प्रभाष जी चले गए। सचिन और क्रिकेट के दीवाने से टीम इंडिया की ऐसी रुसवाई देखी नही गई। सचिन जब आउट होता है और इंडिया हार जाती है तो क्रिकेट प्रेमी अक्सर दर्शक दीर्घा या कमरा छोड़ जाते हैं। प्रभाष जी दुनिया ही छोड़ गए। अगर वो होते तो निश्चित तौर पर सचिन की इस बेमिसाल पारी को कई मिसालें और मिलतीं।
मृत्यु से कुछ घंटों पहले ही वे जनसत्ता लखनऊ की उसी कुर्सी पर बैठे थे जहाँ बैठकर मैंने इस संस्थान में पत्रकारिता के गुर सीखे थे। यहाँ के ब्यूरो चीफ अम्बरीश कुमार की तबियत नासाज़ थी तो उनका हाल जानने आए थे, जिद करके और जाते-जाते अभिभावक की तरह झिड़की भी दे गए थे "अपना ख्याल रखा करो" । इत्तेफाक से जब मैंने फ़ोन किया तो पत्रकारिता के बीते दौर की चर्चाएं चल ही रहीं थीं। मैंने न जाने कितने ही लोगों को बताया की आज जोशी जी लखनऊ में थे। कुछ ही वक्त बाद जब उनके जाने की ख़बर सुनी तो यकीं ही नही हुआ।
जनसत्ता ने हमेशा मुझे अपनी तरफ़ खीचा है। मित्र मंडली में जब मैं जनसत्ता जाने के सपने की बात करता था तो दोस्त यही कहते थे की वहां जाना बुढापे में पहले खूब काम कर लो वहां वानप्रस्थ होता है। मुझे जल्दी थी। प्रभाष जी के स्वप्न के साथ जुड़ने की उनके जीवनकाल में ही। अलोक तोमर साहब या अम्बरीश जी को जब प्रभाष जी के विषय में बात करते सुनता हूँ तो रश्क होता है। प्रभाष जी उस जनसत्ता परिवार के अभिभावक थे और मैं इस परिवार का हिस्सा बनना चाहता था। प्रभाष जी जल्दी चले गए या कहें मैंने ही देर कर दी। हो सकता है की कभी जनसत्ता पहुच जाऊं लेकिन उस आकर्षण और जूनून में एकाएक कमी आ गई है। क्यूंकि वो प्रभाष जी से ही था। जोशी जी के बिना जनसत्ता कैसा होगा इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।
जिस साल बैचके सब लोग हिन्दुस्तान, सहारा, अमर-उजाला और जागरण में इंटर्नशिप करने गए थे मैंने जनसत्ता लखनऊ को चुना था इसलिए ताकि जनसत्ता के अनुभव पर इतरा सकूँ, भले ही ये इन्टर्न के तौर पर ही क्यूँ न हो।
मेरा मिजाज़ भी जनसत्ता के ही करीब था, लखनऊ में जागरण और हिन्दुस्तान की रौनक के सामने भले ही ये उतना चमकीला न दीखता हो लेकिन इसका अलग रंग आपको ज़रूर नज़र आएगा। जैसे की मैं बैच में चमकीला नही था लेकिन कुछ अलग पहचान तो थी ही।
इन्टर्न के दौरान ही पहली बार प्रभाष जी से मिला था। ह्रदय नारायण दीक्षित की किताब के लोकार्पण कार्यक्रम में। हिंद स्वराज और यंगिस्तान पर अद्भुत बोले थे। उसके बाद विश्वविद्यालय में हमारी फेयरवेल पार्टी में आए थे और बोल गए थे की आप भारत के सबसे अच्छे पत्रकारिता संस्थान के हिस्से हैं।
सत्रह नवम्बर को जनसत्ता का जन्मदिन होता है। पत्रकारिता के विद्यार्थी तो प्रभाष जी के हमेशा कृतज्ञ रहेंगे की उन्होंने हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों को एकमात्र पढने लायक अखबार दिया। गज़ब अखबार। जो रिक्शे वाले और गाय की फोटो फ्रंट पेज पर लगाता है। अभी तक पूरी हेडिंग छापता है। उल्टे सीधे विज्ञापनों से दूर है। फिल्मी चर्चाओं में वक्त नही बरबाद करता। संस्कृति पत्रकारिता को अभी तक गंभीर विषय मानता है। साजिद रशीद और तरुण विजय को एकदम ऊपर नीचे छापता है.ये सब प्रभाष जी का दिया हुआ है। सम्पादक वही थे सही मायनों में। जब तक वो रहे मालिक नही चम्बल में डाकुओं का समर्पण और बढ़ी तनखा लेने से इनकार केवल वही कर सकते हैं। नियमों से समझौता नही किया। पत्रकारिता की पूरी एक खेप तैयार की। अलोक तोमर जनसत्ता से जाने के बाद भी उनके भक्त हैं। अम्बरीश जी को मिलने का वक्त नही दिया क्यूंकि मालिक की धौंस लेकर आए थे।
चौथे थाने का ये थानेदार अपने अन्तिम वक्त तक अपराधियों को शिकंजे में लेता रहा। कागद कारे जैसा वृहद् कालम उम्र की इस अवस्था में लिख पाना उन्ही के बस की बात थी। प्रभाष जी के भारत-ऑस्ट्रलिया मैच पर लिखने की उम्मीद थी जो अधूरी रह गई। इस दौर में मैंने पत्रकारिता का एक ही महापुरुष देखा और वो हैं प्रभाष जी। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने भी उनके निधन को खूब-खूब कवर किया। बहुत दिनों बाद उसकी भूमिका से खुशी हुई। प्रभाष जी आपकी सबसे ज्यादा कमी अगर किसी को खलेगी तो वो पत्रकारिता की तरुण पीढी है...
ek nam patrakarita ka jo sunte rahein hain... unka lekhan padhte rahein hain......bahut hi sahi bat kahi aapne. vakai unki kami tarun pidhi ko khalegi.
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