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Friday, March 11, 2011

वे खुद ही से जिम्मेदारी होने लगे हैं

महीनो बाद भोपाल आना हुआ, लगा जैसे अपने आंगन में कूद रहा हूं। लेकिन कुछ ही पलों में एहसास हो गया कि यह वह आंगन कतई नहीं, जहां बेझिझक हम घूमते, खिलंदड़ से खेलते रहते थे। अब यह एक बड़े प्रदेश की संपूर्ण वरीयता प्राप्त राजधानी बन गया है। इसमें कोई नई बात नहीं है कि भोपाल राजधानी है। लेकिन नई बात है, कि यहां पर सिविक सेंस जितना तेजी से विकसित हो रहा है, वह काबिले तारीफ है। इसके पीछे लॉ एन्फोर्समेंट की सियासी इच्छाशक्ति और पुलिसिया प्रयास दोनो ही तारीफ के घेरे में आते हैं। लेकिन वास्तव में यहां के नागरिकों को बधाई दी जानी चाहिए, कि वे अब अपने प्यारे शहर को अस्त व्यस्त ट्रैफिक से हांफता शहर, दंगों से कांपता शहर, नहीं बल्कि सिविक सोसाइटल फेसलुक वाला शहर बनाना चाहते हैं। कभी जहांगीराबाद से न्यूमार्केट के लिए पीएचक्यू से किसी भी मिनी बस को जरा सा हाथ देकर न्यूमार्केट जाने की आदत रही, लेकिन इस बार ऐसा कतई नहीं हुआ। क्या मिनी बस और क्या जवाहर शहरी नवीनीकरण राशि से तोहफे में मिली बड़ी भारी भरकम महानगरीय बसें। सबकी सब बस स्टॉप पर ही आ रही हैं, वहीं खड़ी होकर सवारी उतारती और बिठाती हैं। मजार से आगे पुलिस पेट्रोल पंप के सामने बने बस स्टॉप की छाया में सवारी विधानानुरूप बस का इंतजार करती दिखी। बड़ी लाल परपल सी बसें आई एक व्यवस्थित अंदाज में रुकीं, कंडक्टर ड्रायवर के मुंह पर मीठी भाषा थी, पहले की तरह बढ़ाबढ़ा... के साथ दरबाजे को पीटकर चलने का इशारा नहीं था। न ही किसी के मुंह में जर्दे की पीक ही भरी थी। एक द्वार सादर अंदर आने और एक बाहर निकलने का। और इतना ही नहीं यह दोनो ही गेट्स स्टॉप से पहले खुलते भी नहीं। हां लेकिन एक चीज देखी, नियम कायदे आम लोग तो फॉलो कर रहे थे। लेकिन पौं...पौं... करती किसी मंत्रीनुमा व्यक्ति की स्कॉर्पियो लाल बत्ती सब्र न कर सकी। खैर मुझे जरूर सब्र रहा कि भोपाल में अब सिविक सेंस के मायने बदल रहे हैं। इस बात से तीन बातें तो स्पष्ट हो ही जाती हैं, एक तो अगर अधोसंरचनागत विकास और जरूरी संसाधन हों तो आम नागरिकों से भी सुशिक्षित व्यवहार की अपेक्षा की जा सकती है, यानी सिविक सिविलिएंस। दूसरी अब आम लोग खासों के सुधरने का इंतजार करते हुए, एक दूसरे का मुंह नहीं ताकना चाहते, वे खुद ही से जिम्मेदारी होने लगे हैं। तीसरी बात जो साबित होती है, कि सियासी दखल से परे कड़ी नकेल के साथ पुलिस से भी अच्छा काम करवाया जा सकता है। हालांकि भोपाल वाले मामले में पुलिस से ज्यादा बधाई के पात्र यहां के आम नागरिक हैं। ऐसी ही कुछ अपेक्षाएं करता हूं, रायपुर में भी जल्दी स्वयं के प्रति ईमानदारी का भाव लोगों में पैदा होगा। दरअसल व्यवस्था के ठेकेदारों (आईएएस) को पहले ऐसे हालात बनाने होंगे, जब कहीं जाकर लोगों में सुव्यवस्थापन आएगा। वैसे भी ट्रैफिक के तीन सिधांतों इफ्रास्ट्रक्चर, एजुकेशन और एन्फोर्समेंट में सबसे पहला इफ्रास्ट्रक्चर ही तो है। लेकिन स्वघोषित शाही सामंत (आईएएस)

उल्टी शुरुआत करते हैं। रायपुर के लोग चूंकि सीधे हैं।

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