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Saturday, December 4, 2010

राजदीप की बेचारगी....

मीडिया इंडस्ट्री में सबसे कमजोर, लाचार और निरीह कोई है,

तो वो हैं राजदीप सरदेसाई। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि सैलरी, शख्सीयत और शोहरत के लिहाज से जिस टेलीविजन पत्रकार को सबसे मजबूत माना जाता है, जिनकी लोगों के बीच इसी तरह की इमेज है, वो अपने को पिछले एक साल से सबसे मजबूर और लाचार बताता आ रहा है। मौका चाहे जगह-जगह मीडिया सेमिनार के नाम पर स्यापा करने और छाती कूटने का हो या फिर 2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में दिग्गज मीडियाकर्मियों के नाम आने पर मीडिया की साख मिट्टी में मिल जाने पर सफाई के मकड़जाल बुनने का, राजदीप सरदेसाई सीधे तौर पर मानते हैं कि अब एडिटर मजबूर है। यह भी कि मीडिया के भीतर जिस तरह के ऑनरशिप का मॉडल बना है, उसमें एडिटर बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं है।

मैं उनके श्रीमुख से मालिकों के आगे एडिटर के मजबूर हो जाने की बात पिछले छह महीने में चार बार सुन चुका हूं। उदयन शर्मा की

याद में पहली बार कंस्‍टीच्‍यूशन क्लब में सुना, तो एकबारगी तो उनकी इस ईमानदारी पर फिदा हो गया। लगा कि इस शख्स को इस बात का मलाल है कि जैसे-जैसे गाड़ी और फ्लैट की लंबाई बढ़ती जाती है, पत्रकार होने का कद छोटा होता जाता है। फिर दूसरी बार सुना तो लगा कि आजकल फैशन में इसे चालू मुहावरे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं कि अपनी ही पीठ पर आप ही कोड़े मारो ताकि लोग ईमानदारी पर लट्टू हो जाएं। लेकिन सवाल है कि इस स्वीकार के बाद राजदीप सरदेसाई या फिर उनके जैसा कोई भी पत्रकार सुधार की दिशा में क्या कर रहा है। जवाब है, कुछ भी नहीं। तो यकीन मानिए कि आज जब राडिया और मीडिया प्रकरण पर प्रेस क्लब में हुई एडिटर्स गिल्ड की बैठक की फुटेज में राजदीप सरदेसाई को बोलते हुए एक बार फिर सुना तो लगा कि बेहया हो जाना आज के जमाने की सबसे खूबसूरत और कारगार शैली है। इसी बीच जब IBN7 चैनल पर एक बार फिर आशुतोष के सवालों के जवाब देते उन्‍हें सुना तो लगा कि राजदीप सरदेसाई ने मीडिया पर गंभीरता से सोचना-समझना पूरी तरह बंद कर दिया है और इस बंद कर देने में अपने नाम के दम पर यकीन रखते हैं कि वो जैसे चाहें, मीडिया के प्रति लोगों की समझ को ड्राइव कर ले जाएंगे।

आप याद कीजिए, ये आज के वही मजबूर राजदीप सरदेसाई हैं, जिन्होंने नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर हुए टॉक शो में लगभग दहाड़ते हुए कहा था कि हमें सरकार से कोई लेना-देना नहीं है जिसका समर्थन कांग्रेस के मुखौटा पत्रकार और मौजूदा नयी दुनिया के संपादक आलोक मेहता ने यह कहकर दिया कि टेलीविजन का मतलब सिर्फ खबर और राजनीतिक खबर नहीं है। भला हो दूरदर्शन का कि अपने 50 साल को याद करते हुए जब “The Golden Trail, DD@50 :Special feature o Golden Jubilee of Doordarshan” नाम से आधे घंटे का फीचर बनाया, तो इस बातचीत को शामिल किया। राजदीप सरदेसाई ने निजी मीडिया की मार्केटिंग इसी तरह से की और निजी चैनलों को दूरदर्शन के विपक्ष के तौर पर खड़ा करने की कोशिश की। इसकी ताकत को इसी रूप में भुनाने की कोशिश की कि वो सरकार से पूरी तरह मुक्त है और दूरदर्शन से अलग सबसे मजबूत और स्वतंत्र माध्यम है। आज वही राजदीप सरदेसाई, जिन्हें कि सरकार से कुछ भी लेना-देना नहीं था, पूरी तरह आजाद थे, कॉरपोरेट की गोद में गिरते हैं और बनावटी तौर पर ही सही, बिलबिलाने और मजबूर होने का नाटक करते हैं। निष्कर्ष ये है कि न तब मीडिया आजाद और मुक्त था और न आज है। तब उसे सरकार ने अपना भोंपू बनाया और आज ये कॉरपोरेट का दुमछल्लो बना हुआ है।

राजदीप सरदेसाई बहुत ही खूबसूरती से ये बात मानते हैं कि 2G स्पेक्ट्रम घोटाला और नीरा राडिया के मामले में मीडिया के कुछ लोगों ने लक्ष्मण रेखा तोड़ी है। उन्होंने पत्रकार के तौर पर वो किया है, जो कि उन्हें नहीं करना चाहिए। लेकिन इसके आगे जो वो कहते हैं, वो वही एजेंडा है जो कि सबसे पहले 30 नवंबर को NDTV 24X7 का बरखा दत्त के जरिये अपना पक्ष रखने की बात के दौरान का एजेंडा था। राजदीप का कहना है कि हालांकि जो कुछ भी हुआ है, उसमें मीडिया पर उंगलियां उठ रही हैं लेकिन ये पूरे खेल का बहुत ही छोटा हिस्सा है। बड़ा हिस्सा है कि कैसे कॉरपोरेट चीजों को अपने तरीके से बदलना चाहता है। हम सब उसमें बंधे हैं। फिर वो मीडिया के खर्चे, स्‍पांसरशिप और मॉडल पर बात करते हैं, जिसका निष्कर्ष ये है कि हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। यहीं पर आकर एडिटर सबसे लाचार हो जाता है। आज चैनल के रिपोर्टर्स पर अगर प्रेशर है, तो वो इसलिए कि वो चाहकर भी मुस्तैदी से अपने तरीके से स्टैंड नहीं ले सकता। नहले पर दहला आज आशुतोष के भीतर पीपली लाइव के संवाददाता दीपक की आत्मा घुस आती है और ताल ठोंककर कहते हैं कि ये भी तो देखिए कि आज इसी मीडिया ने ए राजा और स्पेक्ट्रम घोटाला की बातें आप तक पहुंचाने का काम किया।

थोड़ी गंभीरता से विचार करें तो एक ही मीडिया हाउस का एक एडिटर कह रहा है कि वो कॉरपोरेट के आगे मजबूर है लेकिन उसी मीडिया हाउस के एक चैनल का मैनेजिंग एडिटर कह रहा है कि इस मजबूरी में भी वो तीर मार लेने का काम कर ले रहा, ये क्या कम है? राडिया और मीडिया को लेकर आज तक न्यूज चैनलों पर इसी तरह के कर्मकांड जारी हैं और शुरू में बरखा दत्त ने 30 नवंबर को जब अपनी बात हमसे साझा करने की कोशिश की तो लगा कि वो सचमुच हमारी गलतफहमियों को दूर करना चाहती है लेकिन अब एक के बा

द एक चैनल जिस तरह से तुम मेरी खुजाओ, मैं तुम्हारी खुजाऊं का काम कर रहे हैं, साफ लग रहा है कि एक नये किस्म की लाबिंग कर रहे हैं, जिसमें इरादा है कि सब झाड़कर खड़े हो जाओ और साबित कर दो कि या तो हमाम में सब नंगे हैं या फिर हम बेदाग हैं। आप बस अपने को बेदाग साबित करने की इस जुगलबंदी पर गौर कीजिए, आपको मीडिया बेशर्मी के इस नये अध्याय से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।

3 दिसंबर 2010 को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में 11 बजे एडिटर्स गिल्ड की आम पत्रकारों से राडिया और मीडिया को लेकर बातचीत हुई। विनोद मेहता ने कहा कि हमें अलग से एथिक्स की बात करने और नियम की चर्चा करने की क्या जरूरत है, सब कुछ साफ है कि एक पत्रकार को क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए। पीआरओ अगर अपने एजेंडे के साथ आ रहा है, तो हमें किस तरह से समझना है। प्रसार भारती बोर्ड की अध्यक्ष मृणाल पांडे जिन्होंने पिछले दिनों एफएम गोल्ड मामले में द हिंदू अखबार से कहा था कि फ्रीक्वेंसी बदले जाने की बात उन्हें किसी ने नहीं बतायी और ये बात उन्हें मीडिया के जरिये पता चली, उन्‍हीं मृणाल पांडे ने इस एडिटर्स गिल्ड और पत्रकारों की

बातचीत में कहा कि आज दरअसल अंग्रेजी मीडिया के एडिटर मालिक हो गये हैं और हिंदी मीडिया के मालिक एडिटर हो गये हैं।

इतने दिनों से चुप रहने के बाद जब NDTV 24X7 ने बरखा दत्त पर लगे आरोप को लेकर एडिटर्स के साथ शो कराया, तो फिर हेडलाइंस टुडे ने भी इसी तरह के शो कराये। उसके बाद तो समझिए कि इन दिनों चैनलों पर एक एक पैटर्न ही बन गया है कि मीडिया को लेकर स्पेशल स्टोरी की जाए। लिहाजा तीन दिसंबर की अधिकांश फुटेज और ओपन और आउटलुक पत्रिका की स्टिल फोटो का इस्तेमाल करते हुए आजतक ने प्राइम टाइम पर स्पेशल स्टोरी चलायी – “मीडिया की लक्ष्मण रेखा। चैनल ने इस स्टोरी के जरिये ये साबित करने की कोशिश की कि मीडिया को लेकर जो कुछ भी कहा जा रहा है, वो दरअसल कुछ लोगों के इसके एथिक्स के फॉलो नहीं किये जाने की वजह से हुआ है, नहीं तो मीडिया ने अपनी जिम्मेदारी बहुत ही ईमानदारी से निभायी है, चाहे वो 2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामला ही क्यों न हो।

इससे ठीक पहले IBN7 पर आशुतोष ने एजेंडा कार्यक्रम में मीडिया ट्रायल पर शो किया, जिसमें कि श्रवण गर्ग(समूह संपादक, दैनिक भास्कर), एनके सिंह (अध्‍यक्ष, एनबीए) और राजदीप सरदेसाई (अध्‍यक्ष, एडिटर्स गिल्‍ड / एडिटर इन चीफ, सीएनएन आईबीएन) को बहस के लिए शामिल किया। इस पूरी बातचीत में करीब 30 फीसदी आशुतोष बोले, 40 फीसदी राजदीप और बाकी तीस फीसदी में दोनों अतिथि पत्रकारों को निबटा दिया गया। आशुतोष के भीतर आज नब्बे के दशक के पत्रकारों की सिम लगी थी। लिहाजा जिस तरह के सवाल उन्‍होंने किये, वो सारे सवाल एक टेलीविजन ऑडिएंस के मन में स्वाभाविक तौर पर उठनेवाले सवाल हैं। आशुतोष ने राजदीप सरदेसाई से साफ तौर पर पूछा कि मीडिया किसी भी तरह का फैसला आने के पहले ही अपनी तरफ से फैसला नहीं दे देता है क्या, उसकी इमेज को, उसके करियर को पूरी तरह खत्म नहीं कर देता क्‍या? ए राजा के मामले में भी मीडिया ने खुद वही किया, तो फिर मीडिया अपने मामले में ऐसा होने पर क्यों परेशान है? इस पर राजदीप सरदेसाई ने कहा कि जब तक आरोप दाखिल नहीं हो जाते, मीडिया ऐसा नहीं करता। हम सुनते हुए साफ तौर पर महसूस कर रहे थे कि वो बचाव करने की मुद्रा में बात कर रहे हैं। कल ही हमने स्टार न्यूज पर सेक्स का सॉफ्टवेयरस्टोरी देखी, जिसमें चैनल ने मॉडल भैरवी के लड़की सप्लाय के धंधे में होने की बात की और कहा कि हालांकि बातचीत का टेप अभी सीबीआई के पास भेजा गया है कि ये उनकी और उसके पति विनीत कुमार की आवाज है या नहीं। लेकिन आधे घंटे की स्टोरी में चैनल ने कहा कि बिना किसी बिजनेस बैकग्राउंड के वो शेयर की कंपनी की सीईओ कैसे बन सकती है और लगभग साबित कर दिया कि भैरवी ने वही सब किया है, जिस बात के आरोप लगे हैं।

इसलिए राजदीप सरदेसाई हों या फिर कोई और ये बात दावे के साथ नहीं कह सकते कि चैनल जो कुछ भी दिखाते हैं, उनकी सत्यता की जांच पूरी तरह कर ली जाती है। आज वो ओपन और आउटलुक के मामले में मीडिया एथिक्स की बात कर रहे हैं। क्या कभी सिस्टर चैनल IBN 7 ने आये दिन ऑनएयर दिखाये जाने वाले स्टिंग ऑपरेशन में शामिल लोगों को बताया कि वो उनके साथ क्या करने जा रहे हैं? घंटों यूट्यूब से फुटेज काटकर स्टोरी चलानेवाले चैनल, जिसमें कि वर्ल्ड न्यूज के नाम पर भी चीजें शामिल होती हैं, कभी उस आवारा वीडियो की ऑथेंटिसिटी पर बात की?

श्रवण गर्ग ने साफ तौर पर कहा कि मीडिया इंडस्ट्री के भीतर बहुत सारे पत्रकार दलाली और लॉबिइंग के काम में लगे हैं, ये अलग बात है कि सबके सब वैसे नहीं है। मुझे आशुतोष के सवाल पर हंसी आयी कि वो पूछते हैं कि ऐसे कितने पत्रकार हैं? जैसे श्रवण गर्ग दलाल पत्रकारों की जनगणना में लगे हों। इतना होने पर भी श्रवण गर्ग को आज के मीडिया में उम्मीद दिखाई देती है। वे कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि सब कुछ पूरी तरह खत्म हो गया है। उनकी इस बात को मजबूती देते हुए एनके सिंह ने कहा कि अच्छे पत्रकार आज की पत्रकारिता को नयी दिशा दे सकते हैं, जिस पर कि आशुतोष ने संतोष जताते हुए कहा कि आज जबकि पिछले छह महीने में मीडिया ने बड़े-बड़े खुलासे किये लेकिन खुद संकट के दौर में आ गयालेकिन मानना होगा कि इसी मीडिया ने 2G स्पेक्ट्रम घोटाले का पर्दाफाश किया। बातचीत करण जौहर और यश चोपड़ा की हैप्पी एंडिंग सिनेमा की तरह खत्म हो जाती है।

2G स्पेक्ट्रम घोटाला और मीडिया को लेकर न्यूज चैनलों पर जितने भी शो चले, सबके सब इसी तरह कुछ कमेटी गठित करने, आदर्श बघारने और सेल्फ जजमेंट जैसे फफूंदी लगे शब्दों की रिपीटेशन के साथ खत्म हो जाते हैं। नतीजा कुछ भी निकलकर नहीं आता है। उल्टे ऑडिएंस को गहरी साजिश का एहसास होता है कि पूरे मामले को पूरी तरह सॉफ्ट किया जा रहा है। अब बताइए कि जो मीडिया किसी का नाम भर आ जाने से उसका पूरा जीवन, करियर, परिवार, सोशल लाइफ सबकुछ लील जाता है, श्रवण गर्ग जैसे दमदार माने जानेवाले पत्रकार कहते हैं कि तो क्या इन पत्रकारों को नौकरी छोड़ देनी चाहिए, करियर छोड़ देना चाहिए? अर्थात नहीं। गर्ग साहब! तो क्या इन पत्रकारों को थाने में अठन्नी जमाकर करके सिर्फ सॉरी बोल लेना चाहिए कि मैंने एरर ऑफ जजमेंट का काम किया है, आगे से नहीं करुंगा?

मैंने पहले भी कहा था और अब भी कहता हूं कि जिस नैतिकता की बात राजदीप सरदेसाई से लेकर एमजे अकबर, श्रवण गर्ग और बाकी के पत्रकार बघार रहे हैं, उस नैतिकता में जब तक वो पूरी तरह पाक-साफ करार नहीं दे दिये जाते, उन्हें कहानी-कविता-चुटकुले के बीच अपना समय बिताना चाहिए। किसी से सवाल करने का न तो उन्‍हें हक है और न ही किसी को उनका जवाब देने की अनिवार्यता। उन्हें समझना चाहिए कि उन्होंने सोशली अपना एक बहुत बड़ा अधिकार खो दिया है। इस तरह की नैतिकता की बात करके हमारे ये महान मीडियाकर्मी जिस तरह से पूरे मामले पर पर्दा डालने के लिए बेचैन हो रहे हैं, उसमें ये भी चिंता शामिल है कि अभी दो मामला दो-तीन पत्रकारों के नाम भर आने का है, आये दिन लाबिइंग और दलाली के बीच होनेवाली पत्रकारिता की शक्ल उघड़कर सामने आ जाएगी तो क्या होगा? हमें ये लोग जो मीडिया को कॉरपोरेट से अलग बता रहे हैं, आज मीडिया खुद कॉरपोरेट है। कॉरपोरेट का पक्ष लेते हुए वो एक तरह से अपना ही पक्ष ले रहे होते हैं। इस मामले में तीन दिसंबर 2010 को पी साईनाथ का दि हिंदू में लिखा लेख THE REPUBLIC ON A BANANA PEEL पढ़ा जाना चाहिए। कुल मिलाकर मेरी अपनी समझ है कि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जैसी गभग अब फर्जी हो चली बात को छोड़कर मीडिया एथिक्स के बजाय मीडिया बिजनेस एथिक्स की बात करनी चाहिए और हमें एक रीडर और ऑडिएंस के बजाय एक कनज्‍यूमर के तौर पर ईमानदारी से प्रोडक्ट मुहैया कराना चाहिए।

(विनीत कुमार - दिल्ली विश्वविद्यालय के मीडिया अध्ययन के शोधार्थी, टीवी और रेडियो की वर्तमान प्रवृत्ति पर सतत लेखन, मीडियाकर्मियों से मालिकों तक के बीच अपने धारदार ौर विश्लेषणपरक लेखन के लिए जाने और माने जाते हैं। एक उम्दा वक्ता और एक अच्छे श्रोता के साथ मित्र भी।)

2 comments:

  1. केवल दिखावा है और कुछ नहीं. इन पत्रकारों की जगह कोई और पेशेवर होता तो अब तक कितने खुलासे कर दिये होते...

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  2. ... आज वही राजदीप सरदेसाई, जिन्हें कि सरकार से कुछ भी लेना-देना नहीं था, पूरी तरह आजाद थे, कॉरपोरेट की गोद में गिरते हैं और बनावटी तौर पर ही सही, बिलबिलाने और मजबूर होने का नाटक करते हैं।...
    ...नैतिकता में जब तक वो पूरी तरह पाक-साफ करार नहीं दे दिये जाते, उन्हें कहानी-कविता-चुटकुले के बीच अपना समय बिताना चाहिए। किसी से सवाल करने का न तो उन्‍हें हक है और न ही किसी को उनका जवाब देने की अनिवार्यता।...
    ... ek prasanshaneey abhivyakti ... vaise yah kahanaa atishyoktipoorn nahee hogaa ki chauthaa stambh bhi lag-bhag pooree tarah bhrashtataa ki kagaar par khadaa hai ... !!!

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