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Thursday, June 30, 2011

चवन्नी की रुखसती...


चवन्नी की विदाई का वक्त है पूरे मुल्क के साथ लखनऊ का दिल भी बुझा-बुझा सा है. क्योंकि ये वो अमीर शहर है जिसने हमेशा चवन्नी को भी सर आंखों पर उठाया है. सुबूत चाहिए तो आफताब लखनवी के कुछ अश्आर आपकी खिद्मत में पेश किए दे रहा हूं-

मै अगर छू लूं चवन्नी को अधन्ना हो जाए

‘वो’ अगर बांस को छू ले तो गन्ना हो जाए (वो=महबूबा)

***

मेरे वालिद अपना बचपन याद करके रो दिए

इतनी सस्ती थी कि विद नमकीन चार आने की पी

पूरी बोतल मेरा छोटा भाई तन्हा पी गया

मैने मजबूरी में लस्सी भर के पैमाने में पी

ये अलग बात है कि नए दौर के लखनऊ ने आफताब लखनवी को ज़मानों पहले भुला दिया और दस बीस बरस में चवन्नी भी उसके ज़हन से गैर हाजिर हो जाएगी. वो चवन्नी जो कभी लखनऊ की ज़बान और बयान के आगे आगे चलती थी. लखनऊ के मकबूल तहज़ीबी जुमलों में चवन्नी का अच्छा खासा दखल था.

अगर किन्ही हज़रत में मर्दानगी कम है तो उनके लिए कहा जाता था कि ‘अमां उनकी चवन्नी कम है’. अगर कोई मोहतरम अक्ल से पैदल हैं तो उनके लिए गढ़ा गया जुमला था कि ‘अमां फुलां साहब चवन्नी गिराए घूमते हैं.’ और अगर कोई कंजूस है तो उसके लिए- ‘अमां छोड़िए वो तो रूपए में पांच चवन्नी बनाते हैं.’ हालांकि तमाम लखनवी तहज़ीब के इन तमाम एजाजो-इकबाल के बावजूद चवन्नी के फेयरवेल के दिन जो मुहावरा मैने सबसे ज्यादा सुना वो‘चवन्नीछाप’ का था, जिसे सुनकर शायद चवन्नी भी दिल शिकस्ता (टूटे हुए दिल वाली) हो जाती होगी.

जहां तक मेरी जानकारी है ये मुहावरा 80 के दशक में कानपुर में उपजा और बाद में पूरे हिन्दोस्तान में बीमारी की तरह फैला. होता यूं था कि कानपुर से एक दौर में नौटंकी की पार्टियां पूरे देश में जाती थीं. इनमें उत्तेजक प्रसंग आने पर दर्शक मंच की तरफ चवन्नियां उछालते थे. बाद में ये चलन सिनेमा हाल तक जा पहुंचा. इन्ही लोगों को चवन्नी छाप कहा जाता था. मुहावरा पूरी तरह इंसानी मेयार बताने के लिए था लेकिन बाद में चवन्नी का मेयार भी इसी से तय होने लगा. दुनिया ये भूल गई कि इसी चवन्नी से बचपन अपने बेशुमार ख्वाब खरीद लेता था.

बहुत पुरानी बात नहीं है जब लखनऊ में चिच्चा(पन्नी की छोटी पतंग) और डग्गा(कागज की छोटी पतंगें जिनके पीछे छोटी सी पूंछ लगी होती है.)पतंगों की कीमत चवन्नी हुआ करती थी. दो चवन्नी मिलाकर मै और मेरा भाई सुपर कमांडो ध्रुव नागराज या डोगा की एक कामिक्स किराए पर लाते थे,जिसे पढ़ते पढ़ते ही मै निराला, मीर और तहलका तक पहुंचा. 25 पैसे में इनाम खोलने का एक कूपन मिलता था जिसमें कभी कभी घड़ी और मिथुन या धरमिंदर का बड़ा पोस्टर तक हाथ लग जाता था. शक्तिमान का स्टिकर भी चवन्नी में ही दस्तयाब था. मांएं अपने बच्चों को नज़र और हाय से बचाने के लिए चवन्नी की शरण में ही जाती थी. फिर बच्चे अपनी करधनी और गले से चवन्नी लटकाए घूमते थे. यही नहीं आंख दुखने पर मां जो देसी ट्यूब (जिसे आम जुबान में गल्ला कहते हैं,) बच्चे के लगाती थी वो भी चवन्नी का मिलता था. इसके साथ ही संतरे की वो सदाबहार टाफियां भी याद आती हैं जो मेरे पूरे बचपन भर ‘चवन्नी की दो वाली’ संज्ञा से ही नवाज़ी जाती रहीं. (अंग्रेजी में मजबूत कुछ बच्चे इन्हे आरेंज वाली टाफी भी कहते थे). इसी तरह कुछ टाफियों का नाम 'चवन्नी वाली' भी था. संतरे की फांक जैसा लैमनजूस या लैमनचूस (पता नहीं इसका सही नाम क्या होता है,) भी चवन्नी का ही मिल जाता था.

बचपने का रिजर्व बैंक यानि गुल्लक को तोड़कर अपनी अमीरी दिखाने के लिए जब सिक्कों की कुतुब मीनार बनाई जाती थी तो उसकी सबसे ऊपरी मंजिल भी चवन्नी से ही बनती थी. ये भी कहा जाता था कि चवन्नी को अगर कड़वे तेल में डुबो कर रेलगाड़ी के नीचे रख दो तो वो चुम्बक बन जाती है, कई दफा ये प्रयोग मैने भी सिटी स्टेशन और चारबाग की पटरियों पर आजमाया लेकिन सफल नहीं रहा. चवन्नी को उंगली की चोट से देर तक घुमाने की प्रतियोगिताएं भी खूब होती थी जिसमें इनाम वही चवन्नी होती थी. स्कूल के बाहर काला वाला तेज़ाब मिला हुआ चूरन भी चवन्नी में एक पुड़िया मिल जाता था जो कि जबान पर छाला निकालने के लिए काफी होता था. इसी तरह आइसक्रीम के ठेलों पर डिस्को नाम की एक आकर्षक चीज (पन्नी में भरा ठंडा रंगीन मीठा पेय) का दाम भी 25 पैसे था.

लेकिन फिर एक वक्त और भी आया जब इसी चवन्नी के दिन ऐसे बदले कि सफर पर जाते वक्त ढूढ ढूढ के चवन्नियां रखी जाने लगी. भिखारियों को देने के लिए. और भिखारी भी इन्हे, देने वालों को चवन्नीछाप कहके वापस कर देने लगे. बच्चों ने चवन्नी लेकर दुकान जाना

बंद कर दिया और अगर कोई बच्चा पहुंच गया भी तो दुकानदार ने बनियागिरी दिखाते हुए उसका दिल तोड़कर उसे ये कहते हुए लोटा दिया कि चवन्नी नही चलेगी. जबकि मुझे घर के पास वाला बनारसी आज भी याद है जिसने मुझे 25 पैसे की इमली की गोली एक बिस्सी यानी 20 पैसे में इस शर्त के साथ दी थी कि मै पंजी या 5 पैसे उसे बाद में दे दूंगा. हालांकि मै उन्हे कभी दे नहीं पाया और पता नहीं बनारसी दादा कहां चले गए. चवन्नी के बंद होने पर व्यवहारिक रूप से कोई क्षोभ जरूरी नहीं है. लेकिन फिर भी चूंकि ये घटना अतीत के खूबसूरत पन्ने दोबारा पलट गई है इसलिए माहौल का जज्बाती होना लाजिमी है. पहले बनारसी दादा गए, फिर बचपन गया और आज बचपन के खजाने का सबसे बड़ा सिक्का यानि चवन्नी भी रूखसत हो गई.



हिमांशु बाजपेयी
(CAVS
के छात्र रहे
लेखक युवा पत्रकार और कवि हैं. देखने में तो नहीं पर लिखने में बेहद खतरनाक और मारक हैं. हालांकि ज्यादा जाने जाते हैं, जज्बाती और इश्किया शायरी के लिए. पर मुझे लगता है कि
नौस्टेल्जिया आधारित लेख लिखने वाले सबसे अच्छे लेखकों में से हैं. लखनऊ में रहते हैं और लखनऊ शहर को लेकर बेहद जज्बाती बल्कि ओब्सेस्ड टाइप हैं. फिलहाल लखनऊ में ही तहलका हिंदी के संवाददाता हैं.)

1 comment:

  1. बेमिसाल लेख के लिए लेखक को शुक्रिया।यकीन मानिए इसे पढने के बाद मैंने चवन्नी देखने की बहुत कोशिश की। लेकिन नहीं दिखा।ना बनिए के गल्ले में, ना बब्लू के गुल्लक में।लेकिन हमारे गली के "ऐतिहासिक नुक्कड़ों "पर चवन्नी मौजूद रहेगी।चवन्नी नहीं रहेगी। लेकिन चवन्नी छाप रहेंगे।चवन्नी की महिमा जुबान पर रहेगी...आंखों में कैद रहेगा...राजनीति से लेकर अर्थनीति में चवन्नी का स्वर्णिम योगदान की चर्चा होती रहेगी।चवन्नी जुटा जुटाकर सिनेमा जाने का भगत सिंह का जुगाड़ भी बार बार याद आएगा।

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