(अभी एक दिन अचानक ऑरकुट खोला....जो वैसे कम ही देखता हूँ...तो हमेशा की तरह अपने एक युवा साथी जो फिलहाल भोपाल में हैं....को वहाँ पाया और इस बार भी हमेशा की तरह एक कविता के साथ...कविता भी हमेशा की तरह शानदार....कविता का विषय भी समयानुकूल था....चारो ओर पानी की कमी...गर्मी और प्राकृतिक असंतुलन को लेकर हाहाकार मचा है ...और ये कविता भी एक दम चोट करती हुई.....वो साथी हैं अंकुर विजयवर्गीय ...तो अंकुर की ओर से एक संदेश सबके नाम.....)
जहाँ से शुरू हुआ
जहाँ से शुरू हुआ
जंगल वहाँ खड़ा था
आदमी
जहाँ ख़त्म हुआ जंगल
वहाँ भी मौजूद पाया गया
आदमी
कहाँ रहें अब
शेर, हिरण, बाघ,
खरगोश बाज, कबूतर का
स्थान कहाँ
भय की सरसराहट
जो तैर रही है
वैज्ञानिकों के शीशे में
उसके हर बिंदु पर
खड़ा है आदमी
आदमी ही तय करेगा
अब
आदमी का होना
आदमी
होना
इस पृथ्वी पर जीवन का ।
(अंकुर सम्प्रति ज़ी न्यूज़ के छत्तीसगढ़ चैनल में भोपाल से संवाददाता के तौर पर कार्यरत हैं....)
गहरे अर्थ लिए बेहतरीन रचना. आपका आभार इसे यहाँ लाने का.
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