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Thursday, December 10, 2009

एक बेरहम राग भोपाली


झीलों, बंगलों, पुरानी हवेलियों और पहाड़ियों के शहर भोपाल में यों ही झील के पानी को छू कर ठंडी हवाएं चलती है और अब तो बाकायदा ठंड आ गई है। ऐसे में पांच सितारा होटलों को मात करने वाले बगैर सितारा होटल पलाश से भोपाल के गोविंदपुरा का सफर बहुत लंबा नहीं है। मगर इस सफर की आखिरी मंजिल पर नजारा एक दम बदल जाता है। आम तौर पर निम्न मध्यम वर्गीय घरो वाले इस इलाके में सड़के ऊबड़ खाबड़ हैं, राशन की दुकानों से ज्यादा क्लीनिक दिखाई पड़ते हैं, स्थानीय संस्थाओं से ज्यादा दुनिया भर से कमाई करने वाले एनजीओं हैं और इन सबके बीच जंग खाता हुआ एक प्लांट हैं जो पच्चीस साल पहले मौत का पर्यायवाची बन गया है। यह यूनियन कार्बाइड का वह संयंत्र है जिससे दो और तीन दिसंबर की रात जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस रिसी थी और देखते ही देखते भोपाल कब्रिस्तान बन गया था। पच्चीस साल यानी चौथाई शताब्दी। जो मर गए थे वे तो चले ही गए लेकिन इसके बाद रेडियोधर्मी विकिरण से आज तक प्रभावित इलाके में बच्चे विक्लांग या मानसिक रूप से बीमार पैदा हो रहे हैं। फैक्ट्री खंडहर बनती जा रही है, इसके स्टील के दरवाजे गिर रहे हैं, टैंकों पर और रसायन रखने वाले ड्रमों पर से पेंट की परत उतर रही है और मकड़ी के जाले जम रहे हैं मगर विश्व की इस सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के शिकार समाज को आज तक न्याय नहीं मिला। अभी हाल तक मध्य प्रदेश सरकार के अफसर इस फैक्ट्री को पर्यटन आकर्षण बनाना चाहते थे लेकिन बाद में उन्हें त्रासदी को बेचने का इरादा छोड़ना पड़ा। इन लोगों को न्याय नहीं मिला और इसके बावजूद न्याय नहीं मिला कि बाबू लाल गौर जैसे नेता को लगातार दस बार यह इलाका विधायक चुन चुका है, गौर कई बार मंत्री रह चुके हैं, एक बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं और फिलहाल गैस मंत्री है। फैक्ट्री को ताज महल बनाने के लिए तीस करोड़ रुपए खर्च भी हो चुके हैं। इसी इलाके में पच्चीस साल के जहर सिंह चौहान रहते हैं। उनका यह नाम डॉक्टरों ने रखा है और वह भी इसलिए कि वे उसी जहरीली रात को पैदा हुए थे। जवानी में बूढ़े दिखने वाले जहर सिंह को डॉक्टर भी बता चुके हैं कि वे हांफते और लगभग रेंगते हुए ज्यादा से ज्यादा पांच सात साल और जिएंगे। ऐसे हजारों और लोग है। भारत सरकार ने यूरेनियम कार्बाइड की मालिक कंपनी डो जांस हजारों करोड़ रुपए का मुआवजा भारत के खजाने में जमा कर चुकी है और सरकार बीस साल से उस पर ब्याज कमा रही है मगर मुआवजा देने का फॉर्मूला अभी तक नहीं बना। केंद्रीय कानून मंत्रालय का कहना है कि डो केमिकल्स ने भले ही यूनियन कार्बाइड और उसका संयंत्र 2001 में खरीदा हो, रासायनिक शुद्विकरण और मुआवजे की जिम्मेदारी उसकी बनती है। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में एक मामला पड़ा है जिस पर फैसला अभी तक नहीं हुआ। 2005 में भारत के रसायन और पेट्रो केमिकल मंत्रालय ने संयंत्र के एक टैंक मे मौजूद जहरीली गैस निकाल कर नष्ट करने के लिए सौ करोड़ रुपए की मांग की थी मगर उच्च न्यायालय का मामला बीच में आ गया। डो केमिकल्स का कहना है कि उसने यूनियन कार्बाइड की आर्थिक जिम्मेदारियां नहीं खरीदी हैं। फिर डो केमिकल्स ने खरीदा क्या है? एक जंग खाया हुआ संयंत्र और उसकी जमीन? डो केमिकल्स तीन सौ करोड़ रुपए पुणे में लगा कर विकास और शोध का काम शुरू कर चुका है और गुजरात के दहेज में एक पावर प्लांट पूरा करने वाला हैं।एक ऐसी कंपनी जिसे देश का अपराधी माना जा सकता है, अगर भारत में व्यापार करने के लिए आजाद है तो मनमोहन सिंह आर्थिक उदारीकरण नीति को एक तमाचा मारने का मन करता है। पचास लाख से ज्यादा लोग इस त्रासदी से प्रभावित हुए थे और उन्हें 23 हजार 7 सौ करोड़ रुपए प्रति व्यक्ति के हिसाब से मुआवजा मिलना था लेकिन ये मुआवजा आज तक नहीं मिल पाया। इसमें काफी हद तक कसूर खुद बाबू लाल गौर का है जो दो वार्डो के लोगों को मुआवजा दिलवाने के चक्कर में बाकी को भी नहीं मिलने दे रहे। गौर साहब को अपनी वोट बैंक की चिंता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने बाकायदा एक अलग प्रकोष्ठ बना कर इस मामले के निपटारे की युद्व स्तर पर पहल का ऐलान किया है लेकिन अकेले शिवराज सिंह की शुभकामनाओं से कोई फर्क नहीं पड़ेगा जब तक भोपाल गैस त्रासदी को एक राष्ट्र विरोधी अपराध की संज्ञा दे कर उसी हिसाब से काम नहीं किया जाए। जो लोग भोपाल के पाताल में अब भी जहरीले रसायनों की बात करते हैं उन्होंने इसका सबूत भी दिया हैं। उन्हाेंने टयूबेल से इसी इलाके से पानी निकाला और फिल्टर में साफ करने के बाद लंदन भेजा कि यह वह पानी है जो भोपाल वाले पीते है। आप भी पी कर देखिए। कहने कि जरूरत नहीं कि लंदन में इस पानी को स्वीकार करने वाला कोई नहीं मिला। बीच में इस संयंत्र को एवररेडी कपनी ने खरीद लिया था मगर जब इससे जुड़े खतरों का पता चला तो उन्होंने भी हाथ झाड़ लिए। भोपाल की उस जहरीली रात को अब पच्चीस साल पूरे हो गए हैं और कोई नहीं जानता कि कितनी पीढ़ियों तक न्याय का इंतजार करना पड़ेगा।
आलोक तोमर
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के सम्पादक हैं।

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