कि बह्म समाज के नेता बंगला-भाषी केशवचंद्र सेन से लेकर गुजराती भाषा-भाषी स्वामी दयानंद सरस्वती ने जनता के बीच जाने के लिए 'जन-भाषा', 'लोक- भाषा' हिन्दी सीखने का आग्रह किया और गुजराती भाषा-भाषी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने मराठी-भाषा-भाषी चाचा कालेलकर जी को सारे भारत में घूम-घूमकर हिन्दी का प्रचार-प्रसार करने का आदेश दिया। सुभाषचंद्र बोस की 'आजाद हिन्द फौज' की राष्ट्रभाषा हिन्दी ही थी। श्री अरविंद घोष हिन्दी-प्रचार को स्वाधीनता-संग्राम का एक अंग मानते थे। नागरी लिपि के प्रबल समर्थक न्यायमूर्ति श्री शारदाचरण मित्र ने तो ई. सन् 1910 में यहां तक कहा था - यद्यपि मैं बंगाली हूं तथापि इस वृद्धावस्था में मेरे लिए वह गौरव का दिन होगा जिस दिन मैं सारे भारतवासियों के साथ, 'साधु हिन्दी' में वार्तालाप करूंगा। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय और ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने भी हिन्दी का समर्थन किया था। इन अहिन्दी-भाषी-मनीषियों में राष्ट्रभाषा के एक सच्चे एवं सबल समर्थक हमारे पोरबंदर के निवासी साबरमती के संत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी थे।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को इस बात का अत्यधिक सदमा था कि भारत जैसे बड़े और महान राष्ट्र की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। प्रत्येक राष्ट्र के लिए उस राष्ट्र की राष्ट्रभाषा उनका प्राण एवं पूंजी होती है, उनके सार्वभौमत्व, एकता, अखंडितता के गौरव की प्रतीक होती है। यदि भिन्न भिन्न प्रदेशों में अपनी भिन्न-भिन्न प्रादेशिक भाषाएं हैं, यदि उन प्रदेशों को वैचारिक स्तर पर जोड़ने वाली अंग्रेजी जैसी विदेशी-भाषा है तो सब भारतीयों के लिए वह बात शरमजनक एवं दु:खपूर्ण है, राष्ट्र के लिए अपमान है। यदि हम हमारे राष्ट्र की एकता का दावा करते हैं तो उसमें बहुत सारी बातें एक समान होनी चाहिए। अत: राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने विखंडित पड़े संपूर्ण भारत को एकसूत्र में बांधने के लिए, उसे संगठित करने के लिए एक राष्ट्रभाषा की आवश्यकता का अहसास करते हुए कहा था - 'राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।' उन्होंने भारत वर्ष के इस गूंगेपन को दूर करने के लिए भारत के अधिकतम राज्यों में बोली एवं समझी जाने वाली हिन्दी भाषा को उपयुक्त पाकर संपूर्ण भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित, स्थापित किया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के समान बंगाल के चिंतक आचार्य श्री केशवचंद्र सेन ने भी 'सुलभ-समाचार' पत्रिका में लिखा था - 'अगर हिन्दी को भारतवर्ष की एकमात्र भाषा स्वीकार कर लिया जाय तो सहज में ही यह एकता सम्पन्न हो सकती है।' अर्थात् हिन्दी ही खंड़ित भारत को अखंड़ित बना सकती है।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी विखंडित भारत राष्ट्र को अखंडित एवं एकसूत्र बनाने के लिए राष्ट्रभाषा के सच्चे एवं प्रबल समर्थक तो थे लेकिन पराधीनता के समय में, अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार के युग में उनके दिमाग में राष्ट्रभाषा की संकल्पना निश्चित थी। उन्होंने अकारण ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में उपयुक्त नहीं समझा था। वे संपूर्ण भारतीय भाषाओं में एकमात्र हिन्दी में ही राष्ट्रभाषा होने का सामर्थ्य देखते थे। अपने इसी दर्शन के कारण ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने गुजरात-शिक्षा-सम्मेलन के अध्यक्षीय-पद से राष्ट्रभाषा के प्रसंग में प्रवचन देते हुए राष्ट्रभाषा की व्याख्या स्पष्ट की थी। दूसरे शब्दों में कहें तो राष्ट्रभाषा का लक्षण स्पष्ट किया था। राष्ट्रपिता गांधीजी के शब्दों में देखिए - 'राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जो सरकारी कर्मचारियों के लिए सहज और सुगम हो। जो धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में माध्यम भाषा बनने की शक्ति रखती हो। जिसको बोलने वाला बहुसंख्यक समाज हो, जो पूरे देश के लिए सहज रूप से उपलब्ध हो॥अंग्रेजी किसी तरह से इस कसौटी पर खरी नहीं उतर पाती।' इस प्रकार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने तत्कालीन अंग्रेजी-शासनकाल की अंग्रेजी-भाषा की तुलना में एकमात्र हिन्दी-भाषा में ही राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा (लिंक लेंगवेज) एवं राजभाषा होने के सामर्थ्य का दर्शन किया था।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा के इस सामर्थ्य - राष्ट्र के जन-जन को एक करने की शक्ति, बहुजन समाज की 'जनभाषा' होने के कारण ही दक्षिण अफ्रिका के प्रवास दौरान ही राष्ट्रभाषा-समस्या पर व्यवस्थित रूप से सोच लिया था और उन्होंने घोषणा भी कर दी थी -
स्वराज करोड़ों भूखे मरने वालों का, करोड़ों निरक्षरों का, निरक्षर बहनों और दलितों और अन्त्यजों का हो और उनके लिए तो हिन्दी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा हो सकती है.... करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली थी वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी।
इस प्रकार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अनुसार राष्ट्रभाषा राष्ट्र की अखंडितता की तो नींव है लेकिन वे उसे स्वतंत्रता प्राप्ति का माध्यम भी समझते थे। मैकाले ने ही अंग्रेजी-शिक्षा के प्रचार के द्वारा भारतीयों को मानसिक स्तर पर परतंत्र बनाने का श्री गणेश किया था। भारतीयों को इस वैचारिक परतंत्रता में से बाहर निकालने के लिए हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ई. सनॅ 1918 में हिन्दी साहित्य-सम्मेलन के अध्यक्ष बनकर ही अहिन्दी-भाषी प्रदेशों में हिन्दी-भाषा के प्रचार-प्रसार की एक विस्तृत आयोजना की। जिसके कार्यान्वय की शुरुआत उन्होंने अपने घर से करते हुए बेटे देवदास को ई.सन् 1918 में शिक्षकों के एक दल के साथ दक्षिण भारत भेजा था। पोरबंदर के इस राष्ट्रपिता, संत महात्मा गांधी ने स्वयं दक्षिण-भारत का प्रवास करके, वहां के लोगों में राष्ट्रभाषा के प्रति जागृति लाने के अनेक प्रयत्न किये थे। दूसरे शब्दों में कहें तो संपूर्ण दक्षिण-भारत प्रदेश में राष्ट्रभाषा-आंदोलन चलाया था। इस राष्ट्रभाषा-आंदोलन में सफलता की कम संभावना देखते हुए उन्होंने खुद अपने प्रचारक को ढाढ़स बंधाते हुए एक पत्र में लिखा था - 'जब तक तमिल प्रदेश के प्रतिनिधि सचमुच हिन्दी के बारे में सख्त नहीं बनेंगे, तब तक महासभा में से अंग्रेजी का बहिष्कार नहीं होगा। मैं देखता हूं कि हिन्दी के बारे में करीब-करीब खादी के जैसा हो रहा है। वहां जितना संभव हो, आंदोलन किया करो। आखिर में तो हम लोगों की तपश्चर्या और भगवान् की जैसी मरजी होगी वैसा ही होगा।' इस प्रकार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का दक्षिण भारत के राज्यों में राष्ट्रभाषा के आंदोलन में सफलता की कम संभावना रहने पर वे निरुत्साहित नहीं हुए। लेकिन उन्होंने बड़े उत्साह, आदर और गौरव से ई। सन्. 1920 में 'गुजरात विद्यापीठ' की स्थापना अहमदाबाद में की थी।इस राष्ट्रीय संस्था द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित करने के लिए अनेक रचनात्मक कार्य किये गये थे। संपूर्ण भारत में स्नातक-स्तर पर अनिवार्य विषय हिन्दी का प्रारंभ इस राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से हुआ था। आज भी यह विश्वविद्यालय हिन्दी की विभिन्न परीक्षाएं, बी.ए., एम.ए., बी.एड., एम.फील., पीएच.डी. के शोधकार्य के द्वारा गुजरात जैसे अहिन्दी भाषी प्रदेश में हिन्दी का प्रचार-प्रसार कर रहा है। इतना ही नहीं, यहां डॉ. अम्बाशंकर नागरजी की अध्यक्षता में हिन्दी के साथ-साथ अन्य भारतीय-भाषाओं के विषय में अध्ययन-अध्यापन-शोध-कार्य हो रहा है। लगता है कि अकेली राष्ट्रभाषा सभी भारतीय भाषाओं को यहां खींचकर लायी है। इस प्रकार कह सकते हैं कि गुजरात विद्यापीठ के स्थापक के रूप में एवं उसमें वर्तमान में हो रहे राष्ट्रभाषा के कार्य को लेकर कुलपति महात्मा गांधीजी आज भी हमारे मध्य विद्यमान, प्रस्तुत हैं।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने पराधीन भारत में हिन्दू-मुस्लिम में भाषा-भेद (हिन्दी-उर्दू) मिटाकर ऐक्य स्थापित करने के लिए 'राष्ट्रभाषा' के लिए 'हिन्दुस्तानी' शब्द का प्रयोग किया था। आपका 'हिन्दुस्तानी' शब्द-प्रयोग से अभिप्राय हिन्दुस्तान के जन-जन को जोड़ने वाली भाषा से ही था। इस 'हिन्दुस्तानी' के द्वारा ही उन्होंने जातिगत समन्वय का, हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य का जबरदस्त प्रयत्न किया था। इस प्रकार राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार में, राष्ट्रभाषा की राष्ट्रीय समस्या के समाधान में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का अपूर्व योगदान रहा है। वे हमेशा राष्ट्रभाषा को राष्ट्रीय-गौरव, सांस्कृतिक समन्वय, राष्ट्रीय-अखंडितता की परिचायक मानते थे।
वर्तमान युग के राष्ट्रीय जनजीवन के व्यावहारिक एवं शैक्षिक स्तर के संदर्भ में सोचा जाय कि - क्या हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है? इस प्रश् के उत्तर के रूप में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा दिये गये राष्ट्रभाषा के लक्षण के संदर्भ में कह सकता हूं कि इसे बोलने वाले लोग भारत के एक तिहाई हिस्से में बसते हैं। लेकिन हर प्रदेश के लोग अपनी प्रादेशिक-भाषा में व्यवहार करते हैं। हिन्दी राष्ट्रभाषा के स्थान पर उसी समय आसीन होगी जब जनता के स्तर पर वह सम्पर्क, व्यावहारिक भाषा बन जाय। अर्थात् एक प्रदेश का निवासी दूसरे प्रदेश से मिले तो वह अंग्रेजी आदि का प्रयोग न कर हिन्दी का प्रयोग करे। तामिल-भाषी बंगाली से मिलने पर या पंजाबी मलयाली से मिलने पर या मराठी गुजराती से मिलने पर आपसी व्यवहार, विचार-विनिमय हिन्दी में करे। इस प्रकार राष्ट्रीय जीवन में हिन्दी व्यावहारिक-संपर्क की महत्त्वपूर्ण कड़ी बनने पर ही राष्ट्रभाषा बन सकती है और इससे ही राष्ट्रपिता को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित हो सकती है।
इसके अतिरिक्त वर्तमान अधुनातन युग में विदेशी-शिक्षा के अनुकरण स्वरूप भारत में अंग्रेजी-माध्यम की शाला-महाशालाओं का प्राचुर्य बढ़ता जा रहा है। बच्चे अपनी मातृभाषा को छोड़कर प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर की शिक्षा अंग्रेजी-भाषा के माध्यम से प्राप्त करते हैं। वहां राष्ट्रपिता के विचारों की हत्या हो जाती हैं। क्यों कि उनका अंग्रेजी-भाषा से नहीं बल्कि अंग्रेजी माध्यम से विरोध था। वे खुद भी अंग्रेजी के जानकार थे और राष्ट्रपिता तथा विवेकानंद ने अंग्रेजी के द्वारा ही भारतीय संस्कृति को विदेशों में रोशन किया था। इस प्रकार वर्तमान युग में भारतीय माता-पिता अपने बच्चों को अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा दिलवा कर गांधी-विचारधारा का खंडन कर देते हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रिका के प्रवास के दौरान ही समझ लिया था कि हिन्दी ही भारतवर्ष की सम्पर्क-भाषा (लिंक लेंगवेज) हो सकती है। क्योंकि वहां रहने वाले सभी भारतीय - तेलुगु, तमिल, मराठी, गुजराती बिना किसी के कहे हिन्दी में बात करते थे। अत: राष्ट्रपिता ने राष्ट्रभाषा की व्याख्या करते समय यहीं उसमें संपर्क भाषा का दर्शन किया था। यह सच्चाई भी है कि हिन्दी हमारे देश की राष्ट्रभाषाओं में से एक है, अधिकांश लोग उसे जानते समझते हैं और यहां तक कि सुदूर दक्षिण में भी, जहां द्रविड़ भाषाएं बोली जाती हैं, सैकड़ों वर्षो से वहां के लोगों के साथ उत्तर भारतीय यात्रियों एवं व्यापारियों का जो संपर्क होता आ रहा है, जिससे वहां की जनता हिन्दी को अच्छी तरह समझती है। अत: अन्य प्रदेशों के लोगों का हिन्दी के माध्यम से दक्षिण की जनता के साथ संपर्क स्थापित हो जाता है। इतना ही नहीं भारतीय भारत के किसी भी कोने में हिन्दी के द्वारा संपर्क स्थापित करके अपना व्यावहारिक-कार्य पूर्णकर सकता है। दूसरी ओर वर्तमान समय में दूरदर्शन ने हिन्दी-भाषा को भारत एवं विदेशों में पहुंचा दिया है जिससे कोई भारतीय हिन्दी से अपरिचित ही नहीं रहा है। इस प्रकार हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा राष्ट्रभाषा में संपर्क भाषा का किया गया दर्शन वर्तमान भारत में प्रस्तुत है। राष्ट्रपिता की राष्ट्रभाषा भारत के जन-जन के बीच संपर्क-सूत्र स्थापित करती होने के कारण अद्यावधि राष्ट्रपिता दर्शनिक के रूप में हमारे बीच विद्यमान हैं।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा में ही राजभाषा की संभावना देखते हुए कहा था - 'राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जो सरकारी कर्मचारियों के लिए सहज और सुगम हो।' आपकी इस विचारधारा के फलस्वरूप ही भारत स्वतंत्र होते ही डॉ. राजेन्द्रप्रसाद की अध्यक्षता में 14 सितम्बर, 1949 के दिन हिन्दी को भारतवर्ष की राजभाषा के रूप में स्वीकृत किया गया। भारतीय संविधान में राजभाषा हिन्दी के संबंध में धारा-343 (1) के अनुसार संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। तदुपरांत इसी धारा की उपधारा (2) के प्रावधानानुसार 26 जनवरी, 1965 तक संघ सरकार के कार्यो के लिए अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा। तथापि राष्ट्रपति किन्हीं सरकारी प्रयोजनों के लिए हिन्दी भाषा का भी प्रयोग प्राधिकृत कर सकते हैं। संविधान के इस प्रावधान से केन्द्रिय सरकार के संविधान-निर्माता किसी न किसी रूप में अंग्रेजी के पक्षधर रहे थे। जिसके परिणामस्वरूप केन्द्रिय सरकार के कार्यालयों में हिन्दी महत्त्वपूर्ण दस्तावेज की अनुवाद-भाषा मात्र रह चुकी है। वहां हिन्दी का स्थान मात्र नामपट्ट, मुहर, कक्ष के सूत्र हिन्दी दिन, सप्ताह, पखवाड़ा मनाने तक ही सीमित रह गया है। यहां तक कि केन्द्रिय-सेवा-आयोग की परीक्षाओं में प्रधानता अंग्रेजी की ही है। इन सबको देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्रभाषा में राजभाषा के राष्ट्रपिता के दर्शन शेष रह गये हैं जिस पर समूह चिंतन करने का यह सु-अवसर है।
उपयुक्त संपूर्ण आलेखन से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के मन में हिन्दी के तीनों रूप राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा और राजभाषा बिलकुल निश्चित थे। लेकिन उन्होंने राष्ट्रभाषा को जिस राष्ट्रीय गौरव, अखंडितता, सांस्कृतिक अस्मिता के नजरिये से देखा था वह भावना वर्तमान राष्ट्रीय जनजीवन में मृतप्राय हो चुकी है।
यह भी सच्चाई है कि राष्ट्रभाषा वर्तमान युग के केन्द्रिय सरकार के कार्यालयों की राजभाषा बनने में असफल रही है। सरकारी कर्मचारियों को भारतीयता के गौरव को पहचान कर कार्यालयों में राजभाषा का कार्यान्वय करने से ही राजभाषा को राजभाषा की गरिमा एवं ऊचाई प्राप्त हो सकती है और इससे ही राष्ट्रपिता की राष्ट्रभाषा से राजभाषा तक ही दार्शनिक-यात्रा सफल, साकार हो सकती है।


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