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Sunday, June 29, 2008

डेमोक्रसी

गुज्जर उग्र आन्दोलन करके अपने मंसूबों में सफल हो गए । सरकार को डरा कर आरक्षण ले लिया । अब कोई अचम्भे की बात नही होगी अगर इस देश में ऐसे कई खूनी और वहशी आन्दोलन और हों । कभी आरक्षण पाने के लिए , कभी उस से मुक्ति पाने के लिए । क्यूंकि सरकार को झुकाने का हुनर यहाँ के फ़रज़न्दों को मालूम है । और फिर भारत में डेमोक्रसी भी तो है । जनता ही तो सब कुछ है यहाँ ..... लेफ्ट और कांग्रेस की नूरा कुश्ती में पहलवानों को अखाडे में उतारने वाली भी यही है ....और ठहाके लगाने वाली भी .......ये पब्लिक है। डेमोक्रसी की एक परिभाषा अब्राहम लिंकन ने दी थी । आपको मालूम होगी । एक अशोक चक्रधर जी की दी हुई है । उस पर नज़र डालें ..........

"जनता की , जनता के लिए , जनता द्वारा ऐसी-तैसी

इट इज काल्ड .........................................डेमोक्रसी "

Saturday, June 28, 2008

संघर्ष .......

पिछले कुछ माह से पहले एक प्रशिक्षु के तौर पर ( Intern ) के तौर पर और फिर संघर्ष प्रक्रिया की पूर्ति के लिए नॉएडा - गाजिआबाद - दिल्ली में हूँ ...... हालांकि अब संघर्ष पूर्णता की ओर है पर इस प्रक्रिया में जो कुछ अनुभव किया ......... वो शब्दों में कहना कठिन अवश्य है पर एक प्रयास किया है ! आशा है की वे सारे अग्रज जो इस दौर से गुज़र चुके हैं या वे साथी जो इस से गुज़र रहे हैं ...... इसे महसूस करेंगे ! अनुजो के लिए ये हमारा अनुभव है जो आगे काम आएगा क्यूंकि संघर्ष सफलता के लिए नही बल्कि उसे बनाये कैसे रखना है इसके सबक के लिए होता है !

संघर्ष
आजकल
आज और कल सुनते ही
समय कटता है
दिशान्तरों में चलते फिरते
आते जाते
युगान्तरों सा
दिन निपटता हैं

सुबह घर से रोज़
हर रोज़
निकल कर
लम्बी दूरियां
पैदल चल कर
सूरज की तेज़ किरणों से चुंधियाती
आंखों को मलता
कोने से एक आंसू टाप से
निकलता
तेज़ गर्मी में शरीर की
भाप का पसीना
थक कर हांफता सीना

सिकुडी हुई जेबों में
पर्स की लाश
और उस लाश के अंगो में
जीवन की तलाश
ख़ुद को हौसला देने को
बड़े लोगों की बड़ी बातें
पर सोने की कोशिश में
छोटी पड़ती रातें

वो कहते हैं
हौसला रखो बांधो हिम्मत
तुम होनहार हो
संवरेगी किस्मत
ये संघर्ष फल लाएगा
तू मुस्कुराएगा
बस थोड़ा
समय लेता है
अन्तर्यामी सबको
यथायोग्य देता है

मैं चल रहा हूँ
न तो उनके प्रेरणा वाक्य
मुझे संबल देते हैं
न ही उनके ताने अवसाद
उनके आशीर्वादों से मैं प्रफ्फुलित नहीं
न ही उनकी झिड़की हैं याद
मैं चल रहा हूँ
क्यूंकि मुझे चलना है

ये चाह नहीं उत्साह नहीं
शायद यह नियति है
की मुझे अभी चलना है

सुना है कि
पैरों के छालों के पानी से
जूते के तले के फटने से
जब
पैर के तलों का
धरातल से मेल होता है
तब कहीं जा कर
संघर्ष का यज्ञ पूर्ण होता है

वही होती है संघर्ष के
वाक्य की इति
प्रतीक्षा में हूँ
कब होती है संघर्ष की परिणिती

मयंक सक्सेना

Wednesday, June 18, 2008

खूब लड़ी मर्दानी ........

आज १८ जून है .... आप को इस दिन से कुछ याद आता है .......आज ही के दिन १८५८ में झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई वीरगति को प्राप्त हुई थीं । .............भूल गए थे न ! चलिए अब याद आ गया , एक बार आँखें बंद करके उस दृश्य की कल्पना कीजिये की एक तेईस साल की नारी , अपने दुधमुहे बच्चे को पीठ में बाँध कर , युद्ध-भूमि में लड़ाई लड़ती हुई कैसी लगती होगी ? मुझे भी आज के दिन ने कुछ भूला हुआ सा फिर याद दिला दिया ! छठी कक्षा में सुभद्रा कुमारी चौहान की एक कविता थी । बचपन में जिसे पढ़कर मेरे ही नही , मेरे साथ के और भी कई लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे । यकीनन आप के भी होते होंगे ..... आज वही कविता फिर प्रस्तुत कर रहा हूँ .......पढिये और बताइए आज क्या आज आप रोमांचित हुए ?


सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

Wednesday, June 11, 2008

संसद के बाहर एक दिन ..........


हिन्दी पत्रकारिता के सशक्त हस्ताक्षर हैं एन डी टीवी के रवीश कुमार। रवीश जी का ब्लॉग है कस्बा और उस पर छपी थी ये कविता जो आप के लिए लाना मुझे लगा ज़रूरी है, इससे पहले भी उन्ही की अनुमति से ताज़ा हवा पर उनका एक लेख प्रकाशित किया था ; ॥ काफ़ी सराहा गया था ....................आख़िर हम वो काम करने वाले हैं और वे वो काम कर रहे हैं ! मतलब पत्रकारिता .............. उम्मीद है की पसंद आएगी और हां रवीश जी का धन्यवाद ..... सो कस्बा और रवीश जी से साभार पेश है .....


कर्नाटक में बदलती सत्ता से बेख़बर
कैमरामैन के फेंकी हुए
चाय की प्याली में घुस कर
चुटरपुटर चाट रही थी गिलहरी
रिपोर्टर की बोरियत भरी बक बक को छोड़
बची हुई चाय की चुस्की में तर हो रही थी

कौआ बैठा रहा वहीं डाल पर बेख़ौफ़
स्टुडियों के सवालों का जवाब जान कर
कौए ने बंद कर दिया अपना कांव कांव
सदियों से सनातन रहा यह कागा अपना
जानता है यहां सांसद पत्रकार आते रहते हैं

आता तो माली भी है मेरठ से हर दिन
कम से कम पेड़ पौधों को हरा भरा कर जाता है
बाज भी निहत्था हो कर अपने पंजों से
फव्वारे की बची बूंदों में नहा रहा था
शिकार करने की आदत तब से छूट गई
जब से वह ख़ुद शिकार होने लगा

शहरों में कौआ, बाज और गिलहरी
इन तीनों को पता है
संसद में बारी बारी से आते सब को देखा जाना है
रिपोर्टरों की चीखती आवाज़ से बेसमझ ये तीनों
संसद के बाहर की दुनिया को आबाद कर रहे हैं
जहां जीवन है, उसका नियम है और धीरज है
सवालों जवाबों में उलझे पत्रकारों की तरह
बेचैन नौकरी में बोलने की चिंता ही बहुत है जिनमें

यही जान कर तीनों ने एक फ़ैसला कर रखा था
सत्ता तो कब से बदल रही है इस मुल्क में
इसी ल्युटियन की बड़ी बड़ी इमारतों के भीतर
कोई तेज़ रिपोर्टर इतना भी भला न जान पाया
हर साल हर चुनाव के बाद लगता है वही कैमरा
सवाल वही, जवाब वही, बहस और करने वाले वही

जब सब वही का वही है, नया कुछ भी नहीं है
तो क्यों न बाकी बची हुई चाय पी जाए
रिपोर्टरों को देख उड़ने से मना कर दिया जाए
और कैमरा ऑन हो तब भी वही पर नहाया जाए

रवीश कुमार
एन डी टीवी इंडिया

Monday, June 2, 2008

भृतहरी शतक का एक श्लोक .......

नूनं हि ते कविवरा विपरीत वाचोये नित्यमाहुरबला इति कामिनीनाम् ।
याभिर्विलालतर तारकदृष्टिपातैःशक्रायिऽपि विजितास्त्वबलाः कथं ताः

"जो कवि सुंदर स्त्री को अबला मानते हैं उनको तो विपरीत बुद्धि का माना जाना चाहिए। जिन स्त्रियों ने अपने तीक्ष्ण दृष्टि से देवताओं तक को परास्त कर दिया उनको अबला कैसे माना जा सकता है।"

गूगल बाबा का वरदान - हिन्दी टंकण औजार

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