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Saturday, September 5, 2009

शिक्षक दिवस पर मुझे याद आता है

हम लोग उन दिनों मुंबई,गोवा और पूना के एजुकेशनल टूर पे जा रहे थे। संजीव गुप्ता जी के इनकार और अलोक चटर्जी पर बात न बनने के बाद टूर हमारे बाबा श्रीकांत सिंह सर के साथ जाने की बात तय हुई। श्रीकांत सर की छवि एक सख्त अनुशासक और एक परम्परानिष्ठ व्यक्ति की थी, इसलिए मुझे ही नही कईयों का मन शंकाग्रस्त था की कहीं एजुकेशनल टूर जिसमे की डिपार्टमेंट के ३५ क्षात्र पूर्ण रूपेण मस्ती के लिए जा रहे हैं और वो भी गोवा पूना और मुंबई जैसे शहर वहां श्रीकांत सर का सख्त रवैय्या कहीं अवरोध तो नही बनेगा। या कहीं क्षात्रों द्वारा उनके प्रतिवाद की स्थति तो नही बनेगी । लेकिन टूर के दस दिन मंज़र बिल्कुल अलग था। श्रीकांत सर के साथ होने के कारण जब रेल में हम सब केवल पढ़ाई और औपचारिक बातें कर रहे थे तो उन्होंने लगभग डांटने के अंदाज़ में सौरभ मिश्र से कहा की अरे यहाँ भी पढ़ाई लिखाई लाद लाये। कुछ गाना वाना गाओ पंडित जी। वो एक आश्चर्यजनक खुशी थी। उसके बाद तो गाने का दौर रेलों,ठेलो,बसों, जहाजो सब जगह चला। टूर ओपरटर आलोक को भी सर ने एक दम स्टुडेंट बना दिया। उसकी हर बात पे पड़ती डाट पर हम बड़े खुश होते थे। वो भी ओपेरटर न लग कर कोई क्षत्र ही लग रहा था। हर बात पूछ-२ कर। कितनी ही बार श्रीकांत सर ने बजट से बाहर होकर हमें मन का खाना खिलाया। हम्मे से जो साथी जैसे अंकुर, सौरभ और गुलशन बाहर नही खाते थे उनके लिए लग से इंतजाम। और जब मुंबई में कमरों की व्यवस्था ठीक नही थी तो होटल वाले और ओपरटर दोनों से लड़ाई और चढाई । यहाँ पर उन्हें बिल की दिक्कत के चलते आर्थिक नुक्सान भी हुआ जो उन्होंने किसी को नही बाताया। मुंबई में वो जिस तरह से एक एक कमरे में जाकर सब्जी, रोटी, चम्मच, चद्दर के बारे में पूछरहे थे मैं चमत्कृत था। खाना वाना निपटने के बाद मैं अपने दूरस्थ कमरों वाले अपने साथियों जैसे सौरभ जैन , अंकुर, आदि से मिलने जा रहा था तो उसी कोरिडोर में एक कमरे में श्रीकांत सर और शचीन्द्र भैय्या भी थे। सर का मुझे बुलाने का अंदाज़ देखिये- "अरे पंडित जी थोडी घास हमको भी दाल दीजिये" ये एक व्यंग्य था क्यूंकि सर को लगा और ठीक ही लगा की मैं लड़कियों से बतियाने जा रहा हूँ। उसके बाद मैं सुबह तक सर के साथ उसी कमरे में था और तमाम बातें हुई। जैसे मैंने कई लेक्चर इकट्ठे कर लिए हों। सर ने एक और व्यंग्य किया था की मुझसे शास्त्रार्थ करो ! और उसके बाद तुलसी दास और बच्चन पर जो विमर्श हुआ वो एक समय शास्त्रार्थ ही था। सर ने सभी के बारे में व्यक्तिगत मत बताया और कहा की जितने खुश मान बाप होते हैं बच्चों की उन्नति पर उससे ज्यादा टीचर होते हैं। जब मैंने उनके सिद्धांतवादी होने पर लगभग प्रश्न उठा दिया तो उन्होंने स्वयं मुझसे कहा की कोई भी सिध्धांत मानव से बड़ा नही है और धर्मशास्त्र में आपद धरम की अवधारणा बताई। इसके बाद उन्होंने मुझसे मेरे साथियों के बारे में राय पूछी और ये सिलसिला उनके मुह से एक पंक्ति निकलने के बाद ही थमा-

मत सराहिये मत सराहिये निन्दना पड़ेगा
मत निंदिये मत निंदिये सराहना पड़ेगा

श्रीकांत सर शिक्षक दिवस पर आपको नमन

5 comments:

  1. श्रीकांत सर को लेकर मेरे भी कई व्यक्तिगत अनुभव हैं.....दफ्तर से वक्त नहीं मिलता सो लिख नहीं पाया...साझा करुंगा....आज फोन पर उनसे बात भी हुई...गला भर आया....

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  2. बेहतर प्रविष्टि । आभार ।
    शिक्षक दिवस की शुभकामनायें ।

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  3. मैंनें आपकी यादें पढ़ी...दरअसल ये हमारे सब की सुनहरी यादों का एक झरोखा है...आपको याद होना चाहिए किस तरह सर के डाटने पर मैं और प्रशांत भी साथ हो लिए थे....खैंर जिंदगी कुछ ऐसी होती जा रही है कि आप जैसे लोगों द्वारा इन सब यादों को ताज़ा कर दिए जाने से अब मन बड़ा व्यथित होता है...काश हम सब फिर से उन पलों को जी सकते ...और हां अपने इन यादों में अपने सर को सचिंदानंद जी द्वारा लाई गई दवा का जिक्र नहीं किया अरे उसके बिना पूरे टूर की व्याख्या अधूरी मालूम पड़ रही है....यार मैं यह वाक्यांश लिखते हुए बड़ा लोट पोट हूं और बगल वाले कह रहे हैं भाई हुआ क्या...

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  4. himanshu aur arvind ki yaadein us daur mein vapas le jaate hain....

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  5. sach vajpeyiji aap great hai...nahi to kaun in yadon koyad rakhta hai...vaise apne tour ki anniversery kareeb hai aap se ek aur jhakkas lekh ki darkar hai...vaise university aur uni. ke teachers ki yaadein shayad hamen jeevanbhar tang karne vali hai...jab hum tanha honge uni. ki, aapki, hum sabki yaadein sath hongi...

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