देवापगा की
इस सतत प्रवाहमयी
प्रबल धारा के साथ
बह रहे हैं
पुष्प
बह रहे हैं
चमक बिखेरते दीप
स्नान कर
पापों से निवृत्त होने का
भ्रम पालते लोग
अगले घाट पर
उसी धारा में
बह रहे हैं
शव
प्रवाहित हैं अस्थियां
तट पर उठ रही हैं
चिताओं से ज्वाला
दोनों घाटों के बीच
रात के तीसरे पहर
मैं
बैठा हूं
सोचता हूं
क्या है आखिर
मार्ग निर्वाण का?
पहले घाट पर
जीवन के उत्सव में...
दूसरे घाट पर
मृत्यु के नीरव में....?
या फिर
इन दोनों के बीच
कहीं
जहां मैं बैठा हूं.....
आपकी यह रचना बहुत अच्छी लगी ..गहराई और गहन चिंतन लिए हुए !!
ReplyDeleteआभार
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
यही विचार कितने दिमागों को मथता है..सुन्दर शब्दों में बांधा है भावों को.
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