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Wednesday, September 23, 2009

यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे....


यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे
शाम के धुंधलके में डराते से
सुबह हवा से लहराते से
धूप में छांव देने के मकसद से
पीपल से, कीकर से
बरगद से
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे

सूरज की रोशनी से चमकते
चांदनी में चांदी से दमकते
तूफानों से झगड़ते
आंधियों में अकड़ते
इंसानों को बेहद प्यार करने वाले
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे

उन डालियों पर
हम झूला करते थे
बैठते, कूदते थे
उन पर
कई बार खाईं थी
निबोंलियां भी तोड़ कर
बड़े घनेरे, शाम सवेरे
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे

बारिश की बूंदे पत्तों पर ठहर कर
काफी देर तक
देती थीं
बारिश का अहसास
तब शायद दुनियावी समझ
नहीं थी अपने पास
अब जब अपने पास दुनिया है
दुनिया की समझ है
दुनिया की दौलत है
दुनिया की ताकत है
तब अपने पास धूप नहीं है
छांव नहीं है
पगडंडी और गांव नहीं है
आंधी और बरसात नहीं है
छत पे सोती रात नहीं है
खेत किनारे मेड़ नहीं है
कुछ भी नहीं है
पेड़ नहीं है....
सड़क किनारे
धूप से तपता
छांव को तकता
सोच रहा हूं
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे......

(कल संयुक्त राष्ट्र में विकसित देशों ने एक बार फिर जलवायु परिवर्तन पर ढोंग किया है....और कल ही जब तेज़ धूप से बचने के लिए कोई पेड़ न दिखा....केवल हॉर्न का शोर और गाड़ियों का धुआं था....तो ये कविता निकली.....अब भी याद है लखनऊ में जेल के पीछे का वो जंगल....जो एक सनकी मुख्यमंत्री की तुगलकी मूर्ति कला की भेंट चढ़ गया.....)
मयंक सक्सेना

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